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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1647
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    35

    त्वां꣡ विष्णु꣢꣯र्बृ꣣ह꣡न्क्षयो꣢꣯ मि꣣त्रो꣡ गृ꣢णाति꣣ व꣡रु꣢णः । त्वा꣡ꣳ शर्धो꣢꣯ मद꣣त्य꣢नु꣣ मा꣡रु꣢तम् ॥१६४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वा꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । बृ꣡ह꣢न् । क्ष꣡यः꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । गृ꣣णाति । व꣡रु꣢꣯णः । त्वाम् । श꣡र्धः꣢꣯ । म꣣दति । अ꣡नु꣢꣯ । मा꣡रु꣢꣯तम् ॥१६४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां विष्णुर्बृहन्क्षयो मित्रो गृणाति वरुणः । त्वाꣳ शर्धो मदत्यनु मारुतम् ॥१६४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । विष्णुः । बृहन् । क्षयः । मित्रः । मि । त्रः । गृणाति । वरुणः । त्वाम् । शर्धः । मदति । अनु । मारुतम् ॥१६४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1647
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! हे परम सम्राट् जगदीश ! (त्वाम्) आप महाबली की (विष्णुः) किरणों से व्याप्त सूर्य (बृहन् क्षयः) विस्तीर्ण अन्तरिक्षरूप घर, (मित्रः) वायु और (वरुणः) अग्नि(गृणाति) स्तुति कर रहे हैं। (मारुतं शर्धः) मानसून पवनों की सेना भी (त्वाम् अनु) आपकी ही अनुकूलता होने पर(मदति) हर्ष को प्राप्त करती है ॥३॥

    भावार्थ

    संसार में जो कोई भी पदार्थ अपना-अपना कार्य करते हैं, वे सभी परमेश्वर से ही शक्ति पाते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जीवात्मा और परमात्मा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ सत्रहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (त्वाम्) हे इन्द्र—ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तुझे (बृहन् क्षयः-विष्णुः) महान् निवास हेतु व्यापक आकाश जो सब को अपने अन्दर स्थान देता है (मित्रः) अग्नि७ (वरुणः)८ समुद्र (गृणाति) स्तुति करता है—तेरा गुण गाता है (त्वाम्) तुझे (मारुतं शर्द्धः) मरुतो ‘वातस्तरों’—प्रत्येक लोक के वायुस्तरों का बल९ (अनुमदति) अनुरूप अर्चित करता है१०॥३॥

    विशेष

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    विषय

    सूर्य, अन्तरिक्ष, दिन-रात तथा वायु

    पदार्थ

    गोषूक्ति ही कह रहा है कि- (त्वाम्) = आपको (विष्णुः) = यह आदित्य [श० १४.१.१.६] (बृहन् क्षयः) = विशाल निवासस्थानभूत यह अन्तरिक्ष (मित्रः वरुणः) = दिन तथा रात [अह वै मित्र: रात्रिर्वरुणः ऐ० ४.१०] अथवा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष [य एव आपूर्यते स वरुणः, योऽपक्षीयते स मित्रः— श० २.४.४.१८] (गृणाति) = गा रहे हैं, ये सबके सब आपका ही उपदेश दे रहे हैं, (मारुतं शर्धः) = वायु सम्बन्धी बल भी (त्वाम् अनु) = आपकी शक्ति से ही शक्तिसम्पन्न होकर (मदति) = आनन्द को प्राप्त करा रहा है।‘वायु का प्रवाह' जीवन देता हुआ किस प्रकार आनन्दित करता है यह तो अनुभव का ही विषय है। उस आनन्द को नुभव करनेवाला व्यक्ति वायु में इस शक्ति को रखनेवाले प्रभु के प्रति नतमस्तक क्यों न होगा ?

    भावार्थ

    सूर्य, अन्तरिक्ष, दिन-रात व वायु सभी प्रभु का स्मरण कराते हैं।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे परमेश्वर (बृहन्) बड़ा भारी (क्षयः) निवास स्थान (विष्णुः) सर्वव्यापक आकाश या पृथिवी (मित्रः) स्नेहवान् जल (वरुणः) वरण करने योग्य अग्नि आदि ये सब दिव्य पदार्थ (त्वां गृणाति) तेरी स्तुति करते हैं। (मारुतं) वायु का (शर्धः) बल, वेग (त्वां) तेरे ही (अनुमदति) अनुकूल रहकर हर्ष को प्राप्त होता है, नाना प्रकार से नृत्य करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः स एव विषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे परमसम्राट् जगदीश ! (त्वाम्) महाबलम् (विष्णुः) रश्मिभिर्व्यापनशीलः सूर्यः (बृहन् क्षयः) विस्तीर्णम् अन्तरिक्षरूपं गृहम्, (मित्रः) वायुः। [अयं वै वायुर्मित्रो योऽयं पवते। श० ६।५।७।१४।] (वरुणः) अग्निश्च [यो वै वरुणः सोऽग्निः। श० ५।२।४।१३।] (गृणाति) स्तौति। (मारुतं शर्धः) मरुतां वृष्टिपवनानां सैन्यमपि (त्वाम् अनु) तवैवानुकूल्येन(मदति) हृष्यति ॥३॥

    भावार्थः

    जगति ये केऽपि पदार्थाः स्वं स्वं कार्यं कुर्वन्ति ते सर्वेऽपि परमेश्वरादेव शक्तिं लभन्ते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मनः परमात्मनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, the atmosphere, the mighty place of residence, water and fire extol Thee. In Thee air’s force feels great delight!

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    Meaning

    Vishnu, cosmic dynamics of natures expansive sustenance, Mitra, loving and life giving sun, Varuna, soothing and energising oceans of the universe, and the power and force of the showers of cosmic energy all exalt you and receive their life and exaltation from you. (Rg. 8-15-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (त्वाम्) હે ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તને (बृहन् क्षयः विष्णुः) મહાન નિવાસ માટે વ્યાપક આકાશ જે સર્વને પોતાની અંદર સ્થાન આપે છે. (मित्रः) અગ્નિ (वरुणः) સમુદ્ર (गृणाति) સ્તુતિ કરે છે. તારા ગુણોનું ગાન કરે છે. (त्वाम्) તને (मारुतं शर्द्धः) મરુતો-‘વાયુના સ્તરો’ પ્રત્યેક લોકમાં વાયુના સ્તરોનું બળ (अनुमदति) અનુરૂપ અર્ચિત કરે છે. [તને જ અનુમોદન કરે છે.] (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगात जे पदार्थ आपापले कार्य करतात, ते सर्व परमेश्वराकडून शक्ती प्राप्त करतात. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडास जीवात्मा व परमात्म्याच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे.

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