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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1652
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
29
वि꣡ चि꣢द्वृ꣣त्र꣢स्य꣣ दो꣡ध꣢तः꣣ शि꣡रो꣢ बिभेद वृ꣣ष्णि꣡ना꣢ । व꣡ज्रे꣢ण श꣣त꣡प꣢र्वणा ॥१६५२॥
स्वर सहित पद पाठवि꣢ । चि꣣त् । वृत्र꣡स्य꣢ । दो꣡ध꣢꣯तः । शि꣡रः꣢꣯ । बि꣣भेद । वृष्णि꣡ना꣢ । व꣡ज्रे꣢꣯ण । श꣣त꣡प꣢र्वणा । श꣣त꣢ । प꣣र्वणा ॥१६५२॥
स्वर रहित मन्त्र
वि चिद्वृत्रस्य दोधतः शिरो बिभेद वृष्णिना । वज्रेण शतपर्वणा ॥१६५२॥
स्वर रहित पद पाठ
वि । चित् । वृत्रस्य । दोधतः । शिरः । बिभेद । वृष्णिना । वज्रेण । शतपर्वणा । शत । पर्वणा ॥१६५२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1652
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में राजा वा सेनापति के दृष्टान्त से परमात्मा के वीर कर्म का वर्णन है।
पदार्थ
जैसे (वृष्णिना) गोली बरसानेवाली बन्दूक से अथवा (शतपर्वणा) सौ कीलोंवाली (वज्रेण) गदा से, इन्द्र अर्थात् शूरवीर राजा वा सेनापति (दोधतः) सज्जनों को कँपानेवाले (वृत्रस्य) दुष्ट शत्रु का(शिरः) सिर (वि बिभेद) तोड़ देता है, वैसे ही (वृष्णिना) सुखवर्षक, (शतपर्वणा) बहुतों का पालन करनेवाले (वज्रेण) दण्डसामर्थ्य से इन्द्र अर्थात् वीर परमेश्वर (दोधतः) कँपानेवाले(वृत्रस्य) पाप के (शिरः) सिर को अर्थात् प्रभाव को (वि बिभेद चित्) नष्ट-भ्रष्ट कर देता है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा की उपासना से सब विघ्न और सब पाप वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे राजा या सेनापति के शस्त्रास्त्रों से सब शत्रु ॥२॥
पदार्थ
(दोधतः-वृत्रस्य) आत्मा के कम्पाते आवरक पाप बन्धन के१ (शिरः-चित्) शिरोरूप राजा को भी (वृष्णिना-‘वृष्णिः’) सुखवर्षक२ इन्द्र—परमात्मा (शतपर्वणा वज्रेण वि विभेद) बहुत पर्व—पालन साधन ओज३ आत्मीय बल के द्वारा कष्ट देता है॥२॥
विशेष
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विषय
क्रुद्ध काम का कण्ठ कर्तन
पदार्थ
गत मन्त्र के अनुसार वत्स ऋषि ज्ञान की ओर प्रवृत्तिवाला होकर प्रभु का प्रिय तो बनता ही है यह ज्ञानी बनकर आजीवन क्रियाशील बना रहता है । यह सौ-के-सौ वर्ष क्रियाशील बने रहना ही इसका ‘शतपर्व वज्र' है, जो इसके जीवन को अत्यन्त सुखी बनाता है, यह ‘वृष्णि' है— सुख का सेचक है ।
इस (शतपर्वणा वृष्णिना वज्रेण) = शतपर्ववाले, जीवन को सुखी बनानेवाले वज्र से – क्रियामय जीवन से यह वत्स (दोधतः वृत्रस्य) - क्रुद्ध होते हुए वृत्र के, अर्थात् उग्ररूप धारण करते हुए काम के (शिरः) = सिर को (विचित्) = विशेषरूप से (बिभेद) = विदीर्ण कर देता है । क्रियामय जीवन का परिणाम वासना का विनाश है। आलसी को ही वासना सताती है, पुरुषार्थी को नहीं । ('कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः') = कर्म करते हुए ही १०० वर्ष जीने की कामना करनी चाहिए ।
भावार्थ
हम ज्ञान प्राप्त करें और कर्मशील बनकर अपने को वासनाओं के आक्रमण से बचाएँ।
विषय
missing
भावार्थ
(दोधतः) समस्त जगत् को कंपाने हारे (वृत्रस्य) आवरक अज्ञान या विघ्न के (शिरः) शिरोभाग, मूल, जड़ को परमेश्वर अपने (शत पर्वणा) सैंकड़ों पोरुओं=पालक शक्तियों के बने (वृष्णिना) सुखों के वर्षक (वज्रेण) वज्ररूप ज्ञान से (बिभेद) तोड़ डालता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ नृपतेः सेनापतेर्वा दृष्टान्तेन परमात्मनो वीरकर्मोच्यते।
पदार्थः
(वृष्णिना) गोलिकावर्षकेण भुशुण्ड्यायुधेन, (शतपर्वणा)शतकीलकेन (वज्रेण) गदाऽऽयुधेन च यथा इन्द्रः शूरो राजा सेनापतिर्वा (दोधतः) सज्जनान् कम्पयतः (वृत्रस्य) दुष्टशत्रोः (शिरः) मूर्धानम् (वि बिभेद) चित् विभिनत्ति खलु, तथैव (वृष्णिना) सुखवर्षकेण (शतपर्वणा) बहुपालनकर्त्रा(वज्रेण) दण्डसामर्थ्येन (इद्रः) वीरः परमेश्वरः (दोधतः) कम्पयतः (वृत्रस्य) पापस्य (शिरः) शिर उपलक्षितं प्रभावम्(वि बिभेद चित्) विभिनत्ति एव ॥२॥
भावार्थः
परमात्मोपासनया सर्वे विघ्नाः सर्वाणि पापानि च तथैव नश्यन्ति यथा राज्ञः सेनापतेर्वा शस्त्रास्त्रैः सर्वे शत्रवः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
God, with His hundredfold powers, and His thunderbolt of knowledge, the Showerer of joys, cuts ignorance from its very root.
Meaning
And when the lord of might and munificence with his thunderbolt of showers and a hundred potentials shatters the head of Vrtra, terror striking demon of darkness, drought and despair, the bolt is nothing but the blazing omnipotence of the lord. (Rg. 8-6-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दोधतः वृत्रस्य) આત્માને કંપાવનાર આવરક પાપ બંધનના (शिरः चित्) શિરરૂપ રાજાને પણ (वृष्णिना "वृष्णिः") સુખવર્ષક ઇન્દ્ર-પરમાત્મા (शतपर्वणा वज्रेण वि विभेद) બહુજ પર્વ-પાલન સાધન ઓજ આત્મીય બળના દ્વારા કષ્ટ આપે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या उपासनेने सर्व विघ्ने व सर्व पाप नष्ट होतात, जसे राजा किंवा सेनापतीच्या शस्त्रास्त्राने सर्व शत्रू नष्ट होतात. ॥२॥
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