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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1667
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    49

    न꣢ घा꣣ व꣢सु꣣र्नि꣡ य꣢मते दा꣣नं꣡ वाज꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢तः । य꣢त्सी꣣मु꣢प꣣श्र꣢व꣣द्गि꣡रः꣢ ॥१६६७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न꣢ । घ꣣ । व꣡सुः꣢ । नि । य꣣मते । दान꣢म् । वा꣡ज꣢꣯स्य । गो꣡म꣢꣯तः । यत् । सी꣣म् । उ꣡प꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯त् । गि꣡रः꣢꣯ ॥१६६७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घा वसुर्नि यमते दानं वाजस्य गोमतः । यत्सीमुपश्रवद्गिरः ॥१६६७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न । घ । वसुः । नि । यमते । दानम् । वाजस्य । गोमतः । यत् । सीम् । उप । श्रवत् । गिरः ॥१६६७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1667
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के दान का वर्णन है।

    पदार्थ

    (वसुः) बसानेवाला इन्द्र परमेश्वर (गोमतः) अध्यात्म-प्रकाश से युक्त (वाजस्य) बल के (दानम्) दान को (न घ) कभी नहीं (नि यमते) रोकता है, (यत् सीम्) जब कि वह (गिरः) श्रद्धा से भरी हुई स्तुति-वाणियों को (उप श्रवत्) सुन लेता है ॥२॥

    भावार्थ

    श्रद्धालुओं के श्रद्धा से सिंचे हुए, प्रेम से भरे स्तोत्रों से द्रवित होकर जगदीश्वर नये-नये आध्यात्मिक ऐश्वर्य के उपहार स्तोता की भेंट करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (वसुः) वसानेवाला परमात्मा (यत्) जबकि (सीं गिरः-उपश्रवत्) सर्वतः—प्रार्थना वचनों को पास से सुनता है, और (गोमतः वाजस्य दानम्) वाक्ज्ञान से युक्त आध्यात्मिक अन्न दान को (न घ नियमते) न कभी नियमित करे—रोके किन्तु देता ही चला जावे। अतः वह स्तुतियोग्य है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    शान्ति व ज्ञान का असीम दान

    पदार्थ

    ‘वासयति–वसति वासयति वा इति वसुः' - सबको अपने अन्दर निवास देने के कारण तथा सबमें निवास करने के कारण वे प्रभु 'वसु' हैं । ये (वसुः) = सबको बसानेवाले प्रभु (घ) = निश्चय से (गोमतः) = वेदवाणियोंवाले, अर्थात् ज्ञान से युक्त (वाजाय) = शक्ति के (दानम्) = दान को (नियमते) = सीमित (न) = नहीं करते, अ असीम ज्ञान व शक्ति देते हैं, परन्तु कब ? (यत्) = जब (सीम्) = निश्चय से जीव (गिर:) = प्रभु की वाणियों को (उपश्रवत्) = समीपता से सुनता है। जैसे संसार में पुत्र जब माता की बात को ध्यान से सुनता है तब वह उनका प्रिय बनता है, उसी प्रकार जीव भी जब प्रभु की बात सुनता है तब प्रभु का प्रिय होता है। जब प्रभु को जीव प्रीणित करता है तब प्रभु उसे प्रशस्तेन्द्रियों तथा प्रशस्त ज्ञानवाला बल प्राप्त कराते हैं । [गाव: १. इन्द्रियाणि २. वेदवाचः]।

    जीव का कर्त्तव्य है कि वह प्रभु की वाणी को सुने । जब जीव प्रभु की वाणी को सुनता है तब १. इसकी इन्द्रियाँ प्रशस्त होती हैं, २. उसका ज्ञान बढ़ता है तथा ३. वह शक्ति सम्पन्न बनता है। ज्ञान का सम्पादन करनेवाला यह 'बार्हस्पत्य' कहलाता है । शक्ति प्राप्त करके यह नीरोग व सुखी जीवनवाला 'शंयु' होता है । यह 'शंयु बार्हस्पत्य' प्रभु की आज्ञा में चलता है और परिणामत: असीम शक्ति व ज्ञान का लाभ करता है । 

    भावार्थ

    हम प्रभु के निर्देशों को ध्यान से सुननेवाले हों।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यत्) जब (सीम्) वह (गिरः) हमारी स्तुतिमय वाणियों को (उपश्रवत्) सुन लेता है तब वह (वसुः) सब संसार को बसाने हारा और सर्वव्यापक (गोमतः) रश्मियों, इन्द्रियों और प्राणों या वेदवाणियों से युक्त (वाजस्य) ज्ञान और बल के (दानं) ब्रहादान, अन्नदान और जीवन दान को देने से (न घा) कभी नहीं (नियमते) रुकता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनो दानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (वसुः) वासयिता इन्द्रः परमेश्वरः (गोमतः) अध्यात्मप्रकाशयुक्तस्य (वाजस्य) बलस्य (दानम्) दत्तिम् (न घ) नैव (नियमते) नियच्छति, अवरुद्धं करोति, (यत् सीम्) यदा खलु, सः (गिरः) श्रद्धाभरिताः स्तुतिवाचः (उप श्रवत्) उपशृणोति ॥२॥२

    भावार्थः

    श्रद्धालूनां श्रद्धासिक्तैः प्रेमभरितैः स्तोत्रैर्द्रवितो भूत्वा जगदीश्वरो नवान् नवान् अध्यात्मैश्वर्योपहारान् स्तोतुरुपायनीकरोति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The All-pervading God withholdeth not His bounteous gift of Vedic lore, when He hath listened to our songs.

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    Meaning

    And surely the lord giver of settlement and gifts of knowledge, power and speedy progress does not withhold the gifts since he closely hears the prayers of the devotee and responds. (Rg. 6-45-23)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वसुः) સમસ્ત સંસારને વસાવનાર પરમાત્મા (यत्) જ્યારે (सीं गिरः उपश्रवत्) સર્વતઃ-પ્રાર્થના વચનોને પાસેથી સાંભળે છે, ત્યારે (गोमतः वाजस्य दानम्) વાણીના જ્ઞાનથી યુક્ત આધ્યાત્મિક અન્નદાનને (न घ नियमते) આપવામાં કોઈ કચાશ-ખામી રાખતો નથી. અર્થાત્ પુષ્કળ પ્રમાણમાં આપતો જ રહે છે, જેથી તે સ્તુતિ યોગ્ય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    श्रद्धाळूंच्या श्रद्धेने सिंचित, प्रेमाने युक्त, स्तोत्रांनी द्रवित होऊन, जगदीश्वर नवनवीन आध्यात्मिक ऐश्वर्याचे उपहार स्तोत्यांना देतो. ॥२॥

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