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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1670
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    49

    त्री꣡णि꣢ प꣣दा꣡ वि च꣢꣯क्रमे꣣ वि꣡ष्णु꣢र्गो꣣पा꣡ अदा꣢꣯भ्यः । अ꣢तो꣣ ध꣡र्मा꣢णि धा꣣र꣡य꣢न् ॥१६७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्री꣡णि꣢꣯ । प꣣दा꣢ । वि । च꣣क्रमे । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । गो꣣पाः꣢ । गो꣣ । पाः꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । अ꣡तः꣢꣯ । ध꣡र्मा꣢꣯णि । धा꣣र꣡य꣢न् ॥१६७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१६७०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । पदा । वि । चक्रमे । विष्णुः । गोपाः । गो । पाः । अदाभ्यः । अ । दाभ्यः । अतः । धर्माणि । धारयन् ॥१६७०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1670
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    आगे फिर परमेश्वर का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    (गोपाः) रक्षक, (अदाभ्यः) किसी से भी हिंसित, पराजित या अपमानित नहीं किया जा सकनेवाला, (विष्णुः) सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर (त्रीणि पदा) प्रकृति, जगत्प्रपञ्च और जीवात्माएँ इन तीनों में (विचक्रमे) व्याप्त है। (अतः) इसी कारण से, वह(धर्माणि) सब पदार्थों में उनके गुण-कर्म-स्वाभाव की(धारयन्) व्यवस्था कर रहा है ॥२॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा ब्रह्माण्ड के सब पदार्थों में व्याप्त है, वही उनको धारण करनेवाला भी है ॥२॥

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    पदार्थ

    (गोपाः) जगत् का पालक (अदाभ्यः) न दबने वाला—अहिंसनीय (विष्णुः) व्यापक परमात्मा (त्रीणि पदा विचक्रमे) तीन पदों—प्रापणीय स्थानों में विक्रम करता है—पृथिवी अन्तरिक्ष और द्युलोक में (अतः-धर्माणि धारयन्) अतः सदाचरण तथा उपासना को धारण करता हुआ—आस्तिक बना रहे॥२॥

    विशेष

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    विषय

    विष्णु– गोपाः-अदाभ्य

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि मेधातिथि (त्रीणि पदा) = तीन कदमों को (विचक्रमे) = चलता है । मेधातिथि एक कदम को न रखकर तीनों कदमों को रखने का ध्यान करता है। जैसाकि ऊपर के मन्त्र में कहा गया है। यह केवल ज्ञान, केवल कर्म व केवल भक्ति को महत्त्व न देकर तीनों को अपनाता है । १. (विष्णुः) = [विष् व्याप्तौ] यह व्यापक मनोवृत्तिवाला होता है। इसके उदार हृदय में सारी वसुधा के लिए स्थान होता है । २. (गो-पा:) = यह इन्द्रियों की रक्षा के द्वारा [गाव:- इन्द्रियाणि] अपने मस्तिष्क में वेदवाणियों [गाव:=वेदवाचः] का रक्षक बनता है । ३. (अ-दाभ्यः) = अपने कर्मों में यह पवित्र [pure-undefiled] रहने का प्रयत्न करता है । यह कभी दबकर अन्याय्य कर्म नहीं करता । यह न्याय्य मार्ग से ही चलता है - चाहे कुछ भी हो ।

    (अतः) = इसी उद्देश्य से कि वह 'विष्णु, गोपा और अदाभ्य' बना रहे यह (धर्माणि) = देवपूजा, सङ्गतीकरण व दानरूप मुख्य कर्मों को (धारयन्) = इस प्रकार धारण करता है कि ये उसके स्वभाव ही हो जाते हैं। ‘बड़ों का आदर करना, बराबरवालों से मिलकर चलना तथा छोटों को कुछ-नकुछ देना, उनके प्रति दया से चलना', यह इसका स्वभाव ही बन जाता है। 

    भावार्थ

    हम मेधातिथि बनें तथा 'विष्णु, गोपाः, व अदाभ्य' बनने का यत्न करें।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = जिस कारण यह परमेश्वर  ( अदाभ्यः ) = किसी से मारा नहीं जा सकता, ( गोपा ) = सब ब्रह्माण्डों की रक्षा करनेवाले सब जगतों को  ( धारयन् ) = धारण करनेवाले  ( विष्णुः ) = सर्वत्र व्यापक ईश्वर ने  ( त्रीणि पदा विचक्रमे ) = तीनों पृथिवी, अन्तरिक्ष द्युलोकों का विधान किया हुआ है।  ( अतो धर्माणि धारयन् ) = इस कारण सब धर्मों को वेद द्वारा धारण कर रहा है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे विष्णो ! आपने ही वेद द्वारा अग्निहोत्रादि धर्मों को तथा सृष्टि के सब पदार्थों को धारण कर रखा है, आपके धारण वा रक्षण के बिना, किसी धर्म वा पदार्थ का धारण वा रक्षण नहीं हो सकता। आप ही सब लोकों, धर्मों और जगत् व्यवहारों के उत्पादक, धारक और रक्षक हैं। ऐसे सर्वशक्तिमान् आप को, जान और ध्यान करके ही हम सुखी हो सकते हैं अन्यथा कदापि नहीं। 

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    विषय

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    भावार्थ

    (गोपाः) समस्त गतिशील लोकों का पालक (अदाभ्यः) नित्य अविनाशी (विष्णुः) वह व्यापक परमात्मा (अतः) निरन्तर गति द्वारा ही (धर्माणि) समस्त लोकों का (धारयन्) धारण करने हारा होकर (त्रीणि) तीन (पदा) शक्तियों से (विचक्रमे) समस्त विश्व को बना और चला रहा है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमेश्वरविषय उच्यते।

    पदार्थः

    (गोपाः) रक्षकः, (अदाभ्यः) केनापि हिंसितुं पराजेतुम् अपमानयितुं वाऽशक्यः (विष्णुः) सर्वान्तर्यामी जगदीश्वरः(त्रीणि पदा) त्रीण्यपि पदानि, प्रकृतिं जगत्प्रपञ्चं जीवात्मसमूहं च (वि चक्रमे) व्याप्तवानस्ति। (अतः) अस्मादेव कारणात्, सः(धर्माणि) सर्वेषु पदार्थेषु तेषां धर्मान् गुणकर्मस्वभावान्(धारयन्) व्यवस्थापयन्, वर्तते इति शेषः ॥२॥२

    भावार्थः

    यः परमात्मा ब्रह्माण्डस्य सर्वेषु पदार्थेषु व्याप्तोऽस्ति स एव तेषां धारकोऽपि वर्तते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Eternal, Immortal God, the Sustainer of all the moving worlds, retaining all the worlds, is creating and conducting the whole universe with His threefold power.

    Translator Comment

    Threefold power' refers to God’s powers of creation, sustenance and dissolution of the universe.

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    Meaning

    Vishnu, universal sustainer and unchallengeable protector, fixed the order of the threefold universe of forms, comprehensible, apprehensible and spiritually attainable, and hence the forms abide in and observe the laws of their existence and function. (Rg. 1-22-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गोपाः) જગતનો પાલક (अदाभ्यः) જે કોઈથી દબાતો કે મારી શકાતો નથી. એવો (विष्णुः) વ્યાપક પરમાત્મા (त्रीणि पदा विचक्रमे) ત્રણે પગો-પ્રાપ્ત થવાના સ્થાનોમાં વિજય કરે છે-પૃથિવી, અન્તરિક્ષ અને દ્યુલોકમાં (अतः धर्माणि धारयन्) તેથી સદાચરણ તથા ઉપાસનાને ધારણ કરતાં-આસ્તિક બની રહે. (૨)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্রীণি পদা বিচক্রমে বিষ্ণুর্গোপা অদাভ্যঃ।

    অতো ধর্মাণি ধারয়ন্।।৬৬।।

    (সাম ১৬৭০)

    পদার্থঃ এই পরমেশ্বর (অদাভ্যঃ) কারও দ্বারা পরাজিত বা হত হতে পারেন না। কারণ তিনিই (গোপাঃ) সমস্ত ব্রহ্মাণ্ডের রক্ষক, সমস্ত জগতের ধারণকারী, (বিষ্ণুঃ) সর্বব্যাপক, (ত্রীণি পদা বিচক্রমে) পৃথিবী, অন্তরীক্ষ, দ্যুলোক এই তিন লোকের বিধান করেছেন। (অতো ধর্মাণি ধারয়ন্) এই কারণে সমস্ত ধর্মকে বেদ দ্বারা তিনিই ধারণ করে রয়েছেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে বিষ্ণু! তুমিই বেদ দ্বারা অগ্নিহোত্রাদি ধর্মকে এবং সৃষ্টির সমস্ত পদার্থকে ধারণ করে রেখেছ। তোমার ধারণ বা রক্ষণ ছাড়া কোনো ধর্ম ও পদার্থের রক্ষণ হতে পারে না। তুমিই সমস্ত লোকের, ধর্মের এবং জগতের উৎপাদক, ধারক ও রক্ষক। এরূপ সর্বশক্তিমান তোমাকে আমরা জ্ঞান এবং ধ্যান দ্বারা লাভ করে সুখী হতে পারি, অন্যথায় কখনো নয়।।৬৬।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्मा ब्रह्मांडाच्या सर्व पदार्थात व्याप्त आहे, त्यांना धारण करणारा ही तोच आहे. ॥२॥

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