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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1686
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
83
तं꣢ वो꣣ वा꣡जा꣢नां꣣ प꣢ति꣣म꣡हू꣢महि श्रव꣣स्य꣡वः꣢ । अ꣡प्रा꣢युभिर्य꣣ज्ञे꣡भि꣢र्वावृ꣣धे꣡न्य꣢म् ॥१६८६॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वः꣣ । वा꣡जा꣢꣯नाम् । प꣡ति꣢꣯म् । अ꣡हू꣢꣯महि । श्र꣣वस्य꣡वः꣢ । अ꣡प्रा꣢꣯युभिः । अ । प्रा꣣युभिः । यज्ञे꣡भिः꣢ । वा꣣वृधे꣡न्य꣢म् ॥१६८६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो वाजानां पतिमहूमहि श्रवस्यवः । अप्रायुभिर्यज्ञेभिर्वावृधेन्यम् ॥१६८६॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । वः । वाजानाम् । पतिम् । अहूमहि । श्रवस्यवः । अप्रायुभिः । अ । प्रायुभिः । यज्ञेभिः । वावृधेन्यम् ॥१६८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1686
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब जगदीश्वर को बुलाते हैं।
पदार्थ
हे साथियो ! (श्रवस्यवः) कीर्ति के इच्छुक हम (वः) तुम्हारे(वाजानाम्) बल, विज्ञान, अन्न, धन आदियों के (पतिम्) स्वामी वा पालनकर्ता और (अप्रायुभिः) बिना प्रमाद के किये जानेवाले(यज्ञेभिः) सृष्टि के उत्पादन, धारण, पालन, न्याय आदि यज्ञों से(वावृधेन्यम्) बढ़ी हुई महिमावाले (तम्) उस इन्द्र जगदीश्वर को(अहूमहि) बुलाते हैं ॥३॥
भावार्थ
सबको चाहिए कि संसार में विद्यमान सब ऐश्वर्यों के स्वामी, सदा परोपकाररूप यज्ञ में संलग्न, महामहिम, राजराजेश्वर जगदीश को पुकारें तथा उसकी स्तुति और उपासना करें ॥३॥
पदार्थ
(तं वः ‘त्वाम्’ वाजानां पतिम्) उस तुझ अमृत अन्नभोगों५ के स्वामी परमात्मा को (श्रवस्यवः) श्रवणीय यशोरूप परमात्मा को६ चाहते हुए हम उपासकजन (अहूमहि) आहूत करते हैं—आमन्त्रित करते हैं (अप्रायुभिः-यज्ञेभिः) प्रमादीजन न हों जिन में ऐसे सावधान जनों७ से सम्पादित अध्यात्मयज्ञों से (वावृधेन्यम्) बढ़ने बढ़ाने वाले परमात्मा को आमन्त्रित करते हैं॥३॥
विशेष
<br>
विषय
इष्टकामधुक् यज्ञ
पदार्थ
(श्रवस्यवः) = यश चाहनेवाले हम यशस्वी कर्म ही करें, अशुभ कर्मों से दूर रहें, इसलिए (तम्) = उस (वः) = तुम सबके (वाजनां पतिम्) = शक्तियों के पति प्रभु को हम (अहूमहि) = पुकारते हैं । सत्य यही है कि सब शक्तियों के देनेवाले वे प्रभु ही हैं। उस प्रभु से शक्ति प्राप्त करके ही कोई व्यक्ति शक्तिशाली कार्य कर पाता है और यश का भागी बनता है ।
वे प्रभु (अप्रायुभिः) = निरन्तर होनेवाले [अप्रायु unceasing] (यज्ञेभिः) = यज्ञों से (वावृधेन्यम्) = हमें बढ़ानेवाले हैं। यदि हम अपने जीवन में यज्ञों को अपनाएँगे तो सदा फूलें-फलेंगे । प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में हमें यज्ञ ही दिया था और यही कहा था कि यह तुम्हारी सब इष्ट-कामनाओं को पूर्ण करनेवाला होगा।
यज्ञों के द्वारा १. यश मिलता है [श्रवस्यवः], २. वृद्धि प्राप्त होती है [वावृधेन्यम्], ३. शक्ति बढ़ती है [वाज]। यज्ञ की मौलिक भावना 'स्वार्थत्याग' है । स्वार्थत्यागवाला व्यक्ति व्यापक मनोवृत्तिवाला होने से 'विश्वमना' है । यह यज्ञों में लगे रहने से उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाला बन कर 'वैयश्व' कहलाता है ।
भावार्थ
प्रभु से उपदिष्ट यज्ञों को अपनाकर हम इस संसार में फूलें-फलें और परलोक में कल्याण प्राप्त करें ।
विषय
missing
भावार्थ
हम लोग (वः) आप लोगों के (वाजानां) ज्ञान, धन, बल और अन्नों के (पतिं) परिपालक, (अप्रायुभिः) प्रमादों से रहित, विनाशरहित, (यज्ञेभिः) बड़े सृष्टि, स्थिति, प्रलय आदि विशाल कर्मों तथा प्रजापालनादि सत्कर्मों से (वावृधेन्यम्) अपने यश और महिमा में सब से बड़े (तं) उस परमेश्वर को (श्रवस्यवः) धन, अन्न, और ज्ञान, वेद की कामना करने हारे हम लोग (अहूमहि) नित्य स्मरण करते हैं। यहां ‘वः’ इस युष्मत् के प्रयोग से समस्त संसार के प्राणी अभिप्रेत हैं क्योंकि स्तुतिकर्ता की दृष्टि में अपनेसे अतिरिक्त सब युष्मत् पदवाच्य हैं। परमात्मा केवल ‘तत्’ पदवाच्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरमाह्वयति।
पदार्थः
हे सखायः ! (श्रवस्यवः) कीर्त्यभिलाषुका वयम् (वः) युष्माकम् (वाजानाम्) बलविज्ञानधनान्नादीनाम् (पतिम्) स्वामिनं पालकं वा, किञ्च (अप्रायुभिः) अप्रमादयुक्तैः।[अप्रायुवोऽप्रमाद्यन्तः निरु० ४।१९।] (यज्ञेभिः) सृष्ट्युत्पत्तिधारणपालनन्यायादिभिः (वावृधेन्यम्) परिवृद्धमहिमानम् (तम्) इन्द्रं जगदीश्वरम्, वयम् (अहूमहि) आह्वयामः। [ह्वयतेर्लुङि ‘बहुलं छन्दसि।’ अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणम्] ॥३॥
भावार्थः
जगति विद्यमानानां सर्वेषामैश्वर्याणां स्वामी, नित्यं परोपकारयज्ञे संलग्नो महामहिमा राजराजेश्वरो जगदीशः सर्वैः सश्रद्धमाह्वातव्यः स्तोतव्य उपासनीयश्च ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We, seeking glory, invoke this God of yours, the Lord of wealth. Grand in His immortal deeds of the creation, sustenance and dissolution of the universe.
Translator Comment
‘God of yours' means God of mankind. Yours refers to the whole of humanity.
Meaning
O people we, seekers of honour and fame, invoke and adore the protector and promoter of your food, energies and victories, by assiduous congregations of yajna and thereby exalt the splendour and glory of the lord supreme. (Rg. 8-24-18)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : તં (तं वः "त्वां" वाजानां पतिम्) તે તને-અમૃત અન્નભોગોના સ્વામી પરમાત્માને (श्रवस्यवः) શ્રવણીય યશોરૂપ પરમાત્માને ચાહતાં અમે ઉપાસકજનો (अहूमहि) આત કરીએ છીએ-આમંત્રિત કરીએ છીએ. (अप्रायुभिः यज्ञेभिः) જેમાં પ્રમાદીજનો ન હોય એવા સાવધાનજનો દ્વારા કરવામાં આવતાં અધ્યાત્મયજ્ઞોથી (वावृधेन्यम्) જેનો મહિમા વધારવા યોગ્ય છે. એવા પરમાત્માને આમંત્રિત કરીએ છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांनी जगातील सर्व ऐश्वर्यांचा स्वामी, सदैव परोपकाररूपी यज्ञात संलग्न, महान महिमायुक्त, राजराजेश्वर जगदीशाला बोलवावे व त्याची स्तुती व उपासना करावी. ॥३॥
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