Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1688
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
49
वि꣡भू꣢तरातिं विप्र चि꣣त्र꣡शो꣢चिषम꣣ग्नि꣡मी꣢डिष्व य꣣न्तु꣡र꣢म् । अ꣣स्य꣡ मेध꣢꣯स्य सो꣣म्य꣡स्य꣢ सोभरे꣣ प्रे꣡म꣢ध्व꣣रा꣢य꣣ पू꣡र्व्य꣢म् ॥१६८८॥
स्वर सहित पद पाठवि꣡भू꣢꣯तरातिम् । वि꣡भू꣢꣯त । रा꣡तिम् । विप्र । वि । प्र । चित्र꣡शो꣢चिषम् । चि꣣त्र꣢ । शो꣣चिषम् । अग्नि꣢म् । ई꣣डिष्व । यन्तु꣡र꣢म् । अ꣣स्य꣢ । मे꣡ध꣢꣯स्य । सो꣣म्य꣡स्य꣢ । सो꣣भरे । प्र꣢ । ई꣣म् । अध्वरा꣡य꣢ । पू꣡र्व्य꣢꣯म् ॥१६८८॥
स्वर रहित मन्त्र
विभूतरातिं विप्र चित्रशोचिषमग्निमीडिष्व यन्तुरम् । अस्य मेधस्य सोम्यस्य सोभरे प्रेमध्वराय पूर्व्यम् ॥१६८८॥
स्वर रहित पद पाठ
विभूतरातिम् । विभूत । रातिम् । विप्र । वि । प्र । चित्रशोचिषम् । चित्र । शोचिषम् । अग्निम् । ईडिष्व । यन्तुरम् । अस्य । मेधस्य । सोम्यस्य । सोभरे । प्र । ईम् । अध्वराय । पूर्व्यम् ॥१६८८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1688
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर परमात्मा की स्तुति का विषय है।
पदार्थ
हे (सोभरे) भले प्रकार स्तोत्रों का उपहार लानेवाले (विप्र) विद्वन् ! तू (विभूतरातिम्) व्यापक दानवाले, (चित्रशोचिषम्) अद्भुत तेजवाले, (अस्य) इस (सोम्यस्य) ब्रह्मानन्द-रूप सोम के सम्पादक (मेधस्य) उपासना-यज्ञ का (यन्तुरम्) नियन्त्रण करनेवाले, (पूर्व्यम्) सनातन (ईम्) इस (अग्निम्) अग्रनेता जगदीश्वर के (अध्वराय) जीवन-यज्ञ की सफलता के लिए (प्र ईडिष्व) भली-भाँति स्तुति का पात्र बना ॥२॥
भावार्थ
जीवन-यज्ञ की पूर्णता के लिए मनुष्यों को उपासना-यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(सौभरे विप्र) हे परमात्मा के आनन्दज्ञान को अपने अन्दर भरने में कुशल उपासक! तू (विभूतरातिम्) बहुत दान जिसके हैं ऐसे महादानी (चित्रशोचिषम्) चायनीय—दर्शनीय प्रकाश वाले—(यन्तुरम्-अग्निम् ईडिष्व) विश्व नियन्ता ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा को स्तुत करो—स्तुति में लाओ (अस्य मेधस्य सोम्यस्य) इस पवित्र शान्तिप्रद—(ईम्-पूर्व्यम्) हाँ शाश्वत परमात्मा को (अध्वराय) अध्यात्मयज्ञ के लिये स्तुत कर॥२॥
विशेष
<br>
विषय
जीवन-यज्ञ की पूर्ति
पदार्थ
हे (विप्र) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले! (सोभरे) = उत्तम ढंग से समाज का भरण करनेवाले सोभरि ! ! तू (अध्वराय) = इस जीवनरूप यज्ञ के संचालक के लिए (ईम्) = निश्चय से (अग्निम्) = उस सबको आगे ले-चलनेवाले प्रभु को (प्र ईडिष्व) = प्रकर्षेण स्तुत कर जो १. (विभूत-रातिम्) = [विभूत=mighty] महान् शक्तिशाली दानोंवाले हैं २. (चित्रशोचिषम्) = अद्भुत दीप्तिवाले हैं अथवा ज्ञानप्रद कान्तिवाले हैं ३. (अस्य) = इस मेधस्य=प्रभु के साथ मेल करनेवाले (सोम्यस्य) = विनीत पुरुष के (यन्तुरम्) = नियन्ता हैं तथा ४. (पूर्व्यम्) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम हैं।
मानव-जीवन के दो मुख्य सूत्र हैं १. अपना विशेषरूप से पूरण करना – कमियों को दूर करना [विप्र] २. केवल अपने में ही न रमकर समाज का उत्तम ढंग से पोषण करना [सोभरि] | इसी को यज्ञमय जीवन बिताना भी कहते हैं । इस प्रकार अपने जीवन को यज्ञमय बनाये रखने के लिए हमें प्रभु का स्मरण करना है [अध्वराय, अग्निम् ईडिष्व] । उस प्रभु का प्रकाश हमें ज्ञान देनेवाला है और वास्तव में तो वे प्रभु ही हमारी जीवन-यात्रा में हमारे रथ के सारथि होते हैं [यन्तुरम्] बशर्ते कि हम उस प्रभु से मेल करनेवाले हों [मेधस्य] तथा सदा सौम्य व विनीतवृत्ति रखते हों [सोम्यस्य] । अभिमानी पुरुष ने प्रभु से दिखाये मार्ग को क्या देखना ? वे प्रभु ही वस्तुतः हमारा पूरण करनेवालों मंं सर्वोत्तम हैं [पूर्व्यम्] । प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘सोभरि' भी विनीतता से प्रभु सम्पर्क में रहता हुआ जीवन-यज्ञ को पूर्ण करने में समर्थ होता है ।
भावार्थ
मेरे जीवन-यज्ञ को निर्विघ्नरूप से समाप्ति तक वे प्रभु ही ले-चलेंगे। इसके लिए आवश्यक धन व ज्ञान भी प्रभु ही प्राप्त कराएँगे ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोभरे) उत्तम रीति से ज्ञान को धारण करने हारे ! हे (विप्र) मेधाविन् ! ब्राह्मण ! ज्ञानोपासक ! शिष्य ! तू (अध्वराय) अविनश्वर या हिंसादि दोषों से सर्वथा रहित, स्वाध्याय यज्ञ या गुरु परम्परा से कभी विनाश को प्राप्त न होने हारे, आवच्छिन्न ज्ञानयज्ञ के निमित्त (विभूतरातिम्) बहुत अधिक ज्ञानराशि के दान करने हारे, (चित्रशोचिषं) संग्रह करने योग्य ज्ञान और तप आदि तेजस्कर गुणों से युक्त, (अस्य) इस (सोम्यस्य) ज्ञानयुक्त या ज्ञान के आनन्द प्राप्त कराने हारे (मेधस्य) पवित्र यज्ञ के (यन्तुरं) नियामक, व्यवस्थापक, (पूर्व्यम्) सबसे पूर्व विद्यमान, सबसे श्रेष्ठ आचार्य रूप परमेश्वर की (ईडिष्व) उपासना कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमात्मस्तुतिविषयमाह।
पदार्थः
हे (सोभरे) सुष्ठु स्तोमानाम् आहर्तः [सुष्ठु आहरति स्तोमान् इति सोहरिः, स एव सोभरिः ‘हृग्रहोर्भश्छन्दसि’। वा० ८।२।३५ इति हस्य भः।] (विप्र) विद्वन् ! (विभूतरातिम्) व्यापकदानम्, (चित्रशोचिषम्) अद्भुतदीप्तिम्, (अस्य) एतस्य (सोम्यस्य) ब्रह्मानन्दरूपसोमसम्पादिनः (मेधस्य) उपासनायज्ञस्य(यन्तुरम्) यन्तारम्, (पूर्व्यम्) सनातनम् (ईम्) एनम् (अग्निम्) अग्रनेतारं जगदीश्वरम् (अध्वराय) जीवनयज्ञस्य साफल्याय (प्र ईडिष्व) प्रकर्षेण स्तुहि ॥२॥
भावार्थः
जीवनयज्ञस्य पूर्णतायै मनुष्यैरुपासनायज्ञोऽनुष्ठेयः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O pupil, the excellent gleaner of, and seeker after knowledge, worship the primordial Teacher, God, Immortal, the Bestower of immense knowledge, the Embodiment of knowledge and penance, this Giver of the joy of knowledge, the Determinant of pure acts of sacrifice!
Meaning
O vibrant scholar, worship Agni, lord of light and enlightenment, infinitely giving, awfully wondrous and self-refulgent, and the sole leader and controller of the world. Worship Him, the lord eternal, O generous man, in order that you may participate in this yajnic system of the lords universe which is full of love without violence and overflows with the blissful joy of soma, an inspiring invitation to live and act as the child of divinity. (Rg. 8-19-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सौभरे विप्र) હે પરમાત્માના આનંદજ્ઞાનને પોતાની અંદર ભરવામાં કુશળ ઉપાસક ! તું (विभूतरातिम्) જેનું બહુજ દાન છે એવો મહાદાની (चित्रशोचिषम्) ચાયનીય-દર્શનીય પ્રકાશવાળા, (यन्तुरम् अग्निम् ईडिष्व) વિશ્વ નિયંતા જ્ઞાન સ્વરૂપ પરમાત્માને સ્તુત કર-સ્તુતિમાં લાવ. (अस्य मेधस्य सोम्यस्य) એ પવિત્ર શાન્તિપ્રદ (ईम् पूर्व्यम्) હાં, શાશ્વત પરમાત્માની (अश्वराय) અધ્યાત્મયજ્ઞને માટે સ્તુતિઉપાસના કર. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जीवन यज्ञाची पूर्णता करण्यासाठी माणसांनी उपासना-यज्ञाचे अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal