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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1707
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
32
य꣢ उ꣣ग्र꣡ इ꣢व शर्य꣣हा꣢ ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गो꣣ न꣡ वꣳस꣢꣯गः । अ꣢ग्ने꣣ पु꣡रो꣢ रु꣣रो꣡जि꣢थ ॥१७०७॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । उ꣡ग्रः꣢ । इ꣣व । शर्यहा꣢ । श꣣र्य । हा꣢ । ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गः । ति꣣ग्म꣢ । शृ꣣ङ्गः । न꣡ । व꣡ꣳस꣢꣯गः । अ꣡ग्ने꣢꣯ । पु꣡रः꣢꣯ । रु꣣रो꣡जि꣢थ ॥१७०७॥
स्वर रहित मन्त्र
य उग्र इव शर्यहा तिग्मशृङ्गो न वꣳसगः । अग्ने पुरो रुरोजिथ ॥१७०७॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । उग्रः । इव । शर्यहा । शर्य । हा । तिग्मशृङ्गः । तिग्म । शृङ्गः । न । वꣳसगः । अग्ने । पुरः । रुरोजिथ ॥१७०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1707
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब वह परमेश्वर कैसा है, जिसकी शरण में हम जाएँ, यह कहते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्रनायक, तेजस्वी जगदीश ! (यः) जो आप (उग्रः इव) प्रचण्ड धनुर्धारी के समान (शर्यहा) वध करने योग्य काम, क्रोध आदि शत्रुओं के और व्याधि, स्त्यान आदि योग-विघ्नों के विनाशक, (तिग्मश्रृङ्गः न) तीक्ष्ण किरणोंवाले सूर्य के समान (वंसगः) चारु गतिवाले तथा सेवनीय होते हुए (पुरः) शत्रु की नगरियों वा किलेबन्दियों को (रुरोजिथ) तोड़-फोड़ डालते हो, ऐसी आपकी शरण में हम पहुँचते हैं ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
परमेश्वर की उपासना से बल पाकर मनुष्य सब आन्तरिक शत्रुओं तथा योग के विघ्नों को पराजित करके लक्ष्य के प्रति जागरूक होता हुआ अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त कर लेता है ॥३॥
पदार्थ
(यः) जो परमात्मा (शर्यहा-उग्रः-इव) शर्य—इषु—वाण४ से हनन करने वाले शस्त्रधारी उग्र—बलवान् के समान प्रहारकर्ता (वंसगः-तिग्मशृङ्गः-न) कमनीय—यथेष्टमार्ग को जानेवाला५ तीक्ष्ण सींगों वाले साण्ड के समान आगे आने वाले के अङ्ग-भङ्ग करता हुआ (अग्ने) परमात्मन्! तू (पुरः-रूरोजिथ) हमारे मनो को६ निरुद्ध कर॥३॥
विशेष
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विषय
त्रि-पुर-घ्न देव
पदार्थ
प्रभु की शरण में जानेवाला व्यक्ति वह होता है (यः) = जो (उग्रः इव) = उदात्त प्रकृति का होता है । शत्रुओं के साथ भी उसका बर्ताव कमीनेपन का नहीं होता। यह (शर्य-हा) = [शर्य-enemy] अपने आन्तर शत्रुओं को मारनेवाला होता है। (न) = जैसे (तिग्मशृङ्गः) = तेज सींगोवाला (वंसग:) = बैल अपने विरोधी शेर आदि शत्रुओं के पेट का विदारण कर देता है, उसी प्रकार यह प्रभु का उपासक अपने सब शत्रुओं को समाप्त करनेवाला होता है ।
हे अग्ने प्रभु के सम्पर्क से उन्नति को सिद्ध करनेवाले जीव ! तू (पुरः) = शत्रु-नगरियों को (रुरोजिथ) = भग्न कर देता है। काम-क्रोधादि शत्रु ‘इन्द्रियों, मन व बुद्धि को आश्रय करके अपना अधिष्ठान बनाते हैं। ये वस्तुतः इनके क़िले बन जाते हैं - इन क़िलों का तोड़ना ही 'अग्नि' का लक्ष्य होता है। इन तीन पुरियों का भङ्ग करके यह 'त्रिपुरारि' बनता है ।
भावार्थ
हम उदात्त प्रकृति के बनकर अनुदात्त [निकृष्ट] प्रकृतिवाले शत्रुओं का नाश कर दें।
विषय
missing
भावार्थ
(यः) जो (शर्यहा) बाणों से मारने हारे योद्धा के (इव) समान (उग्रः) अति भयंकर शक्तिशाली (वंसगः न) बैल के समान (तिग्मशृंगः) तीक्ष्ण शृंग अर्थात् प्रखर तेज वाले हैं वही आप हे (अग्ने) प्रभो ! (पुरः) सब देहों को (रुरोजिथ) ज्ञान वज्र से तोड़ डालते हो और मुमुक्षुओं को मुक्त कर देते हो। सायण ने अग्नि को रुद्ररूप मानकर त्रिपुर दहन की कथा को लगाया है। लिखा है—‘रुद्रो वा एष यदग्निः’ इति श्रुतेः। “रुद्रकृतमपि त्रिपुरदहनम् अग्निकृतमेवेति श्रूयते। यद्वा त्रिपुरदहनसाधनभूतं वाणे अग्निरनीकत्वनावस्थानादग्निः पुराणि भग्नवान् इत्युच्यते।” अर्थात् रुद्र अग्नि का नाम है ऐसी ब्राह्मण श्रुति है। अतः रुद्र का किया त्रिपुरदहन अग्नि ही का किया कहा जाता है। अथवा त्रिपुर के दहन करने में साधन बने बाण में अग्नि सहायक था, इससे अग्नि ने पुरों को तोड़ा ऐसा कहा जाता है। परन्तु इस का रहस्य सायण ने स्पष्ट नहीं किया, यह अलंकारिक है। वस्तुतः— वेदत्रयी त्रिनेत्राणि त्रिपुरं त्रिगुणं वपुः। (पु०) भस्मीकरोति तद्देवस्त्रिपुरघ्नस्ततः स्मृतः॥ (स्कन्द० महि० कौ० ख० २। अ० २५) अर्थात्—रुद्र के तीन वेद तीन नेत्र हैं, त्रिगुण देह त्रिपुर है, उसको वह ज्ञानरूप से प्रकट होकर भस्म कर देने से त्रिपुरघ्न कहा जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत स परमेश्वरः कीदृशो यं वयं उपगच्छेमेत्याह।
पदार्थः
हे (अग्ने) अग्रनायक तेजस्विन् जगदीश ! (यः) यस्त्वम् (उग्रः इव) प्रचण्डः धनुर्धर इव (शर्यहा) शर्याणां हन्तव्यानां कामक्रोधादीनां शत्रूणां योगविघ्नानां व्याधिस्त्यानादीनां च हन्ता, (तिग्मशृङ्गः न) तीक्ष्णकिरणः सूर्य इव (वंसगः) वननीयगतिः संसेव्यश्च सन् (पुरः) शत्रुनगरीः शत्रुदुर्गपङ्क्तीर्वा (रुरोजिथ) भनक्षि। [रुजो भङ्गे, तुदादिः, सामान्यकाले लिट्।] तस्य ते शर्म शरणं वयम् अग्न्म इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥३॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
परमेश्वरोपासनया प्राप्तबलो जनः सर्वानान्तरान् शत्रून् योगविघ्नांश्च पराजित्य लक्ष्यं प्रति जागरूकः सन्नभ्युदयं निःश्रेयसं च लभते ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mighty as a warrior, who slays with shafts, or like a bull with sharpened horns, O God, Thou breakest the bondage of the body with Thy shaft of knowledge, and makest the soul attain to final beatitude!
Meaning
Agni, lord protector of life, destroyer of killer arrows like a fierce warrior, burning off negativities like the fierce rays of the sun, you destroy the strongholds of the enemies of life. (Rg. 6-16-39)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यः) જે પરમાત્મા (शर्यहा उग्रः इव) શર્ય = ઇષુ = બાણ દ્વારા હનન કરનારા શસ્ત્રધારી ઉગ્ર-બળવાનની સમાન પ્રહારકર્તા (वंसगः तिग्मश्रृङ्गः नः) કમનીય-યથેષ્ટ માર્ગમાં જનાર અણીદાર “ સાંઢની આગળ આવનારના અંગોને ભાંગી નાખનાર (अग्ने પરમાત્મન્ ! તું (पुरः रूरोजिथ) અમારા મનોનો નિરોધ કર. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या उपासनेने बल प्राप्त करून माणूस सर्व आंतरिक शत्रू व योगाच्या विघ्नांना पराभूत करून लक्ष्यप्राप्तीसाठी जागृत होऊन अभ्युदय व नि:श्रेयस प्राप्त करतो. ॥३॥
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