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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1763
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
24
स꣡ म꣢र्मृजा꣣न꣢ आ꣣यु꣢भि꣣रि꣢भो꣣ रा꣡जे꣢व सुव्र꣣तः꣢ । श्ये꣣नो꣡ न वꣳसु꣢꣯ षीदति ॥१७६३॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । म꣣र्मृजानः꣢ । आ꣣यु꣡भिः꣢ । इ꣡भः꣢꣯ । रा꣡जा꣢꣯ । इ꣣व । सुव्रतः꣢ । सु꣣ । व्रतः꣢ । श्ये꣣नः꣢ । न । व꣡ꣳसु꣢꣯ । सी꣣दति ॥१७६३॥
स्वर रहित मन्त्र
स मर्मृजान आयुभिरिभो राजेव सुव्रतः । श्येनो न वꣳसु षीदति ॥१७६३॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । मर्मृजानः । आयुभिः । इभः । राजा । इव । सुव्रतः । सु । व्रतः । श्येनः । न । वꣳसु । सीदति ॥१७६३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1763
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब यह कहते हैं कि परमेश्वर किनके अन्दर स्थित होता है।
पदार्थ
मनुष्यों को (आयुभिः) आयु के वर्षों से (मर्मृजानः) अलंकृत करता हुआ और (राजा इव) राजा के समान (इभः) निर्भय तथा (सुव्रतः) शुभ कर्मोंवाला (सः) वह पवमान सोम अर्थात् जगत् का उत्पत्तिकर्ता, शुभ गुणकर्मों को प्रेरित करनेवाला, शान्त परमेश्वर (वंसु) जिन्हें उसकी लौ लगी हुई है, उनके अन्दर (सीदति) बैठता है, (श्येनः न) जैसे बाज पक्षी (वंसु) वनों में (सीदति) बैठता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है। पहली पूर्णोपमा है और दूसरी शिलष्ट पूर्णोपमा, दोनों की संसृष्टि है ॥३॥
भावार्थ
जिन्हें परमात्मा की चाह होती है, उनके प्रेम से परवश हुआ वह उनके हृदय में स्थित होकर निरन्तर शुभ प्रेरणा करता रहता है ॥३॥
पदार्थ
(सः) वह परमात्मा (इभः) स्वयं भयरहित तथा उपासकों की भयरहित शरण४ (राजा-इव) राजा के समान (सुव्रतः) श्रेष्ठ कर्मवान् (आयुभिः-मर्मृजानः) उपासकजनों५ द्वारा स्तुति करके भूषित पूजित किया जाता हुआ (श्येनः न वंसु-सीदति) शंसनीय गति वाले पक्षी के समान सम्भागी—सम्भजन करने वाले उपासक आत्मा में विराजमान होता है॥३॥
विशेष
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विषय
सोम का निवास वन में
पदार्थ
(सः) = वह सोम (आयुभिः) = [इ गतौ] गतिशील पुरुषों से (मर्मृजान:) = शुद्ध किया जाता हुआ होता है। जो व्यक्ति सदा क्रियाशील हैं वे ही इस सोम की रक्षा कर पाते हैं। अकर्मण्य पुरुष पर वासनाओं का आक्रमण होता है और वासनाओं के मन में प्रविष्ट होने पर सोम की रक्षा सम्भव नहीं । यह सोम गतिशील पुरुषों की ही निधि बनता है। यह उसे (इभः) =[feerless power] निर्भीक, शक्ति का पुतला बनाता है। सोम का रक्षक सदा अभय होता है – कोई भी शक्ति उसे भयभीत नहीं कर सकती। राजा (इव) = यह सुरक्षित सोम राजा के समान होता है— जैसे राजा अपने शासन के परिपालन से चमकता है इसी प्रकार यह सोम अपराभूत आज्ञावाला होता है । सोमरक्षक की आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता । इसीलिए ही वेद में राजा के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक ठहराया है ('ब्रह्मचर्येण राजा राष्ट्रं वि रक्षति') । (सुव्रतः) = यह सोम अपने रक्षक को उत्तम व्रतोंवाला बनाता है ।
यह सोम तो (श्येनः न) = श्येन के समान होता है । वेद में श्येन का अर्थ घोड़ा है। जैसे घोड़ा हमें अपनी यात्रा की पूर्ति में सहायक होता है, उसी प्रकार यह सुरक्षित सोम हमें अपनी जीवन-यात्रा की पूर्ति में सहायक है । यह सोम (सीदति) = सुरक्षित होकर स्थित होता है - अपना आसन ग्रहण करता है । किनमें ? (वंसु-वन्) पुरुषों में । वन् के अर्थ निम्न हैं—
१. वन् [to honour, to worship] = प्रभु की पूजा करनेवालों में ।
२. वन् [to aid] = दूसरों की सहायता करनेवालों में – लोकहित के कार्यों में लगे रहनेवालों में । ३. वन् [to sound] =प्रभु का नाम जपनेवालों अथवा पवित्र वाणियों का पठन करनेवालों में । ४. वन् [to be occupied] जो सदा कार्यों में लगे रहते हैं – खाली न रहनेवालों में । सदा क्रियाशीलता सोम रक्षा की बड़ी सहायक है ।
५. वन् [to seek for] - प्रभु के खोजनेवालों में या प्रकृति के तत्त्वों के ज्ञान में लगे हुओं में ।
६. वन् [to conquer] — इन्द्रियों के विजेताओं में ।
७. वन् [to love] जो सभी से प्रेम करें, उनमें तथा ८. वन् [to desire] जो सोमरक्षा की प्रबल इच्छावाले हैं, उनमें ।
भावार्थ
हम 'वन्' बनें, जिससे हममें सोम सुरक्षित हो ।
विषय
missing
भावार्थ
(सः) वह आत्मा (आयुभिः) दीर्घायु, ज्ञानवान् तपस्वियों द्वारा (मर्मृजानः) योग साधनों से परिमार्जित किया गया (इभः) निर्भय (राजा इव) राजा के समान और (श्येनः न) पक्षि संसार में निर्भय बाज़ या गरुड़ के समान (सुव्रतः) उत्तम कर्मों से युक्त (वंसु) अपने इच्छानुकूल समस्त लोकों में (सीदति) विचरता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरः केषु सीदतीत्याह।
पदार्थः
मनुष्यान् (आयुर्भिः२) आयुभिः, आयुर्वर्षैरित्यर्थः (मर्मृजानः) अलङ्कुर्वाणः। [मृजू शौचालङ्कारयोः चुरादिः। लिटः कानच्।] किञ्च (राजा इव) सम्राडिव (इभः) इतभयः (सुव्रतः) सुकर्मा च (सः) पवमानः सोमः पावकः जगदुत्पादकः शुभगुणकर्मप्रेरकः शान्तः परमेश्वरः (वंसु) इच्छुकेषु जनेषु (सीदति) उपविशति। कथमिव ? (श्येनः न) श्येनपक्षी यथा (वंसु) वनेषु (सीदति) उपविशति। [इभेन गतभयेन इति निरुक्तम्। ६।१२। षीदति, संहितायां षत्वं छान्दसम्। वंसु इच्छुकेषु, वनोतिः कान्तिकर्मा। निघं० २।६, यद्वा वंसु वनेषु, वन शब्दस्यान्तलोपश्छान्दसः] ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः। प्रथमा पूर्णोपमा, द्वितीया श्लिष्टा पूर्णोपमा, उभयोः संसृष्टिः ॥३॥
भावार्थः
ये परमात्मानं कामयन्ते तत्प्रीतिपरवशः स तेषां हृदि स्थितः सततं सत्प्रेरणां कुरुते ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The soul, purified through Yoga, by aged, learned, and austere persons, being fearless like a King or a falcon, roams in the world as it wills, doing noble deeds.
Meaning
Soma, adored and glorified by people, as a self- controlled, powerful and brilliant ruler ever awake and unfailing power, pervades in the human common-wealth and the entire world of sustenance. (Rg. 9-57-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः) તે પરમાત્મા (इभः) સ્વયં ભયરહિત તથા ઉપાસકોના નિર્ભય શરણ (राजा इव) રાજાની સમાન (सुव्रतः) શ્રેષ્ઠ કર્મવાન (आयुभिः मर्मृजानः) ઉપાસકજનો દ્વારા સ્તુતિ કરીને અલંકૃત પૂજિત કરતાં (श्येनः न वंसु सीदति) શંસનીય ગતિવાળા [બાજ] પક્ષી સમાન સંભાગી-સારી રીતે ભજન કરનારા ઉપાસક આત્મામાં વિરાજમાન થાય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांना परमेश्वराबद्दल प्रेम असते, त्यांच्या प्रेमाच्या अधीन होऊन तो (परमेश्वर) त्यांच्या हृदयात स्थित होऊन निरंतर शुभ प्रेरणा देत असतो. ॥३॥
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