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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1767
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
64
सु꣣ष꣡हा꣢ सोम꣣ ता꣡नि꣢ ते पुना꣣ना꣡य꣢ प्रभूवसो । व꣡र्धा꣢ समु꣣द्र꣡मु꣢क्थ्य ॥१७६७॥
स्वर सहित पद पाठसु꣣ष꣡हा꣢ । सु꣣ । स꣡हा꣢꣯ । सो꣣म । ता꣡नि꣢꣯ । ते꣣ । पुनाना꣡य꣢ । प्र꣣भूवसो । प्रभु । वसो । व꣡र्ध꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उ꣢द्रम् । उ꣣क्थ्य ॥१७६७॥
स्वर रहित मन्त्र
सुषहा सोम तानि ते पुनानाय प्रभूवसो । वर्धा समुद्रमुक्थ्य ॥१७६७॥
स्वर रहित पद पाठ
सुषहा । सु । सहा । सोम । तानि । ते । पुनानाय । प्रभूवसो । प्रभु । वसो । वर्ध । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । उक्थ्य ॥१७६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1767
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
(हे प्रभूवसो) प्रचुर ऐश्वर्यवाले (सोम) जगत्पति, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ! (पुनानाय) स्वयं को पवित्र करनेवाले उपासक के लिये (ते) आपके (तानि) वे प्रसिद्ध तेज (सुषहा) भली-भाँति काम, क्रोध आदि रिपुओं को परास्त करनेवाले होवें। हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय सोम अर्थात् चन्द्रमा के समान आह्लादक परमात्मदेव ! आप (समुद्रम्) ऐश्वर्य के समुद्र को (वर्ध) बढ़ाओ ॥३॥
भावार्थ
पूर्ण चन्द्रमा-रूप सोम जैसे पानी के समुद्र को बढ़ाता है, वैसे ही भक्ति के उपहारों से पूर्ण सोम परमेश्वर उपासक के लिए भौतिक और दिव्य ऐश्वर्य के समुद्र को बढ़ाता है ॥३॥
पदार्थ
(प्रभूवसो-उक्थ्य सोम) हे भरपूर धनैश्वर्य वाले प्रशंसनीय शान्तस्वरूप परमात्मन्! (ते पुनानाय) तुझ अध्येषमाण—प्रार्थित किये जाते हुए या स्तुति द्वारा प्राप्त होते हुए के१ (तानि सुषहा) वे सुशोभन सहन करने योग्य शान्त तेज हैं, उनसे (समुद्रं वर्ध) सम्यक्—उल्लास हाव भाव भरे उपासक पुरुष को२ बढ़ा—समृद्ध कर॥३॥
विशेष
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विषय
आनन्द की वृद्धि [आनन्द-समुद्र में ज्वारभाटा ]
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र में सोम को 'प्रभूवसो' कहा है कि यह ‘प्रभावजनक वसु' वाला है— सब रोगों को आधि-व्याधियों को समाप्त करके यह मनुष्य का शरीर में उत्तम वास करनेवाला है। यह ‘उक्थ्य' है—मनुष्य को प्रभु स्तवन में उत्तम बनाता है। इस सोम से कहते हैं कि (पुनानाय ते) = पवित्र करनेवाले तेरे लिए (तानि) = वे सब मानव जीवन की प्रगति में आनेवाले (विघ्न सुषहा) = सुगमता से सहने योग्य हैं। चाहे शरीर के रोग हैं— चाहे मानस रोग हैं— सोम उन सभी को समाप्त कर देता है और हमें जीवन-पथ पर आगे बढ़ने के योग्य बनाता है ।
यह सोम हमारे जीवन में (समुद्रम्) = सदा आनन्द से पूर्ण प्रभु को (वर्द्धा) = बढ़ाता है, अर्थात् सब प्रकार से नीरोग होकर यह मनुष्य भी (प्रसन्न) =cheerful मनोवृत्ति का बनता है और इस प्रकार उस समुद्र – आनन्द के सागर प्रभु के आनन्दकणों की अपने अन्दर अभिवृद्धि कर रहा होता है। जीवन में आनन्द की वृद्धि का कार्यक्रम स्पष्ट है कि मनुष्य १. सोमरक्षा के द्वारा, २. रोग बीजों को नष्ट कर स्वस्थ बनें, ३. मानस पवित्रता का सम्पादन करके अपने निवास को उत्तम बनाये, ४. प्रभु के स्तवन की वृत्तिवीला हो और ५. अपने जीवन में आनन्द की अभिवृद्धि करे ।
भावार्थ
सोम मेरे आनन्द को उसी प्रकार बढ़ानेवाला हो जैसे सोम [चन्द्र] से समुद्र में ज्वार आ जाता है ।
विषय
missing
भावार्थ
हे सोम ! हे (उक्थ्य) वेदप्रतिपाद्य परमात्मन् ! या आत्मन् ! हे (प्रभूवसो) प्रभूत ऐश्वर्यसम्पन्न परमेश्वर ! अथवा हे सामर्थ्यवान् होकर सब विश्व में बसने हारे अन्तर्यामिन् ! प्रभो ! (ते) तेरे (तानि) वे समाधि दशा में प्रकट होने हारे तेज (सुसहा) अन्य सब चित्तवृत्तियों और व्युत्थान संस्कारों को उत्तम रीति से विनाश करने हारे होते हैं। अतः उनसे ही तू (समुद्रम्) उस रसों के आनन्ददायक स्रोत को (वर्ध) और बढ़ा । ज्योतिष्मती विशोका के विवरण में व्यासदेव ने लिखा है— “हृदय पुण्डरीके धारयतो या बुद्धिसंवित् बुद्धिसत्वं हि भास्वरमाकाशकल्पं तत्र स्थितिवैशारद्यात् प्रवृत्तिः सूर्येन्दुग्रहमणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते तथा अस्मितायां समापन्नं चित्तं निस्तरङ्गमहोदधिकल्पं शान्तमनन्तमस्मितामात्रं भवति।” इसका विवरण देखो अवि० सं० [१७५६] पृ० ७५३-७५७ पर उद्धरण टिप्पण। इस मन्त्र में समुद्र शब्द से ‘निस्तरंगमहोदधिकल्प’ चित्तदशा का ही ग्रहण होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरः प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे (प्रभूवसो) प्रभूतैश्वर्य (सोम) जगत्पते सर्वान्तर्यामिन् परमेश ! (पुनानाय) स्वात्मानं पवित्रीकुर्वाणाय उपासकाय (ते) तव (तानि) प्रसिद्धानि तेजांसि (सुषहा) सुषहाणि सम्यक् कामक्रोधादिरिपूणामभिभवकराणि, सन्तु इति शेषः। हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय सोम चन्द्रवदाह्लादक देव ! त्वम् (समुद्रम्) ऐश्वर्यसमुद्रम् (वर्ध) वर्धय। [रायः समुद्रांश्चतुरः। साम० ७० इति वचनात् समुद्रेणात्र ऐश्वर्यसमुद्रो गृह्यते] ॥३॥
भावार्थः
पूर्णः सोमश्चन्द्रो यथा जलस्य समुद्रं वर्धयति तथैव भक्त्युपहारैः पूर्णः सोमः परमेश्वर उपासकाय भौतिकस्य दिव्यस्य चैश्वर्यस्य समुद्रं वर्धयति ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Omnipresent God, tong in the Vedas, Thy halos realisable in Yoga Samadhis, destroy all opposing forces of evil. Fill full the sea of joy !
Meaning
O Soma, lord of universal wealth, power and honour, those divine showers of generosity, those songs of adoration and lights of glory, are holy and winsome for your celebrant. Let the admirable ocean rise and expand. (Rg. 9-29-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (प्रभूवसो उक्थ्य सोम) હે ભરપૂર ધન એશ્વર્યવાળા પ્રસંશનીય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (ते पुनानाय) તુજ અધ્યેષમાણ-સ્તુતિ દ્વારા પ્રાર્થિત કરવામાં આવતાં વા સ્તુતિ દ્વારા પ્રાપ્ત થનારનું (तानि सुषहा) સુશોભન સહન કરવા યોગ્ય શાન્ત તેજ છે; તેનાથી (समुद्रं वर्ध) સમ્યક્-ઉલ્લાસ પૂર્ણ ઉપાસક પુરુષની વૃદ્ધિ કર-સમૃદ્ધ કર. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
पूर्णचंद्ररूपी सोम जसा पाण्याचा समुद्र वाढवितो तसेच भक्तीच्या उपहाराने पूर्ण सोम परमेश्वर उपासकासाठी भौतिक व दिव्य ऐश्वर्याचा समुद्र समृद्ध करतो. ॥३॥
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