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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1773
    ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    28

    य꣡स्य꣢ ते महि꣣ना꣢ म꣣हः꣡ परि꣢꣯ ज्मा꣣य꣡न्त꣢मी꣣य꣡तुः꣢ । ह꣢स्ता꣣ व꣡ज्र꣢ꣳ हिर꣣ण्य꣡य꣢म् ॥१७७३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । महिना꣢ । म꣣हः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । ज्मा꣣य꣡न्त꣢म् । ई꣣य꣡तुः꣢ । ह꣡स्ता꣢꣯ । व꣡ज्र꣢꣯म् । हि꣣रण्य꣡य꣢म् ॥१७७३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ते महिना महः परि ज्मायन्तमीयतुः । हस्ता वज्रꣳ हिरण्ययम् ॥१७७३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । ते । महिना । महः । परि । ज्मायन्तम् । ईयतुः । हस्ता । वज्रम् । हिरण्ययम् ॥१७७३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1773
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर और जीवात्मा का महत्त्व वर्णित है।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! हे परमेश्वर वा जीवात्मन् ! (महः) महान् (यस्य ते) जिस तेरी (महिना) महिमा से (हस्ता) मनुष्य के दोनों हाथ (ज्मायन्तम्) पृथिवी के समान आचरण करनेवाले अर्थात् विशाल, (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मय (वज्रम्) व को (परि ईयतुः) ग्रहण करते हैं, वह तू (महित्वना आपप्राथ) महिमा से परिपूर्ण है। [यहाँ ‘महित्वना आपप्राथ’ यह वाक्यपूर्ति के लिए पूर्व मन्त्र से लिया गया है] ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य जो विविध शस्त्रास्त्रों का ग्रहण, उन्हें चलाना, शत्रु को जीतना आदि महान् कर्मों को करने में समर्थ होता है, वह महिमा परमेश्वर और जीवात्मा की ही है ॥३॥

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    पदार्थ

    (यस्य ते महः) जिस तुझ महान् परमात्मा की—(महिना) महिमा से (ज्मायन्तं हिरण्ययं वज्रम्) दिव्-द्युलोक—मोक्षधाम से पृथिवी तक११ पहुँचते हुए—चमकते हुए या अमृत१२ ओज को१३ (हस्ता परिईयतुः) हस्तसमान—हँसाने वाले दोनों भोग संसार और अपवर्ग—मोक्ष दोनों प्राप्त कर रहे हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    व्यापक व प्रकाशमय क्रिया

    पदार्थ

    प्रियमेध कहता है कि हे प्रभो ! मैं उन आपका स्मरण करता हूँ (महिना महः) = महिमा से महान् (यस्य ते) = जिस आपके (हस्ता) = हाथ (परिज्यायन्तम्) = चारों ओर सम्पूर्ण पृथिवी को अपनानेवाले (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय (वज्रम्) = क्रियाशीलता को [वज गतौ] (ईयतुः) = प्राप्त होते हैं ।

    प्रभु की महिमा महान् है । जितना- जितना मैं संसार में भ्रमण करता हूँ, उतना उतना आपकी महिमा से मेरा मन प्रभावित होता है। मेरी दृष्टि में आप अधिक और अधिक महान् होते जाते हैं । आपके हाथ निरन्तर क्रियाशील हैं— आपकी क्रिया स्वाभाविक है – वह किसी निजी प्रयोजन को लेकर नहीं हो रही । आपकी सारी क्रियाएँ जीवहित के लिए हैं। वे क्रियाएँ सारी पृथिवी को व्यापनेवाली हैं। उन क्रियाओं में बुद्धिमत्ता व प्रकाश झलक रहा है। आपकी क्रियाएँ सर्वव्यापक और प्रकाशमय हैं । आपकी एक-एक क्रिया आपकी महिमा को प्रकट कर रही है। आपकी एक-एक रचना को देखकर मैं आश्चर्य-निमग्न हो जाता हूँ। आपकी प्रत्येक रचना बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण प्रतीत होती है।

    भावार्थ

    मैं आपकी रचना को बारीकी से देखूँ और आपकी महिमा का अनुभव करूँ । इस महिमा के दर्शन से प्रेरित होकर मैं भी अपनी क्रियाओं को व्यापक व प्रकाशमय बनाऊँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यस्य महतः) जिस महान तेरी (महिना) बड़ीभारी शक्ति से (हस्तौ) तेरे हनन साधन दो विशाल शक्तियां (परि) सर्वत्र (ज्मायन्तं) व्यापक (हिरण्ययम्) गतिशील (वज्रं) वज्र को (ईयतुः) ग्रहण करती हैं वह तू इन्द्र है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य जीवात्मनश्च महत्त्वमाचष्टे।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे परमेश जीवात्मन् वा ! (महः) महतः (यस्य ते) यस्य तव (महिना) महिम्ना (हस्ता) मनुष्यस्य हस्तौ (ज्मायन्तम्) मां पृथिवीमिवाचरन्तम् विशालमित्यर्थः, (हिण्ययम्) ज्योतिर्मयम् (वज्रम्) आयुधम् (परि ईयतुः) परिगृह्णीतः, स त्वं ‘महित्वना आ पप्राथ’ इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥३॥

    भावार्थः

    यन्मनुष्यो विविधायुधपरिग्रहणपरिचालनशत्रुविजयादीनि महान्ति कर्माणि कर्तुं समर्थो जायते स महिमा परमेश्वरस्य जीवात्मनश्चैव वर्तते ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thou art that God, Whoso both hands of knowledge and action, through Thy grand Majesty, wield commendable power, that spreads wide on the Earth.

    Translator Comment

    God has been described as Dwijamna, i.e., doubly born In this verse and the previous one, as God is realizable by the joint efforts of two forces, the body and Om, as fire is kindled by rubbing together the two pieces of wood.

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    Meaning

    Indra who are infinitely great by virtue of your omnipotence, your hands wield the thunderbolt of justice and golden grace which reaches everywhere over the universe. (Rg. 8-68-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यस्य ते महः) જે તુજ મહાન પરમાત્માના (महिना) મહિમા દ્વારા (ज्मायन्तं हिरण्ययं वज्रम्) લોક-મોક્ષધામથી પૃથિવી સુધી પહોંચીને-ચમકતાં અથવા અમૃત ઓજને (हस्ता परि ईयतुः) હાથ સમાન-હસાવનાર બન્ને = ભોગ-સંસાર અને અપવર્ગ-મોક્ષ બન્ને પ્રાપ્ત કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस जो विविध शस्त्रे - अस्त्रे बाळगतो, त्यांना चालवितो, शत्रूंना जिंकतो हे महान कर्म करण्यात समर्थ असतो तो महिमा परमेश्वर व जीवात्म्याचाच आहे. ॥३॥

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