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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1802
    ऋषिः - सुदासः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    23

    त्व꣢꣫ꣳ सिन्धू꣣ꣳर꣡वा꣢सृजोऽध꣣रा꣢चो꣣ अ꣢ह꣣न्न꣡हि꣢म् । अ꣣शत्रु꣡रि꣢न्द्र जज्ञिषे꣣ वि꣡श्वं꣢ पुष्यसि꣣ वा꣡र्य꣢म् । तं꣢ त्वा꣣ प꣡रि꣢ ष्वजामहे꣣ न꣡भ꣢न्तामन्य꣣के꣡षां꣢ ज्या꣣का꣢꣫ अधि꣣ ध꣡न्व꣢सु ॥१८०२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्व꣢म् । सि꣡न्धू꣢꣯न् । अ꣡व꣢꣯ । अ꣡सृजः । अधरा꣡चः꣢ । अ꣡ह꣢꣯न् । अ꣡हि꣢꣯म् । अ꣣शत्रुः꣢ । अ꣣ । शत्रुः꣢ । इ꣣न्द्रः । जज्ञिषे । वि꣡श्व꣢꣯म् । पु꣣ष्यसि । वा꣡र्य꣢꣯म् । तम् । त्वा꣣ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣जामहे । न꣡भ꣢꣯न्ताम् । अ꣣न्यके꣡षा꣢म् । अ꣣न् । यके꣡षा꣢म् । ज्या꣡काः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯सु ॥१८०२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वꣳ सिन्धूꣳरवासृजोऽधराचो अहन्नहिम् । अशत्रुरिन्द्र जज्ञिषे विश्वं पुष्यसि वार्यम् । तं त्वा परि ष्वजामहे नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥१८०२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । सिन्धून् । अव । असृजः । अधराचः । अहन् । अहिम् । अशत्रुः । अ । शत्रुः । इन्द्रः । जज्ञिषे । विश्वम् । पुष्यसि । वार्यम् । तम् । त्वा । परि । स्वजामहे । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । अन् । यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वसु ॥१८०२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1802
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा का शत्रु-रहित होना वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (अहिम्) आनन्द-वर्षा में बाधक विघ्न-समूह को (अहन्) नष्ट करते हो और फिर (सिन्धून्) आनन्द के प्रवाहों को (अधराचः) जीवात्मा के अभिमुख करके (अवासृजः) छोड़ देते हो। आप (अशत्रुः) शत्रु-रहित (जज्ञिषे) हो। आप (विश्वम्) सब (वार्यम्) वरणीय उपासक-समाज को (पुष्यसि) पुष्टि देते हो। (तं त्वा) उन आपका, हम (परिष्वजामहे) आलिङ्गन करते हैं। ऐसा करो, जिससे (अन्येषाम्) शत्रुओं की (धन्वसु अधि) धनुषों पर चढ़ायी हुई (ज्याकाः) डोरियाँ (नभन्ताम्) टूट जाएँ ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य वर्षा की रुकावट को नष्ट करके बादलों से जल-धाराएँ छोड़कर सब प्राणियों और ओषधि आदि को पुष्टि देता है, अथवा जैसे कोई सेनापति ऐश्वर्य-प्रतिबन्धक शत्रु को मार कर राष्ट्र में ऐश्वर्य की धाराएँ प्रवाहित करके प्रजा को पोषण देता है, वैसे ही जगदीश्वर आनन्द के प्रतिबन्धक विघ्नों को दूर करके उपासक के अन्तरात्मा में आनन्द की धाराएँ बहाकर उसे परिपुष्ट करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन्! (त्वम्) तू (सिन्धून्-अधराचः-असृजः) स्यन्दनशील एक दूसरे के पास पहुँचने वाली वेदवाणियों को१० नीचे—अपने अन्दर से ऋषियों के अन्तःकरण में सर्जन करता है—छोड़ता है (अहिम्-अहन्) सर्वत्र प्राप्त अज्ञान को नष्ट करता है (अशत्रुः-जज्ञिषे) तू शत्रुरहित प्रसिद्ध है (विश्वं वार्यं पुष्यसि) हमारे लिये सब वरणीय वस्तु को पुष्ट करता है (तं त्वा परिष्वजामहे) उस तुझको हम सर्वतः आलिङ्गित करते हैं अन्य कुत्सितजनों की दुर्भावनाओं को उनके हृदयावकाशों में ही नष्ट हो जावें या न रहें॥२॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु का आलिङ्गन

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं कि – १. (त्वम्) = तूने (अधराचः) = नीचे की ओर जानेवाले [अधर+अञ्च् ] (सिन्धून्) =[स्यन्दन्ते] जलों के अध्यात्मरूप रेत:कणों को (अवासृजः) = विषय-भोग का हेतु बनने से पृथक् किया है। ये रेत: कण अब ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसे उज्ज्वल करने में लगे हैं। २. (अहिम्) = तू ने [अहि=navel] संसार की नाभिभूत यज्ञ को [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] (अहन्) = प्राप्त किया है। विषय-भोगों से दूर हटकर तूने अपने जीवन को यज्ञमय बनाने का प्रयत्न किया है। ३. हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप ऐश्वर्यशाली जीव! तू यज्ञों में प्रवृत्त होकर (अशत्रुः) = कामादि शत्रुओं से रहित जज्ञिषे हो गया है। लोकहित में प्रवृत्त रहने से वैसे भी तेरा कोई शत्रु नहीं रहा । ४. इस यज्ञ प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ है कि (विश्वम्) = सब (वार्यम्) = वरणीय वस्तुओं का तू (पुष्यसि) = पोषण करनेवाला बना है। यज्ञ इहलोक व परलोक दोनों ही स्थानों में कल्याण करता है ।

    प्रभु ऐसे ही जीव से प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर कहते हैं कि (तं त्वा) = उस तुझे (परिष्वजामहे) = आलिङ्गन करते हैं। प्रसन्न पिता जैसे पुत्र को गले लगा लेता है, उसी प्रकार उल्लिखित जीवनवाला व्यक्ति भी प्रभु के आलिङ्गन को प्राप्त करता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! (अन्यकेषाम्) = मेरे शत्रुओं की (ज्याका:) = डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = टूट जाएँ। उनका मुझपर आक्रमण न हो सके। जो व्यक्ति अपने को पूर्णरूप से प्रभु के प्रति दे डालता है, वह 'सुदा:' है और सदा क्रिया में लगे रहने से अपिजवन या पिजवन कहलाता है । यही प्रभु का प्रिय होता है और प्रभु का आलिङ्गन करता है ।

    भावार्थ

    मैं वीर्य को भोग-साधन न बना यज्ञ- साधन बनाऊँ और प्रभु का प्रिय बनूँ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर ! तूने (सिन्धूः) सब नदियों को और शरीर की नाड़ियों को (अधराचः) नीचे जाने हारी (अवासृजः) रचा है। और तु (अहिम्) न हटने वाले या आघात या पीड़ाकारी तामस आवरण, या मेघ को (अहन्) विनाश करता है। हे इन्द्र ! तू (अशत्रुः) शत्रुरहित सब का मित्र (जज्ञिषे) जाना जाता है। ऐसे ही (तं) उस सब के मित्र परमस्नेही (त्वा) आपको (परि स्वजामहे) हम आलिंगन करते हैं, अपना निरन्तर का सङ्गी बनाते हैं, अपनाते हैं, हृदय में धारण करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनो निःसपत्नत्वं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (त्वम् अहिम्) आनन्दवृष्टिबाधकं विघ्नसमूहम् (अहन्) हंसि, ततश्च (सिन्धून्) आनन्दप्रवाहान् (अधराचः) अधरं जीवात्मानं प्रति गमनशीलान् कृत्वा (अवासृजः) अवसृजसि विमुञ्चसि। त्वम् (अशत्रुः) निःसपत्नः (जज्ञिषे) जातोऽसि। त्वम् (विश्वम्) सर्वम् (वार्यम्) वरणीयम् उपासकजनम् (पुष्यसि) पुष्णासि। (तं त्वा) तादृशं त्वाम्, वयम् (परिष्वजामहे) आश्लिष्यामः। तथा कुरु येन (अन्यकेषाम्) शत्रूणाम् (धन्वसु अधि) धनुःषु अधिरोपिताः (ज्याकाः) प्रत्यञ्चाः (नभन्ताम्) त्रुट्यन्ताम् ॥२॥

    भावार्थः

    यथा सूर्यो वृष्टिप्रतिबन्धकं हत्वा मेघेभ्यो वारिधारा विमुच्य सर्वं प्राणिजातमोषध्यादिकं च पुष्णाति, यथा वा कश्चित् सेनापतिरैश्वर्यप्रतिबन्धकं शत्रुं हत्वा राष्ट्रे ऐश्वर्यधाराः प्रवाह्य प्रजां पुष्णाति तथैव जगदीश्वर आनन्दप्रतिबन्धकं विघ्नसमूहं विहत्योपासकस्यान्तरात्ममानन्दधाराप्रवाहेण तं परिपोषयति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, destroying the cloud, Thou makest the rivers flow down. Foeless, Thou art known as the Friend of all. Thou tendest well each choicest thing. Therefore we draw us close to Thee. The weak bow-strings of our weak internal foes like lust and anger break upon the sight of God!

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    Meaning

    Indra, you release the floods of rivers to flow down on the earth. You destroy the demon of darkness, evil, want and ignorance. You are born without an equal, adversary and enemy, and you promote the choicest wealth and excellence of the world. Such as you are we love and embrace you as our closest loving friend and companion. Let the alien strings of the enemy bows snap upon their bows. (Rg. 10-133-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (सिन्धून् अधराचः असृजः) સ્યંદનશીલ એક-બીજાની પાસે પહોંચનારી વેદવાણીઓની નીચે-પોતાની અંદરથી ઋષિઓના અન્તઃકરણમાં સર્જન કરે છે-છોડે છે. (अहिम् अहन्) સર્વત્ર પ્રાપ્ત અજ્ઞાનનો નાશ કરે છે. (अशत्रुः जज्ञिषे) તું શત્રુરહિત પ્રસિદ્ધ છે. (विश्वं वार्यं पुष्यसि) અમારે માટે સર્વ વસ્તુઓને પુષ્ટ કરે છે. (तं त्वा परिष्वजामहे) તે તને અમે સમગ્ર ભેટીએ છીએ. અન્ય કુત્સિતજનોની દુર્ભાવનાઓ તેઓના હૃદયાવકાશમાં જ નાશ પામે અથવા ન રહે. (अन्यकेषां ज्याकाः अधि धन्वसु) અન્ય કુત્સિતજનોની અમને હરાવવાની દબાવવાની દુર્ભાવનાઓ તેઓના હૃદયાવકાશોમાં (नभन्ताम्) નાશ પામે અથવા દુર્ભાવના ન થાય-ન રહે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सूर्य वृष्टीचा अडथळा नष्ट करून मेघातून जलधारा सोडून सर्व प्राण्यांना व औषधी इत्यादीला पुष्टी देतो अथवा जसे एखादा सेनापती ऐश्वर्य-प्रतिबंधक शत्रूंना मारून राष्ट्रात ऐश्वर्याच्या धारा प्रवाहित करून प्रजेचे पोषण करतो तसेच जगदीश्वर आनंदच्या प्रतिबंधक विघ्नांना दूर करून उपासकाच्या अंतरात्म्यात आनंदाच्या धारा प्रवाहित करून त्याला परिपुष्ट करतात. ॥२॥

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