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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1809
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    32

    आ꣢ त्वा꣣ ग्रा꣢वा꣣ व꣡द꣢न्नि꣣ह꣢ सो꣣मी꣡ घोषे꣢꣯ण वक्षतु । दि꣣वो꣢ अ꣣मु꣢ष्य꣣ शा꣡स꣢तो꣣ दि꣡वं꣢ य꣣य꣡ दि꣢वावसो ॥१८०९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । त्वा꣣ । ग्रा꣡वा꣢꣯ । व꣡द꣢꣯न् । इ꣣ह꣢ । सो꣣मी꣢ । घो꣡षे꣢꣯ण । व꣣क्षतु । दि꣣वः꣢ । अ꣣मु꣡ष्य꣢ । शा꣡स꣢꣯तः । दि꣡व꣢꣯म् । य꣣य꣢ । दि꣣वावसो । दिवा । वसो ॥१८०९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा ग्रावा वदन्निह सोमी घोषेण वक्षतु । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥१८०९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । ग्रावा । वदन् । इह । सोमी । घोषेण । वक्षतु । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो । दिवा । वसो ॥१८०९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1809
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर परमात्मा को पुकारा जा रहा है।

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर ! (इह) इस देहपुरी में (सोमी) श्रद्धारस से भरा हुआ (ग्रावा) पूजक जीवात्मा (वदन्) स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ (घोषेण) स्वागत-शब्द से (त्वा) आपको (आ वक्षतु) अपने पास लाये। हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! (दिवः) तेजोमयी देहपुरी के (शासतः) शासक (अमुष्य) इस जीवात्मा की (दिवम्) तेजोमयी देहपुरी में, आप (यय) आओ ॥३॥

    भावार्थ

    जो हार्दिक स्वागत-वचनों के साथ परमात्मा को पुकारता है, उसकी प्रार्थना को वह अवश्य सुनता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (त्वा) हे इन्द्र—परमात्मन् तुझे (ग्रावा) अर्चना करनेवाला८ विद्वान्९ (सोमी) उपासना रस वाला (इह) इस अध्यात्मयज्ञ में (घोषेण वदन्) अव्यक्त—मानसिक जप से बोलता हुआ तेरी स्तुति करता हुआ (आ-वक्षतु) भली-भाँति प्राप्त करे, शेष पूर्ववत्॥३॥

    विशेष

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    विषय

    संयमी विद्वान् का उपदेश

    पदार्थ

    प्रभु कहते हैं कि हे नीपातिथे ! [तत्त्वज्ञान की प्राप्ति की इच्छावाले जीव !] (त्वा) = तुझे (सोमी) = सोमशक्ति का [वीर्य-शक्ति का] अपने में संयम करनेवाला (ग्रावा) = विद्वान् [विद्वांसो हि ग्रावाण: श० ३.९.३.१४] (आवदन्) = ज्ञान-विज्ञान का उपदेश देता हुआ (घोषेण) = वेदमन्त्रों के उच्चारण से (इह) = इस प्रकाशमय लोक में (वक्षतु) = प्राप्त कराए । = आचार्य को विद्वान् तो होना ही चाहिए, विद्वत्ता के साथ उसका ब्रह्मचारी संयमी जीवनवाला होना भी आवश्यक है । वह व्यापक ज्ञान को प्राप्त करानेवाला हो [आ] । वेदमन्त्रों के उच्चारण से आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान देता है और उसे प्रकाशमय लोक में प्राप्त कराता है । = जीव का यही मौलिक कर्त्तव्य है कि वह 'दिवावसु' - ज्ञान धनवाला बने और उस प्रकाशमय ब्रह्माण्ड के शासक प्रभु के प्रकाशमय लोक को प्राप्त करे। 

    भावार्थ

    हम संयमी विद्वान् के शिष्य बनें ।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    हे प्रभो ! (इह) इस संसार में, इस जन्म में (सोमी) सोमरस का आस्वादन करने हारा आत्मज्ञानी (ग्रावा) विद्वान्, ज्ञानोपदेशक (त्वा) तेरी (वदन्) स्तुति करता हुआ (घोषेण) वेद ज्ञान के साथ ही (त्वा वक्षतु) तुझे प्राप्त हो। हे (दिवावसो) आत्मन् ! (अमुष्य शासतः दिवः दिवं यय) आत्मक्रीड़, आत्मरति होकर उस शासन करने हारे परमात्मा के प्रकाशस्वरूप मोक्ष लोक को तू प्राप्त हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमेश्वर आहूयते।

    पदार्थः

    हे जगदीश्वर ! (इह) अस्यां देहपुरि (सोमी) श्रद्धारसमयः (ग्रावा) अर्चको जीवात्मा। [गृणातिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४।] (वदन्) स्तोत्राणि उच्चारयन् (घोषेण) स्वागतशब्देन (त्वा) त्वाम् (आ वक्षतु) आवहतु। [वहतेर्लोटि विकरणव्यत्ययेन सिप्।] हे (दिवावसो) दीप्तिधन परमात्मन् ! (दिवः) द्योतमानायाः देहपुर्याः (शासतः) शासकस्य (अमुष्य) अस्य जीवात्मनः (दिवम्) द्युतिमयीं देहपुरीम्, त्वम् (यय) आगच्छ ॥३॥

    भावार्थः

    यो हार्दिकैः स्वागतवचोभिः परमात्मानमाह्वयति तत्प्रार्थनां सोऽवश्यं शृणोति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    0 God, may a spiritually advanced, learned preacher, singing Thy praise, attain to Thee in this world, through Vedic knowledge. O soul, attain to salvation, revelling in that Refulgent Lord!

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    Meaning

    The maker of soma, creator of the joy of a new life, would welcome you here with a loud proclamation and exalt you with the voice of thunder, and from the light and power of the sages revelation, O lover of light, go and rise to your own essential heaven of freedom. (Rg. 8-34-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (त्वा) હે ઇન્દ્ર-પરમાત્મન-તને (ग्रावा) અર્ચના કરનાર વિદ્વાન (सोमी) ઉપાસનારસવાળા (इह) એ અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (घोषेण वदन्) અવ્યક્ત-માનસિક જપથી બોલીને તારી સ્તુતિ કરતાં (आ वक्षतु) સારી રીતે પ્રાપ્ત કરે. તેમ (दिवावसो) હે પ્રકાશ ધનવાળા અથવા પ્રકાશમાં વસાવનાર પરમાત્મન્ ! (अमुष्य दिवः शासतः) તે પ્રકાશમય અમૃતલોક મોક્ષધામનું શાસન ચલાવનાર પોતાનાં (दिवं यय) પ્રકાશમય અમૃતધામમાં મને-ઉપાસકને લઈ જા-પ્રાપ્ત કરાવ. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो हृदयपूर्वक स्वागत-वचनांसह परमेश्वराला साद घालतो तेव्हा तो त्याची प्रार्थना अवश्य ऐकतो. ॥३॥

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