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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1825
ऋषिः - अग्निः प्रजापतिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
52
अ꣣ग्नि꣡रिन्द्रा꣢꣯य पवते दि꣣वि꣢ शु꣣क्रो꣡ वि रा꣢꣯जति । म꣡हि꣢षीव꣣ वि꣡ जा꣢यते ॥१८२५
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्निः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । दिवि꣢ । शु꣣क्रः꣢ । वि । रा꣣जति । म꣡हि꣢꣯षी । इ꣣व । वि꣢ । जा꣣यते ॥१८२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरिन्द्राय पवते दिवि शुक्रो वि राजति । महिषीव वि जायते ॥१८२५
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः । इन्द्राय । पवते । दिवि । शुक्रः । वि । राजति । महिषी । इव । वि । जायते ॥१८२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1825
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर का महत्त्व वर्णित करते हैं।
पदार्थ
(अग्निः) संसार का नायक सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए अर्थात् जीव का हित करने के लिए (पवते) उसे प्राप्त होता है। (शुक्रः) पवित्र और तेजस्वी वह (दिवि) चमकीले द्युलोक में, सूर्य, तारामण्डल आदि में (वि राजति) विशेषरूप से चमक रहा है। वह (महिषी इव) पूज्या माता के समान (वि जायते) प्रसिद्ध होता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर हमारा पिता और माता भी है। पिता होता हुआ वह मनुष्य-शरीर की और ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करता है, माता के रूप में वह सबका लालन-पालन करता है ॥१॥
पदार्थ
(अग्निः) अग्रणेता परमात्मा (इन्द्राय पवते) उपासक आत्मा के लिये प्राप्त होता है (शुक्रः-दिवि वि राजति) जोकि शुभ्र—प्रकाशमान हुआ मोक्षधाम में विशेषरूप से विराजमान है (महिषी-इव वि जायते) महिमा६ वाला७ विशेषरूप से या विविध गुणयोग से साक्षात् होता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—प्रजापतिरग्निः (प्रजा का स्वामी-इन्द्रियों का स्वामी विद्वान्)॥ देवता—अग्निः (अग्रणेता परमात्मा)॥<br>
विषय
प्रभु की प्रवृत्ति जीव के लिए
पदार्थ
सम्पूर्ण संसार के संचालक वे प्रभु ‘अग्नि' हैं—‘अग्रेणी: ' हैं, वे सभी को आगे और आगे लेचल रहे हैं। सम्पूर्ण संसार में वे व्याप्त हैं— सब स्थानों में पहले से ही प्राप्त हैं, अतः स्वयं गतिशून्य -होते हुए भी वे सारे ब्रह्माण्ड को गति दे रहे हैं। (‘तदेजति तन्नैजति') = वे स्वयं कूटस्थ हैं, परन्तु सबको कम्पित कर रहे हैं, परन्तु प्रभु में ये सारी क्रिया क्यों हैं? वे तो आप्त काम हैं, फिर वे किस कामना की पूर्ति के लिए गति कर रहे हैं ? मन्त्र में कहते हैं कि (अग्निः) = गति के स्रोत वे प्रभु (इन्द्राय) = जीव के लिए - जीव के हित के लिए (पवते) = गति कर रहे हैं। प्रभु की सारी क्रिया जीवहित के लिए है।
वे प्रभु स्वयं तो (शुक्रः) = शुद्ध – दीप्तरूप हैं, वे अपने (दिवि) = द्योतनात्मकरूप में (विराजति) = शोभायमान हैं। ये सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के द्योतमानरूप में अविकृतरूप से विद्यमान है [पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ] ।
प्रभु से अधिष्ठित यह प्रकृति (महिषी इव) = महिषी के समान (विजायते) = विविध पदार्थों को जन्म देती है। जैसे पत्नी घर को धारण करने के लिए आवश्यक पदार्थों का निर्माण करने में लगी रहती है उसी प्रकार परमेश्वर से अधिष्ठित हुई हुई प्रकृति जीवहित के लिए विविध आवश्यक पदार्थों को जन्म देती है ।
प्रभु पिता है और प्रकृति माता । ये प्रकृति माता महिषी और प्रभु 'शुक्र' हैं । यह प्रकृति प्रभु की योनि है। इसमें वे ‘शुक्र' प्रभु बीज का आधान करते हैं और चराचर जगद्रूप सन्तान का जन्म होता है।
एवं, प्रभु स्वयं निर्विकार होते हुए भी जीवहित के लिए प्रकृति द्वारा विविध पदार्थों को जन्म दिला रहे हैं। प्रभु की चेष्टा जीव के लिए है, न कि अपने लिए । प्रभु का भक्त भी यह अनुभव करता हुआ यत्न करता है कि उसकी प्रवृत्ति प्रजाहित के लिए हो, स्वार्थ के लिए नहीं । प्रभु की सृष्टि भी उसे यही उपदेश देती प्रतीत होती है, क्योंकि (“स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:") = वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाते । ('पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भ:) = नदियाँ अपने पीने के लिए पानी प्रवाहित नहीं करतीं, ('नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः') = बादल निश्चय से स्वयं अनाज को नहीं खाते। इन बातों को देखकर यह प्रभुभक्त भी 'प्रजापति' बनता है और इसी कारण उन्नति करते-करते सचमुच 'अग्नि' बन जाता है । इस प्रकार इन्द्र [जीव] ने अग्नि [ब्रह्म] बनना है यही उसके जीवन का ध्येय हो । प्रजाहित के लिए प्रवृत्त होता हुआ वह उलझे नहीं—अपने ज्ञानमयस्वरूप में दीप्त रहने का ध्यान करें । ।
भावार्थ
प्रजाहित में लगा हुआ व्यक्ति ही सच्चा प्रभुभक्त है।
विषय
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भावार्थ
(अग्निः) वह आत्मा (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये (पवते) विवेक से निर्मल होकर उसकी ओर गति करता है। (शुक्रः) शुक्लकर्मा, निर्मल कान्तिमान् होकर (दिवि) मोक्ष में (विराजति) प्रकाशित होता है। (महिषी इव) जिस प्रकार (महिषी) राजमहिषी, महारानी नाना प्रकार के रूप धारण करके प्रजा के सम्मुख उपस्थित होती है उसी प्रकार वही आत्मा (विजायते) नाना रूपों में प्रकट होता अथवा (महिषी इव) दुग्धरस देने हारी भैंस के समान वही आत्मा आनन्दरस की धार वर्षण करने हारी कामधेनु बनकर चितिशक्ति के रूप में ऋतम्भरा रूप से प्रकट होती है। अथवा—अग्नि=परमात्मा इस इन्द्र=आत्मा के लिये प्रकट होता है वही मोक्ष में शुद्ध रूप से विराजमान है। वही उसको रस देने हारी कामधेनु के समान नाना पदार्थ प्रदान करता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र परमेश्वरस्य महत्त्वं वर्ण्यते।
पदार्थः
(अग्निः) जगन्नायकः सर्वान्तर्यामी परमेश्वरः (इन्द्राय) जीवात्मने, जीवात्मनो हितं कर्तुमित्यर्थः (पवते) तं प्राप्नोति। (शुक्रः) पवित्रः तेजस्वी असौ (दिवि) द्योतमाने द्युलोके सूर्यतारामण्डलादिषु (वि राजति) विशेषेण दीप्यते। (महिषी इव) पूजनीया माता इव च (वि जायते) प्रसिद्धो भवति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
परमेश्वरोऽस्माकं पिता माता चापि विद्यते। पिता सन्नसौ मानवदेहस्य ब्रह्माण्डस्य च व्यवस्थां करोति, मातृरूपेण च सर्वेषां लालनं पालनं च विदधाति ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The soul, for the attainment of God, purified through discernment goes unto Him. The soul shines far resplendent in salvation. The soul manifests itself in different forms, just as a queen presents her-self to her subjects in different apparels.
Translator Comment
$ Some Commentators have translated महिषि as a buffalo-cow. Just as a buffalo gives us milk and butter, eating grass, so does the soul make the stream of joy flow for us.
Meaning
Agni, fire of yajna and light of the sun, indeed all light and energy of existence, rises, radiates and shines pure and powerful in honour and adoration of Indra, lord omnipotent, unto the heavens. It rises and shines on and on anew in space-time continuum as the ruling power of the omnipotent.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्निः) અગ્રણી પરમાત્મા (इन्द्राय पवते) ઉપાસક આત્માને માટે પ્રાપ્ત થાય છે, (शुक्रः दिवि वि राजति) જે તે શુભ્ર-પ્રકાશમાન થઈને મોક્ષધામમાં વિશેષ રૂપથી વિરાજમાન છે. (महिषी इव वि जायते) મહિમાવાળા વિશેષ રૂપથી અથવા વિવિધ ગુણયોગથી સાક્ષાત્ થાય છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर आमचा पिता व माताही आहे, पिता असल्यामुळे तो मनुष्य-शरीराची व ब्रह्मांडाची व्यवस्था करतो, मातेच्या रूपात तो सर्वांचे पालन करतो. ॥१॥
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