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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1835
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    30

    शि꣡क्षे꣢यमस्मै꣣ दि꣡त्से꣢य꣣ꣳ श꣡ची꣢पते मनी꣣षि꣡णे꣢ । य꣢द꣣हं꣡ गोप꣢꣯तिः꣣ स्या꣢म् ॥१८३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि꣡क्षे꣢꣯यम् । अ꣣स्मै । दि꣡त्से꣢꣯यम् । श꣡ची꣢꣯पते । श꣡ची꣢꣯ । प꣣ते । मनीषि꣡णे꣢ । यत् । अ꣣ह꣢म् । गो꣡प꣢꣯तिः । गो । प꣣तिः । स्या꣢म् ॥१८३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिक्षेयमस्मै दित्सेयꣳ शचीपते मनीषिणे । यदहं गोपतिः स्याम् ॥१८३५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शिक्षेयम् । अस्मै । दित्सेयम् । शचीपते । शची । पते । मनीषिणे । यत् । अहम् । गोपतिः । गो । पतिः । स्याम् ॥१८३५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1835
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (शचीपते) सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर ! (यदि अहम्) यदि मैं (गोपतिः) भूमियों वा धेनुओं का स्वामी हो जाऊँ, तो उन भूमियों वा धेनुओं को (दित्सेयम्) मैं दान करने का सङ्कल्प लूँ और (अस्मै मनीषिणे) इस मेधावी विद्वान् को (शिक्षेयम्) उनका दान कर दूँ ॥२॥

    भावार्थ

    धनपतियों का यह कर्तव्य है कि वे जिस धन के स्वामी हों,उस धन का कम से कम शतांश सत्पात्रों को अवश्य दान करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (शचीपते) हे प्रज्ञा१ प्रज्ञान—प्रकृष्टज्ञान के स्वामिन् परमात्मन् (यद्-अहं गोपतिः स्याम्) यदि मैं गो—स्तुति वाणियों का स्वामी बन जाऊँ—कुशल स्तुतिकर्ता बन जाऊँ, तो (अस्मै मनीषिणे) इस बुद्धिमान् तेरे स्तोता के लिये जो मेरे पास धन है उसे (दित्सेयम्) देने की इच्छा करूँ, और (शिक्षेयम्) देदूँ२ भी तब परमात्मन् तू भी जितना ऐश्वर्य तेरे पास है मुझ अपने स्तुतिकर्ता को देदे—दे देता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    मनीषी ही ज्ञान का अधिकारी है

    पदार्थ

    उल्लिखित उपालम्भ को दुहराता हुआ ही यह 'गोषूक्ति' कहता है- हे (शचीपते) = [शची=१. वाणी, २. शक्ति] वाणियों के पति, शक्तिशाली प्रभो ! (यत्) = यदि (अहम्) = मैं (गोपतिः) = वेदवाणियों का पति (स्याम्) = होऊँ तो (अस्मै) = इस (मनीषिणे) = मन का शासन करनेवाले बुद्धिमान् के लिए (शिक्षेयम्) = इन वाणियों का अवश्य शिक्षण करूँ [शिक्ष= to teach], (दित्सेयम्) = अवश्य देने की इच्छा करूँ । यह तो है ही नहीं कि आप वेदवाणियों के पति न हों, यह भी नहीं कि आपमें सामर्थ्य न हो । यही हो सकता है कि मेरे मनीषित्व में कुछ कमी हो । वस्तुतः मन का शासन किये बिना ज्ञान की प्राप्ति सम्भव भी तो नहीं, परन्तु हे प्रभो ! मुझे मनीषी बनने की शक्ति भी तो आपको ही देनी है। आपकी कृपा से मैं मनीषी बनूँ, जिससे आप मुझे वेदवाणी देने की इच्छा करें।

    भावार्थ

    मनीषी ही ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी है। हम मनीषी=मन के शासक बनें और वेदज्ञान को प्राप्त करें ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( शचीपते ) = हे बुद्धि के स्वामिन् परमात्मन्! ( यत् ) = यदि  ( अहं गोपतिः स्याम् ) = मैं जितेन्द्रिय वाणी वा पृथिवी का स्वामी हो जाऊँ तो  ( अस्मै मनीषिणे ) = इस उपस्थित बुद्धिमान् जिज्ञासु को  ( शिक्षेयम् ) = शिक्षा दूँ और  ( दित्सेयम् ) = दान देने की इच्छा करूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे वेदविद्याऽधिपते अन्तर्यामिन् ! आप हम पर कृपा करें कि, हम जितेन्द्रिय होकर आपकी वेदरूपी वाणी के ज्ञाता हों और वेदों का पाठ वा उनके अर्थ जानने की इच्छावाले अधिकारियों को सिखलाएँ। आपकी कृपा से यदि हम पृथिवी वा धन के मालिक बन जायें तो अनाथों का रक्षण करें और विद्वान् महात्मा पुरुष सुपात्रों को दान देवें । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (यद्) यदि (अहं) मैं (गोपतिः) वाणी, भूमि और गौओं का पति=पालक (स्याम्) होऊं तो हे (शचीपते) शक्तिमन् ईश्वर ! आत्मा और ब्रह्मविद्या के स्वामिन् ! मैं (अस्मै) इस (मनीषिणे) मनस्वी, जितेन्द्रिय बुद्धिमान् पुरुष को (दित्सेयं) दान कर दूं और (शिक्षेय) विद्या की शिक्षा दूं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे शचीपते सर्वशक्तिमन् जगदीश ! (यदि अहम्) अहं चेत् (गोपतिः) गवां भुवां धेनूनां वा (पतिः) स्वामी (स्याम्) भवेयम्, तदा ताः भुवो धेनूर्वा (दित्सेयम्) दातुमिच्छेयम्, (अस्मै मनीषिणे) एतस्मै मेधाविने विदुषे (शिक्षेयम्) दद्यां च। [शिक्षतिर्दानकर्मा। निघं० ३।२०] ॥२॥

    भावार्थः

    धनपतीनामिदं कर्तव्यं यत्ते यस्य धनस्य स्वामिनो भवेयुस्तस्य धनस्य न्यूनान्न्यूनं शतांशं सत्पात्रेभ्योऽवश्यं दद्युः ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I would be fain, O Lord of power, to impart wealth to, and instruct the intelligent pupil, were I the lord of kine, laud and speech.

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    Meaning

    O lord and master of world power and prosperity, Indra, if I were master of knowledge and controller of power, I would love to share and give wealth and knowledge to this noble minded person of vision and wisdom. (Rg. 8-14-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (शचीपते) હે પ્રજ્ઞા પ્રજ્ઞાન-પ્રકૃષ્ટ-જ્ઞાનના સ્વામિન્-પરમાત્મન્ ! (यद अहं गोपतिः स्याम्) જો હું ગો-સ્તુતિ વાણીઓનો સ્વામી બની જવું-કુશળ સ્તુતિકર્તા બની જવું, તો (अस्मै मनीषिणे) એ બુદ્ધિમાન તારા સ્તોતાને માટે જે મારી પાસે ધન છે તેને (दित्सेयम्) આપવાની ઇચ્છા કરું; અને (शिक्षेयम्) આપી દવું પણ ત્યારે પરમાત્મન્ ! તું પણ જેટલું ઐશ્વર્ય તારી પાસે છે, તેટલું મને-તારી સ્તુતિકર્તાને આપી દે-આપી દે છે. (૨)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    শিক্ষেয়মস্মৈ দিৎসেয়ং শচীপতে মনীষিণে।

    যদহং গোপতিঃ স্যাম্।।৭১।।

    (সাম ১৮৩৫)

    পদার্থঃ (শচীপতে) হে বুদ্ধির স্বামী পরমাত্মা ! (যৎ) যদি (অহম্ গোপতিঃ স্যাম্) আমি জিতেন্দ্রিয় বিদ্যার অথবা ভূমি ও ধনের অধিপতি হয়ে যাই, তাহলে (অস্মৈ মনীষিণে) এই উপস্থিত বুদ্ধিমান বিদ্বান জিজ্ঞাসুকে (শিক্ষেয়ম্) শিক্ষা দান করব এবং (দিৎসেয়ম্) ধন দান করবার চেষ্টা করব।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে বেদবিদ্যাধিপতি অন্তর্যামী! তুমি আমাদের কৃপা করো, যাতে আমরা জিতেন্দ্রিয় হয়ে তোমার বেদ বাণীর জ্ঞাতা হই এবং বেদের পাঠ ও সেগুলোর অর্থ জিজ্ঞাসুদের শেখাতে পারি। তোমার কৃপায় যদি আমরা ভূমি বা ঐশ্বর্যের অধিপতি হই, তাহলে অনাথের রক্ষণ করব এবং বিদ্বান ধর্মাত্মা সদাচারী মানুষকে দান করব।।৭১।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धनवानाचे हे कर्तव्य आहे, की ते ज्या धनाचे स्वामी असतात त्या धनाचा कमीत कमी शतांश सत्पात्रांना अवश्य दान करावे. ॥२॥

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