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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1855
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    28

    अ꣣भि꣢ गो꣣त्रा꣢णि꣣ स꣡ह꣢सा꣣ गा꣡ह꣢मानोऽद꣣यो꣢ वी꣣रः꣢ श꣣त꣡म꣢न्यु꣣रि꣡न्द्रः꣢ । दु꣣श्च्यवनः꣡ पृ꣢तना꣣षा꣡ड꣢यु꣣ध्यो꣢३ऽस्मा꣢क꣣ꣳ से꣡ना꣢ अवतु꣣ प्र꣢ यु꣣त्सु꣢ ॥१८५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भि꣢ । गो꣣त्रा꣡णि꣢ । स꣡ह꣢꣯सा । गा꣡ह꣢꣯मानः । अ꣣दयः꣢ । अ꣣ । दयः꣢ । वी꣣रः꣢ । श꣣त꣡म꣢न्युः । श꣣त꣢ । म꣣न्युः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । दु꣣श्च्यवनः꣢ । दुः꣣ । च्यवनः꣢ । पृ꣣तनाषा꣢ट् । पृ꣣तना । षा꣢ट् । अ꣣युध्यः꣢ । अ꣣ । युध्यः꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । से꣡नाः꣢꣯ । अ꣣वतु । प्र꣢ । यु꣡त्सु꣢ ॥१८५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः । दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्यो३ऽस्माकꣳ सेना अवतु प्र युत्सु ॥१८५५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । गोत्राणि । सहसा । गाहमानः । अदयः । अ । दयः । वीरः । शतमन्युः । शत । मन्युः । इन्द्रः । दुश्च्यवनः । दुः । च्यवनः । पृतनाषाट् । पृतना । षाट् । अयुध्यः । अ । युध्यः । अस्माकम् । सेनाः । अवतु । प्र । युत्सु ॥१८५५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1855
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में जीवात्मा-रूप सेनापति से रक्षा की प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    (सहसा) आत्मबल से (गोत्राणि) व्याधि, स्त्यान, संशय आदि योग-विघ्नों के तथा बाह्य विघ्नों के किलों का (अभि गाहमानः) अवगाहन करता हुआ, (अदयः) आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं पर दया न दिखानेवाला, (वीरः) वीर, (शतमन्युः) अनन्त तेजवाला, (दुश्च्यवनः) शत्रुओं से विचलित न किया जा सकनेवाला, (पृतनाषाट्) शत्रुसेनाओं को पराजित कर देनेवाला, (अयुध्यः) शत्रुओं के लिए जिससे युद्ध कर पाना असम्भव होता है ऐसा (इन्द्रः) जीवात्मा-रूप सेनापति (युत्सु) आन्तरिक तथा बाह्य देवासुरसङ्ग्रामों में (अस्माकं सेनाः) हमारी यम-नियम आदि की सेनाओं को और धार्मिक योद्धाओं की सेनाओं को (प्र अवतु) भली-भाँति रक्षित करे ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे राष्ट्र में कोई वीर सेनापति स्वपक्षीय सेनाओं की शत्रुओं से रक्षा करता है और दुष्ट शत्रुओं का शस्त्रास्त्रों से वधॄ करता है, वैसे ही देह में स्थित जीवात्मा प्रबोध प्राप्त करके अपने सङ्कल्प के बल से और भुजाओं के बल से सब आन्तरिक तथा बाहरी शत्रुओं को पराजित करे ॥१॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) परमात्मा (गोत्राणि) स्तोता के त्राण स्थानों को (सहसा) अपने ओज से (अभिगाहमानः) अभिव्याप्त हुआ (अदयः-वीरः शतमन्युः) अन्य की दया उपेक्षित न करता हुआ स्वयं समर्थ वीर बहुत दीप्तिमान६ (दुश्च्यवनः) अबाध्यः (पृतनाषाट्) विरोधी भावनाओं को दबाने वाला (अयुध्यः) किसी से युद्ध करने—हराने योग्य नहीं पूर्ण शक्तिमान् (अस्माकं सेनाः) हमारी सद्गुण प्रवृत्तियों—हमारे साथ सम्बद्ध सद्भावनाओं को (युत्सु) संघर्षों में (अवतु) वह सुरक्षित रखे॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—प्रजापतिः (इन्द्रियों का स्वामी शरीररथ से उपरत इन्द्र—परमात्मा का उपासक)॥<br>

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    विषय

    कमाएँ पर जोड़े नहीं

    पदार्थ

    (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (गोत्राणि) = धनों को (सहसा) = प्रसन्नतापूर्वक [with a smiling face] (अभिगाहमान:) = सर्वतः अवगाहन करता हुआ, अर्थात् सब सुपथों से प्राप्त करता हुआ (अदयः) = [देङ् रक्षणे] उन्हें अपने पास सुरक्षित रखनेवाला नहीं होता। क्या पेट, जो रुधिर बनता है, उस रुधिर को अपने पास रख लेता है ? अपने पास न रखने से ही वह वस्तुतः स्वस्थ रहता है । इसी प्रकार यह इन्द्र धनों को कमाता है, उनमें अवगाहन करता है-rolls in wealth, परन्तु उन्हें जोड़कर अपने पास नहीं रख लेता, इसीलिए तो वह प्रसन्न भी रहता है । (वीरः) = यह दानवीर बनता है । धन के प्रति आसक्ति न होने से यह कमाता है और देता है (शतमन्युः) = यह सैकड़ों क्रतुओं व प्रज्ञानोंवाला होता है । धनों का यह यज्ञों व ज्ञानप्राप्ति में विनियोग करता ।

    (दुश्च्यवनः) = यह अपने इस यज्ञ-मार्ग से सुगमता से हटाया नहीं जा सकता। धन का लोभ इसे अयज्ञिय नहीं बना पाता यह (पृतनाषाट्) = काम-क्रोधादि शत्रु-सेनाओं का पराभव करनेवाला होता है (अयुध्यः) = काम-क्रोधादि इसे कभी युद्ध में पराजित नहीं कर पाते ।

    यह इन्द्र (प्रयुत्सु) = इन उत्कृष्ट आध्यात्मिक संग्रामों में (अस्माकं सेना) = हमारी दिव्य गुणों की सेनाओं (अवतु) = सुरक्षित करे । काम-क्रोधादि का पराजय हो, प्रेम व मित्रता की भावना की विजय हो ।

    भावार्थ

    हम धन कमाएँ, परन्तु उसे जोड़ें नहीं, जिससे हमारे दिव्य गुण उसमें नष्ट न हो जाएँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    जिस प्रकार (इन्द्रः) वीर सेनापति, या राजा, (गोत्राणि अभि) शत्रुकुलों के प्रति चढ़ाई करता हुआ और उनको (सहसा) अपने बल से (गाहमानः) चीरता हुआ, (अदयः) उन पर दयाभाव न रखता हुआ, (वीरः) वीर, सामर्थ्यवान्, (शतमन्युः) सैकड़ों प्रकार से उन पर क्रोध करने हारा, (दुश्च्यवनः) शत्रुओं से अविचालित, (पृतनाषाट्) शत्रु सेनाओं का विजेता, (युत्सु) युद्धों में अपनी सेनाओं की रक्षा करता है उसी प्रकार (गोत्राणि अभि) देहों के भीतर (सहसा गाहमानः) अपने बल के सामर्थ्य से विचरता हुआ, (अदयः) तपस्या आदि द्वारा शरीर के सुखों पर विचार न कर, निर्भय होकर तप करने हारा (वीरः) सामर्थ्यवान्, (इन्द्रः) आत्मा (शतमन्युः) सैकड़ों प्रज्ञानों से युक्त होकर (दुश्च्यवनः) ऋद्धि सिद्धि के प्रलोभनों में न गिरकर, कूटस्थ होकर, (पृतनाषाट्) दुर्वृत्तियों को दबाता हुआ, (अयुध्यः) अद्वितीय होकर, (युत्सु) संग्रामों में आसुर और सात्विक भावों के परस्पर संग्राम के अवसरों पर (अस्माकं सेनाः) हमारी सात्विक सेना, उत्तम प्राण-वृत्तियों की (प्र अवतु) रक्षा करे।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ जीवात्मरूपः सेनापतिः रक्षणं प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    (सहसा) आत्मबलेन (गोत्राणि) व्याधिस्त्यानसंशयादीनां योगविघ्नानां बाह्यविघ्नानां च दुर्गाणि (अभि गाहमानः) आलोडयमानः, (अदयः) अन्तःशत्रुषु बाह्यशत्रुषु च निर्दयः, (वीरः) पराक्रमवान्, (शतमन्युः) अनन्ततेजाः, (दुश्च्यवनः) रिपुभिरच्याव्यः, (पृतनाषाट्) शत्रुसेनानां पराजेता, (अयुध्यः) शत्रुभिर्योद्धुमशक्यः (इन्द्रः) जीवात्मरूपः सेनापतिः (युत्सु) आन्तरेषु बाह्येषु च देवासुरसंग्रामेषु (अस्माकम् सेनाः) अस्मत्पक्षीयाः यमनियमादीनां धार्मिकाणां योद्धॄणां वा पृतनाः (प्र अवतु) प्रकर्षेण रक्षतु ॥१॥२

    भावार्थः

    यथा राष्ट्रे कश्चिद् वीरः सेनानीः स्वपक्षीयाः सेनाः शत्रुभ्यो रक्षति, दुष्टान् रिपूंश्च शस्त्रास्त्रैर्हिनस्ति तथैव देहाधिष्ठितो जीवात्मा प्रबोधं प्राप्य स्वसंकल्पबलेन बाहुबलेन च सर्वानाभ्यन्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् पराजयेत् ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the King, who, with surpassing vigour pierces the families of the enemies, is pitiless, heroic, full of righteous indignation, unconquerable by foes, conqueror of the enemy’s forces, unequalled in fight, protect our armies in our battles.

    Translator Comment

    See Yajur 17-39.

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    Meaning

    May Indra, breaker of clouds and enemy strongholds, with his courage and valour, unmoved by pity, hero of a hundredfold passion, shaker of the strongest evils, destroyer of enemy forces, irresistible warrior, protect our army in our assaults and advances. (Rg. 10-103-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) પરમાત્મા (गोत्राणि) સ્તોતાનાં રક્ષા સ્થાનોને (सहसा) પોતાના ઓજથી (अभिगाहमानः) અભિવ્યાપ્ત થઈને (अदयः वीरः शतमन्युः) અન્યની દયા ઉપેક્ષિત કરતાં સ્વયં સમર્થ વીર બહુજ પ્રકાશમાન, (दुश्च्यवनः) અબાધ્ય, (पृतनाषाट्) વિરોધી ભાવનાઓને દબાવનાર, (अयुध्यः) કોઈથી પણ યુદ્ધ કરવા હરાવવા યોગ્ય નહિ-પૂર્ણ શક્તિમાન, (अस्माकं सेनाः) અમારી સદ્ગુણ પ્રવૃત્તિઓ-અમારી સાથે સંબંધ સદ્ભાવનાઓને (युत्सु) સંઘર્ષોમાં (अवतु) તે સુરક્ષિત રાખે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे राष्ट्रात एखादा वीर सेनापती स्वपक्षाच्या सेनेचे शत्रूकडून रक्षण करतो व दुष्ट शत्रूंचा शस्त्रास्त्रांनी वध करतो, तसेच देहात स्थित जीवात्म्याने प्रबोधयुक्त बनून आपल्या संकल्प बलाने व बाहुबलाने सर्व आंतरिक व बाह्य शत्रूंना पराजित करावे. ॥१॥

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