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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 193
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    18

    त्वा꣡व꣢तः पुरूवसो व꣣य꣡मि꣢न्द्र प्रणेतः । स्म꣡सि꣢ स्थातर्हरीणाम् ॥१९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वा꣡व꣢꣯तः । पु꣣रूवसो । पुरु । वसो । वय꣣म् । इ꣣न्द्र । प्रणेतः । प्र । नेतरि꣡ति । स्म꣡सि꣢꣯ । स्था꣣तः । हरीणाम् ॥१९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वावतः पुरूवसो वयमिन्द्र प्रणेतः । स्मसि स्थातर्हरीणाम् ॥१९३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वावतः । पुरूवसो । पुरु । वसो । वयम् । इन्द्र । प्रणेतः । प्र । नेतरिति । स्मसि । स्थातः । हरीणाम् ॥१९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 193
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा और विद्वान् को सम्बोधन किया गया है।

    पदार्थ

    हे (पुरूवसो) बहुत धनी, (प्रणेतः) उत्कृष्ट नेता, (हरीणाम्) आकर्षणगुणयुक्त पृथिवी-सूर्य आदि लोकों के, अथवा विषयों की ओर ले जानेवाली इन्द्रियों के, अथवा सवारी देनेवाले विमान आदि यानों के (स्थातः) अधिष्ठाता (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन् व विद्वन् ! (वयम्) हम मनुष्य (त्वावतः) तुझ जैसे किसी अन्य के न होने के कारण जो तू तुझ जैसा ही है, ऐसे तुझ अद्वितीय के (स्मसि) हो गये हैं ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेष है। ‘त्वावतः’ में ‘कमल कमल के समान है’ इत्यादि के सदृश अनन्वय अलङ्कार है ॥९॥

    भावार्थ

    संसार में बिखरे हुए सब धनों का स्वामी, सबका नेता, सूर्य-आदि लोकों का अधिष्ठाता, अनुपम परमेश्वर जैसे सबका वन्दनीय है, वैसे ही बहुत से ज्ञान, कर्म आदि धनों का स्वामी, मार्गप्रदर्शक, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं प्राण, मन, बुद्धि आदि का अधिष्ठाता जीवात्मा भी सबसे सेवनीय है। उसी प्रकार वेग से यात्रा करानेवाले विमान आदियों के निर्माण और चलाने में कुशल, विविध विद्याओं में पारङ्गत, शिल्पशास्त्र के वेत्ता विद्वान् भी मनुष्यों द्वारा सेवनीय है ॥९॥ इस दशति में इन्द्र से सम्बद्ध वरुण, मित्र और अर्यमा के रक्षण की प्रार्थना होने से, इन्द्र की गौओं की प्रशंसा होने से, इन्द्र से गाय, अश्व आदि की याचना होने से, इन्द्र की सरस्वती का आह्वान होने से, इन्द्र का स्तुतिगान होने से तथा इन्द्र नाम से राजा, विद्वान्, आचार्य आदि का भी विषय वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की पाँचवी दशति समाप्त ॥ यह द्वितीय प्रपाठक सम्पूर्ण हुआ ॥ द्वितीय अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (हरीणां स्थातः) हे मनुष्यों के स्थितिस्थापक! “हरयो मनुष्याः” [निघं॰ २.३] (पुरूवसो) बहुत बहुविध भोगापवर्ग धनप्रद! (प्रणेतः) प्रेरक—(इन्द्र) परमात्मन्! (वयं त्वावतः स्मसि) हम तेरे जैसे इन्द्र की उपासना वाले अनन्य हैं—रहें।

    भावार्थ

    परमात्मन्! तू हम मनुष्यों का स्थितिस्थापक मानवता के स्तर पर रखने वाला बहुत प्रकार के भोग अपवर्ग ऐश्वर्य का स्वामी, प्रेरक है, हम भी तेरे जैसे परमात्मा की उपासना करने वाले हैं—बने रहें, तुझ से भिन्न की कभी उपासना न करें। तेरे अनन्य उपासक बने रहें तेरी शरण के पात्र बने रहें॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—वत्सः (परमात्मगुणों का वक्ता प्रार्थी)॥<br>

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    विषय

    तेरे जैसे का अनुगामी बनूँ

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ‘वत्स'=प्रभु का प्यारा है अथवा ऋग्वेद के अनुसार ‘वशी अश्व्यः' है— इन्द्रियरूप अश्वों को वश में करनेवाला।

    यह प्रभु से कहता है-हे (परूवसो)=पालक व पूरक निवास देनेवाले! (इन्द्र)=परमैश्वर्यवाले! (प्रणेतः)=प्रकर्ष की ओर ले-चलनेवाले, प्रकृष्ट नेतृत्व देनेवाले प्रभो! (वयम्)-हम (त्वावत:)-तेरे-जैसे के (स्मसि)=हों, तेरे पीछे चलनेवाले बनें और (हरीणाम्) = इन्द्रियरूप घोड़ों के (स्थातः स्मसि) = अधिष्ठाता बनें।

    प्रभु ने हमें इस शरीर में निवास दिया है, उसका दिया हुआ निवास सुपालित व पूरणवाला है। हम अज्ञान से वस्तुओं व इन्द्रियों का अवाञ्छनीय प्रयोग करके अपने जीवन को असुरक्षित व अपूर्ण बना लेते हैं। प्रभु के उपासक बनेंगे तो हम आसुर वृत्तियों से कभी आक्रान्त न होंगे तथा हमारा जीवन न्यूनताओं से रहित होगा। प्रभु वास्तव में इन्द्र-परमैश्वर्यवाले हैं। प्रभु का नेतृत्व हमें प्रकर्ष की ओर और प्रकृति का नेतृत्व सदा अपकर्ष की ओर ले जाता है। -

    यद्यपि प्रभु की सर्वव्यापकता व निराकारता मुझे प्रभु - दर्शन से वञ्चित कर देती है और उस साक्षात्कार के अभाव में मैं प्रभु का अनुगामी नहीं हो पाता - चकरा- सा जाता हूँ; तो भी (त्वावतः) = प्रभु-जैसों का - प्रभु-भक्तों का अनुगामी तो बन ही सकता हूँ। प्रभु-जैसों का अनुगामी जितेन्द्रिय बनता है, अन्यथा इन्द्रियनिर्जित हो जाता है। जितेन्द्रिय प्रभु का प्यारा बनता है, अत: 'वत्स' कहलाता है और इन्द्रियों को वश में करने के कारण भी ‘वशी’ है, उत्तम इन्द्रियरूप घोड़ोंवाला होने के कारण 'अश्व्य' है।

    भावार्थ

    प्रभु-जैसों का अनुगमन करता हुआ मैं अपनी इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनूँ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( हरीणाम् ) = मनुष्य आदि सकल प्राणियों के  ( स्थातः ) = अधिष्ठाता! ( पुरूवसो ) = पुष्कल वास देनेवाले । ( प्रणेतः ) = उत्तम मार्गदर्शक!  ( इन्द्र ) = परमात्मन्! ( वयम् ) = हम लोग  ( त्वावतः ) = आप ही के सदृश  ( स्मसि ) = हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = दयामय परमात्मन्! आप जैसा न कोई है, न हुआ, और न होगा इसलिए आपके सदृश आप ही हैं। भगवन्! आप मनुष्य आदि सब प्राणियों के आश्रय देनेवाले, सबके पथ-प्रदर्शक हैं। सबको जाननेवाले सबके अधिष्ठाता हैं । आपकी ही हम शरण में आए हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

     भा० = हे ( पुरुवसो ) = शरीर और इन्द्रियों में आवास करने हारे ! ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( हरीणाम् प्रणेतः ) = हे इन्दियों के प्रेरक ! हे ( स्थातः ) = नित्य अविचाली, कूटस्थ पुरुष! हम ( त्वावतः ) = तेरे समान स्वामी के ही ( स्मसि ) = है।
     इन्द्रियगण आत्मा को एवं प्रजागण भृत्यादि राजा को इसी प्रकार कहते हैं ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वत्सः ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमात्मा, जीवात्मा, विद्वांश्च सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (पुरूवसो) पुरु-वसो बहुधन। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७ इति पूर्वपदान्तस्य दीर्घः। (प्रणेतः) प्रकृष्ट नायक। प्रनेतः, उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य। अ० ८।४।१४ इति नस्य णत्वम्। (हरीणाम्) आकर्षणगुणयुक्तानां पृथिवीसूर्यादिलोकानाम् यद्वा विषयेषु हरणशीलानाम् इन्द्रियाणाम्, यद्वा वहनशीलानां विमानादियानानाम् (स्थातः२) अधिष्ठातः (इन्द्र) परमात्मन्, जीवात्मन्, विद्वन् वा ! (वयम्) मनुष्याः (त्वावतः) त्वत्सदृशस्य तव। त्वत्सदृशस्य कस्यचिद् उपमानस्य जगत्यभावात् त्वं त्वत्सदृश एवासि, तादृशस्य तवेत्यर्थः। त्वमिव इति त्वावान्, तस्य त्वावतः। युष्मदस्मदोः सादृश्ये वतुब् वाच्यः। अ० ५।२।३९ वा० इति युष्मच्छब्दात् सादृश्यार्थे वतुप्। मपर्यन्तस्य त्वादेशे आ सर्वनाम्नः। अ० ६।३।९१ इति दकारस्याऽऽकारः। (स्मसि) स्मः। अत्र इदन्तो मसि। अ० ७।१।४६ इति मसः इकारागमः ॥९॥ अत्र श्लेषः। त्वावतः तव इत्यत्र राजीवमिव राजीवम् इत्यादिवद् अनन्वयालङ्कारः३ ॥९॥

    भावार्थः

    जगति विकीर्णानां सर्वेषां धनानां स्वामी, सर्वेषां नेता, सूर्यादिलोकानामधिष्ठाताऽनुपमः परमेश्वरो यथा सर्वेषां वन्द्यस्तथा बहुज्ञानकर्मादिधनो, मार्गप्रदर्शको, ज्ञानेन्द्रियाणां कर्मेन्द्रियाणां, प्राणमनोबुद्ध्यादीनामधिष्ठाताऽद्वितीयो जीवात्माऽपि सर्वैः सेवनीयः. तथैव वेगेन हरणशीलानां विमानादीनां निर्माणचालनकुशलो विविधविद्यापारंगतः शिल्पशास्त्रविद् विद्वानपि जनैरुपसेव्यः ॥९॥ अत्रेन्द्रसम्बद्धानां वरुणमित्रार्यम्णां रक्षणप्रार्थनाद्, इन्द्रस्य गवां प्रशंसनाद्, इन्द्रतो गवाश्वादीनां प्रार्थनाद्, इन्द्रस्य सरस्वत्या आह्वानाद्, इन्द्रस्तुतिगानाद्, इन्द्रनाम्ना नृपविद्वदाचार्यादीनामपि विषयस्य वर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे पञ्चमी दशतिः। समाप्तश्चार्य द्वितीयः—प्रपाठकः ॥ इति द्वितीयाध्यायेऽष्टमः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।४६।१, ऋषिः वशोऽश्व्यः। २. हे स्थातः अधिष्ठातः—इति वि०, भ०, सा०। ३. उपमानोपमेयत्वमेकस्यैव त्वनन्वयः। सा० द० १०।२६ इति तल्लक्षणात्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Lord of mortals, the Supreme Guide, the Settler of many, we depend on one like Thee!

    Translator Comment

    $ Griffith has translated हरिणाम् as of tawny steeds. It means, ‘of men'.

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    Meaning

    Indra, shelter home of the world, leader of humanity, presiding over mutually sustained stars and planets in motion, we are in bond with you and so shall we remain. (Rg. 8-46-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हरीणां स्थातः) હે મનુષ્યનાં સ્થિતિ સ્થાપક ! (पुरुवसो) અનેક અનેક વિધ ભોગ અને અપવર્ગ = મોક્ષ ધનપ્રદ ! (प्रणेतः) પ્રેરક, (इन्द्र) પરમાત્મન્ ! (वयं त्वावतः स्मसि) અમે તારા જેવા ઈન્દ્રની ઉપાસનાવાળા અનન્ય છીએ-રહીએ. (૯)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું અમારો - મનુષ્યોનો સ્થિતિ સ્થાપક, માવનતાનાં સ્તર પર રાખનાર, અનેક પ્રકારના ભોગ અને અપવર્ગ = મોક્ષનો સ્વામી, પ્રેરક છે. અમે પણ તારા જેવા પરમાત્માની ઉપાસના કરનારા છીએ - બની રહીએ, તારાથી ભિન્ન-બીજાની ઉપાસના ન કરીએ. તારા અનન્ય ઉપાસક બની રહીએ, તારા શરણના પાત્ર બની રહીએ. (૯)

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    उर्दू (1)

    Lafzi Maana

    (پُروُوسو) ہے بہت دھنوں کے سوامی (پرنیتا) اُتم نیتا رہبر، پیارے دوست اور (ہری نام) ہمارے اِندری روُپی گھوڑوں کے (ستھانہ) ادِھشٹاتا اِندر پرمیشور! (ویم اوتہ سمسی) ہم تو آپ جیسے سوامی اِیشور کے ہی سیوک ہیں۔

    Tashree

    بے شمار دھنوں کے مالک پیار کرنیوالے سب سے، آپ ہیں سوامی ہمارے ہم میں سیوک آپ کے۔

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্বাবতঃ পূরূবসো বয়মিন্দ্র প্রণেতঃ।

    স্মসি স্থাতর্হরীণাম্।।৮৬।।

    (সাম ১৯৩)

    পদার্থঃ হে (হরীণাম্) মনুষ্যসহ সকল প্রাণীদের (স্থাতঃ) অধিষ্ঠাতা! (পূরূবসো) বহুবিধ ঐশ্বর্য দানকারী (প্রণেতঃ) উত্তম পথ প্রদর্শক! হে (ইন্দ্র) পরমাত্মা! (বয়ম্) আমরা (ত্বাবতঃ) তোমার গুণগ্রাহী (স্মসি) হয়ে গেছি।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে দয়াময় পরমাত্মা! তোমার মতো না কেউ আছে, না হয়েছে এবং না হবে এজন্য তোমার সদৃশ তুমিই। হে ঈশ্বর! তুমি মনুষ্য আদি সমস্ত প্রাণীদের আশ্রয়দানকারী, সকলের পথ প্রদর্শক, সকলের সম্পর্কে জ্ঞাত, সকলের অধিষ্ঠাতা। আমরা তোমার শরণে এসেছি, তুমি কৃপাপূর্বক আমাদের সঠিক পথে প্রেরণ করো।।৮৬।।

     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    संसारात पसरलेल्या सर्व धनांचा स्वामी, सर्वांचा नेता, सूर्य इत्यादी लोकांचा अधिष्ठाता, अनुपम परमेश्वर जसा सर्वांना सर्वांना वंदनीय आहे, तसेच अत्यंत ज्ञान, कर्म इत्यादी धनांचा स्वामी, मार्गदर्शक, ज्ञानेंद्रिये कर्मेंद्रिये व प्राण, मन, बुद्धी इत्यादींचा अधिष्ठाता जीवात्माही ग्रहण करण्यायोग्य आहे. त्याचप्रकारे विमान इत्यादी निर्माण करण्यात, चालविण्यात कुशल, विविध विद्यात पारंगत, शिल्पशास्त्राचा वेत्ता विद्वानही माणसांनी ग्रहण करावा ॥९॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राद्वारे संबंधित वरुण, मित्र व अर्यमाच्या रक्षणाची प्रार्थना असल्यामुळे, इंद्राच्या गाईंची प्रशंसा असल्यामुळे इंद्राला गाय, अश्व इत्यादींची याचना असल्यामुळे, इंद्राचे सरस्वतीला आवाहन असल्यामुळे, इंद्राचे स्तुतिगान असल्यामुळे व इंद्र नावाने राजा, विद्वान, आचार्य इत्यादीचा विषय वर्णित असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात इन्द्र या नावाने परमात्मा, जीवात्मा आणि विद्वान या सर्वांना संबोधून कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    (पुरुवसो) प्रभूत संपदेचे स्वामी (प्रणेतः) आणि आणि उत्कृष्ट नेता, (हरिणाम्) आकर्षण्णुणयुक्त पृथ्वी, सूर्य आदी लोकांचे अधिष्ठाता हे (इन्द्र) परमात्मन् / विषयांकडे प्रवृत्त करणाऱ्या इंद्रियांना नियंत्रित करणाऱ्या हे जीवात्मा अथवा विमानादी वाहनांचे (स्थातः) स्वामी व प्रमुख असलेले हे विद्वान वैज्ञानिक, (वयम्) आही मनुष्य (त्वावतः) तुमच्यासारखा कोणी इतर रक्षक नसल्यामुळे तुमचेच केवळ तुमचेचे (स्मसि) होऊन गेलो आहोत. कारण तुम्ही अद्वितीय आहात. ।। ९।।

    भावार्थ

    विश्वात असलेल्या सर्व संपदाचा जो स्वामी, सर्वांचे जो नेता, सूर्यादी लोकांचा जो अधिष्ठाता, अनुपम असा परमेश्वर जसा सर्वांसाठी वंदनीय आहे, तसेच विविध ज्ञान, कर्म आदी धनांचा स्वामी, मार्गदर्शक, ज्ञानेन्द्रियें, कर्मेंद्रियांचा, प्राण, मन, बुद्धी आदीचा अधिष्ठाता जीवात्मादेखील सर्वांसाठी सेवनीय आहे. याचप्रमाणे अति वेगवान विमानादी यानांचे निर्माता, चालन कलेत निपुण, विविध विद्या पारंगत शिल्प शास्त्रज्ञाता विद्वान (म्हणजे वैज्ञानिक, वैमानिक, यांत्रिक जन) देखील सर्व मनुष्यांद्वारे सेवनीय व वंदनीय आहेत. ।। ९।। या दशतीध्ये इन्द्राशी संबंधित वरुण, मित्र आणि अर्यमाकडून रक्षण मिळावे याविषयी प्रार्थना, इन्द्राच्या गायींची प्रशंसा इन्द्राकडून गौ, अश्व आदींची याचना, इंद्राच्या सरस्वतीचे आवाहन, इंद्राचे स्तुतिगान तसेच इंद्र या शब्दाने राजा, विद्वान, आचार्य आदी विषय वर्णित आहेत. त्यामुळे या दशतीच्या अर्थाची संगती या पूर्वीच्या दशतीच्या अर्थाशी आहे, असे जाणावे.।। द्वितीय प्रपाठकाच्या द्वितीय अर्धातील पाचवी दशती समाप्त। इथे द्वितीय प्रपाठक संपूर्ण. द्वितीय अध्यायातील अष्टम खंड समाप्त. तृतीय प्रपाठक आरंभ

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ङ्गकमळ पुष्प कमळ पुष्पाप्रमाणे आहेफ या अलंकारोक्तीप्रमाणे असल्यामुळे ङ्गत्वावतःफ या शब्दात अनन्वय अलंकार आहे. (तुझ्यासारखा तूच आहेस) ।। ९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    வெகுபொருள் உள்ளவனே [1](பசுமையான) [2]குதிரையின் சாரதியே! வழி விளக்குபவனான உன்னைப்போலுள்ள உன்னையே பற்றியுள்ளோம்.

    FootNotes

    [1].பசுமையான - பொன்னான
    [2].குதிரையின் - புலனின்

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