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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 200
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    26

    इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ म꣣ह꣢द्भ꣣य꣢म꣣भी꣡ षदप꣢꣯ चुच्यवत् । स꣢꣫ हि स्थि꣣रो꣡ विच꣢꣯र्षणिः ॥२००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ । म꣣ह꣢त् । भ꣣य꣢म् । अ꣣भि꣢ । सत् । अ꣡प꣢꣯ । चु꣣च्यवत् । सः꣢ । हि । स्थि꣣रः꣢ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः ॥२००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो अङ्ग महद्भयमभी षदप चुच्यवत् । स हि स्थिरो विचर्षणिः ॥२००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । अङ्ग । महत् । भयम् । अभि । सत् । अप । चुच्यवत् । सः । हि । स्थिरः । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः ॥२००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 200
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र से भय-मुक्त करने की प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) विघ्नविदारक, सिद्धिप्रदाता परमेश्वर (अभि सत्) अभिभूत करनेवाले (महत्) बड़े भारी (भयम्) विपत्तियों से उत्पन्न, काम-क्रोध आदि शत्रुओं के उत्पीड़न से उत्पन्न अथवा जन्म-मरण से उत्पन्न भय को (अप चुच्यवत्) पूर्णतः दूर कर दे, (हि) क्योंकि (सः) वह परमेश्वर (स्थिरः) भयों से उद्विग्न न होनेवाला, स्थिरमति, और (विचर्षणिः) भय-निवारण के उपायों का द्रष्टा और दर्शानेवाला है ॥ द्वितीय—सूर्य के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) अन्धकार का विदारक, प्रकाशप्रदाता सूर्य (अभि सत्) अभिभूत या उद्विग्न करनेवाले (महत्) बड़े (भयम्) रोगों से उत्पन्न, बाघ आदि हिंसक जन्तुओं से उत्पन्न, पृथिवी आदि ग्रह-उपग्रहों की टक्कर की आशंका से उत्पन्न इत्यादि प्रकार के भयों को (अपचुच्यवत्) दूर करता है, (हि) क्योंकि (सः) वह सूर्य (स्थिरः) आकर्षणशक्ति के द्वारा आकाश में स्थिर अर्थात् केवल अपनी धुरी पर ही घूमने के कारण स्थानान्तर गति से रहित, और (विचर्षणिः) प्रकाश के दान द्वारा सबको पदार्थों का दर्शन करानेवाला है ॥ तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। (अङ्ग) हे भाई, (इन्द्रः) परम धनी, शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाला, प्रजाओं को सुख-सम्पदा देनेवाला राजा अथवा सेनापति (अभि सत्) राष्ट्र में व्याप्त होनेवाले (महत्) बड़े (भयम्) राष्ट्र के अन्दर के तथा बाहरी शत्रुओं से उत्पन्न किए गये भय को (अपचुच्यवत्) दूर कर दे, (हि) क्योंकि (सः) वह (स्थिरः) अपने पद पर अडिग, और (विचर्षणिः) गुप्तचर रूपी आँखों से अपने राष्ट्र में होनेवाले तथा शत्रु-राष्ट्र में होनेवाले सब घटनाचक्र का विशेष रूप से द्रष्टा है ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥

    भावार्थ

    कभी काम, क्रोध आदि रिपुओं से उत्पन्न होनेवाला भय, कभी दुर्भिक्ष, नदियों की बाढ़, संक्रामक रोग आदि का भय, कभी मानवीय विपत्तियों का भय, कभी बाघ आदि हिंसक जन्तुओं का भय, कभी पड़ोसी शत्रु राष्ट्रों का भय, कभी चोरों, लुटेरों, ठगों, हत्यारों आदि का भय, कभी जन्म-मृत्यु के चक्र का भय मनुष्यों को व्याकुल किए रखता है। स्थिर सर्वद्रष्टा परमात्मा, स्थिर प्रकाशक सूर्य और स्थिर गुप्तचर-रूप आँखोंवाला राजा उस सब प्रकार के भय से मुक्त कर दे, जिससे सब लोग सब ओर से निर्भय होते हुए अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकें ॥७॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) परमात्मा (महत्-भयम्) भारीभय को (अङ्ग) शीघ्र “अङ्गेति क्षिप्रनाम” [निरु॰ ५.१७] (अभीषत्) अभिगत करता है तथा दबा देता है (अपचुच्यवत्) च्यवित कर देता है—नष्ट कर देता है, (सः-हि) वह ही (स्थिरः-विचर्षणिः) नितान्त विशेष द्रष्टा है।

    भावार्थ

    परमात्मा अपने उपासक के भारी भय को भी शीघ्र दबाता है और सर्वथा नष्ट कर देता है, वह ही अपने उपासकों के दुर्गुणों और अन्य विघ्नकर्ताओं को नितान्त देखता, उपासक अपने ऊपर आए भय न जान सकें पर वह तो जानता है॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—गृत्समदः (मेधावी हर्षालु या स्तोता और हर्षालु)॥<br>

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    विषय

    इन्द्र का लक्षण

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ‘गृत्समद शौनक' है। 'गृणाति इति गृत्सः, माद्यतीति मदः, शुनति इति शुनः, स एव शुनकः' इन व्युत्पत्तियों से प्रभु की स्तुति करनेवाला 'गृत्स' है, यह सदा प्रसन्न रहता है, अत: ‘मद' है, क्रियाशील होने से 'शुनक' है। इससे प्रभु कहते हैं कि (अङ्ग) = हे प्रिय! (इन्द्रः)=जितेन्द्रिय ही (महद्भयम्) = इस महान् भयरूप संसार का (अभीषत्) = अभिभव करता है। अभिभव ही नहीं, (अपचुच्यवत्) = संसार को अपने से पृथक् करता है। जीते जी जीवन्मुक्त हो जाने से वह संसार से दबता नहीं, अपितु संसार को दबा लेता है - पराभूत कर देता है। यह संसार उसे आसक्त नहीं कर पाता। देह छोड़ने के उपरान्त वह परामुक्ति को प्राप्त करके एक अनन्त-से काल के लिए आवागमन के चक्र से छूट जाता है। यही वस्तुतः मानव जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पाने के लिए इन्द्र = इन्द्रियों का अधिष्ठाता-जितेन्द्रिय होना आवश्यक है। यह जितेन्द्रिय ही प्रभु को प्रिय होता है। प्रभु ने मन्त्र में इसे 'अङ्ग' इस प्रकार सम्बोधित किया है। 'अङ्ग' इस सम्बोधन में क्रियाशीलता की भावना है [ अगि गतौ ] । अकर्मण्य व्यक्ति उस प्रभु को प्रिय हो ही कैसे सकता है जिसका स्वभाव ही क्रिया है ('स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च')। यह क्रियाशीलता उसे जितेन्द्रिय बनने में भी सहायक होती है।

    (सः) = वह मोक्ष को पानेवाला इन्द्र (हि) = निश्चय से (स्थिर:) = स्थिर होता है - डावाँडोल न होकर स्थितप्रज्ञ होता है। इसकी बुद्धि वासनाओं से आन्दोलित न होकर ‘अविकम्प' बनी रहती है। यह (विचर्षणिः) = विशेष दृष्टिकोण को अपनानेवाला होता है। उसे प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य के निर्माता का आभास मिलता है। विचर्षणि के अतिरिक्त यह कर्षणि विशेष काम करनेवाला होता है। यह कर्म के महत्त्व को समझता है कि इस कर्म ने ही उसे जितेन्द्रिय बना देवों का प्रिय बनाया है। एवं, स्थिरता, विशेष दृष्टिकोण व कर्म- ये वे साधन हैं जो इन्द्र को इन्द्र बनाते और इन्द्र बनकर वह मोक्ष व ब्रह्मनिर्वाणरूप लक्ष्य का लाभ करता है।

    भावार्थ

    मोक्ष ही मेरा जीवन-लक्ष्य हो, उसके लिए मैं स्थिरमति, विशेष गम्भीर दृष्टिवाला व सदा श्रमशील बनूँ।

    टिप्पणी

    सूचना - इस मन्त्र में संसार को 'महद्भय कहा है। धन-नाश, स्वास्थ्य - नाश, व कीर्ति-नाश भी भय है। ‘अयशोभयं भयेषु' कीर्तिनाश तो बहुत ही बड़ा भय है, परन्तु इससे बढकर भय क्या कि मुझे फिर इस ९ मास के एकान्त कारागृह में बन्द होना पड़ेगा। गीता में इसे (‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्') इस श्लोक में महद् भय कहा गया है।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( अङ्ग ) = हे मनुष्य ! वह परमेश्वर ( महद् भयम् ) = बड़ेभारी भय को ( अभीषत् ) = दूर करता है। भयको वह ( अपचुच्यवत् ) = परे हटा देता है ( सः हि ) = क्योंकि वह ( स्थिर:) = स्थिर, कूटस्थ और ( विचर्षणि: ) = सब को देखने वाला, सबका निरीक्षक है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - गृत्समदः ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रं भयान्मुक्तिं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। (अङ्ग१) हे भद्र ! (इन्द्रः) विघ्नविदारकः सिद्धिप्रदाता परमेश्वरः (अभि सत्२) अभिभवत्, (महत्) विपुलम् (भयम्) विपज्जन्यं, कामक्रोधादिशत्रूत्पीडनजन्यं, जन्म-मरणजन्यं वा त्रासम् (अप चुच्यवत्) भृशम् अपच्यावयेत्। च्युङ् गतौ धातोर्यङ्लुगन्तस्य लेटि रूपम्। (हि) यस्मात् (सः) परमेश्वरः (स्थिरः) भयैरनुद्विग्नः स्थिरमतिः, (विचर्षणिः) भयनिवारणोपायानां द्रष्टा दर्शयिता च, वर्तते इति शेषः। विचर्षणिः इति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११ ॥ अथ द्वितीयः—सूर्यपरः। (अङ्ग) हे भद्र ! (इन्द्रः) तमोविदारकः प्रकाशप्रदाता सूर्यः (अभि सत्) अभिभवत् उद्वेजनकारि, (महत्) विपुलम् (भयम्) रोगजन्यं, व्याघ्रादिहिंस्रजन्तुजन्यम्, आशङ्कितपृथिव्यादिग्रहोपग्रहसंघट्टजन्यम् एवमादिप्रकारकं भीतिसमूहम् (अपचुच्यवत्) अपच्यावयति, (हि) यस्मात् (सः) असौ सूर्यः (स्थिरः) आकर्षणद्वारा गगने स्थिरः, स्वधुरि एव भ्रमणशीलत्वात् स्थानान्तरगतिरहितः, (विचर्षणिः) प्रकाशप्रदानेन सर्वेषां दर्शयिता चास्ति ॥३ अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। (अङ्ग) हे भद्र ! (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, शत्रुविदारकः, प्रजानां सुखसम्पत्प्रदाता राजा सेनापतिर्वा (अभि सत्) राष्ट्रेऽभिव्याप्यमानम्, (महत्) विस्तीर्णम् (भयम्) आन्तरिकबाह्यशत्रुकर्तृकं प्रतारणलुण्ठनबन्धनहिंसनविप्लवराजविद्रोहादिजन्यं त्रासम् (अप चुच्यवत्) दूरीकुर्यात्, (हि) यस्मात् (सः) असौ (स्थिरः) स्वपदे ध्रुवः, (विचर्षणिः) चारचक्षुर्भिः स्वराष्ट्रजातस्य शत्रुराष्ट्रजातस्य च निखिलस्यापि वृत्तस्य विशेषरूपेण द्रष्टा च विद्यते ॥७॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥

    भावार्थः

    कदाचित् कामक्रोधादिरिपुजन्यं भयं, कदाचिद् दुर्भिक्षनद्यापूरसंक्रामकरोगादिजन्यं भयं, कदाचिन्मानवीयविपज्जन्यं भयं, कदाचिद् व्याघ्रादिहिंस्रजन्तुजन्यं भयं, कदाचित् प्रतिवेशिशत्रुराष्ट्रजन्यं भयं, कदाचित् स्तेनलुण्ठकवञ्चकघातकादिजन्यं भयं, कदाचिज्जन्ममरणचक्रजन्यं भयं मनुष्यानुद्वेजयति। स्थिरः सर्वद्रष्टा परमात्मा, स्थिरः प्रकाशकः सूर्यः, स्थिरश्चारचक्षू राजा च तस्मात् सर्वविधादपि भयाद् विमोचयेद्, येन सर्वे जनाः सर्वतो निर्भयाः सन्तोऽभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्तुं शक्नुयुः ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० २।४१।१०, अथ २०।२०।५, ५७।८। २. अङ्ग क्षिप्रम्—इति वि०, भ०, सा०। ३. अभि सत् आभिमुख्येन सीदत्, पर्युपस्थितम्—इति वि०। अभितः सम्भवदिति वा अभिभवदिति वा—इति भ०। सायणस्तु क्रियापदत्वेन शत्रन्तत्वेन चोभयथापि व्याचष्टे—अभीषत् अभिभवति, यद्वा अभीषद् अभिभवद् इति। ४. तुलनीयम्—ऋग्भाष्येऽस्य मन्त्रस्य दयानन्दभाष्यम्। तत्र चैष भावार्थ उक्तः—“यदि ब्रह्माण्डे सूर्यो न स्यात् तर्हि कस्यापि भयं न निवर्तेत। यदि सूर्यलोकः स्वपरिधौ स्थिरो दर्शको न भवेत् तर्हि तुल्याकर्षणं दर्शनं च न भवेद्” इति।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O man, God drives away mighty fear from all sides. For firm is He and Seer of all.

    Translator Comment

    Grassman says, the verse may originally have been taken from a hymn addressed to the Ribhus, the eldest of whom was Ribhukshan and the youngest Vaja. This is incorrect, as there is no history in the Vedas. Wilson, following Sayana translates the verse in the Rigveda differently:^‘‘May Indra bring to us the bounteous Ribhu Ribhukshna to partake of our sacrificial viands; may he the mighty bring the mighty.” This explanation is untenable, as it refers to history in the Vedas.

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    Meaning

    Indra, light of life, dear as breath of vitality, mighty great, blazing as the sun which is stable in its orbit and enlightens and watches us all as it moves, may, we pray, remove all fear and give us freedom. (Rg. 2-41-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) પરમાત્મા (महत् भयम्) મહાન ભયને (अङ्ग) શીઘ્ર (अभीषत्) અભિગત કરે છે તથા દબાવી દે છે (अपचुच्यवत्) રયવિત કરી દે છે - નષ્ટ કરી દે છે (सः हि) તે જ (स्थिरः विचर्षणिः) નિતાન્ત વિશેષ દ્રષ્ટા છે. (૭)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા પોતાના ઉપાસકના મહાન ભયને પણ શીઘ્ર દબાવી દે છે અને સર્વથા નષ્ટ કરી દે છે , તે જ પોતાના ઉપાસકોના દુર્ગુણો તથા અન્ય વિઘ્નકર્તાઓને અત્યંત જોતા, ઉપાસક પોતાના પર આવેલા ભયને ન જાણી શકે પરન્તુ તે તો જાણે છે. (૭)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ڈر اور خوف سے چُھڑانے والا!

    Lafzi Maana

    (انگ) پیارے مانو (اِندر ابھی شت) پرمیشور سب جگہ موجود ہے (مہدبھیّم) بڑے سے بڑے ڈر یا خطرے اور جنم مرن کے ڈر کو (اپ چُوچیوَت) دُور کر دیتا ہے، ہٹا دیتا ہے (سہ ہی) وہ ہی (سِتھروِچرشنی) ہمیشہ رہتا ہے۔ اور سب کو دیکھتا ہے۔

    Tashree

    سب ڈروں کو دُور کر دیتا ہے سب کے ساتھ وہ، مرن اور جیون کے دُکھ کو مات کر دیتا ہے وہ۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    काम, क्रोध इत्यादींकडून उत्पन्न होणारे भय, दुर्भिक्ष, नदीचा पूर, संक्रामक रोग इत्यादींचे भय, मानवीय विपत्तींचे भय, वाघ इत्यादी हिंसक जंतूंचे भय, शेजारच्या शत्रुराष्ट्राचे भय, चोर, लुटारू, ठग, मारहाणीचे भय, जन्म-मृत्यूच्या चक्राचे भय माणसांना व्याकुळ करते. स्थिर सर्वदृष्टा परमेश्वर, स्थिर प्रकाशक सूर्य व स्थिर गुप्तचररूपी नेत्रयुक्त राजा यांनी सर्व प्रकारच्या भयातून मुक्त करावे, ज्यामुळे सर्व लोक संपूर्णपणे निर्भय होऊन अभ्युदय व नि:श्रेयस प्राप्त करू शकतील ॥७॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात इन्द्राला विनंती केली आहे की आम्हाला निर्भय कर -

    शब्दार्थ

    (या मंत्राचे तीन अर्थ आहेत) प्रथम अर्थ - (परमात्मपर) - (अड्ग) हे बंधू (अथक हे माझ्या परम मित्रा) (इन्द्रः) विघ्नविदारक, सिद्धिप्रदाता परमेश्वर (अभि सत्) सर्वांना अभिभूत करणाऱ्या सतावणाऱ्या (महत्) (भय़म्) मोठ्याहून मोठ्या अशा भीतीला म्हणजे विपत्ती, काम- क्रोध, शत्रू- उत्पीदन अथवा मरणाच्या भयाला (अप चुच्यवत्) पूर्णपणे दूर करो. कारण की (हि) (सः) तो निश्चयाने (स्थिरः) भयाने कधीही उद्विग्न वा भयभीत होणारा नसून स्थिर मती आहे. तसेच तो (विचर्षणिः) भय- निवारणाचे उपाय प्रेरणा रूपाने दर्शवितो (संकटकाळी धीर देतो व भय दूर करतो.) द्वितीय अर्थ - (सूर्यपर) - (अड्ग) हे बन्धू वा मित्रा, (इन्द्रः) अंधकार- विनाशक, प्रकाशदाता सूर्य (अभि सत्) अभिभूत करणाऱ्या (सर्वांना सतावणाऱ्या) (महत्) (भयम्) मोठआहून मोठ्या भीतीला म्हणजे रोग, व्याघ्र आदी हिंसक प्राणी, पृथ्वी आदी ग्रह- उपग्रहांच्या एकमेकावर टक्कर वा आदळणे यासारख्या भयांना (अप चुच्यवत्) नष्ट करतो, (हि) कारण की (सः) तो सूर्य (स्थिरः) आकर्षण शक्तीने आकाशात स्थिर असून म्हणजे केवळ स्वतःच्या धुरीवर भ्रमण करणारा आहे म्हणून तो इतर स्थानात जात नाही म्हणून गतिरहित आहे. तसेच तो (विचर्षणिः) प्रकाश दानाद्वारे सर्व पदार्थ पाहण्याची शक्ती आम्हास देतो.।। तृतीय अर्थ - (राष्ट्रपर) - (अड्ग) हे बंधू, (इन्द्रः) परम धनवान, शत्रुविदारक, प्रजेला सुख- संपत्ती देणारा राजावा सेनापती (अभि सत्) राष्ट्रात व्याप्त होणाऱ्या (महत्) (भयम्) मोठ मोठ्या भीतीला (अप चुच्यवत्) दूर करो (हि) कारण की (सः) तो (स्थिरः) आपल्या सेनाध्यक्ष पदावर स्थिर असून (विचर्षणिः) गुप्तचर रूप नेत्रांद्वारे राष्ट्रात व शत्रुराष्ट्रात घडणाऱ्या सर्व परिस्थितीचा विशेष द्रष्टा आहे. ।। ७।।

    भावार्थ

    मनुष्यांना विविध भय त्रस्त व दुःखी करीत असतात. कधी त्यांना काम- क्रोधादी शत्रू सतावतात, तर कधी माणसांना दुष्काळ, नद्यांचा पूर, संक्रामक रोग आदी त्रस्त करतात. कधी माणसाला माणसापासून तर कधी वाघ आदी हिंसक प्राण्यापासून भय वाटते. कधी राष्ट्राला शत्रूच्या आक्रमणापासून भीती तर कधी चोर, दरोडेखोर, ठक, लुटारू यांपासून भीती असते तर कधी जन्मृ मृत्यूची भीती वाटते व माणूस दुःखी होतो. मंत्रात कामना केली आहे की सर्वद्रष्टा परमेश्वराने, स्थिर प्रकाशक सूर्याने तर स्थिर गुप्तचर ज्याचे नेत्र, त्या राजाने प्रजेला, मनुष्याला सर्व प्रकारच्या भीतीपासून मुक्त करावे. त्या निर्भय वातावरणामुळे सर्व जण अभ्युदय व निः श्रेयस (लौकिक उत्कर्ष व मोक्ष) प्राप्त करू शकतील. ।। ७।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे।। ७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரன் மகத்தான பயத்தை துரிதமாய் தூரத்தில் துரத்துகிறான். ஏனெனில் அவன் ஸ்திரமாயிருந்து எதையும் பார்ப்பவனாகும்.

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