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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 290
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    31

    उ꣣भ꣡य꣢ꣳ शृ꣣ण꣡व꣢च्च न꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣र्वा꣢गि꣣दं꣡ वचः꣢꣯ । स꣣त्रा꣡च्या꣢ म꣣घ꣢वा꣣न्त्सो꣡म꣢पीतये धि꣣या꣡ शवि꣢꣯ष्ठ꣣ आ꣡ ग꣢मत् ॥२९०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣣भ꣡य꣢म् । शृ꣣ण꣡व꣢त् । च꣣ । नः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣र्वा꣢क् । इ꣣द꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । स꣣त्रा꣡च्या꣢ । स꣣त्रा꣢ । च्या꣣ । मघ꣡वा꣢न् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । धिया꣣ । श꣡वि꣢꣯ष्ठः । आ । ग꣣मत् ॥२९०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभयꣳ शृणवच्च न इन्द्रो अर्वागिदं वचः । सत्राच्या मघवान्त्सोमपीतये धिया शविष्ठ आ गमत् ॥२९०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उभयम् । शृणवत् । च । नः । इन्द्रः । अर्वाक् । इदम् । वचः । सत्राच्या । सत्रा । च्या । मघवान् । सोमपीतये । सोम । पीतये । धिया । शविष्ठः । आ । गमत् ॥२९०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 290
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमात्मा और राजा हमारे वचन को सुनें।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) सुखप्रदाता, दुःखहर्ता जगदीश्वर एवं राजा (अर्वाक्) हमारे अभिमुख हो, (च) और (नः) हमारे (इदम्) इस (उभयम्) मानसिक तथा वाचिक अथवा लिखित एवं मौखिक दोनों प्रकार के (वचः) निवेदन को (शृणवत्) सुने। साथ ही (मघवान्) सकल ऐश्वर्य का स्वामी, (शविष्ठः) सबसे अधिक बली वह जगदीश्वर एवं राजा (सोमपीतये) मानस तथा बाह्य शान्ति की रक्षा के लिए (सत्राच्या) सत्य का अनुसरण करनेवाली (धिया) विचारशृङ्खला के साथ (आ गमत्) हमारे पास आये ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥

    भावार्थ

    जैसे परमात्मा मनुष्यों के अन्तःकरण में भ्रातृभाव और शान्ति के विचारों को प्रेरित करता है, वैसे ही राजा लोग राष्ट्रों में और संसार में पारस्परिक विद्वेष को समाप्त करके शान्ति का विस्तार करें ॥८॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (नः) हमारे (इदम्-उभयं वचः) इस दोनों प्रकार के स्तुतिवचन और उपासना वचन को (अर्वाकृ-शृणवत्) इधर अन्दर अन्तर्यामीरूप होकर सुनें (मघवा शविष्ठः) प्रशस्त ऐश्वर्यवान् अत्यन्त या सब बलों से युक्त परमात्मा (सत्रा धिया) सत्ययुक्त प्रज्ञा से—हित बुद्धि से (सोम-पीतये) उपासना रस को पान—स्वीकार करने के लिये (आगमत्) आवें।

    भावार्थ

    परमात्मा हमारे इन दोनों स्तुति वचन और उपासना वचन को इधर अन्दर अन्तर्यामी रूप से सुने—सुनता है और वह ऐश्वर्यवान् अत्यन्त बलवान् या सभी बलों से युक्त हुआ सत्य प्रज्ञा—हित बुद्धि से उपासनारस स्वीकार करने के लिये आवें—आता है॥८॥

    विशेष

    ऋषिः—भर्गः (तेजस्वी उपासक)॥<br>

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    विषय

    सुनिए और आइए

    पदार्थ

    हे (मघवन्) = पवित्र ऐश्वर्यवाले प्रभो! (उभयम्) = हम दोनों ही बातें चाहते हैं। प्रथम तो यह कि (इन्द्रः अर्वाक्)=परमैर्यशाली अन्त:स्थित आप (नः) = हमारे (इदं वचः) = इस वेदवाणी के अनुकूल कहे गये प्रार्थनावाक्य को (शृणवत्) = सुने और वह (शविष्ठः) = सर्वाधिक शक्तिवाले आप (आगमत्) = हमें प्राप्त हों। किसलिए प्राप्त हों कि (सोमपीतये) = सोम की रक्षा के लिए अर्थात् हम वासनाशून्य होकर सोम की-अपनी वीर्यशक्ति की रक्षा कर सकें और (सत्राच्या धिया) = सह-गतिवाली बुद्धि से वह प्रभु हमें प्राप्त हों। हमारे अन्दर मिलकर कार्य करने की भावना हो। [सत्रा=सह आञ्च् = गति ] । हम प्रभु से वस्तुतः तीन चीजों के लिए याचना करते हैं १. शक्ति २. सोम की रक्षा और ३. मिलकर कार्य करने की भावाना। मनुष्य की वैयक्तिक उन्नति बहुत कुछ शक्ति और सोम की रक्षा पर निर्भर है। सोम की रक्षा के द्वारा शक्ति-सम्पन्न बनने पर ही मनुष्य उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता है। इसके बाद सभी सामाजिक उन्नतियों का रहस्य ‘मिलकर काम करने की भावना' पर निर्भर करता है। जिस घर में यह cooperation की भावना है वह फूलता-फलता है,
    और यही भावना राष्ट्र को समृद्ध बनाती है। प्रभु के साथ अपना सम्पर्क जोड़नेवाला व्यक्ति 'प्रागाथ' है- निरन्तर प्रभु के गायन करता है । इस निरन्तर गायन से शक्ति का अनुभव करता है, अत: ‘भर्ग' है। प्रभु शविष्ठ हैं- उनके सम्पर्क में आकर यह शक्ति-सम्पन्न क्यों न बनेगा। इस निरन्तर प्रभु के गायन से ही वासनाएँ दूर रहती हैं और इसे सोमपान में समर्थ बनाती हैं। प्रभु का गायन ही इसे एकत्व का भी अनुभव कराता है और यह सहगति की भावनावाला होता है। यह मिलकर कार्य करने की भावना इसे सामाजिक उत्थान की ओर ले जाती है।

    भावार्थ

    हमें प्रभु की कृपा प्राप्त होगी तो वे हमारी प्रार्थना को सुनेंगे ही नहीं, हमें प्राप्त भी होंगे। उस समय हम शक्तिशाली होंगे, सोमपान में समर्थ होंगे और सहगति की भावनावाले होंगे।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( इन्द्रः ) = आत्मा ( नः ) = हमारे ( अर्वाग् ) = आभ्यन्तर मानस और ( इदं च ) = इस प्रत्यक्ष, उच्चारण किये हुए, ( उभय ) = दोनों प्रकार के ( वच:) = वचनों को ( शृणवत् ) = सुनने हारा ( मघवान् ) = नाना ऐश्वर्यों से सम्पन्न, ( शविष्ट: ) = बलवान् आत्मा ( सोमपीतये ) = परमेश्वर के दिये परमसुख रूप सोमरस पान करने के लिये ( सत्राच्या धिया ) = सत्यानुकूल बुद्धि से सम्पन्न होकर ( आगमत् ) = हमें प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भर्गः ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरो नृपश्चास्माकं वचः शृणुयादित्याह।

    पदार्थः

    (इन्द्रः) सुखप्रदाता दुःखहर्ता जगदीश्वरः नृपतिश्च (अर्वाक्) अस्मदभिमुखं भवेत्, (च) किं च (नः) अस्माकम् (इदम्) एतत् (उभयम्२) मानसं वाचिकं च यद्वा लिखितं मौखिकं चोभयात्मकम् (वचः) निवेदनम् (शृणवत्) शृणुयात्। श्रु श्रवणे धातोर्लेटि रूपम्। अपि च (मघवान्) सकलैश्वर्यवान् (शविष्ठः३) सर्वाधिकबलशाली स परमेश्वरो नृपतिश्च (सोमपीतये) सोमस्य मानसशान्तेर्बाह्यशान्तेश्च पीतिः रक्षा तदर्थम् (सत्राच्या४) सत्यानुगामिन्या। सत्रा सत्यम् अञ्चति प्राप्नोतीति सत्राची तया। सत्रा इति सत्यनाम। निघं० ३।१०, अञ्चू गतौ। (धियाः) विचारशृङ्खलया सह (आ गतम्) अस्मदन्तिकं समागच्छेत्। आङ् पूर्वाद् गमेर्लिङर्थे लुङ् ‘बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि’ अ० ६।४।७५ इत्यडभावः ॥८॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥

    भावार्थः

    यथा परमात्मा मनुष्याणामन्तःकरणे भ्रातृभावस्य शान्तेश्च विचारान् प्रेरयति तथैव राजानः राष्ट्रेषु संसारे च पारस्परिकं विद्वेषं समाप्य शान्तिं वितनुयुः ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६१।१, अथ० २०।११३।१ उभयत्र ‘मघवान्त्सोमपीतये’ इत्यत्र ‘मघवा सोमपीतये’ इति पाठः। साम० १२३३। २. उभयं स्तुतिं प्रार्थनां च—इति वि०। उभयं स्तोत्रशस्त्रात्मकम् इदं वचः। अपर आह, उभयम् अस्मिन् अहनि क्रियमाणं पूर्वेद्युः कृतं च वचः अहर्गणेषु शृणवदिति। ‘यच्चेदमद्य यदु च ह्य आसीत्’ ऐ० ब्रा० ४।३१।५।१८ इति हि ऐतरेयकम्—इति भ०। ३. बहु शवो बलं विद्यते यस्य स शवस्वान्, सोऽतिशयितः। अत्र शवश्शब्दाद् भूम्न्यर्थे मतुप्, तत इष्ठन्, ‘विन्मतोर्लुक्’ अ० ५।३।६५ इति मतुपो लुक्, ‘टेः’ अ० ६।४।१५५ अनेन टिलोपः—इति य० ६।३७ भाष्ये द०। ४. सत्राच्या सदागत्या—इति वि०। बह्वञ्चन्त्या बहुविषयया धिया युक्तः—इति भ०। अस्माकं यज्ञं पूजयन्त्या धिया युक्तः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May soul, listening to both our mental and vocal prayers, equipped with manifold powers, mighty, for enjoying the intense pleasure granted by God, come unto us with the perception of truth!

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    Meaning

    May Indra, lord omnipotent, master of the worlds wealth and power, directly listen to our joint prayer for worldly and spiritual advancement with attentive ear and sympathetic understanding, and may the lord of supreme power come to protect and promote our yajnic programme and prayer and taste the pleasure of success. (Rg. 8-61-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (नः) અમારા (इदम् उभयं वचः) એ બન્ને પ્રકારના સ્તુતિ વચનો અને ઉપાસના વચનોને (अर्वाकृ श्रृणवत्) અહીં અંદર અન્તર્યામી બનીને સાંભળે (मघवा शविष्ठः) પ્રશસ્ત ઐશ્વર્યવાન અત્યંત અથવા સર્વ બળોથી યુક્ત પરમાત્મા (सत्रा धिया) સત્ય યુક્ત પ્રજ્ઞાથી-હિત બુદ્ધિથી (सोम पीतये) ઉપાસનારસનું પાન-સ્વીકાર કરવા માટે (आगमत्) આવે. (૮)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા અમારા એ બન્ને સ્તુતિ વચનો અને ઉપાસના વચનો અહીં અંદર અંતર્યામી રૂપથી સાંભળે-સાંભળે છે અને તે ઐશ્વર્યવાન અત્યંત બળવાન અથવા સર્વ બળોથી યુક્ત બનીને સત્ય પ્રજ્ઞા-હિત બુદ્ધિથી ઉપાસનારસનો સ્વીકાર કરવા માટે આવે-આવે છે. (૮)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آمنے سامنے ہو کر ہماری پرارتھنا سُنیئے!

    Lafzi Maana

    (اِنر نہ اواک اِدم اُبھیم وچہ شِرن وت) اِندر پرمیشور ہمارے سامنے ہو کر ہماری سُتتی اور پرارتھنا دونوں کو سُنیئے اور وہ (مگھوان سوِشٹھ ستراچیا دھیا سوم پیتئے آگمت) بھگوان ہماری طرف اپنی دیالو بُدھی کے ساتھ بھگتی رس پان کے لئے آئیں۔

    Tashree

    ہو ہمارے سامنے عرض سُنو بھگوان جی! بھگتی رس کی نذر منظورِ نظر کر آئیے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे परमेश्वर माणसाच्या अंत:करणामध्ये भ्रातृभाव व शांतीच्या विचारांना प्रेरित करतो, तसेच राजेलोक राष्ट्रात व संसारात पारस्पारिक विद्वेष समाप्त करून शांती पसरवावी ॥८॥

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    विषय

    परमेश्वराने व राजाने आमचे सांगणे ऐकावे.

    शब्दार्थ

    (इंद्र) सुखदाता, दुःखहर्ता जगदीश्वर आणि राजा (अर्वाक्) हे दोघे आमच्या संमुख (वा आम्ही त्याचा आणि मुख) सावेत (च) आणि (नः) आमच्या (इदम्) या (उभयम्) मानसिक व वाचिक अथवा लिखित एवं मौशिक दोन्ही प्रकारचे (वघा) निवेदन (शृणवत्) ऐकावे. तसेच (मघवान्) सकळ ऐश्वर्याचा स्वामी (शविष्ठः) सर्वांहून बली तो परमेश्वर आणि राजा (सोमपीतये) मानसिक व बाह्य --- रक्षणासाठी (सत्राच्या) सत्याचे अनुसरण करणाऱ्या (घिवा) विचार शृंखलेसह (आ गमत्) आमच्याजवळ यावेत.।। ८।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे परमेश्वर माणसांच्या अंतःकरणात बंधुत्व आणि शांततेचे भाव प्रेरित करतो, तसेच राजाने राष्ट्रात आणि लोकात पसरलेल्या आपापसातील विद्वेष भाव नष्ट करून शांतीची स्थापना केली पाहिजे. ।। ८।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। ८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இரண்டு வரங்கள். இந்த மொழியை இங்கு இந்திரன் கேட்கட்டும். பெரும் பலமுடனான மகவான் அறிவால் எங்கள் பக்கம் சாய்ந்து சோமனைப் பருக எங்கள் அருகே வரட்டும்.

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