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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 300
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
41
क꣣दा꣢ च꣣न꣢ स्त꣣री꣡र꣢सि꣣ ने꣡न्द्र꣢ सश्चसि दा꣣शु꣡षे꣢ । उ꣢पो꣣पे꣡न्नु म꣢꣯घ꣣वन्भू꣢य꣣ इ꣢꣯न्नु ते꣣ दा꣡नं꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ पृच्यते ॥३००॥
स्वर सहित पद पाठक꣣दा꣢ । च꣣ । न꣢ । स्त꣣रीः꣢ । अ꣣सि । न꣢ । इ꣣न्द्र । सश्चसि । दाशु꣡षे꣢ । उ꣡पो꣢꣯प । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣प । इ꣢त् । नु । म꣣घवन् । भू꣡यः꣢꣯ । इत् । नु । ते꣣ । दा꣡न꣢꣯म् । दे꣣व꣡स्य꣢ । पृ꣣च्यते ॥३००॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र सश्चसि दाशुषे । उपोपेन्नु मघवन्भूय इन्नु ते दानं देवस्य पृच्यते ॥३००॥
स्वर रहित पद पाठ
कदा । च । न । स्तरीः । असि । न । इन्द्र । सश्चसि । दाशुषे । उपोप । उप । उप । इत् । नु । मघवन् । भूयः । इत् । नु । ते । दानम् । देवस्य । पृच्यते ॥३००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 300
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमेश्वर की अर्चना कभी निष्फल नहीं होती।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुखप्रदाता परमेश्वर ! आप (कदाचन) कभी (स्तरीः) वन्ध्या गौ के समान निष्फल (न असि) नहीं होते, प्रत्युत (दाशुषे) आत्मदान करनेवाले उपासनायज्ञ के यजमान को फल देने के लिए (सश्चसि) प्राप्त होते हो। हे (मघवन्) धनों के स्वामी ! (देवस्य ते) तुझ दानादिगुणयुक्त का (दानम्) दान (इत् नु) निश्चय ही (भूयः इत्) पुनः-पुनः (उप-उप पृच्यते) यजमान को प्राप्त होता है, अवश्य प्राप्त होता है ॥८॥
भावार्थ
जो स्वयं को परमेश्वर के लिए समर्पित कर देता है, उसे वह दुधारू गाय के समान सदा फल प्रदान करता रहता है ॥८॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (कदाचन) कभी भी (स्तरीः-न-असि) वधक नहीं होता है “स्तृणाति वधकर्मा” [निघं॰ २.१९] ‘तत ईप्रत्ययश्छान्दसः कर्तरि’ (दाशुषे सश्चसि) आत्मदान या उपासनारस प्रदान करने वाले के लिये गति करता है अपने को पहुँचाता है “सश्चसि गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] “देहि मे ददामि ते” [यजु॰ ३.५०] (मघवन्) हे प्रशस्त धन वाले परमात्मन्! (ते देवस्य दानम्) तुझ देव का दान आत्मस्वरूप का प्रदान—ब्रह्मानन्द दान (इत्-उ) अवश्य ही (भूयः) अधिकाधिक (नु) निश्चय (उप-उप पृच्यते) समीप उपपृक्त—उपसंयुक्त होता है।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू कभी भी उपासक का वधक नहीं होता है अपितु हितसाधक होता है, आत्मदान आत्मसमर्पण करने वाले या उपासनारस देने वाले के लिये तू भी अपने आपको पहुँचाता है यह तुझ देव का विचित्र दान है जो उपासक के आत्मदान या उपासनारस दान से भी निश्चय अधिक दान है वरदान है जो कि उपासक के अन्दर समीप से समीप उपसंयुक्त हो जाता है॥८॥
विशेष
ऋषिः—बालखिल्याः (बल खिल—दो बलों परमात्मबल और जीवात्मबलों के अन्तर—स्वरूपों के जानने में कुशल जन)॥<br>
विषय
प्रभु के साथ सम्पृक्त होता है
पदार्थ
जिसकी इन्द्रियाँ सुननेवली हैं, वह 'श्रुष्टिगुः' कहलाता है। ('दैव्यं वच:') = वेदवाणी ही तो इसके जीवन का निर्माण करनेवाली है। यह कहता है कि हे (इन्द्र) = सब असुरों का संहार करनेवाले प्रभो! आप उल्लिखित चार व्रतों [वेदानुकूल आचरण, स्वाध्याय, अदीनता व सत्यवादिता] के धारण करनेवाले का (कदाचन्) = कभी भी (स्तरी:) = संहार करनेवाले (न असि) = नहीं हैं। जब एक व्यक्ति स्वयं विनय में चलता है तो उसे दण्ड देने की आवश्यकता ही नहीं होती।
हे प्रभो! आप (दाशुषे) = दान देनेवाले के लिए (सश्चसि) = [जव हव जव] प्राप्त होते हैं। जितना-जितना मनुष्य दान की वृत्तिवाला बनता है (उप उप) = उतना उतना ही समीपता से (इत् नु) = निश्चय से हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! आप उसे प्राप्त होते हैं। (भूय:) = फिर (दानम्) = [charity incarnate] दान का पुतला बनकर तो वह (इत् नु) = निश्चय से (ते देवस्य) = तुझ देव के साथ (पृच्यते) = संयुक्त हो जाता है। इधर से सब कुछ छोड़कर ही तो आपको प्राप्त हो सकता है। (‘मह्यं दत्त्वा व्रजत् ब्रह्मलोकम्') = आयु आदि सब चीजों को लौटाकर ही वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। सांसारिक वस्तुओं से मोक्ष ही प्रभु - प्राप्ति का उपाय है। प्राजापत्य यज्ञ में सर्वस्व को आहुत करके ही वह प्रजापति को पाता है।
भावार्थ
मैं प्रभु-प्राप्ति का दीवाना बनकर सर्वस्व दान कर डालूँ।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( इन्द्र मघवन् ) = हे परम धनवान् परमेश्वर । आप ( कदाचन स्तरीः न असि ) = कभी भी हिंसक नहीं हैं, किन्तु ( दाशुषे ) = विद्या धनादि दान करनेवाले के लिए ( उप उप इत् नु ) = समीप समीप ही शीघ्र ( सश्चसि ) = कर्मफल पहुँचाते हैं ( देवस्य ते ) = प्रकाशयुक्त आप का ( दानं भूय इत् ) = कर्मानुसारी दान पुनर्जन्म में भी ( नु पृच्यते ) = निश्चय करके सम्बद्ध होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = हे प्रभो ! प्राणिमात्र के कर्मों का फल देनेवाले आप हैं, कभी किसी के कर्म को निष्फल नहीं करते न किसी निरपराध को दण्ड ही देते हैं। किन्तु इस जन्म और पुनर्जन्म में सब प्राणिवर्ग आपकी व्यवस्था से कर्मानुसारी फल को भोगनेवाला बनता है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे आत्मन् ! आप ( कदाचन ) = कभी भी ( स्तरीः न असि ) = हिंसक नहीं हैं । अथवा - आप ( स्तरी:) = मृतवत्सा गौ के समान दूध न देने हारे नहीं है । प्रत्युत, ( दाशुषे सश्चसि ) = दानशील पुरुष को और भी देते हो । हे मघवन् ! ( ते देवस्य ) = तुझ देव का ( दानं ) = दान ( उप-उप इत् नु ) = बराबर समीप ही समीप ( पृच्यते इत् नु ) = प्राप्त होता ही रहता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वो ।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
परमेश्वरस्यार्चनं कदापि निष्फलं न भवतीत्युच्यते।
पदार्थः
हे (इन्द्र) सुखप्रदातः परमेश्वर ! त्वम्, (कदाचन) कदाचित्, (स्तरीः२) निवृत्तप्रसवा गौरिव निष्फलः (न असि) न भवसि, प्रत्युत (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय अन्तर्यज्ञस्य यजमानाय, तस्मै फलम् दातुमित्यर्थः। दाशृ दाने धातोः क्वसुप्रत्यये चतुर्थ्येकवचने रूपम्। ‘क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः’ अ० २।३।१४ इति चतुर्थी। (सश्चसि) प्राप्नोषि। सश्चतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। हे (मघवन्) धनपते ! (देवस्य) दानादिगुणयुक्तस्य (ते) तव (दानम्) दीयमानमैश्वर्यम् (इत् नु) अवश्यमेव (भूयः इत्) पुनः पुनरपि (नु) क्षिप्रमेव (उप-उप पृच्यते) यजमानेन संसृज्यते, संसृज्यते। ‘प्रसमुपोदः पादपूरणे’ अ० ८।१।६ इति उपोपसर्गस्य पादपूरणे द्वित्वमुक्तम्। वस्तुतस्तु उपपृच्यते उपपृच्यते इति द्विरुक्त्यात्र संसर्गस्य क्षिप्रत्वमाधिक्यं च द्योत्यते ॥८॥३
भावार्थः
यः परमेश्वरायात्मानं समर्पयति तत्कृते स सेविता दोग्ध्री गौरिव सद्यः फलं प्रयच्छति ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।५१।७, ऋषिः श्रुष्टिगुः काण्वः। य० ३।३४, ऋषिः मघुच्छन्दाः। २. स्तरीति निवृत्तप्रसवा गौः। तन्न भवसि। धुक्षसे एव सदा कामानिति—इति भ०। स्तरीः हिंसको नासि। यद्वा स्तरीर्निवृत्तप्रसवा गौस्तथाविधो न भवसि। सा यथा वत्साभावात् गृहं प्रति नागच्छति न तथा करोषीत्यर्थः—इति सा०। न स्तृणासि न क्रुध्यसि—इति य० ३।३४ भाष्ये उवटः, ‘स्तृञ् हिंसायाम्’, स्तृणातीति स्तरीः, हिंसको नासि—इति च महीधरः। ३. दयानन्दर्षिणा यजुर्भाष्ये मन्त्रोऽयं परमेश्वरस्य कर्मफलदातृत्वविषये व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
Never art Thou violent, O God. Thou givest more to the giver. O wealthy God, Thy bounty is poured forth ever more and more!
Meaning
Never are you unfruitful, never uncharitable, you are always with the giver, closer and closer, more and more, again and again, O lord of wealth and honour, and the charity of divinity ever grows higher and promotes the giver. (Rg. 8-51-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (कदाचन) ક્યારેય પણ (स्तरीः न असि) વધ કરનાર હિંસક બનતો નથી. (दाशुषे सश्चसि) આત્મદાન અથવા ઉપાસનારસ કરનારને માટે ગતિ કરે છે પોતાને પહોંચાડે છે. (मघवन्) હે પ્રશસ્ત ધનવાળા પરમાત્મન્ ! (ते देवस्य दानम्) તારું-દેવનું દાન આત્મ સ્વરૂપનું પ્રદાન–બ્રહ્માનંદ દાન (इत् उ) અવશ્ય જ (भूयः) અધિકાધિક (नु) નિશ્ચય (उप उप पृच्यते) સમીપ ઉપપૃક્ત- ઉપસંયુક્ત બને છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું કદીપણ ઉપાસકનો સંહાર કરનાર બનતો નથી, પરંતુ હિતસાધક બને છે, આત્મદાન-આત્મસમર્પણ કરનાર અથવા ઉપાસનારસ આપનારને માટે પણ તું તને પોતાને પહોચાડે છે, એ તુ જ દેવનું વિચિત્ર દાન છે, જે ઉપાસકના આત્મદાન અથવા ઉપાસનારસના દાનથી નિશ્ચિત અધિક દાન છે-વરદાન છે. જે ઉપાસકની અંદર નજીકથી નજીક ઉપસંયુક્ત બની જાય છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
دان کرنے والے کو آپ دیتے ہیں!
Lafzi Maana
ہے اِندر (کداچن نہ ستراں نارسی) آپ کبھی کسی کی ہتیا نہیں کرتے۔ آپ (اشُوشے سشچسی) دینے والوں کے سدا محافظ ہیں۔ ہے (مگھون) دھنوں کے بھنڈار! (اُپ اُپ اِت نُو) جس نے اپنے کو آپ کے لئے سُپرد کر رکھا ہے۔ اُس کے آپ نزدیک بھت نزدیک ہیں۔ (بُھویہ اِت نُوتم ویوسیہ دانم پرچِسیتے) اور اُسے بار بار بہت مقدار میں آپ دیتے رہتے ہیں۔
Tashree
دینے والوں کے محافظ آپ ہیں اور نزد تر، دیتے جاتے اُن کو بارم بار زیادہ زیادہ تر۔
बंगाली (1)
পদার্থ
কদাচন স্তরীরসি নেন্দ্র সশ্চসি দাশুষে।
উপোপেন্নু মঘবন্ ভূয় ইন্নু তে দানং দেবস্য পৃচ্যতে।।২৬।।
(সাম ৩০০)
পদার্থঃ (ইন্দ্র মঘবন্) হে পরম ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর! তুমি (কদাচন স্তরীঃ ন অসি) কখনোই হিংসক নও। তুমি (দাশুষে) বিদ্যা ধনাদি দানকারীদের (উপ উপ ইৎ নু) সমীপে শীঘ্রই (সশ্চসি) কর্মফল প্রেরণ করো। (দেবস্য তে) প্রকাশযুক্ত তোমার (দানং ভূয় ইৎ) কর্ম অনুসারে কৃত দান জীবের জন্ম-জন্মান্তরেও (নু পৃচ্যতে) নিশ্চিতভাবে সম্পর্কযুক্ত হয়।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে ঈশ্বর! প্রাণীসমূহের কর্মফল প্রদানকারী তুমি কারও কর্মকে না তো নিষ্ফল করো, আর না কোনো নিরপরাধকে দণ্ড দাও। কিন্তু এই জন্ম এবং পুনর্জন্মে সকল প্রাণীবর্গ তোমার ব্যবস্থা দ্বারা কর্মানুসারে ফল ভোগ করে।।২৬।।
मराठी (2)
भावार्थ
जो स्वत:ला परमेश्वरासाठी समर्पित करतो त्याला तो दुधारू गाईप्रमाणे सदैव फल प्रदान करतो ॥८॥
विषय
परमेश्वराला केलेली प्रार्थना कधीही निष्फळ होत नाही -
शब्दार्थ
हे (इंद्र) सुखप्रदाता परमेश्वरा, तू (कदाचन) कधीही (स्तरीः) वंध्या गायीप्रमाणे निष्फल (न असि) होत नाहीस. (तुला केलेली प्रार्थना व्यर्थ जात नाही) तसेच (दाशुषे) आत्मदान करणाऱ्या उपासना- यज्ञाच्या यजमानाला तुला केलेली प्रार्थना इच्छित परिणाम देणारी (सश्चसि) ठरते. हे (मघवनू) धनाचे स्वामी, (देवस्य ते) तू महादानी असून तुझ्या त्या दानगुणाचे (दानम्) दान तू (इत् तु) निश्चयाने (भूयः इत्) पुन्हा पुन्हा (उप उप पृच्यते) यजमानाला अवश्य प्राप्त होते. ।। ८।।
भावार्थ
जो स्वतःला परमेश्वराप्रत समर्पित करतो, त्याला परमेश्वर दुधाळ गायीप्रमाणे सदा उत्तम फळ देत असतो. ।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
(இந்திரனே!) நீ எப்பொழுதும் இம்சிப்பவனாவதில்லை. பூஜிப்பவர்களுக்குக்
குவிக்கிறாய். ஆனால் இப்பொழுது (மகவானே!) உன் (தேவதானமானது) மிகவும் அதிகமாய் சேர்க்கப்பட்டுள்ளது.
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