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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 321
    ऋषिः - बुहस्पतिर्नकुलो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    56

    ब्र꣡ह्म꣢ जज्ञा꣣नं꣡ प्र꣢थ꣣मं꣢ पु꣣र꣢स्ता꣣द्वि꣡ सी꣢म꣣तः꣢ सु꣣रु꣡चो꣢ वे꣣न꣡ आ꣢वः । स꣢ बु꣣꣬ध्न्या꣢꣯ उप꣣मा꣡ अ꣢स्य वि꣣ष्ठाः꣢ स꣣त꣢श्च꣣ यो꣢नि꣣म꣡स꣢तश्च꣣ वि꣡वः꣢ ॥३२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र꣡ह्म꣢꣯ । ज꣣ज्ञान꣢म् । प्र꣢थम꣢म् । पु꣣र꣡स्ता꣢त् । वि । सी꣣मतः꣢ । सु꣣रु꣡चः꣢ । सु꣣ । रु꣡चः꣢꣯ । वे꣣नः꣢ । अ꣣वरि꣡ति꣢ । सः । बु꣣ध्न्याः꣡ । उ꣣पमाः । उ꣣प । माः꣢ । अ꣣स्य । विष्ठाः꣢ । वि꣣ । स्थाः꣢ । स꣣तः꣢ । च꣣ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣡स꣢꣯तः । अ । स꣣तः । च । वि꣢ । व꣣रि꣡ति꣢ ॥३२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः । स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥३२१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म । जज्ञानम् । प्रथमम् । पुरस्तात् । वि । सीमतः । सुरुचः । सु । रुचः । वेनः । अवरिति । सः । बुध्न्याः । उपमाः । उप । माः । अस्य । विष्ठाः । वि । स्थाः । सतः । च । योनिम् । असतः । अ । सतः । च । वि । वरिति ॥३२१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 321
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सूर्य तथा परमेश्वर के महान् कार्य का वर्णन किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (प्रथमम्) श्रेष्ठ (ब्रह्म) महान् आदित्यरूप ज्योति (पुरस्तात्) पूर्व दिशा में (जज्ञानम्) प्रकट हो रही है। (वेनः) कान्तिमान् सूर्य ने (सीमतः) चारों ओर अथवा मर्यादापूर्वक (सुरुचः) सम्यक् रोचमान किरणों को (वि आवः) रात्रि के अन्धकार के अन्दर से आविर्भूत कर दिया है। (सः) वह सूर्य (उपमाः) सबके समीप स्थित (अस्य) इस जगत् की (विष्ठाः) विशेष रूप से स्थितिसाधक (बुध्न्याः) अन्तरिक्षवर्ती दिशाओं को (विवः) अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है, और (सतः च) व्यक्त अर्थात् कार्यरूप में परिणत, (असतः च) और कारण के अन्दर अव्यक्तरुप से विद्यमान पदार्थ-समूह के (योनिम्) गृहरूप भूमण्डल को (विवः) प्रकाशित करता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (प्रथमम्) श्रेष्ठ (ब्रह्म) जगत् का आदिकारण ब्रह्म (पुरस्तात्) पहले, सृष्टि के आदि में (जज्ञानम्) प्रकृति के गर्भ से महत् आदि जगत्प्रपञ्च का जनक हुआ। (वेनः) मेधावी उस परब्रह्म ने (सीमतः) मर्यादा से अर्थात् महदादि क्रम से व्यवस्थापूर्वक (सुरुचः) सुरोचमान पदार्थों को (वि आवः) उत्पन्न किया। (सः) उसी परब्रह्म ने (उपमाः) समीपता से धारण तथा आकर्षण की शक्तियों द्वारा एक-दूसरे को स्थिर रखनेवाले, और (अस्य) इस जगत् के (विष्ठाः) विशेष रूप से स्थिति के निमित्त (बुध्न्याः) आकाशस्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, तारे आदि लोकों को (विवः) प्रकाशित किया। उसी ने (सतः च) व्यक्त भूमि, जल, अग्नि, पवन आदि (असतः च) और अव्यक्त महत्, अहंकार, पञ्चतन्मात्रा आदि की (योनिम्) कारणभूत प्रकृति को (विवः) कार्य पदार्थों के रूप में प्रकट किया ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘सतश्च-सतश्च’ की एक बार आवृत्ति में यमक है ॥९॥

    भावार्थ

    कान्तिमान् सूर्य पूर्व दिशा में प्रकट होता हुआ अपनी सुप्रदीप्त किरणों को आकाश और भूमि पर प्रसारित करता हुआ सब दिशाओं को तथा सौर जगत् को प्रकाशित करता है। कान्तिमान् मेधावी परमेश्वर प्रकृति के मध्य से सुरोचमान पदार्थों को और सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, तारे आदि लोकों को प्रकट करता है। उस सूर्य का भली-भाँति उपयोग और उस परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना सबको करनी चाहिए ॥९॥

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    पदार्थ

    (पुरस्तात्) सृष्टि से पूर्व (प्रथमं ब्रह्म जज्ञानम्) प्रथित अण्डरूप ब्रह्माण्ड परमात्मा के द्वारा प्रसिद्ध हुआ तो उसमें (वेनः) कान्तिमान् इन्द्र—परमात्मा के “इन्द्र उ वै वेनः” [कौ॰ ८.५] (सीमतः) सीमा से उनकी अपनी सीमा से—परिधिक्रम से (सुरुचः) पृथिवी चन्द्रादि लोकों को “इमे लोकाः सुरुचः” [श॰ ७.४.१.१४] (वि-आव) पृथक्-पृथक् व्यक्त किया—रचा (सः) उस परमात्मा ने (अस्य) इस ब्रह्माण्ड की (बुध्न्याः-उपमाः-विष्ठाः) अन्तरिक्ष आकाश में होने वाली दिशाओं को “दिशो वा उपमाः” [श॰ ७.४.१.१४] विशेष स्थापित किया “व्यष्ठाः-अड् लोपश्छान्दसः” “बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि” [अष्टा॰ ६.४.७५] तथा (सतः-च-असतः-च योनिं विवः) प्राणी की और अप्राणी की योनि—प्राणी योनि और अप्राणी योनि—जड़ योनि को “प्राणो वै सत्” [जै॰ १.१०२] व्यक्त किया।

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् परमात्मा के द्वारा सृष्टि से पूर्व प्रथित ब्रह्माण्ड—विश्वगोल—व्यक्त हुआ। उसमें परमात्मा ने सीमाओं में परिधियों में पृथिवी आदि लोकों पिण्डों को व्यक्त किया—रचा, पुनः इस ब्रह्माण्ड की आकाशगत दिशाओं को व्यवस्थित किया। मनुष्य, गौ, घोड़ा आदि प्राणी योनि और आम्र वृक्ष आदि अप्राणी योनि को व्यक्त किया—रचा है। उस ऐसे रचयिता शक्तिशाली परमात्मा को जान उसकी उपासना करनी चाहिए जिसने पृथिवी आदि पिण्डों को सीमा में बान्धा और पृथिवी आदि पिण्डों पर हम जीवात्माओं को योनियों में बान्धा है। बन्धन से छूटने के लिये परमात्मा की उपासना करना साधन है॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—बृहस्पतिर्नकुलो वा (बृहती वाक्-वाणी विद्या का पति ब्रह्मवक्ता या नकुल—परिवार प्रसार से रहित एकाकी आदित्य ब्रह्मचारी)॥<br>

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    विषय

    ब्रह्म दर्शन

    पदार्थ

    ब्रह्मदर्शन किसे-गत मन्त्र में ('यमस्य योनौ शकुनम्') = संयम के द्वारा शक्तिशाली बनाने का उल्लेख हुआ है। इस (विसीमत:) = [विशिष्टा सीमायस्य] जिसका जीवन एक विशिष्ट (मर्यादा) = सीमा में चलता है उसके और (सुरुचः) = उत्तम रुचिवाले उपासक के (पुरुस्तात्) = सामने (जज्ञानम्) = प्रकट हुए हुए प्(रथमं ब्रह्म) = सर्वोत्कृष्ट व सर्वविशाल ब्रह्म को (वेन:) = यह मेधावी उपासक (विआवः) = प्रकट करता है। स्वयं ब्रह्म के दर्शन करके औरों को भी ब्रह्मज्ञान देता है।

    ब्रह्मज्ञान के लिए दो बातें आवश्यक हैं- १. जीवन की आहार, विहार, स्वप्न अवबोध आदि सब क्रियायें नपी- तुली हों, २. रुचि परिष्कृत हो। हम इन्द्रियों के दास न बन गये हों। (यह क्या करता है)? – प्रभु - दर्शन करके यह औरों को भी ब्रह्मज्ञान देने का प्रयत्न करता है। उसी ब्रह्मज्ञान का देने के लिए ही (सः) = वह निम्न बातों का भी (विवः) = व्याख्यान करता है -

    १. (अस्य)=इस ब्रह्म के बनाये हुए (बुध्न्या) = [जलसम्बन्धे अन्तरिक्षे भवाः सूर्यचन्द्र पृथिवी तारकादयो लोकाः] अन्तरिक्षस्थ (विष्ठा:) = [विविधेषुः स्थानेषु तिष्ठन्ति ताः] विविध स्थानों में स्थित (उपमा:) =जीवों को कर्मानुसार दिये जानेवाले [उपमा- जव हपअमए जव हतंदज] लोकों को, तथा २. (सतः च असतः च योनिम्) = अक्षर के क्षर के साथ - जीव के जड़देह के साथ सम्बन्ध का।

    पाप-पुण्य के बराबर होने पर हमें मर्त्यलोक प्राप्त होता है। हमारे अन्दर रक्षा वृत्ति के आने पर हम पितर बनते हैं और हमें चन्द्रलोक में जन्म प्राप्त होता है तथा ज्ञान से वासना विनष्ट होने पर सर्वलोक में जन्म लेनेवाले देव हम बनते हैं। इन्हीं विविध कर्मों के फल के रूप में ही जीव का जड़ देह से सम्बन्ध उस प्रभु की व्यवस्था से होता है।

    स्वयं ब्रह्मदर्शन कर औरों को भी ब्रह्मज्ञान देनेवाला 'बृहस्पति' देवताओं का भी गुरु इस मन्त्र का ऋषि है। ('नास्ति ज्ञाने समो यस्य कुले स नकुलः स्मृतः )= उस कुल में ज्ञान के दृष्टिकोण से अद्वितीय होने के कारण वह 'नकुल' है। 

    भावार्थ

    हमारा मर्यादित जीवन व हमारी परिष्कृत रुचि हमें ब्रह्म-दर्शन के योग्य बनाएँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वेनः ) = ज्ञानवान् तेजस्वी परमात्मा ( प्रथमं ) = सबसे प्रथम ( जज्ञानं ) = प्रादुर्भूत्  या प्रकट होते हुए ( ब्रह्म ) = बृहदाकार ब्रह्माण्ड को ( सीम् अतः पुरुस्तात् ) = इस समस्त संसार की रचना के पूर्व ही ( सुरुचः ) = उत्तम कान्तियों का ( वि आवः ) = पुञ्ज बनाकर प्रकट करता है ( सः ) = वह परमात्मा ( बुध्न्याः ) = आकाश में उत्पन्न हुए ( अस्य उपमाः ) = उसके ही सदृश ( विष्टा ) = विशेष रूप से स्थिति करने हारे ब्रह्माण्ड को भी स्थापित करता है। और ( सतः च ) = इस समस्त सत् रूप में प्रकट जगत् ( असतः च ) = और अव्यक्त प्रकृति के ( योनिम् ) = मूल आश्रय को भी ( विवः ) = वही प्रकट करता है । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - बुहस्पतिर्नकुलो वा।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - त्रिष्टुभ् । 

    स्वरः - नेवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यस्य परमेश्वरस्य च महत् कृत्यं वर्णयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—आदित्यपक्षे। (प्रथमम्) श्रेष्ठम् (ब्रह्म२) महद् आदित्यलक्षणं ज्योतिः। बृहि वृद्धौ धातोः, ‘बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६’ इति मनिन्, नकारस्य च आकारादेशः। (पुरस्तात्) पूर्वस्यां दिशि (जज्ञानम्) जायमानं वर्तते। जनी प्रादुर्भावे दिवादिः, शानचि छान्दसः शपः श्लुः, तेन द्वित्वम्। (वेनः) कान्तिमान् आदित्यरूपः इन्द्रः। वेनो वेनतेः कान्तिकर्मणः। निरु० १०।३७। असौ आदित्यो वेनः, श० ७।४।१।१४। (सीमतः) सर्वतः मर्यादातो वा (सुरुचः) सुरोचनान् रश्मीन् (वि अवः) रात्रेस्तमसोऽभ्यन्तरात् विवृणोति। संहितायाम् आवः इति दीर्घत्वं छान्दसम्। (सः) असौ आदित्यः (उपमाः) सर्वेषाम् अन्तिकस्थाः। उपमे इत्यन्तिकनाम। निघं० २।१६। (अस्य) एतस्य जगतः (विष्ठाः३) विशेषेण स्थितिसाधिकाः (बुध्न्याः४) बुध्नम् अन्तरिक्षं, (तत्र) भवाः बुध्न्याः दिशः (विवः) स्वप्रकाशेन विवृणोति। किञ्च (सतः च) व्यक्तस्य, कार्यात्मना परिणतस्य (असतः च) अव्यक्तस्य, कारणे निलीनस्य च वस्तुजातस्य (योनिम्) गृहं, भूमण्डलमित्यर्थः। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (विवः) विवृणोति प्रकाशयति। ‘वि अवः, विवः’ इत्यत्र वि पूर्वाद् वृञ् वरणे धातोर्लुङि ‘मन्त्रे घसह्वरणशवृ०। अ० २।४।८०’ इति च्लेर्लुक्, पक्षे छान्दसः अडभावः। लडर्थे लुङ्प्रयोगः ॥ अत्र यास्काचार्यः ‘सीम्’ इत्येतस्य निपातस्य प्रकरणे ब्रूते—सीम् इति परिग्रहार्थीयो वा पदपूरणो वा। ‘विसीमतः सुरुचो वेन आवः’ इति च। व्यवृणोत् सर्वत आदित्यः। सुरुच आदित्यरश्मयः सुरोचनात्। अपि वा सीम् इत्येतद् अनर्थकम् उपबन्धमाददीत पञ्चमीकर्माणम्। सीम्नः सीमतः मर्यादातः। सीमा मर्यादा विसीव्यति देशाविति। निरु० १।६ ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपक्षे। (प्रथमम्) श्रेष्ठम् (ब्रह्म) जगदादिकारणं परं ब्रह्म (पुरस्ताद्) पूर्वं सृष्ट्यादौ (जज्ञानम्५) प्रकृतिगर्भाद् महदादिजगत्प्रपञ्चस्य जनकम् अभवत्। यो जनयामास तद् जज्ञानम्, णेर्लुक्। (वेनः) मेधावी स इन्द्रः परमेश्वरः। वेनः इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (सीमतः) मर्यादातः व्यवस्थापूर्वकं महदादिक्रमेण (सुरुचः) सुरोचमानान् पदार्थान् (वि अवः) व्यवृणोत्, उत्पादितवान्। (सः) असौ परमेश्वरः (उपमाः) उपेत्य मान्ति धारणाकर्षणशक्तिभिः परस्परं स्थिरीकुर्वन्ति तान्, अपि च (अस्य) एतस्य जगतः (विष्ठाः) विशेषेण स्थितिनिमित्तान् (बुध्न्याः६) बुध्ने अन्तरिक्षे भवान् सूर्यचन्द्रपृथिवीतारकादीन् लोकान् (विवः) व्यवृणोत् प्रकाशितवानस्ति। स एव (सतः च) व्यक्तस्य भूजलाग्निपवनादेः (असतः च) अव्यक्तस्य महदहंकारपञ्चतन्मात्रादेश्च (योनिम्) कारणं प्रकृतिम् (विवः) कार्यात्मना व्यवृणोत् ॥९॥७ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘सतश्च-सतश्च’ इत्यावृत्तौ यमकम् ॥९॥

    भावार्थः

    कान्तिमान् आदित्यः पूर्वस्यां दिशि जायमानः सन् स्वकीयान् सुप्रदीप्तान् रश्मीन् दिवि भुवि च प्रसारयन् सर्वा दिशः सौरं जगच्च प्रकाशयति। कान्तिमान् मेधावी परमेश्वरश्च प्रकृतेर्मध्यात् सुरोचमानान् पदार्थान् सूर्यचन्द्रपृथिवीतारकादीन् लोकांश्चाविष्कृणोति। तस्यादित्यस्य सम्यगुपयोगः, तस्य परमेश्वरस्य स्तुतिप्रार्थनोपासनानि च सर्वैः कर्तव्यानि ॥९॥

    टिप्पणीः

    १. य० १३।३ ऋषिः वत्सारः, देवता आदित्यः। अथ० ४।१।४ ऋषिः वेनः, देवता बृहस्पतिः, आदित्यः। अथ० ५।६।५ ऋषिः अथर्वा, देवता ब्रह्म। २. ब्रह्मेति बृहेर्वृद्ध्यर्थस्य बिभर्तेः भरणार्थस्य वा रूपम्। परिवृद्धत्वात् सर्वस्य वा भरणाद्, ब्रह्मशब्देन आदित्यमण्डलम् उच्यते—इति वि०। ३. विष्ठाः स्थितिसाधिकाः—इति य० २३।५८ भाष्ये द०। विष्टभ्य स्थात्रीः—इति वि०। वितिष्ठन्ते प्रतिष्ठन्ते इति विष्ठाः आपः—इति भ०। विष्ठाः विशेषेण स्थापितवान्—इति सा०। ४. बुध्नम् अन्तरिक्षम्, तस्मिन् भवाः बुध्न्याः दिशः—इति वि०। ५. (जज्ञानम्) सर्वस्य जनकं, विज्ञातृ—इति य० १३।३ भाष्ये द०। ‘सर्वत्र जज्ञानस्य जनक एवार्थ उच्यते। तद्यथा ऋ० ३।१।४, ऋ० ६।२१।७, ऋ० ३।४४।४ द० भाष्ये’ इति तत्रैव ब्रह्मदत्तजिज्ञासुसंस्करणे टिप्पणी। ६. (बुध्न्याः) बुध्ने जलसंबद्धेऽन्तरिक्षे भवाः सूर्यचन्द्रपृथिवीतारकादयो लोकाः—इति य० १३।३ भाष्ये द०। ७. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं ‘किंस्वरूपं ब्रह्म जनैरुपास्यमिति’ विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God revealed for the spread of knowledge, the Veda, an encyclopaedia of light, before the creation of the physical world. He created other similar worlds in the space. He created the Sun, the basic asylum of the visible and invisible creation.

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    Meaning

    Brahma, first and ultimate self-manifestive self- refulgent reality of existence since eternity, from the law and potential of its own essence, invokes Prakrti, original Nature, mother cause of all past, present and future objects of the universe, and thence creates the great and glorious objects over the vast regions of space which are exemplary revelations of its power of creation and its glory of Being. Brahma is the only object of love and worship.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पुरस्तात्) સૃષ્ટિથી પૂર્વ (प्रथमं ब्रह्म जज्ञानम्) પ્રથિત =અત્યંત વિસ્તૃત અખંડ રૂપ બ્રહ્માંડ પરમાત્મા દ્વારા પ્રકટ થયેલ તેમાં (वेनः) કાન્તિમાન ઇન્દ્ર-પરમાત્માની (सीमन्तः) સીમાથી તેની પોતાની સીમાથી પરિધિક્રમથી (सुरुचः) પૃથિવી ચંદ્ર આદિ લોકોને (वि आव) પૃથક-પૃથક વ્યક્ત કર્યા-રચના કરી (सः) તે પરમાત્માએ (अस्य) આ બ્રહ્માંડની (बुध्न्याः उपमाः विष्ठाः) અન્તરિક્ષ-આકાશમાં રહેલી દિશાઓને વિશેષ સ્થાપિત કરી તથા (सतः च असतः च योनिं विवः) પ્રાણીની અને અપ્રાણીની યોનિ-પ્રાણી યોનિ તથા અપ્રાણી યોનિ-જડ યોનિને વ્યક્ત કરી. (૯)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા દ્વારા સૃષ્ટિનાં પૂર્વ અત્યંત વિસ્તૃત બ્રહ્માંડ-વિશ્વગોળો વ્યક્ત થયો. તેમાં પરમાત્માએ સીમાઓમાં પરિધિઓમાં પૃથિવી આદિ લોકો-પિંડોને વ્યક્ત કર્યા-રચના કરી, પુનઃ એ બ્રહ્માંડની આકાશગત દિશાઓને વ્યવસ્થિત કરી. મનુષ્ય ગાય, ઘોડા આદિ પ્રાણી યોનિ અને આંબા આદિ વૃક્ષોની અપ્રાણી યોનિઓને વ્યક્ત કરી-રચના કરી. તે એવા રચયિતા શક્તિશાળી પરમાત્માને જાણીને તેની ઉપાસના કરવી જોઈએ; જેથી પૃથિવી આદિ પિંડોને સીમામાં બાંધેલ છે અને પૃથિવી આદિ પર અમને જીવાત્માઓને બાંધેલ છે. બંધનથી મુક્ત થવા માટે પરમાત્માની ઉપાસના કરવી એ સાધન છે. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    وُہ ہی اُپاسنا کے یوگیہ

    Lafzi Maana

    (برہم) سب سے بڑا (جگیانم) سب کا پیدا کرنے اور جاننے والا (پُرستات) ازلی ہے اور (پرتھمم) اپنی اوّلین طاقت سے پھیلا ہوا ہے، (سُور وُچہ) جس کو سب چاہتے ہیں۔ جو (وینہ) گرہن کے یوگیہ (بُدھنیہ اسیہ وِشٹھاہ اُپماہ) جس کے آکاش میں سُوریہ، چندر، تارے، زمین وغیرہ مختلف جگہوں میں ٹھہرے یا گھُومتے ہوئے ایشور کی جانکاری دیتے ہیں، (سہ ادہ) وہی سب جگہ موجود ہونے سے اِن سب کو ڈھک رہا ہے۔ محفوظ کر رہا ہے، (وسِی یتاستہ استہ چہ یونیم وِوہ) وہ اِیشور مریادہ کے اندر دیکھنے لائق اور نہ دیکھنے لائق بھی کارن کے آکاش روپ کو گرہن کر رہا ہے، اُسی کی اُپاسنا (عبادت) سب کو ہمیشہ بالضرور کرنی چاہیئے۔

    Tashree

    وہی برہم سب کا ہی آدھا رہے، اُسی کو ہمارا نمسکار ہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    तेजस्वी सूर्य पूर्व दिशेला प्रकट होतो, आपल्या उज्ज्वल किरणांना आकाश व भूमीवर प्रसारित करतो. सर्व दिशांना व सौर जगात प्रकाशित करतो. तेजस्वी मेधावी परमेश्वर प्रकृतीच्या माध्यमाने रोचक पदार्थांना व सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, तारे इत्यादी लोक प्रकट करतो. त्या सूर्याचा चांगल्या प्रकारे उपयोग व परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना व उपासना सर्वांनी केली पाहिजे ॥९॥

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    विषय

    सूर्याच्या व परमेश्वराच्या महत्कार्याचे वर्णन -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (सूर्यपर अर्थ) (प्रथमम्) श्रेष्ठ (ब्रह्म) महान आदित्यरूप ज्योती (पुरस्तात्) पूर्व दिशेत (जज्ञानम्) प्रकट होत आहे. (वेनः) कांतिमान सूर्याने (सीमतः) चारही दिशांत अथवा संयतपण (सुरूचः) आपला रोचमान किरणे (वि आवः)रात्रीच्या अंधकारात प्रविष्ट केल्या आहेत. (सः) तो सूर्य (उपमाः) सर्वांच्या जवळ असलेल्या (अस्म) या जगाची (विष्ठाः) विशेष रूपाने स्थिती सांभाळणाऱ्या (बुध्न्याः) अंतरिक्षस्थित दिशांना (विवः) आपल्या प्रकाशाने उजळून टाकतो आणि (सतःच) व्यक्त अर्थात कार्यारूपात असणाऱ्या (म्हणजे नद्या, पर्वत, घरे आदी पदार्थांना प्रकाशित करतो तसेच हा सूर्य (असतः) कारणात (अणुरूप प्रकृतीत) अव्यक्तपणे विद्यमान अशा पदार्थांच्या (योनिम्) गृहरूप भूमंडळाला (विवः) प्रकाशित करतो. (डोळ्याला दिसणारे पदार्थ आणि अतिसूक्ष्म पदार्थांनाही सूर्य आपल्या तेजाने उर्जस्वी व तेजोमय बनवितो. त्यात ऊर्जा निर्माण करतो.) द्वितीय अर्थ (परमात्मपर) - (प्रथमम्) श्रेष्ठ (ब्रह्म) आणि जगाचे आदिकारण असलेला ब्रह्म (पुरस्तात्) सृष्टिरचनेच्या आदिकाळात (जज्ञानम्) प्रकृतीच्या गर्भातून महत् आदींच्या या जगाचा उत्पत्तिकर्ता झाला. (वेनः) त्या मेघावी परब्रह्माने (सीमतः) मर्यादित राहून म्हणजे महत आदींची अत्यंत व्यवस्थितपणे (सुरुचः) रोचमान पदार्थांची (वि आवः) उत्पत्ती केल. (सः) त्याच परब्रह्माने (उपमाः) पदार्थांचा जवळ राहत आकर्षण - विकर्षण शक्तीद्वारे एकमेकास कक्षेत स्थिर ठेवणाऱ्या (अस्थ) या जगाच्या (विष्ठाः) पदार्थांना विशिष्ट स्थितीत ठेवण्यासाठी (बुध्न्याः) आकाशस्थ सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, तारका आदी लोकांनादेखील (विवः) प्रकाशित केले. त्यानेच (सतःच) व्यक्त म्हणजे दृश्यमान भूमी, जल, अग्नी, पवन, तारका आदी लोकांना (असतःच) आणि अव्यक्त महत्, अहंकार, पंचतन्मात्रा आदींची जी कारणभूत आहे, त्या (योनिम्) प्रकृतीला (विवः) कार्यरूपात म्हणजे दृश्य रूपात प्रकट केले. ।। ९।।

    भावार्थ

    कांतिमान सूर्य पूर्व दिशेत उदित होत आपल्या सुदीप्त किरणांनी आकाश आणि भूमीवर सर्वत्र पसरवील. सर्व दिशा आणि सर्व जग उजळून टाकतो. त्याचप्रकारे कांतिमान मेधावी परमेश्वर प्रकृतीच्या माध्यमातून सर्व रोचमान पदार्थ आणि सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, तारका आदी लोकांची सृ

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ‘सतश्च- सतश्च’ या आवृत्तीमुळे यमक अलंकार आहे. ।। ९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1](எமன்) நிலயத்திற்குத் துரிதமாகும் [2](வருணனின் தூதனான) பொன் சிறகுகளோடான (பட்சி) (போல்) உன்னில் காட்சியுண்டு, [3](வேனன்) பூர்வத்தில் உற்பத்தியை அறிந்த முதன்மையான பிரமத்தை பேரொளியை வானத்தினின்று திறந்தவனாய், ரசிமிகளை ஸ்தாபித்துக்கொண்டு இங்கு காணும் காணாததான நிலயங்களை விளக்குகிறான்.

    FootNotes

    [1].எமன் - சூரியன்
    [2].வருணன் - துருவன்
    [3].வேனன் - உன்னை நாடும் அறிஞர் அன்பு நிறையும் அறிஞர்

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