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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 325
ऋषिः - बृहदुक्थ्यो वामदेव्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
23
वि꣣धुं꣡ द꣢द्रा꣣ण꣡ꣳ सम꣢꣯ने बहू꣣ना꣡ꣳ युवा꣢꣯न꣣ꣳ स꣡न्तं꣢ पलि꣣तो꣡ ज꣢गार । दे꣣व꣡स्य꣢ पश्य꣣ का꣡व्यं꣢ महि꣣त्वा꣢꣫द्या म꣣मा꣢र꣣ स꣡ ह्यः समा꣢꣯न ॥३२५॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣धु꣢म् । वि꣣ । धु꣢म् । द꣣द्राण꣢म् । स꣡म꣢꣯ने । सम् । अ꣣ने । बहूना꣢म् । यु꣡वा꣢꣯नम् । स꣡न्त꣢꣯म् । प꣣लितः꣢ । ज꣣गार । देव꣡स्य꣢ । प꣣श्य । का꣡व्य꣢꣯म् । म꣣हित्वा꣢ । अ꣣द्या꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣मा꣡र꣢ । सः । ह्यः । सम् । आ꣣न ॥३२५॥
स्वर रहित मन्त्र
विधुं दद्राणꣳ समने बहूनाꣳ युवानꣳ सन्तं पलितो जगार । देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥३२५॥
स्वर रहित पद पाठ
विधुम् । वि । धुम् । दद्राणम् । समने । सम् । अने । बहूनाम् । युवानम् । सन्तम् । पलितः । जगार । देवस्य । पश्य । काव्यम् । महित्वा । अद्या । अ । द्य । ममार । सः । ह्यः । सम् । आन ॥३२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 325
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि जन्मधारियों की मृत्यु निश्चित है।
पदार्थ
प्रथम—चन्द्र-सूर्य के पक्ष में। (समने) अन्धकार के साथ युद्ध में (बहूनाम्) बहुत से अन्धकार-रूप शत्रुओं के (दद्राणम्) विदारणकर्त्ता (विधुम्) चन्द्रमा को (युवानं सन्तम्) युवक होते हुए अर्थात् पूर्णिमा में पूर्ण प्रकाशमान होते हुए को भी (पलितः) बूढ़े, पके हुए किरणरूप केशोंवाले सूर्य ने (जगार) निगल लिया है, अर्थात् पूर्णिमा के बीत जाने पर प्रतिपदा तिथि से आरम्भ करके धीरे-धीरे एक-एक कला को निगलते-निगलते अमावस्या को पूर्ण रूप से निगल लिया है। (देवस्य) क्रीडा करनेवाले परमेश्वर के (महित्वा) महान् (काव्यम्) जगत्-रूप दृश्य काव्य को (पश्य) देखो। इसमें जो (ह्यः) कल (समान) धारण किए हुए था, जीवित था, (सः) वह (अद्य) आज (ममार) मर जाता है ॥ चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है। पृथिवी के चारों ओर चन्द्रमा के परिभ्रमण करने के कारण उसका जितना भाग पृथिवी की ओट में आ जाता है, उतने पर सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता, अतः वह अप्रकाशित ही रहता है। अमावस्या को चन्द्रमा और सूर्य के बीच में पृथिवी के आ जाने से सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर बिल्कुल नहीं पड़ती हैं, इस कारण उस रात चन्द्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता। उसी को यहाँ वेदकाव्य के कवि ने इस रूप में वर्णित किया है कि सूर्य चन्द्रमा को निगल लेता है ॥ द्वितीय—अध्यात्म-पक्ष में। (समने) प्राणवान् शरीर में (बहूनाम्) अनेक ज्ञानेन्द्रियों को (दद्राणम्) अपने-अपने विषयों में प्रेरित करनेवाले (विधुम्) ज्ञान-साधन मन को (युवानं सन्तम्) जाग्रदवस्था में युवा के समान पूर्णशक्तिमान् होते हुए को भी (पलितः) अनादि होने से बूढ़ा आत्मा (जगार) सुषुप्ति अवस्था में निगल लेता है, क्योंकि सुषुप्ति में मन के सब व्यापार शान्त हो जाते हैं। (देवस्य) प्रकाशक आत्मा के (महित्वा) महान् (काव्यम्) जनन, जीवन, मरण आदि-रूप काव्य को (पश्य) देखो। जो (अद्य) आज (ममार) मरा पड़ा है, (सः) वह (ह्यः) कल (समान) प्राण धारण कर रहा था। यह सब आत्मा के ही आवागमन का खेल है। इसी प्रकार आगे भी आत्मा पुनर्जन्म प्राप्त करके देहधारी होकर देह की दृष्टि से जीवित भी होगा, मरेगा भी ॥३॥ इस मन्त्र में ‘अद्य ममार स ह्यः समान’ इस सामान्य का विधु-निगरणरूप विशेष अर्थ द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। ‘युवक को बूढ़े ने निगल लिया’ इसमें विरूपसंघटनारूप विषमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
इस संसार में शक्तिशालियों की भी मृत्यु निश्चित है, यह मानकर सबको धर्म-कर्मों में मन लगाना चाहिए ॥३॥
पदार्थ
(बहूनां) अनेक इन्द्रियों के (दद्राणम्) दमनशील (विधुम्) स्वयं विधमानशील—चञ्चल (युवानं सन्तम्) युवा जब तक शरीर है तब तक समानरूप में वर्तमान हुए अन्तःकरण पदार्थ को (समने) रात्रिशयन में (पलितः) ज्ञानी चेतन आत्मा (जगार) निगल लेता है (देवस्य) परमात्मदेव के (काव्यं पश्य) कला शिल्प को देख (महित्वा) उसकी महती शक्ति से (अद्य ममार) आज शयन काल में जो मृत सा हो गया (स ह्यः-समानः) वह कल तो समान स्वरूप में था या (ह्यः-ममार-अद्य समानः) गए कल मरा, आज फिर वैसा कार्य करने में वैसा ही हो गया अथवा जो अन्तःकरण युक्त आत्मा कार्यकरण—समर्थ गत काल में था वह आज मृत हो गया—देह त्याग गया, जो आज मृत हो गया, वह आगे समय में पुनर्देह प्राप्त करके वैसा ही उत्पन्न हो जाता है, इस प्रकार जन्म मरण का शिल्प परमात्मा का विवेचनीय है।
भावार्थ
यह अन्तःकरण इन्द्रियों का नियन्त्रण करने वाला स्वयं चञ्चल, शरीर में इन्द्रियों की अपेक्षा युवा—जरा रहित है। इन्द्रियाँ तो शरीर के रहते हुए भी जीर्ण-क्षीण या नष्ट भी हो जाती हैं, परन्तु यह तो जब तक यह शरीर जीवित है तब तक रहता है, परन्तु रात को सोते समय चेतन आत्मा इसे अपने अन्दर ले लेता है या इन्द्रियों का सञ्चालित करने वाला आत्मा अजर होते हुए को भी महान् चेतन परमात्मा अपने अन्दर ले लेता देह त्यागने पर, यह परमात्मदेव का शिल्प है, कला है जो अन्तःकरण आज रात्रि में मरा अकिञ्चित्कर हो गया, कल वह अपने रूप में ठीक था और आगे भी आने वाले कल भी फिर वैसा ही हो जाएगा या यह परमात्मा की कला है जो आत्मा आज मर गया, देह को त्याग गया, वह कल तो अच्छा समान था और अगले काल में पुनः देह को प्राप्त कर फिर वैसा ही हो जाता है॥३॥
विशेष
ऋषिः—बृहदुक्थः (महान् बड़ी वाक्-ओ३म् उपास्य जिसका है)॥<br>
विषय
नश्वरता असारता का चिन्तन
पदार्थ
गत मन्त्र में ‘प्राणों की साधना के द्वारा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व मन स्थिरता से वह वृत्ति उत्पन्न होती है जोकि सब आसुर वृत्तियों को पराजित कर देती हैं - इन शब्दों में अभ्यास का वर्णन हुआ था। प्रस्तुत मन्त्र में अभ्यास के साथी 'वैराग्य' का उल्लेख करते हैं। यह वैराग्य जिस विवेक से उत्पन्न होता है वह विवेक शरीर के स्वरूप का ही विवेक है। विवेकी पुरुष देखता है
१. (विधुम्) = चन्द्र के समान सुन्दर बालक को । बालक चन्द्रमा के समान सुन्दर है यह तो प्रत्यक्ष ही है। चन्द्र के समान ही क्या? बालक का मुख तो चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर है। चन्द्र सकलंक है, यह अकलंक है। चन्द्र के समान यह प्रिय लगता है और वस्तुतः उसका सौन्दर्य उस व्यक्ति उस व्यक्ति को बींधता सा है जिसे वह अप्राप्य होता है। चन्द्रमा भी विरही पुरुषों को बींधने से 'विधु' है, जिनके लिए अप्राप्य है उन्हें बींधने से 'विधु' कहलाता है। अब यह बच्चा बड़ा होता है, चलने-फिरने लगता है, और
२. (बहूनाम्) - बहुतों के माता पिता व अन्य सगे सम्बन्धियों के (समने) = उत्सुकता के निमित्त (दद्राणम्) = नाना प्रकार की चेष्टाओं को करते हुए को। बच्चों की चहल-पहल घर को किस प्रकार शोभावाला कर देती है। इनकी चहल-पहल के बिना तो घर शून्य वन-सा प्रतीत होता है। अब यह और बड़ा होकर भरपूर युवा अवस्था में आता है, और
३. (बहूनाम्)=न जाने कितने व्यक्तियों की (समने)=उत्कण्ठा के निमित्त (युवानं सन्तम्)=युवा होते हुए को। निखरी जवानीवाला युवक जिधर से निकल जाए उधर ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। लड़कियोंवाले उसे अपना दामाद बनाना चाहते हैं और यह युवती हो तो लड़कोंवाले उसे अपनी बहू बनाने के लिए इच्छुक होते हैं। सभी उसे आदर देते हैं।
(‘समने बहूनां’ शब्द देहली दीप न्याय से दोनों ओर सम्बद्ध हो जाते हैं)।
४. इतने सुन्दर इस युवक का भी समय आता है कि (पलितः)=बुढ़ापे की सफेदी (जगार)=निगल लेती है और उस सारे सौन्दर्य का आकर्षण समाप्त हो जाता है। धीरे-धीरे बुढ़ापा प्रबल होता है और एक दिन हम कहते हैं कि—
५. (अद्यः ममार) = आज वह मर गया (सः) = जोकि (ह्यः) = कल ही (समान) = बड़ी अच्छी प्रकार जीवन धारण करता था। यह मृत्यु हमें बड़ी विचित्र प्रतीत होती है, कुछ भयंकर सी लगती है और इसे चाहते नहीं। हमारी इच्छा होती है कि हम सदा बने रहें । परमेश्वर ने 'यह मृत्यु बनाकर क्या मूर्खता की है? ' ऐसा हमारा विचार होता है, परन्तु (महित्वा) = पूजनीय बुद्धि से, श्रद्धा की भावना से यदि हम मृत्यु पर विचार करेंगे तो हमारा विचार बदल जाएगा। अत्यन्त वृद्धावस्था में हम एकदम पराधीन हो जाते हैं, सब इन्द्रिय वृत्तियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, हम प्रिय मित्रों के भी करूणा के पात्र मात्र रह जाते हैं। सब घरवाले हमारी सेवा से तङ्ग आ चुके होते हैं, वे भी दिल से हमारे चले जाने की ही कामना कर रहे होते हैं। ऐसे समय में (देवस्य) = प्रभु की भेजी हुई मौत तो हे जीव! यदि तू (पश्य) = देखे तो सचमुच (काव्यम्) = एक बड़ी सुन्दर वर्णनीय वस्तु ही हो जाए। [A thing worthy to be described.] =
इस प्रकार जीवन के क्रमिक परिवर्तनों को देखता हुआ यह ऋषि उस प्रभु का खूब ही [बृहत्] गुणगान [उक्थ] करता है, अतएव 'बृहदुक्थ' कहलाता है। जीवन के इस क्रमिक क्षय को देखता हुआ कहीं भी आसक्त न होने से यह सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बनकर ‘वामदेव्य' बनता है।
भावार्थ
जीवन की नश्वरता का चिन्तन हमें उचित मार्ग से ले-चलनेवाला हो। अनासक्त रहकर वासनाओं के शिकार न बनें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( विधुं ) = विधमनशील, धौंकनी के समान विशेष रीति से शरीर में गति करने वाले, ( समने ) = समान रूप से प्राण धारण करने के कार्य में ( बहूनां ) = बहुतों को ( दद्राणं ) = गति देने वाले, ( युवानं सन्तं ) = युवा, बलशाली होते हुए मुख्य प्राण को भी ( पलितः ) = पुराण पुरुष आत्मा ( जगार ) = अपने भीतर लीन कर लेता है । ( देवस्य ) = उस आत्मदेव के ( काव्यं ) = ज्ञान -सामर्थ्य को ( पश्य ) = देख ( ह्मः ) = जो भूत काल में ( समान: ) = निरन्तर जीवित रहा, ( स अद्य ) = वह आज भी ( महित्वा ) = उस 'स्व' अपने महिमा या बढ़प्पन में ( ममार ) = अपना प्राण को त्याग देता है अर्थात् उसमें ही लीन हो मुक्त हो जाता है ।
देखो स्पष्टीकरण उपनिषदों के अप्यय -प्रकरण एकायन-प्रकरण और स्व-महिमा में संप्रतिपत्ति प्रकरण ।
परमेश्वर पक्ष में -( विधुं ) = चन्द्र को जिस प्रकार पूर्ण हो जाने के बाद भी सूर्य अमावास्या में ग्रस लेता है उसी प्रकार ( बहूनां ) = बहुत से प्राणों के बीच में सबसे अधिक ( युवानं सन्तं ) = युवा अति बलवान सत् स्वरूप आत्मा ( विधुं दद्राणं ) = चन्द्र के समान आल्हादकारी एवं गतिशील आत्मा को ( पलित:) = सर्वव्यापक, पुराण परमेश्वर ( जगार ) = अपने भीतर ले लेता है ( देवस्य ) = उस महान् परमेश्वर के बनाये ( काव्यं पश्य ) = इस संसारमय ज्ञानस्वरूप कवि विद्वान् परमेश्वर की बनाई रचना को देख कि ( आद्यममार ) = जा अज मरता है ( सः ) = वह ( ह्य:) = फिर दूसरे दिन ( समानः ) = प्राण धारी होकर जीता है। अर्थात् पुनः जन्म लेता है । और जो ही जगत् अबनष्ट होता है वह पुनः बनता है ।
देखो अयर्व० पलित सूक्त । का० ९ । १ । १० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - बृहदुक्थ्य:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - त्रिष्टुभ् ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जन्मधारिणां मृत्युर्ध्रुव इत्याह।
पदार्थः
प्रथमः—चन्द्रसूर्यपरः। (समने) तमोभिः सह संग्रामे। समनम् इति संग्राम- नाम। निघं० २।१७। समनं समननाद् वा संमाननाद् वा। निरु० ७।१७। (बहूनाम्) अनेकेषां तमोरूपाणाम् शत्रूणाम् (दद्राणम्) विदारकम्। विदारणे धातोः लिटः कानच्। यद्वा (बहूनाम्) अनेकेषां नक्षत्राणाम् (समने) समूहे स्थितम् (दद्राणम्) पृथिवीं परितः स्वधुरि च भ्रमन्तम् (विधुम्) चन्द्रमसम् (युवानं सन्तम्) तरुणमपि सन्तम्, पूर्णिमायां पूर्णप्रकाशयुक्तं जायमानम् अपि (पलितः) वृद्धः पलितकिरणकेशः सूर्यः (जगार) निगीर्णवान् अस्ति, पूर्णिमायां व्यतीतायां प्रतिपत्तिथित आरभ्य शनैः शनैरनुदिनमेकैकां कलां निगिरन्नमावस्यायां पूर्णतो निगीर्णवानिति भावः। गॄ निगरणे, लडर्थे लिट्। (देवस्य) क्रीडाकर्तुः इन्द्रस्य परमेश्वरस्य। दीव्यति क्रीडतीति देवः। दिवु क्रीडाद्यर्थः। (महित्वा) महत् अत्र महद्वाचिनो महि शब्दात् स्वार्थे त्व प्रत्ययः। ततः ‘सुपां सुलुक्०’ इति द्वितीयैकवचनस्य आकारादेशः। (काव्यम्) जगद्रूपं दृश्यकाव्यम् (पश्य) निभालय, यः (ह्यः) गतदिवसे (समान) सम्यक् प्राणिति स्म, (सः) असौ (अद्य) अस्मिन् दिने। संहितायां निपातत्वाद् दीर्घः। (ममार) मृतः शेते२ ॥ चन्द्रमा हि सूर्यप्रकाशेन प्रकाशते। पृथिवीं परितश्चन्द्रस्य परिभ्रमणाद्धेतोस्तस्य यावान् भागः पृथिव्यन्तर्हितस्तावति सूर्यस्य प्रकाशो न निपतति। अतः सोऽप्रकाशित एव तिष्ठति। अमावस्यायां चन्द्रसूर्ययोर्मध्ये पृथिव्यागमनात् सूर्यरश्मयश्चन्द्रमसं सर्वथा न स्पृशन्तीति चन्द्रस्तस्यां रात्रौ सर्वथा न दृश्यते। तदेव वेदकाव्यस्य कविरेवं वर्णयति यत्सूर्यश्चन्द्रमसं निरितीति ॥ अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। (समने) सम्यग् अनिति प्राणिति इति समनं शरीरं तस्मिन् (बहूनाम्) अनेकेषां ज्ञानेन्द्रियाणाम् (दद्राणम्) स्वेषु स्वेषु विषयेषु प्रवर्तकम्। द्रातिः गतिकर्मा। निघ० २।१४। (विधुम्) ज्ञानसाधनं मनः। विदधाति ज्ञानमिति विधुश्चन्द्रः। चन्द्रमा मनः ऐ० आ० २।१।५ इति प्रामाण्यात्। (युवानं सन्तम्) जाग्रदवस्थायां तरुणवत् पूर्णशक्तिमन्तमपि वर्तमानम् (पलितः) अनादित्वाद् वृद्धः आत्मा (जगार) निगिरति रात्रौ सुषुप्त्यवस्थायाम्, सुषुप्तौ सर्वस्यापि मनोव्यापारविजृम्भणस्य शान्तत्वात्। उक्तं च प्रश्नोपनिषदि—स यथा सोम्य वयांसि वासोवृक्षं संप्रतिष्ठन्ते एवं ह वै तत्सर्वं पर आत्मनि संप्रतिष्ठते’ इति। ४।७। (देवस्य) प्रकाशकस्य इन्द्रस्य जीवात्मनः (महित्वा) महत् (काव्यम्) जननजीवनमरणाद्यात्मकम् (पश्य) अवलोकय। (अद्य) अस्मिन् दिने, यः (ममार) मृतोऽस्ति (सः) असौ (ह्यः) पूर्वेद्युः (समान) प्राणिति स्म। सर्वमिदं जीवात्मन एव क्रीडाविलसितम्। एवमेवाग्रेऽपि जीवात्मा पुनर्जन्म प्राप्य सदेहः सन् देहेन प्राणिष्यति मरिष्यति च ॥३॥ ऋचमिमां यास्काचार्य एवं व्याख्यातवान्—विधुं विधमनशीलं दद्राणं दमनशीलं युवानं चन्द्रमसं पलित आदित्यो जगार गिरति, स ह्यो म्रियते, स दिवा समुदितेत्यधिदैवतम्। अथाध्यात्मम्—विधुं विधमनशीलं दद्राणं दमनशीलं युवानम् महान्तम् पलित आत्मा गिरति रात्रौ म्रियते रात्रिः समुदितेत्यात्मगतिमाचष्टे। निरु० १४।१८ ॥ अत्र ‘अद्या ममार स ह्यः समान’ इति सामान्यस्य विशेषेण विधुनिगरणेन समर्थनादर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः। ‘युवानं सन्तं पलितो जगार’ इति विरूपसंघटनारूपो विषमालंकारः ॥३॥३
भावार्थः
जगत्यस्मिन् शक्तिमतामपि मृत्युर्निश्चित इति मत्वा सर्वैर्धर्मकर्मसु मनो निवशनीयम् ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।५५।५। साम० १७८२। अथ० ९।१०।९, ऋषिः ब्रह्मा, देवता गौः, विराट्, अध्यात्मम्, ‘समने बहूनां’ इत्यत्र ‘सलिलस्य पृष्ठे’ इति पाठः। २. विधुम् वृष्टिप्रदानादिना उपकरणेन सर्वजगतः धारयितारम् इन्द्रम् दद्राणं दारयितारम्, समने संग्रामे, बहूनां शत्रूणाम्, युवानं सन्तं पलितः वृद्धः अहं जगार, गॄ स्तुतौ इत्यस्य उत्तमपुरुषैकवचनमिदम्, स्तौमीत्यर्थः—इति वि०। विधुं विधातारं कर्मणाम्। दद्राणं द्रावकं बहूनां शत्रूणाम्, समने संग्रामे, युवानं सन्तं पलितः पलितं जरा, जगार गिरति ग्रसति। अपर आह—विधुं चन्द्रमसं दद्राणं द्रावकं गच्छन्तं समने समूहे बहूनां स्थितं तं युवानं पूर्णं सन्तं पलितो वृद्धो राहुः जगार ग्रसति—इति भ०। विधुं विधातारं सर्वस्य युद्धादेः कर्तारं, विपूर्वो दधातिः करोत्यर्थे, तथा समने, अननम् अनः प्राणनं सम्यगननोपेते संग्रामे, बहूनां शत्रूणां, दद्राणं द्रावकम् ईदृक्सामर्थ्योपेतमपि युवानं सन्तम् पलितो जगार निगिरति इन्द्रकृपया। ....यो जरां प्राप्तोऽद्य ममार म्रियते स ह्यः परेद्युः समानः सम्यग् जीवति पुनर्जन्मान्तरे प्रादुर्भवतीत्यर्थः—इति सा०। ३. विरूपयोः संघटना या च तद्विषमं मतम्। सा० द० १०।७० इति तल्लक्षणात्।
इंग्लिश (2)
Meaning
In life’s struggle, the aged soul engulfs the youthful demon of sin, the slayer and destroyer of many. Behold God’s high wisdom, through whose greatness, the sin that was living yesterday is dead today.
Translator Comment
The verse may also mean.^Just as the Sun engulfs the moon at the time of Amavas, so does the All pervading immemorial God, Mighty in nature, absorb the beautiful, active soul. Look at God's wisdom, bow one who dies today, is reborn the other day. Like the waxing and waning of the moon, the soul leaves and enters the body again and again, till it attains to salvation.
Meaning
Old age consumes even the youthful man of versatile action whom many fear to face in battle and flee. Look at the inscrutable power of the lord divine by whose inevitable law of mutability the man who was living yesterday is dead today, and the one that dies today would be living to tomorrow. (Rg. 10-55-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (बहुनाम्) અનેક ઈન્દ્રિયોનો (दद्राणाम्) દમનશીલ (विधुम्) સ્વયં વિધમાનશીલ-ચંચળ (युवानं सन्तम्) યુવાન જ્યાં સુધી શરીરમાં રહે છે, ત્યાં સુધી સમાન રૂપમાં વિદ્યમાન રહીને અન્તઃકરણ પદાર્થને (समने) રાત્રિ શયનમાં (पलितः) જ્ઞાની ચેતન આત્મા (जगार) ગળી જાય છે. (देवस्य) પરમાત્મા દેવની (काव्यं पश्य) કલા-શિલ્પને જોઈને (महित्वा) તેની મહાન શક્તિથી (अद्य ममार) આજ શયનકાળમાં જે મૃત સમાન બની ગયો (स ह्यः समानः) તે કાલ જે સમાન રૂપમાં હતો અથવા (ह्यः ममार अद्य समानः) ગઈકાલે મર્યો, આજે ફરી એવા કાર્યો કરવામાં એવો જ બની ગયો અથવા જે અન્તઃકરણ યુક્ત આત્મા કાર્યકરણસમર્થગત ગઈ કાલમાં હતો તે આજે મરી ગયો-શરીર ત્યાગી ગયો, જે આજ મરી ગયો, તે આગળના સમયમાં પુનઃ શરીર ધારણ કરીને તેવો જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ રીતે જન્મ મરણના શિલ્પ પરમાત્માનું વિવેચનીય છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : એ અન્તઃકરણ ઇન્દ્રિયોનું નિયંત્રણ કરનાર સ્વયં ચંચળ, શરીરમાં ઇન્દ્રિયોની અપેક્ષા યુવાન-વૃદ્ધત્વ રહિત છે. ઇન્દ્રિયો તો શરીરમાં રહીને પણ જીર્ણ-ક્ષીણ અથવા નષ્ટ થઈ જાય છે, પરન્તુ એ તો જ્યાં સુધી શરીર જીવિત છે, ત્યાં સુધી રહે છે, પરન્તુ રાતે શયન સમયે ચેતન આત્મા તેને પોતાની અંદર લઈ લે છે. અર્થાત્ ઈન્દ્રિયોનું સંચાલન કરનાર આત્મા અજર હોવા છતાં પણ મહાન ચેતન પરમાત્મા દેહ ત્યાગ પછી પોતાની અંદર લઈ લે છે, એ પરમાત્મા દેવનું શિલ્પ છે, કળા છે જે અન્તઃકરણ આજ રાત્રિમાં મૃત થયું અકિંચિતકર બની ગયું, કાલ એ પોતાના રૂપમાં ઠીક હતું અને આગળ પણ આવનારી કાલ ફરી એવી જ બની જશે અથવા એ પરમાત્માની કળા છે. જે આ આત્મ આજ મરી ગયો-દેહત્યાગ કરી ગયો, તે કાલ તો ઠીક સમાન હતો અને આવનારી કાલમાં ફરી દેહને પ્રાપ્ત કરીને ફરી એવો જ બની જાય છે. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
خُدا کی قُدرت کو دیکھ جو کل زندہ تھا آج مر گیا!
Lafzi Maana
(بہو نام سمنے وِدھُم ددرانم یُوانم سنتم پلتِہ جگار) بہتوں کے زندہ رہتے، دشمنوں کو بھگا دینے والے، امیر کبیر اور جوان آدمی کو بھی وہ پُرانا پُرش نِگل جاتا ہے، اس کی عظمت کو جاننے کے لئے (دیوسیہ کاریم پشیہ) اُس بھگوان کے وید کاویہ (گرنتھ) کو دیکھ (مہتوا اویہ ممار) اُس کی مہما یا قانونِ اوّل سے جو آج مر گیا ہے، (سہ ہسیہ سمان) وہ کل زندہ تھا۔
Tashree
یہ ہے قانون قدرت کا کرو جیسا بھرو ویسا، نہ رِشوت اور سفارش سے وہاں تو بچنے پائیگا۔
मराठी (2)
भावार्थ
या जगात शक्तिमान लोकांचाही मृत्यू निश्चित आहे, हे जाणून सर्वांनी धर्म कर्मात मन लावले पाहिजे. ॥३॥
विषय
जन्मणाऱ्याचा मृत्यू होणे अवश्य भावी आहे.
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (चंद्र सूर्यपर अर्थ) - (समने) अंधकाररूप (बहूनाम्) अनेक शत्रूंचे (दद्राणम्) विदारण करणाऱ्या (विद्यम्) चंद्राला (युवानं सन्तम्) तरुण असताना म्हणजे पूर्णिमेच्या रात्री पूर्ण प्रकाशित असताना (पलितः) वृद्ध म्हणजे पिकलेले किरण रूप केस असलेल्या सूर्याने (जगार) गिळून टाकले. अर्थात पूर्णिमा संपल्यानंतर प्रतिपदेपासून हळूहळू चंद्राची एक एक कला खात खात त्याला सूर्य अमावस्येच्या रात्री पूर्णपणे गिळून टाकतो. (देवस्य) क्रीडा म्हणजे अद्भुत कार्य करणाऱ्या परमेश्वराच्या या (महित्वा) महान (काव्यम्) जगत्- रूप दृश्य काव्याला, रे लोकहो, (पश्व) पहा. या जगात (ह्यः) जो काल (समान) प्राण धारण करीत होता, जिवंत होता, (सः) तो (अघ) आज (ममार) मृत्यू पावतो. चंद्र सूर्याच्या प्रकाशाने प्रकाशित होतो. पृथ्वीभोवती परिभ्रमण करीत असल्यामुळे चंद्राचा जेवढा भाग पृथ्वीच्या आड येतो, तेवढ्यावर सूर्यप्रकाश पडत नाही. म्हणून चंद्राचा तेवढा भाग अप्रकाशित असतो. अमावस्येला चंद्राच्या आणि सूर्यामध्ये पृथ्वी येते, त्यामुळे सूर्यकिरणे चंद्रावर पडत नाहीत, म्हणून त्या रात्री चंद्र मुळीच दिसत नाही. या ग्रहस्थितीलाच वेद काव्याच्या कवीने अशा प्रकारे म्हटले आहे की सूर्याने चंद्राला गिळले. द्वितीय अर्थ - (अध्यात्म पक्ष) - (समने) प्राणमय शरीरात (बहूनाम्) अनेक ज्ञानेद्रियांना (दद्राणम्) आपापल्या विषयांकडे प्रेरित करणाऱ्या (विधुम्) ज्ञान- साधन मनाला (युवानं सन्तम्) जागृत अवस्थेत युवकाप्रमाणे पूर्ण शक्तिमान असणाऱ्या (पलितः) अनादी असल्यामुळे जो वृद्ध असा आत्मा (जगार) सुषुप्ती अवस्थेत (युवा मनाला) गिळून टाकतो, कारण की सुषुप्ती अवस्थेत मनाच्या सर्व क्रिया सांत होतात. लोकहो, तुम्ही (देवस्य) प्रकाशक आत्म्याचे (महित्वा) महान (काव्यम्) जनन, मरण आदीरूप काव्य (पश्य) पहा. हा जो (अघ) आज (ममार) मरून पडलेला आहे. (सः) तो (हयः) काल (समान) प्राणधारी होता. हा सर्व आत्म्याच्या येर झाऱ्याचा खेळ आहे. आत्मा अशाच प्रकारे पुढेही पुनर्जन्म प्राप्त करून शरीरधारी होईल आणि देहाच्या रूपाने जीवित राहील तर मरणारदेखील.।। ३।।
भावार्थ
या जगात अति सामर्थ्यवान व्यक्तीचा मृत्यू अवश्यंभावी आहे. सा विचार करून सर्वांनी धर्म कर्मामध्ये मनाला गुंतविले पाहिजे. ।। ३।।
विशेष
या मंत्रात ङ्गअघ ममार स हयः समानफ या सामान्य अर्थाचे चंद्राला गिळून टाकणेफ या विशेष अर्थाद्वारे समर्थन केले आहे. त्यामुळे येथे अर्थान्तर न्यास अलंकार आहे. तसेच ‘तरुणाला म्हाताऱ्याने गिळले’ या कथनात विरूप संघटनारूप विषय अलंकार आहे.।। ३।।
तमिल (1)
Word Meaning
விதியைப்போல் வெகு சத்துருக்களை அழிப்பவனான சூரியன் சந்திரனை எழுச்சியாக்குகிறான். காலாத்மாவான இந்திரனது (சாமர்த்தியத்தைக் காணவும்). நேற்று இறந்தவன் இன்று சீவித்துள்ளாளான்.
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