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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 327
    ऋषिः - वामदेवो गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    22

    मे꣣डिं꣡ न त्वा꣢꣯ व꣣ज्रि꣡णं꣢ भृष्टि꣣म꣡न्तं꣢ पुरुध꣣स्मा꣡नं꣢ वृष꣣भ꣢ꣳ स्थि꣣र꣡प्स्नु꣢म् । क꣣रो꣢꣯ष्यर्य꣣स्त꣡रु꣢षीर्दुव꣣स्यु꣡रिन्द्र꣢꣯ द्यु꣣क्षं꣡ वृ꣢त्र꣣ह꣡णं꣢ गृणीषे ॥३२७

    स्वर सहित पद पाठ

    मे꣣डि꣢म् । न । त्वा꣣ । वज्रि꣡ण꣢म् । भृ꣣ष्टिम꣡न्त꣢म् । पु꣣रुधस्मा꣡न꣢म् । पु꣣रु । धस्मा꣡न꣢म् । वृ꣣षभ꣢म् । स्थि꣣र꣡प्स्नु꣢म् । स्थि꣣र꣢ । प्स्नु꣣म् । करो꣡षि꣢ । अ꣡र्यः꣢꣯ । त꣡रु꣢꣯षीः । दु꣣वस्युः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣢म् । द्यु꣣ । क्ष꣢म् । वृ꣣त्रह꣡ण꣢म् । वृ꣣त्र । ह꣡न꣢꣯म् । गृ꣣णीषे ॥३२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेडिं न त्वा वज्रिणं भृष्टिमन्तं पुरुधस्मानं वृषभꣳ स्थिरप्स्नुम् । करोष्यर्यस्तरुषीर्दुवस्युरिन्द्र द्युक्षं वृत्रहणं गृणीषे ॥३२७


    स्वर रहित पद पाठ

    मेडिम् । न । त्वा । वज्रिणम् । भृष्टिमन्तम् । पुरुधस्मानम् । पुरु । धस्मानम् । वृषभम् । स्थिरप्स्नुम् । स्थिर । प्स्नुम् । करोषि । अर्यः । तरुषीः । दुवस्युः । इन्द्र । द्युक्षम् । द्यु । क्षम् । वृत्रहणम् । वृत्र । हनम् । गृणीषे ॥३२७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 327
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय है कि कैसे परमात्मा की मैं किसके समान स्तुति करता हूँ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (दुवस्युः) आपकी पूजा की चाहवाला मैं (वज्रिणम्) दुष्टों को दण्डित करनेवाले, (भृष्टिमन्तम्) दीप्तिमान्, शत्रु को भून डालनेवाले तेज से युक्त, (पुरुधस्मानम्) बहुतों के धारणकर्ता, (वृषभम्) सुख आदि की वर्षा करनेवाले, (स्थिरप्स्नुम्) स्थिर रूपवाले अर्थात् स्थिर गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त, (द्युक्षम्) कर्तव्याकर्तव्य का प्रकाश देनेवाले, (वृत्रहणम्) पापों के विनाशक (त्वा) आपकी (मेडिं न) भूमि को वर्षा से सींचनेवाले अथवा विद्युद्गर्जना के आश्रयभूत बादल के समान अर्थात् जैसे वर्षा का इच्छक कोई मनुष्य बादल की बार-बार प्रशंसा करता है, वैसे (गृणीषे) स्तुति करता हूँ। हे परमात्मन् ! आप (अरीः) प्रजाओं को (तरुषीः) आपत्तियों को पार करने में अथवा शत्रु-विनाश में समर्थ (करोषि) कर देते हो ॥५॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘करोष्यर्यस्तरुषीः’ इस कारणात्मक वाक्य से स्तुतिरूप कार्य का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास भी है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे वर्षा चाहनेवाले किसान लोग वर्षक मेघ की पुनः पुनः प्रशंसा करते हैं, वैसे ही श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाववाले, सुख-समृद्धि की वर्षा करनेवाले परमेश्वर की सबको प्रशंसा और उपासना करनी चाहिए ॥५॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (मेडिं न) माध्यमिक वाक्—विद्युत् के समान “मेडिः-वाङ् नाम” [निघं॰ १.११] (भृष्टिमन्तम्) पापाभाव के भर्जन शक्ति वाले—(पुरुधस्मानम्) “पुरुदस्मानम्” “दकारस्य धकारश्छान्दसो वर्णव्यत्ययः” बहुदान बहुत आनन्दामृत प्रदानकर्ता को “बहुदान इति हैतदाह पुरुदस्म इति” [श॰ ४.५.२.१२] (स्थिरप्स्नुम्) एकरसस्वरूप वाले—(वज्रिणम्) ओजस्वी—(द्युक्षम्) ज्ञान भण्डार (वृत्रहणम्) पाप नाशक (त्वा) तुझको (गृणीषे) प्रशंसित करता हूँ स्तुति में लाता हूँ अपितु (तरुषीः-अर्यः) हिंसित करने वाली बाधक प्रवृत्तियों को भी “तरुष्यति हन्तिकर्मा” [निरु॰ ५.२] (करोषि) तिरस्कृत करता है बहिष्कृत करता है (अवस्युः) हमारी रक्षा को चाहता हुआ।

    भावार्थ

    परमात्मा तू विद्युत् की भाँति तेजस्वी पाप को भस्म करने की शक्ति रखने वाला बहुत आनन्ददाता एकरस—ज्ञानभण्डार अज्ञानान्धकारनाशक तथा हमारी रक्षा चाहने वाला भीतर प्रवृत्तियों को भी बहिष्कृत या तिरस्कृत करता है ऐसे उस तुझ परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपासनीय देव वाला)॥<br>

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    विषय

    सब क्रियाओं के केन्द्र प्रभु

    पदार्थ

    यह संसार एक अन्न- गाहेन के फर्श के समान है। उसमें यह जीव अन्न गाहेनवाले बैल के तुल्य है। यह निरन्तर चल रहा है। 'इसकी क्रियाओं का केन्द्र क्या हो ?' इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार देते हैं कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (मेडिं न) = केन्द्रीभूत किले की भाँति (त्वा) = तेरे ही चारों ओर (वज्रिणम्) = गति करनेवाले को [वज्-गतौ], जिसकी सब क्रियाओं के केन्द्र आप ही होते हो अर्थात् क्रियामात्र को करता हुआ जो कभी भी आपको भूलता नहीं, (भृष्टिमन्तं) = अतएव जो वासनाओं का भंजन कर डालता है अथवा अपने तप के द्वारा अपना ठीक परिपाक कर लेता है और इस प्रकार (पुरुधस्मानं) = नाना प्रकार से अपना धारण [नियमन - holding] करता है [धा से धस्-धारण] और किसी भी इन्द्रिय के विषयों का शिकार नहीं होने देता जो परिणामत: (वृषभ:) = शक्तिशाली बनता ही है, स्वयं शक्तिशाली बनकर जो औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला है, इसी उद्देश्य से (स्थिरप्स्नु) = जो स्थिर भोजन करता है [प्सा भक्षणे ] । 'स्थिर' शब्द सात्त्विक भोजन के विशेषणों का यहाँ प्रतीक है। सात्त्विक भोजन की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह 'पौष्टिक' है, न उत्तेजक है न मोहक। इस प्रकार के भोजन के द्वारा द्युक्षम् - सदा प्रकाशमय लोक में निवास करनेवाला और (वृत्रहणम्) = वासना को नष्ट करनेवाले व्यक्ति को हे प्रभो! आप (गृणीषे) = आदर देते हो। उल्लिखित विशेषणों से विशिष्ट व्यक्ति प्रभु से आदृत होता है।

    यह 'वामदेव' प्रभु की कृपा से ही सब सुन्दर दिव्य गुणों को पा सका है, प्रभु ने उसे वह शक्ति प्राप्त कराई जिससे वह 'गौतम'= अत्यन्त प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बना। मन्त्र में कहते हैं कि (दुवस्युः) = वे प्रभु सबके हित की कामनावाले हैं। अमन्तुओं को भी वह निवास देनेवाले हैं। प्रभु किसी का कल्याण न चाहें ऐसी बात नहीं है। ये प्रभु ही (अर्यः) = [ऋ गतौ] शत्रु के प्रति जनेवाला उनपर आक्रमण करनेवाला और (तरुषी:) = उनको तैर जानेवाला (करोषि) = बनाते हैं। यह सब प्रभुकृपा से ही होता है। इस प्रकार प्रभु ही हमें उदात्त बनाकर अपना प्रेम प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    हम संसार की सब क्रियाओं को करते हुए प्रभु को न भूलें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = है ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( दुवस्युः ) = परिचर्या, सेवा की इच्छा करने हारा तू ( अर्य: ) = अपनी गतिशील इन्द्रियों को ( तरुषीः ) = पदार्थों या भोग्य विषयों तक चले जाने योग्य ( करोषि ) = कर लेता है। इस कारण मैं ( मेडिं न ) = मेल करने हारे योगी के समान ( वज्रिणं ) = वर्जन करने वाले बल वैराग्य द्वारा सब पदार्थों के ज्ञानपूर्वक संग त्याग से सम्पन्न  (भृष्टिमन्तं ) = पापों को भून देने हारी परिपक्व , सम्यग् बुद्धि से युक्त ( पुरुधस्मानं  ) = इन्द्रियों को आश्रय देने हारे ( वृषभं  ) = सबसे श्रेष्ठ ( स्थिर प्स्नुम् ) = कूटस्थ, अचल, नित्य, ध्रुव ( द्युक्षं ) = प्रकाशस्वरूप ( वृत्रहणं ) = तम:स्वरूप देहबन्धन को नाश करने हारे ( त्वा ) = तेरी मैं ( गृणीषे ) = स्तुति करता हूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - त्रिष्टुभ् ।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशं परमात्मानमहं कमिव स्तौमीत्याह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (दुवस्युः) परिचरणेच्छुः। दुवस्यतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५। अहम् (वज्रिणम्) दुष्टानामुपरि उद्यतदण्डम्, (भृष्टिमन्तम्१) दीप्तिमन्तम्, शत्रुभर्जकतेजोयुक्तमित्यर्थः। भृष्टिः भर्जकं तेजः। भृजी भर्जने धातोः क्तिनि रूपम्। तद्वन्तम्। (पुरुधस्मानम्२) बहूनां धारकम्। दधातेरौणादिको मन् प्रत्ययः धातोश्च धसादेशः। (वृषभम्) सुखादीनां वर्षितारम्, (स्थिरप्स्नुम्३) स्थिररूपम्, स्थिरगुणकर्मस्वभावम् इत्यर्थः। प्सु इति रूपनाम निघं० ३।७। नकारोपजनश्छान्दसः। (द्युक्षम्) द्यां प्रकाशं क्षाययति विवासयति यस्तम् कर्तव्याकर्तव्यप्रकाशप्रदातारमित्यर्थः, (वृत्रहणम्) पापानां हन्तारम् (त्वा) त्वाम् (मेडिं न४) सेचकं, माध्यमिक्या वाच आश्रयभूतं पर्जन्यमिव। मेहति सिञ्चतीति मेडिः पर्जन्यः, मिह सेचने। यद्वा, मेडिरिति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १।१०। इह लक्षणया माध्यमिक्या वाच आश्रयभूतः पर्जन्यो गृह्यते। यथा वर्षार्थी कश्चित् पर्जन्यं भूयो भूयः स्तौति तथेत्यर्थः। (गृणीषे) स्तौमि। गृणातिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४’ इति सिबागमः। लेटि उत्तमैकवचने रूपम्। हे परमात्मन् ! त्वम् (अर्यः५) अरीः प्रजाः। प्रजा वा अरी। श० ३।९।४।२१। प्रजावाचिनः अरीशब्दात् शसि, ‘वा छन्दसि। अ० ६।१।१०६’ इति विकल्पतया पूर्वसवर्णस्य निषेधे तदभावे यणादेशे रूपम्। (तरुषीः) आपत्तरणसमर्थाः शत्रुविनाशसमर्था वा। तॄ प्लवनसंतरणयोरिति धातोर्बाहुलकादौणादिकः उषच् प्रत्ययः, ततो ङीप्। यद्वा तरुष्यतिः हन्तिकर्मा निरु० ५।२। (करोषि) विधत्से ॥५॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘करोष्यर्यस्तरुषीः’ इति कारणवाक्येन स्तवनरूपस्य कार्यस्य समर्थनादर्थान्तरन्यासोऽपि ॥५॥

    भावार्थः

    यथा वर्षार्थिनः कृषीवला वृष्टिप्रदायकं मेघं पुनः पुनः प्रशंसन्ति, तथैव श्रेष्ठगुणकर्मस्वभावः सुखसमृद्धिवर्षकः परमेश्वरः सर्वैः प्रशंसनीय उपासनीयश्च ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. भृष्टिः भ्राजतेः दीप्तिकर्मणो रूपम्। दीप्तिमन्तम्—इति भ०। शत्रूणां भर्जनवन्तम्—इति सा०। २. पूर्विति धननाम। धस्मानमिति धसि सहने इत्यस्येदं रूपम्। धनानां सहनशीलम्—इति वि०। दधातेर्धस्मा। पुरूणां बहूनां विश्वेषां धारकम्—इति भ०। बहूनाम् उदकानां धारकम्। यद्वा वर्णव्यत्ययः। पुरूणां बहूनां दासयितारं शत्रूणां क्षपयितारम्—इति सा०। ३. स्थिरः चिरन्तनः स्थविरश्चासौ प्स्नुश्च, तं स्थिरप्स्नुम्, चिरन्तनं हविषां भक्षयितारमित्यर्थः—इति वि०। प्सु इति रूपनाम। तत्र नकार उपजनः। स्थिरदेहम्—इति भ०। स्थिररूपम्—इति सा०। ४. मेडिरिति वाङ्नाम। अन्तर्णीतमत्वर्थं द्रष्टव्यम्। मेडिमन्तम् वाग्मिनमित्यर्थः—इति वि०। मेडिं न वाचमिव। यथा वाचं सरस्वतीं स्तुवन्ति तथा—इति भ०। माध्यमिकीं वृष्टिप्रदां वाचमिव, तां यथा वृष्ट्यर्थं स्तुवन्ति तद्वत्—इति सा०। ५. यस्त्वं करोषि अर्यः ईश्वरः, तरुषीः, तरुष्यतिः वधकर्मा, वधेन सङ्ग्रामो लक्ष्यते, सङ्ग्राममित्यर्थः—इति वि०। अर्यः अरीः, आर्यकर्मसु स्थिताः यज्वानः, तत्सम्बन्धिनीः प्रजाः तरुषीः आपदां तारिकाः करोषि—इति भ०। अर्यः अरीन् अस्मद्विरोधिनः तरुषीः तारकान् जेतॄनस्मान् करोषि। यद्वा तरुषीः तरणस्वभावान्। पक्षद्वयेऽपि लिङ्गव्यत्ययः। अर्यः अरीनस्माकं शत्रून् करोषि, उपक्षीणानिति शेषः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, longing for service, thou puttest thy organs in action. Like Vedic speech, I laud thee, as powerful, intellectual, controller of organs, most excellent. Immortal, resplendent and remover of obstacles !

    Translator Comment

    Just as the Vedas sing the glory and beauty of the soul, so do I, a seeker after truth. This verse is not found in the Rigveda. Griffith writes that the axact meaning of the word मेडिं is uncertain. It means Vedic speech.

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    Meaning

    I, seeker and celebrant, adore you, Indra, like a friend, like a divine Voice, wielder of thunder, fire armed, destroyer of multitudes, virile and generous, stable beyond disturbance, heaven high, and breaker of the clouds. You are the master, you reduce the enemy to dust.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (मेडिं न) માધ્યમિક વાક્-વિદ્યુત્ની સમાન (भृष्टिमन्तम्) પાપભાવની ભંજન શક્તિવાળા (पुरुधस्मानम्) બહુજ દાન અત્યંત આનંદામૃત પ્રદાન કર્તાને (स्थिरप्स्नुम्) એકરસ સ્વરૂપવાળા, (वज्रिणम्) ઓજસ્વી, (द्युक्षम्) જ્ઞાન ભંડાર, (वृत्रहणम्) પાપ નાશક (त्वा) તને (गृणीषे) પ્રશંસિત કરું છું,સ્તુતિમાં લાવું છું, પરંતુ (तरुषीः अर्यः) હિંસા કરનારી બાધક પ્રવૃત્તિઓને પણ (करोषि) તિરસ્કૃત કરે છે. બહાર ધકેલે છે. (अवस्युः) અમારી રક્ષાને ચાહનાર છે. (૫)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા ! તું વિદ્યુત સમાન તેજસ્વી, પાપને ભસ્મ કરવાને શક્તિશાળી, અત્યંત આનંદદાતા, એકરસ, જ્ઞાન ભંડાર, અજ્ઞાન-અંધકારનાશક તથા અમારી રક્ષા ઇચ્છનાર અંદરની પ્રવૃત્તિઓને પણ બહિષ્કૃત અથવા તિરસ્કૃત કરે છે; એવા તુજ પરમાત્માની હું સ્તુતિ કરું છું. (૫)

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    उर्दू (1)

    Lafzi Maana

    (میڈیم نابجرنم) وید بانی کے بجر (ہتھیار) سے (بھرشٹم انتم) بُرائیوں کا ناش کرنے والے (پُرو دھسمانم) پاپوں کو پوری طرح بھسم کر دینے والے (ورشبھم) سچے عابدوں پر سُکھوں کی درشا کرنے والے (ستھر پُسنم) سدا آنند سروپ (دئیوکھشم) سدا پرکاشمان (ورِترہنم) کام کرودھ وغیرہ اور وِگھن بادھاؤں کو دُور کرنے والے اِندر پرمیشور! میں آپ کی (گرنیشے) سُتتی (حمد و ثنا) کرتا ہوں۔ (دُوسُیو) میں عابد آپ کی اُپاسنا کرنے والا ہوں، (اِریہ) آپ میرے مالک ہیں، (ترُوشی کروشی) میرے پر حملہ کرنے والی بدیوں کو نشٹ کیجئے۔

    Tashree

    میں اُپاسک گاتا ہوں گُن کیرتن تیر سے سدا، کام کرودھ لوبھ اور سوہ آدی بُرائیوں سے بچا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे वृष्टीसाठी इच्छुक शेतकरी वर्षक मेघाची पुन्हा पुन्हा प्रशंसा करतात, तसेच श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभावयुक्त सुख-समृद्धीचा वर्षाव करणाऱ्या परमेश्वराची सर्वांनी प्रशंसा व उपासना केली पाहिजे ॥५॥

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    विषय

    मी परमेश्वराची स्तुती कोणाप्रमाणे करावी ?

    शब्दार्थ

    हे (इंद्र) परम ऐश्वर्यवान परमेशवर, (दुवस्युः) तुमची पूजा करण्याची इच्छा करणारा मी तुमची पूजा वा उपासना कशा प्रकारे करू. (वज्रिणम्) दुष्टांना दंडित करणारे व (भृष्टिमन्हम्) दीप्तिमान व शत्रूंना प्रतिहत करणाऱ्या तेजाने युक्त आहात. तुम्ही (पुरुधस्मानम्) अनेकांचे धारण पोषण करणारे असून (वृषभम्) सुखाची वृष्टी करणारे आहात. (स्थिरप्स्नुम्) स्थिर रूप म्हणजे निव्य गुण, कर्म स्वभावाने तुम्ही संपन्न असून (घुक्षम्) उपासकाला कर्तव्य अकर्तव्यात विवेक सांगणारे आहात. (वृत्रहणम्) तुम्ही पाप-विनाशक असून मी (त्वा) तुमची पूजा अशा रीतीने करतो की जसे (मेडिन) भूमीला जलाने सिंचित करणारा वा विद्युत गर्जना करणारा मेघ असतो म्हणजे जसा पावसाची वाट पाहणारा कोणी माणूस मेघाची वारंवार स्तुती करतो, तद्वत मी तुमची अंतःकरणापासून (गृणीषे) प्रशंसा करतो. हे परमेश्वर, तुम्ही (अरीः) प्रजेला (सर्व माणसांना) (तरुषीः) संकटापासून तारण्यात वा शत्रु-विनाशात समर्थ असे (करोषि) करता (सर्वांना धैर्य व पराक्रमासाठी प्रेरणा देतो.)।। ५।।

    भावार्थ

    जसे वृष्टि- याचक कृपक गण वर्षक मेघाची वारंवार प्रशंसा करतात. तद्वत सर्वांनी श्रेष्ठ गुण- कर्म- स्वभाव असणाऱ्या आणि सुख- समृद्धीची वर्षा करणाऱ्या परमेश्वराची उपासना व प्रशंसा अव्य केली पाहिजे.।। ५।।

    विशेष

    या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ङ्गकरोष्यर्यस्तरुषीःफ या कारणात्मक वाक्याद्वारे स्तुतिरूप कार्याचे समर्थन केले आहे, म्हणून इथे अर्थान्तरन्यास अलंकारदेखील आहे.।। ५।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (இந்திரனே!) வச்சிராயுதனே! தலைவனே! ஜயிப்பவனே! வெகு சத்துருக்களை வெல்லுபவனே! மொழிபோலுள்ள (விருத்திரனைக்) கொல்லும் வானத்திலிருக்கும் பல சத்துருக்களைப் பாழாக்கும் (விருஷபமான) திரவடிவமான (வச்சிராயுதனாய்) வெகு சிரமுள்ள உன்னை நாடுகிறோம்.

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