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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 334
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः, वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    23

    य꣡जा꣢मह꣣ इ꣢न्द्रं꣣ व꣡ज्र꣢दक्षिण꣣ꣳ ह꣡री꣢णाꣳ र꣣थ्यां꣢३꣱वि꣡व्र꣢तानाम् । प्र꣡ श्मश्रु꣢꣯भि꣣र्दो꣡धु꣢वदू꣣र्ध्व꣡धा꣢ भुव꣣द्वि꣡ सेना꣢꣯भि꣣र्भ꣡य꣢मानो꣣ वि꣡ राध꣢꣯सा ॥३३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣡जा꣢꣯महे । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢꣯दक्षिणम् । व꣡ज्र꣢꣯ । द꣣क्षिणम् । ह꣡री꣢꣯णाम् । र꣣थ्या꣢꣯म् । वि꣡व्र꣢꣯तानाम् । वि । व्र꣣तानाम् । प्र꣢ । श्म꣡श्रु꣢꣯भिः । दो꣡धु꣢꣯वत् । ऊ꣣र्ध्व꣡धा꣢ । भु꣣वत् । वि꣢ । से꣡ना꣢꣯भिः । भ꣡य꣢꣯मानः । वि । रा꣡ध꣢꣯सा ॥३३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यजामह इन्द्रं वज्रदक्षिणꣳ हरीणाꣳ रथ्यां३विव्रतानाम् । प्र श्मश्रुभिर्दोधुवदूर्ध्वधा भुवद्वि सेनाभिर्भयमानो वि राधसा ॥३३४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यजामहे । इन्द्रम् । वज्रदक्षिणम् । वज्र । दक्षिणम् । हरीणाम् । रथ्याम् । विव्रतानाम् । वि । व्रतानाम् । प्र । श्मश्रुभिः । दोधुवत् । ऊर्ध्वधा । भुवत् । वि । सेनाभिः । भयमानः । वि । राधसा ॥३३४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 334
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय है कि कैसे परमेश्वर और राजा का हम पूजन व सत्कार करें।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हम (वज्रदक्षिणम्) जिसका न्यायरूप दण्ड सदा जागरूक है ऐसे, (विव्रतानाम्) विविध कर्मों से युक्त (हरीणाम्) आकर्षणशक्तिवाले, गतिमय सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथिवी आदि लोकों के (रथ्यम्) रथी (इन्द्रम्) सर्वद्रष्टा परमात्मा की (यजामहे) पूजा करते हैं। वह (श्मश्रुभिः) सूर्य-किरणों द्वारा (प्र दोधुवत्) रोग आदियों को अतिशय पुनः पुनः प्रकंपित कर देता है, (ऊर्ध्वधा) सर्वोन्नत वह (सेनाभिः) सेनाओं के समान विद्यमान अपनी शक्तियों से (भयमानः) दुर्जनों को भयभीत करता हुआ (वि भुवत्) वैभवशाली बना हुआ है, और (राधसा) ऐश्वर्य से (वि) वैभवशाली बना हुआ है ॥ द्वितीय—राजा-प्रजा के पक्ष में। हम राष्ट्रवासी प्रजाजन (वज्रदक्षिणम्) दाहिने हाथ में वज्रतुल्य दृढ शस्त्रास्त्रों को धारण करनेवाले (विव्रतानाम्) विविध कर्मोंवाले (हरीणाम्) अग्नि, वायु, विद्युत् और सूर्यकिरणों को (रथ्यम्) अग्नियानों, वायुयानों, विद्युद्यानों और सूर्यताप से चलनेवाले यानों में प्रयुक्त करनेवाले (इन्द्रम्) शूरवीर राजा वा सेनाध्यक्ष को (यजामहे) सत्कृत करते हैं। वह शत्रुओं की (श्मश्रुभिः दोधुवत्) मूछें नीची करता हुआ अर्थात् उनका गर्व चूर करता हुआ (ऊर्ध्वधा) उन्नत (भुवत्) होता है, तथा (सेनाभिः) अपनी दुर्दान्त सेनाओं से (भयमानः) शत्रुओं को भयभीत करता हुआ (वि भुवत्) विजयी होता है, और (राधसा) ऐश्वर्य से (वि) वैभवशाली होता है ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    दुष्टों और पापों के प्रति दण्डधारी, न्यायकारी, सब लोकों को नियम से अपनी-अपनी परिधि पर और सूर्य के चारों ओर घुमानेवाला, शौर्य आदि गुणों में सबसे बढ़ा हुआ परमेश्वर जैसे सब जनों से पूजनीय है, वैसे ही अनेक शस्त्रास्त्रों से युक्त, राष्ट्र में विमानादि यानों का प्रबन्धकर्ता, सेनाओं द्वारा शत्रुओं को पराजित करनेवाला सेनाध्यक्ष अथवा राजा भी सब प्रजाओं द्वारा सम्माननीय है ॥३॥

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    पदार्थ

    (वज्रदक्षिणम्) “वज्रदक्षी” ओज के प्रेरक “दक्ष गतिवृद्ध्योः” [भ्वादि॰] (विव्रतानां हरीणां रथ्यम्) विगतकर्म—विपरीत गतिकर्म वाले प्राणों—इन्द्रियों के “प्रणो वै हरिः” [कौ॰ १७.१] “प्राणा इन्द्रियाणि” [काठ॰ ८.१] रथ—शरीररथ के चालक (इन्द्रम्) परमात्मा को (यजामहे) हम यजन करें—अध्यात्मयज्ञ में स्तुत करें (श्मश्रुभिः) शरीर में श्रवण करने वाली अपनी ज्ञान शक्तियों से (दोधुवत्) पाप को कम्पाता हुआ (ऊर्ध्वधाः) हमें ऊपर स्थापित करने वाला है (सेनाभिः) “इनेन स्वामिना सह वर्तमानाः शक्तयः” इन्द्र—परमात्मा के साथ रहने वाली पापनाशक शक्तियों से पापीजन को (भयमानः) डराता हुआ ‘अन्तर्गत णिजर्थश्छान्दसः’ (राधसा वि) धनैश्वर्य—अर्थसिद्धि से विगत कर (भुवत्) विराजमान हो जाता है।

    भावार्थ

    ओजः—उत्साहवर्धक तथा विपरीत गति वाले इन्द्रिय घोड़ों के शरीररूप रथ के चालक परमात्मा की हम स्तुति करते हैं। जो अपनी ज्ञानशक्तियों से पापी को कम्पाता हुआ उपासक आत्मा को ऊँचे स्थापित करता है तथा अपनी व्यापन शक्तियों से पापी को डराता हुआ ऐश्वर्य सिद्धि से विगत करके विराजमान होता है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—वसुक्रो विमदो वा (अध्यात्मधन का सम्पादनकर्ता या विगतमद—विरक्त उपासक)॥<br>

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    विषय

    हम किसे आदर देते हैं?

    पदार्थ

    इन्द्रियमनोयुक्त होर जीव भोक्ता होता है, परन्तु जिस दिन यह इनसे अपने पार्थक्य को समझ लेता है उस दिन इनमें न उलझा रहने के कारण यह जीवनमुक्त हो जाता है। यह लोकहित के लिए मानवमात्र का पथप्रदर्शन करता है और हम सब (यजामहे) = इसका आदर करते हैं। किसका?

    १. (इन्द्रम्) = जो इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, २. (वज्रदक्षिणम्) = [वज् गतौ, दक्षिण=Dexeterous] प्रत्येक कार्य को कुशलता से करता है। ('योगः कर्मसुकौशलम्') = यह बात जिसके जीवन-व्यवहार में स्पष्ट दीखती है, ३. जो (विव्रतानाम्) = विविध व्रतोंवाले (हरीणां) = इन्द्रियरूप घोड़ों का (रथ्यम्) = उत्तम नियन्ता है। आँख-कान इत्यादि इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न कार्यों में व्याप्त हैं, इन सबको जो सुन्दरता से संयत करता है, ४. (श्मश्रुभिः) = [श्मनि श्रितं] शरीर में आश्रित प्राण-मन व बुद्धि से जो (प्रदोधुवत्) = वासनाओं को कम्पित कर दूर भगा देता है, ५. (उर्ध्वधा भुवत्) = अपने को सदा विषयों से ऊपर रखनेवाला होता है; और अन्त में ६. (राधसा) = योगसिद्धियों के द्वारा [राध=सिद्धि] तथा (सेनाभि:) =[स, इन = प्रभु] प्रभुसहित विचारधाराओं के द्वारा (वि) = विशेषरूप से (भयमान:) = शत्रुसेनाओं को डरानेवाला होता है। योगसिद्धि व सदा प्रभुस्मरण अशुभ विचारों को दूर भगानेवाले हैं। ‘योगसिद्ध' अभयास है; विचार 'वैराग्य' को र्पदा करनेवाला है। अभ्यास और वैराग्य के होने पर मन विषय-वासनाओं में थोड़े ही फँसता है ? यह व्यक्ति मद व अहंकार से सर्वथा दूर होने के कारण 'विमद' है। इन्द्र=परमात्मा का, न कि प्रकृति का होने से 'ऐन्द्र' है। इसने अपने अन्दर उत्तमोत्तम भावनाओं को जन्म देकर ‘वसुओं' का निर्माण किया है अतः यह 'वसुकृत्' है। प्राकृतिक भोगों को छोड़कर इसने दिव्य योगसिद्धियों को उत्तम विचारशक्तियों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है अतः यह 'वासुक्र' है- उत्तम विनिमयवाला ।

    भावार्थ

    हम भी यथासम्भव जीवनमुक्त बनने का प्रयत्न करें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वज्रदक्षिणं ) = विघ्नों और पापों के निवारण करने के कार्य में चतुर, ( विव्रतानां ) = निकम्मे या विपरीत कर्मों में जाने वाले ( हरीणां ) = इन्द्रियों के ( रथ्या ) = उत्तम सारथी ( इन्द्रं ) = आत्मा की हम ( यजामहे ) = उपासना करते हैं । वह ( श्मश्रुभि:१   ) = शरीर में व्याप्त शिराओं द्वारा सबको ( दोधुवद् ) = गति देता हुआ ( ऊर्ध्वधा ) = सब से उच्च ( भुवद् ) = रहता हुआ सेनापति के समान ( सेनाभिः ) = अपनी त्रासकारिणी सेनाओं के समान बन्धनरज्जुओं द्वारा ( विराधसा ) = विशेष साधना द्वारा ( भयमानः ) = सब को कंपाया करता है ।

    टिप्पणी

     ३३४–‘रथ्यं  विव्रतानान्', 'प्रश्मश्रुभिदों', 'दयमानो' इति ऋ० ।
         १. श्मनि शरीरे शेरत इति शमस्र्वः सिराः । श्म शरीरं निरु० ३। १।५ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः -   वासुक्रो  विमदो वा ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - त्रिष्टुभ् ।

    स्वरः - धैवतः

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशं परमेश्वरं राजानं वा वयं यजामहे इत्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। वयम् (वज्रदक्षिणम्) वज्रः न्यायदण्डः दक्षिणः सततजागरूको यस्य तम्, (विव्रतानाम्) विविधकर्मणाम्। व्रतमिति कर्मनाम। निघं० २।१। (हरीणाम्) आकर्षणशक्तियुक्तानां गतिमतां सूर्यचन्द्रनक्षत्रपृथिव्यादिलोकानाम् (रथ्यम्) वोढारम्। रथं वहतीति रथ्यः। ‘तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्। अ० ४।४।७६’ इति यत्। (इन्द्रम्) सर्वद्रष्टारं परमात्मानम् (यजामहे) पूजयामः। सः (श्मश्रुभिः२) सूर्यकिरणैः। श्मश्रु लोम श्मनि श्रितं भवति इति निरुक्तम् ३।५। यथा श्मनि शरीरे श्रितत्वान्मुखलोमानि श्मश्रूण्युच्यन्ते, तथैव आदित्यशरीरे श्रितत्वात् तद्रश्मयोऽपि श्मश्रूणीत्यध्यवसेयम्। (प्र दोधुवत्) रोगादीन् भृशं पुनः पुनः प्रकम्पयन्। धूञ् कम्पने धातोर्यङ्लुगन्ताच्छतरि रूपम्। (ऊर्ध्वधा) सर्वत ऊर्ध्वः सः (सेनाभिः) चमूभिरिव विद्यमानाभिः स्वशक्तिभिः (भयमानः) दुर्जनान् भीषयन् बिभेतेरन्तर्णीतण्यर्थः प्रयोगोऽयं ज्ञेयः। (वि भुवत्) विभवति सर्वोत्कर्षेण वर्तते, किञ्च (राधसा) ऐश्वर्येण। राध इति धननाम, निघं० २।१०। (वि) विभुवत्, सर्वोत्कर्षेण वर्तते ॥ अथ द्वितीयः—राजप्रजापरः। (वयम्) राष्ट्रवासिनः प्रजाजनाः (वज्रदक्षिणम्) वज्रः वज्रवद् दृढानि शस्त्रास्त्राणि दक्षिणे हस्ते यस्य तम्। दक्षिणो हस्तो दक्षतेरुत्साहकर्मणः, निरु० १।७। वज्रशब्दो रन्प्रत्ययान्तत्वाद् नित्स्वरेणाद्युदात्तः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (विव्रतानाम्) विविधकर्मणाम् (हरीणाम्) अग्निवायुविद्युतां सूर्यरश्मीनां च (रथ्यम्) अग्नियानेषु वायुयानेषु विद्युद्यानेषु सौरयानेषु च प्रयोक्तारम् (इन्द्रम्) शूरं राजानं सेनाध्यक्षं वा (यजामहे) सत्कुर्महे। शत्रून् (श्मश्रुभिः३ दोधुवत्) मुखलोमभिः प्रकम्पयन्, शत्रून् पराजित्य तेषां मुखलोमानि अधः कुर्वन्, तद्गर्वं चूर्णयन्नित्यर्थः ‘अक्ष्णा काणयन्’ ‘पादेन खञ्जयन्’ इतिवत् प्रयोगोऽयम्। (ऊर्ध्वधा) ऊर्ध्वः (भुवत्) भवति। किञ्च (सेनाभिः) स्वकीयाभिर्दुर्दान्ताभिः चमूभिः (भयमानः) शत्रून् भीषयन् (वि भुवत्) विजयते, (राधसा) ऐश्वर्येण च (वि) विभुवत् वैभवयुक्तो जायते ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    दुष्टेषु पापेषु चोद्यतदण्डो, न्यायकारी, सर्वेषां लोकानां नियमेन स्वस्वपरिधौ सूर्यं परितश्च भ्रमयिता, शौर्यादिषु सर्वातिशायी परमेश्वरो यथा सर्वैर्जनैः पूजनीयस्तथैव बहुभिः शस्त्रास्त्रैर्युक्तो, राष्ट्रे विमानादियानानां प्रबन्धकर्ता, सेनाभिः शत्रूणां पराजेता सेनाध्यक्षो नृपतिश्चापि प्रजाभिः संमाननीयः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १०।२३।१, ‘प्र श्मश्रु दोधुवदूर्ध्वथा भूद् वि सेनाभिर्दयमानो विराधसा’ इत्युत्तरार्द्धपाठः। २. श्मश्रुभिः तेजोभिः। ऊर्ध्वधा उर्ध्व इत्यर्थः। भुवत् भवति, उद्युक्तो भवतीत्यर्थः—इति भ०। ३. श्मश्रूणि श्मश्रुग्रहणं चात्र प्रदर्शनार्थम्। सर्वरोमाणि शत्रूणाम्। प्र दोधुवत्, धू विधूनने इत्यस्येदं रूपम्, पुनः पुनः प्रकर्षेण धुवति। उद्धूपितरोमकूपान् शत्रून् करोतीत्यर्थः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We worship the soul, who is expert in warding off calamities, and the lord of turbulent organs. Aided by his mental forces, blowing the evil tendencies, and terrorising them through the armies of noble traits and distinguished resolve, the soul marches on to amelioration.

    Translator Comment

    Armies means innumerable. The soul struggling against the forces of evil, comes out victorious by means of various noble traits and determination, and continues its march to final beatitude.

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    Meaning

    We join and adore Indra, lord of cosmic energy, who wields the thunder in his right hand and controls the versatile potentials of complementary currents of cosmic energy in the universal circuit, who with energy shakes the earthly vegetation, rises high, and with his forces and implicit potentials acts as catalytic agent and vests us with natural power and success in achievement. (Rg. 10-23-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (वज्रदक्षिणम्) ઓજના પ્રેરક (विवृतानां हरीणां रथ्यम्) વિપરીત ગતિકર્મવાળા પ્રાણો-ઇન્દ્રિયોના રથ-શરીરરથના ચાલક (इन्द्रम्) પરમાત્માનું (यजामहे) અમે યજન કરીએ - અધ્યાત્મયજ્ઞમાં સ્તુતિ કરીએ (श्मश्रुभिः) શરીરમાં શ્રવણ કરનારી પોતાની જ્ઞાન શક્તિઓથી  (दोधुवत्) પાપનું કંપન કરતા (ऊर्ध्वधाः) અમને ઉપર સ્થાપિત કરનાર છે. (सेनाभिः) ઇન્દ્ર પરમાત્માની સાથે રહેનારી પાપનાશક શક્તિઓથી પાપીજનને (भयमानः) ભય પમાડતા તેને (राधसा वि) ધન ઐશ્વર્ય-અર્થ સિદ્ધિથી દૂર કરીને (भुवत्) બિરાજમાન થાય છે. (૩) 

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઓજઃ-ઉત્સાહવર્ધક તથા વિપરીત ગતિવાળા ઇન્દ્રિયરૂપ ઘોડાઓના શરીરરૂપ રથના ચાલક પરમાત્માની અમે સ્તુતિ કરીએ છીએ, જે પોતાની જ્ઞાન શક્તિઓથી પાપીને કંપાવતાં ઉપાસક આત્માને ઊંચે સ્થાપિત કરે છે. પોતાની વ્યાપન શક્તિઓથી પાપીને ભય પમાડીને, તેને એશ્વર્યની સિદ્ધિથી દૂર કરીને, બિરાજમાન થાય છે. (૩)
      

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    گنھگاروں سے مال و زر اور سُکھ چھین لیتا ہے!

    Lafzi Maana

    (اِندرم یجا مہے) ہم اُپاسک (عابد) جَن اِندر یگیہ کرتے ہیں، یعنی اِیشور کی پُوجا، ست سنگ کرتے ہوئے اپنے کو اُس کے حوالے کرتے ہیں، جو (بجری دکھشنم) انصاف کا ترازو لے کر سب کو بڑھا رہا ہے، جو اِس کا بجر ہتھیار ہے اور جو (وِورِتا نام ہری نام رتھیّم) مختلف کارہائے سرانجام دینے والے اِندری رُوپ گھوڑوں کو آتما رتھی کے ذریعے چلوا رہا ہے، (شمشروُبھی پری دودھُووت اُوردھو دھابُھووت) سُورج کی کِرنوں کے ذریعے دُنیا بھرک ے روگوں کو دُور کرتا اور عرشِ بریں کے ستاروں وغیرہ کو بھی دھارن کر رہا ہے، اور وہ (سینا بھی وِرادھسا بھئے مانہ) اپنی عجیب و غریب طاقتوں کے ذریعی دُشٹ پاپی جنوں کا دھن، سُکھ اور آرام چھین کر اُن کو خبردار بھی کرتا رہتا ہے۔

    Tashree

    کرتے یجن اُس کا جو سُورج تاروں کو چمکا رہا، بدکاروں سے دھن چھین اپنی ہستی سے ہے ڈرا رہا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    दुष्टांना व पापांना दंड देणारा, न्यायकारी, सर्व लोकांना नियमाने आपापल्या परिधीवर व सूर्याच्या चारही बाजूला फिरविणारा, शौर्य इत्यादी गुणात सर्वात मोठा परमेश्वर जसा सर्व लोकांना पूजनीय आहे, तसेच अनेक शस्त्रास्त्रांनी युक्त, राष्ट्रामध्ये विमान इत्यादी यानांचा प्रबंधकर्ता, सेनेद्वारे, शत्रूंना पराजित करणारा सेनाध्यक्ष किंवा राजाही सर्व प्रजेद्वारे सन्माननीय आहे. ॥३॥

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    विषय

    परमेश्वर व राजा यांचे पूजन करावे, सत्कार करावा, ते कसे आहेत.

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (परमात्मपर अर्थ) - (वज्रदक्षिणम्) ज्याचा न्यायरूप दंड सदा जागरू असतो, (विव्रतानाम्) विविध कर्म करणाऱ्या (हरीणाम्) आकर्षण शक्तीने स्थित सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, पृथ्वी आदी लोकांचा तो (रथ्यम्) रथी आहे, अशा (इन्द्रम्) सर्वद्रष्य परमेश्वराची आम्ही (उपासक) (यजामहे) पूजा करतो. तो (श्मश्रुभिः) सूर्यकिरणांद्वारे (प्र दोधुवत्) रोगादीनां पुनः पुनः प्रकंपित करणे. असा तो (ऊर्ध्वघा) सर्वोश्रत ईश्वर (सेमाभिः) सेनेप्रमाणे त्याच्याजवळ असलेल्या दिव्य शक्तीद्वारे (भयमानः) दुर्जनांना भयभीत करीत (विभुवत्) वैभवशाली म्हणून विद्यमान आहे.।। द्वितीय अर्थ - (राजा- प्रजापर अर्थर्) - आम्ही राष्ट्रवासी प्रजाजन (वज्रदक्षिणम्) उजव्या हातात वज्राप्रमाणे दृढ असे शस्त्रास्त्र धारण करणाऱ्या (राजाचा वा सेनाध्यक्षाचा सत्कार करतो) तो (विव्रतानाम्) विविध कामे सिद्ध करणाऱ्या (हरीणाम्) अग्नी, वायु, विद्युत आणि सूर्यकिरणांद्वारे (रथ्यम्) अग्नियान, वायुयान, विद्युत यान आणि सूर्याच्या उष्णतेने चालणाऱ्या यानांचे संचालन करणाऱ्या (इन्द्रम्) शूरवीर राजाचा वा सेनाध्यक्षाचा (यजामहे) सत्कार करतो. तो शत्रूंच्या (श्मश्रुभिः दोघुवत्) निशा खाली करीत म्हणजे त्यांचे गर्वहरण करीत (ऊर्ध्वघा) उन्नत वा विजयी (भुवत्) होतो. तसेच तो (सेवाभिः) आपल्या अविजेय सेनेद्वारे (भयमानः) शत्रूंना भयभीत करीत (वि भुवत्) विजयी होतो आणि (राघसा) (वि) शत्रूकडून जिंकलेले) ऐश्वर्य प्राप्त करू अधिकच वैभवशाली होतो. ।। ३।।

    भावार्थ

    दुष्टांना व पापीजनांना दंडित करणारा, न्यायी, सर्व ग्रह- नक्षत्रादींना नियमाने आपापल्या रिधीत चालविणारा, शौर्यादी गुणांमध्ये जो सर्वश्रेष्ठ आहे, असा परमेश्वर जसा सर्वांसाठी पूज्य आहे, त्याचप्रमाणे शस्त्रास्त्रांनी समृद्ध राष्ट्रातील विमानादी यांचा प्रबंधक व सैन्याद्वारे शत्रुसैन्याची दाणादाण उडविणारा सेनाध्यक्ष आणि राजादेखील प्रजेद्वारे सम्नाननीय असतो. त्याचा सर्वांनी सन्मान केला पाहिजे. ।। ३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (வலது கையில் வச்சிராயுதமுள்ளவனும்) ரதம் முதலிய செயல்களுடனான குதிரைகளின் (சாரதியான இந்திரனை) பஜிக்கிறோம். தன் (சேனைகளால் திகில்) அளித்துக்கொண்டு (சத்துருக்களுக்கு), ஐசுவரியங்களை அளித்துக்கொண்டு தாடியை அசைத்துக் (பலத்தை புலனாக்கிக்) கொண்டு திடமுடன் அவன் எழுந்துள்ளான்.

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