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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 344
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    19

    इ꣣म꣡मि꣢न्द्र सु꣣तं꣡ पि꣢ब꣣ ज्ये꣢ष्ठ꣣म꣡म꣢र्त्यं꣣ म꣡द꣢म् । शु꣣क्र꣡स्य꣢ त्वा꣣꣬भ्य꣢꣯क्षर꣣न्धा꣡रा꣢ ऋ꣣त꣢स्य꣣ सा꣡द꣢ने ॥३४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣म꣢म् । इ꣣न्द्र । सुत꣢म् । पि꣣ब । ज्ये꣡ष्ठ꣢꣯म् । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । म꣡द꣢꣯म् । शु꣣क्र꣡स्य꣢ । त्वा꣣ । अभि꣢ । अ꣣क्षरन् । धा꣡राः꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सा꣡द꣢꣯ने ॥३४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम् । शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने ॥३४४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । इन्द्र । सुतम् । पिब । ज्येष्ठम् । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । मदम् । शुक्रस्य । त्वा । अभि । अक्षरन् । धाराः । ऋतस्य । सादने ॥३४४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 344
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय है कि इन्द्र सोमरस का पान करे।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) अध्यात्मसम्पत्ति के प्रदाता परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! तुम (इमम्) इस (ज्येष्ठम्) अतिशय प्रशंसनीय, (अमर्त्यम्) दिव्य, (मदम्) स्तोता को आनन्द देनेवाले (सुतम्) तैयार किये हुए हमारे श्रद्धारसरूप सोम का (पिब) पान करो। (ऋतस्य) ध्यान-यज्ञ के (सादने) सदनभूत हृदय में (शुक्रस्य) दीप्त, पवित्र श्रद्धारस की (धाराः) धाराएँ (त्वा अभि) तुम्हारे प्रति (अक्षरन्) बह रही हैं ॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य पक्ष में। शिष्य के प्रति यह आचार्य की उक्ति है। हे (इन्द्र) जिज्ञासु एवं विद्युत् के समान तीव्रबुद्धिवाले मेरे शिष्य ! तू (इमम्) मेरे द्वारा दिये जाते हुए इस (ज्येष्ठम्) श्रेष्ठ (अमर्त्यम्) चिर-स्थायी, (मदम्) तृप्तिप्रद, (सुतम्) अध्ययन-अध्यापन-विधि से निष्पादित ज्ञानरस को (पिब) पान कर, जिस ज्ञानरस को (शुक्रस्य) पवित्र (ऋतस्य) अध्ययन-अध्यापन-रूप यज्ञ के (सादने) सदन में, अर्थात् गुरूकुल में (धाराः) मेरी वाणियाँ (त्वा अभि) तेरे प्रति (अक्षरन्) सींच रही हैं ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    सब लोग दुःखविदारक, आनन्द के सिन्धु परमेश्वर के प्रति श्रद्धा को हृदय में धारण कर उसकी उपासना करें और गुरुजन शिष्यों के प्रति प्रेम से प्रभावी शिक्षा-पद्धति द्वारा विद्या प्रदान करें ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (इमं ज्येष्ठम्) इस श्रेष्ठ (अमर्त्यम्) अनश्वर—अभौतिक (मदम्) हर्ष निमित्त—प्रसाद-निमित्त (सुतम्) निष्पन्न उपासनारस को (पिब) पान कर—स्वीकार कर (शुक्रस्य) निर्मल—निष्पाप सोम उपासनारस की “शुक्रो निर्मलः सोमः” [श॰ ३.३.३.६] (धाराः) धाराएँ (त्वा) तुझे लक्ष्य कर (ऋतस्य सदने—अभ्यक्षरन्) इस अपने ‘ओ३म्’ “ओमित्येदक्षरमृतम्” [जै॰ उ॰ ३.६.८.५] परमात्मा के गृह हृदय में निर्झरित होती हैं।

    भावार्थ

    हे परमात्मन्! तू हमारे अनश्वर श्रेष्ठ हर्षप्रद उपासनारस को अवश्य स्वीकार करता है। उस दीप्त उपासनारस की धाराएँ परमात्मन् तुझे ही लक्ष्य कर तेरे सदन—गृह में निर्झरित हो रही हैं। यह मेरा घर, तेरा घर है, तेरे आने विराजने का घर भी तो यही हृदय है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गमन करने वाला)॥<br>

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    विषय

    ऋत के सदन में

    पदार्थ

    हे (इन्द्र)=इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (इमं सुतम्) = [शुक्रम्] इस उत्पन्न वीर्य को (पिब) = तू अपने अन्दर पान करने का प्रयत्न करने कर। यह १. (ज्येष्ठम्) = प्रशस्यतम वस्तु है-इससे उत्तम वस्तु संसार में और कोई नहीं। यह तेरे जीवन को भी प्रशस्यतम बना देगी। २. (अमर्त्यम्) = इससे तू अमरता को प्राप्त करेगा ('मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्') =इन सोमबिन्दुओं के धारण से ही जीवन धारित होता है और इनके नाश से ही मृत्यु हो जाती है। ३. (मदम्) = इनसे जीवन में [मदी हर्षे] उल्लास होता है। जीवन सदा हर्षमय बना रहता है।

    प्रभु कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (शुक्रस्य) = इस पवित्र, दीप्त व स्फूर्तिमय सोम की (धारा:) = धारण शक्तियाँ (ऋतस्य सादने) = ऋत के स्थान में (अभ्यक्षरन्) = टपका दें, पहुँचा दें। यहाँ सुरक्षित सोम हमारे योगमार्ग में आगे बढ़ने का भी साधन बनता है। योग भूमिकाओं में आगे बढ़ने का भी साधन बनता है। योग भूमिकाओं में आगे और आगे बढ़ते हुए हम सप्तम भूमिका में पहुँचते हैं जहाँ कि ‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' [योग] सत्य का पोषण करनेवाला ज्ञान प्राप्त होता है जिसे 'भू: भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्' इस क्रम में सत्यलोक यह नाम दिया है। यहाँ पहुँचकर मनुष्य सर्वज्ञकल्प हो जाता है।

    सोमरक्षा से हम सब मलों से ऊपर उठकर पूर्ण पवित्र बन जाते हैं। मलों को छोड़नेवाला ‘राहू' [रह् त्यागे] है, उनमें भी मूर्धन्य गिना जानेवाला 'राहूगण' है। निर्मल होकर अत्यन्त पवित्र इन्द्रियोंवाला होने के कारण यह 'गौतम' है।
     

    भावार्थ

    सोमरक्षा के द्वारा ऐहिक जीवन को हम पवित्र, दीर्घ व उल्लासमय बनाएँ और पारमार्थिक दृष्टिकोण से सत्यलोक में पहुँचनेवाले बनें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे इन्द्र ! ( इमं ) = इस ( अमर्त्यं  ) = मरणधर्मा पुरुषों को प्राप्तः न होने वाले, या कभी नष्ट न होने वाले, दिव्य, ( ज्येष्टं ) = सब से उत्कृष्ट, ( मदं ) = आनन्दस्वरूप, ( सुतं ) = योगज ज्ञानसम्पन्न रस को ( पिब ) = पान कर ।  ( ऋतस्य ) = सत्य ज्ञान के ( सादने ) = उत्पन्न होने की स्थिति में ( शुक्रस्य  ) = शुद्धस्वरूप, शुक्र, कान्ति की ( धारा: ) = धारणाशक्ति, धारा या प्रवाह ( वा ) = तेरे प्रति ( अभि अक्षरन् ) = बहते हैं।

          पतंजलि ने योगसूत्र में स्पष्ट लिखा है – 'निर्विचारवैशारद्यै अध्यात्मप्रसाद:' ।  जिस पर व्यासदेव ने लिखा है "अशुद्ध्यावरणमलापेतस्य प्रकाशात्मनो बुद्धिसत्वस्य रजस्तमोभ्यामनभिभूतः स्वच्छः स्थितिप्रवाहो वैशारद्यं  ।  यदा निर्विचारस्य समाधिवैशारद्यमिदं जायते तदा योगिनो भवति  अध्यात्मप्रसादः ।  भूतार्थविषयः क्रमाननुरोधी स्फुटः प्रज्ञालोकः' । ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा । ( पात० सू० ) तस्मिन् समाहितचित्तस्य या प्रज्ञा जायते तस्या 'ऋतंभरा' इति संज्ञा भवति । अन्वर्था च सा । नच तत्र विपर्यासज्ञानगन्धोऽपि ॥” इसी प्रकार ऐतरेय उप० में भी लिखा है । अर्थात् निर्मल चित्त  होजाने पर स्वच्छ स्थिति प्रवाह होजाता है तब योगी के सत्यज्ञान का प्रज्ञा नयन खुल जाता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - गोतम:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - अनुष्टुभ् ।

    स्वरः - गान्धारः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रः सोमरसं पिबेदित्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) अध्यात्मसम्पत्प्रदातः परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्यम्। इष्ठन् प्रत्यये ‘ज्य च। अ० ५।३।६१’ इति प्रशस्यस्य ज्यादेशः। (अमर्त्यम्२) दिव्यम्, (मदम्) स्तोतुरानन्दप्रदम् (सुतम्) अभिषुतमस्माकं श्रद्धारसरूपं सोमम् (पिब) आस्वादय। (ऋतस्य३) ध्यानयज्ञस्य। ऋतम् इति यज्ञनाम। निरु० ६।२२। (सादने) सदने, हृदये इत्यर्थः (शुक्रस्य) दीप्तस्य पवित्रस्य च श्रद्धारसस्य। शुच दीप्तौ, शुचिर् पूतीभावे। ऋजेन्द्र० उ० २।२९ इति रन् प्रत्यये नित्त्वादाद्युदात्ते प्राप्ते निपातनादन्तोदात्तत्वम्। (धाराः) प्रवाहसन्ततयः (त्वा अभि) त्वां प्रति (अक्षरन्) स्रवन्ति ॥ अथ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। शिष्यं प्रति आचार्यस्योक्तिरियम्। हे (इन्द्र४) जिज्ञासो, विद्युद्वत् तीव्रबुद्धे मदीय शिष्य ! त्वम् (इमम्) मया प्रदीयमानम्, (ज्येष्ठम्) श्रेष्ठम्, (अमर्त्यम्) चिरस्थायिनम्। अमरमिति वाच्यार्थः, चिरस्थायिनमिति लक्ष्यार्थः, तेन अतिशयरूपोऽर्थो द्योत्यते। (मदम्) तृप्तिप्रदम् (सुतम्) अध्ययनाध्यापनविधिना निष्पादितम् ज्ञानरसम् (पिब) आस्वादय। यं ज्ञानरसम् (शुक्रस्य) पवित्रस्य (ऋतस्य) अध्ययनाध्यापनयज्ञस्य (सादने) गृहे, गुरुकुले इत्यर्थः (धाराः) मदीयाः वाचः। धारा इति वाङ्नाम। निघं० १।११। (त्वा अभि) त्वां प्रति (अक्षरन्) क्षारयन्ति, सिञ्चन्ति ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    सर्वे दुःखविदारकमानन्दसिन्धुं परमेश्वरं प्रति श्रद्धां हृदि निधाय तमुपासीरन्, गुरवश्च शिष्यान् प्रति प्रेम्णा प्रभाविशिक्षापद्धत्या विद्यां प्रदद्युः ॥३॥५

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।८४।४; साम० ९४९। २. अमर्त्यम् दिव्यम्—इति ऋ० १।८४।४ भाष्ये द०। अमर्त्यम् अमर्त्यताहेतुम्—इति भ०। अस्माकम् सोमपानजन्यो मदो मदान्तरवन्मारको न भवतीत्यर्थः—इति सा०। ३. ऋतस्य यज्ञस्य सादने गृहे यज्ञवास्तुनि—इति भ०। ४. (इन्द्र) योगैश्वर्यजिज्ञासो इति ऋ० १।१७६।६ भाष्ये, (इन्द्रम्) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धिम् इति च ऋ० ६।४८।१४ भाष्ये द०। ५. एतन्मन्त्रव्याख्याने दयानन्दर्षिर्ऋग्भाष्ये “कश्चिदपि विद्यासुभोजनैर्विना वीर्यं प्राप्तुं न शक्नोति, तेन विना सत्यस्य विज्ञानं विजयश्च न जायते” इति भावार्थे प्राह।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, drink deep the juice of knowledge born of Yoga, which is immortal, excellent and gladdening. Struggling for the attainment of ultimate Truth, the pure streams of knowledge have prepared it for thee!

    Translator Comment

    Which refers to the juice of knowledge.

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    Meaning

    Indra, lord ruler, breaker of the cloud, releaser of the waters of life, ride your chariot of the latest design and come. The horses are yoked with the right mantra and necessary stuffs. And may the high-priest of knowledge with his words of knowledge exhilarate you at heart. (Rg. 1-84-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (इमं ज्येष्ठम्) એ શ્રેષ્ઠ (अमर्त्यम्) અનશ્વર-અભૌતિક (मदम्) હર્ષ માટે-પ્રસાદ માટે (सुतम्) નિષ્પન્ન ઉપાસનારસનું (पिब) પાન કર-સ્વીકાર કર (शुक्रस्य) નિર્મળ-નિષ્પાપ સોમ ઉપાસનારસથી (धाराः) ધારાઓ (त्वा) તને લક્ષ્ય કરીને (ऋतस्य सदने अभ्यक्षरन्) એ પોતાના ‘ઓમ્’ પરમાત્માના ગૃહહૃદયમાં વહી રહી છે. (૩)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું અમારા અનશ્વર, શ્રેષ્ઠ, હર્ષપ્રદ ઉપાસનારસનો અવશ્ય સ્વીકાર કરે છે. તે દીપ્ત ઉપાસનારસથી ધારાઓ પરમાત્મન્ તને લક્ષ્ય કરીને, તારા સદન-ઘરમાં વહી રહી છે. એ મારું ઘર, તારું ઘર છે, તારા આવવા બિરાજવાનું ઘર પણ એ હૃદય જ છે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگتی رَس منُش کو اَمرت کر دیتا ہے!

    Lafzi Maana

    (اِندر) ہے پرمیشور! آپ (سُتم اِمم پِب) میرے اِس بھگتی رس کو سویکار کیجئے، یہ پریم رس (جیشٹھم امریتم) اعلےٰ ترین ہے جو آدمی کو امرت بنا دیتا ہے اور زندگیک و (مدم) حقیقی مسّرتوں سے بھر دیتا ہے، (رِتسیہ ماونے) میرے اِس سچّے خانئہ دل میں (شُکرسیہ دھارا تُوا ابھی اکھشرن) شُدھ پِوتّر بھگتی رس کی دھارائیں آپ کے لئے یہہ رہی ہیں۔

    Tashree

    ہے اِندر پیؤ پریم رس اُتم رسیلا ہے بنا، آپ کی کِرپا سے میرے ہِردے کے اندر بہا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व लोकांनी दु:खविदारक, आनंदाचा सागर असलेल्या परमेश्वराविषयीची श्रद्धा हृदयात धारण करून त्याची उपासना करावी व गुरुजनांनी शिष्यांना प्रेमाने प्रभावी शिक्षा पद्धतीद्वारे विद्या प्रदान करावी ॥३॥

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    विषय

    इंद्राने सोमरस प्यावा -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमात्मपर अर्थ) (इंद्र) अध्यात्म- संपदेचे दाता परमैश्वर्यवान हे परमेश्वर, तुम्ही (इमम्) या (ज्येष्ठम्) अत्यंत प्रशंसनीय (अमर्त्यम्) दिव्य (मदम्) स्तोताजनाला आनंद देणाऱ्या (सुतम्) अशा आम्ही तयार केलेल्या सोमरसाचे (पिब) पान करा (प्या) (ऋतस्य) या ध्यान-यज्ञाचे जे (सादने) साधन आहे, अशा या हृदयात (शुक्रस्य) उत्थित झालेल्या पवित्र श्रद्धारसाच्या (धाराः) धारा (त्वा अभि) तुमच्या व दिशेने (अक्षरन्) वाहत आहेत.।। द्वितीय अर्थ - (गुरु-शिष्यपर अर्थ) आचार्य शिष्याला म्हणत आहेत - हे (इंद्र) जिज्ञासू आणि विद्युतप्रमाणे तीव्र बुद्धी असणाऱ्या माझ्या शिष्या, तू (इदम्) हा (ज्येष्ठम्) मी देत असलेला श्रेष्ठ आणि (अमर्त्यम्) चिरस्थायी (मदम्) समाधान देणारा हा रस, की जो मी (सुतम्) तुझ्यासाठी अध्ययन- अध्यापन पद्धतीने तयार केला आहे, तो रस तू (पिब) पी. (शुक्रस्य) या पवित्र आणि (ऋठस्य) अध्ययन- अध्यापन यज्ञाच्या (सादने) गृहामध्ये म्हणजे गुरुकुलात (धाराः) माझ्या वाणी-धारा (त्वा अभि) तुला (अक्षरत्) सिंचित करीत आहेत. (त्याचा तू लाभ घे.)।। ३।।

    भावार्थ

    सर्व मनुष्यांनी दुःखविदारक, आनंद-सिंधू परमेश्वराप्रत श्रद्धाभाव आपल्या हृदयात धारण करून त्याची उपासना केली पाहिजे. तसेच गुरुजनांनी शिष्यांना प्रेमाने व उत्तम शिक्षण पद्धतीने शिकविले पाहिजे.।। ३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சிறந்த சந்தோஷமளிப்பதாய் அமுதமான இந்த சோமனைப் பருகவும். சத்திய நிலையத்தில் வெண்மையான தாரைகள் உன்னை நோக்கிப் பெருகும்.

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