Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 349
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
22
आ꣢ त्वा꣣ गि꣡रो꣢ र꣣थी꣢रि꣣वा꣡स्थुः꣢ सु꣣ते꣡षु꣢ गिर्वणः । अ꣣भि꣢ त्वा꣣ स꣡म꣢नूषत꣣ गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥३४९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । त्वा꣣ । गि꣡रः꣢꣯ । र꣣थीः꣢ । इव । अ꣡स्थुः꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । अभि꣢ । त्वा꣣ । स꣢म् । अ꣣नूषत । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥३४९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा गिरो रथीरिवास्थुः सुतेषु गिर्वणः । अभि त्वा समनूषत गावो वत्सं न धेनवः ॥३४९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । त्वा । गिरः । रथीः । इव । अस्थुः । सुतेषु । गिर्वणः । गिः । वनः । अभि । त्वा । सम् । अनूषत । गावः । वत्सम् । न । धेनवः ॥३४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 349
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जगदीश्वर की स्तुति का विषय है।
पदार्थ
हे (गिर्वणः) वाणियों से सेवनीय इन्द्र परमात्मन् ! (सुतेषु) ज्ञान-कर्म-श्रद्धा रूप सोमरसों के अभिषुत हो जाने पर (गिरः) मेरी वाणियाँ (त्वा) तेरे पास (आ अस्थुः) आकर स्थित हो गयी हैं, रथीः (इव) जैसे रथ-स्वामी रथ पर स्थित होता है। वे मेरी वाणियाँ (त्वा अभि) तेरे अभिमुख होकर (समनूषत) भली-भाँति स्तुति कर रही हैं, (धेनवः गावः) दूध पिलानेवाली प्रीतियुक्त गौएँ (वत्सं न) जैसे बछड़े के अभिमुख होकर रंभाती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में दो उपमालङ्कारों की संसृष्टि और अनुप्रास अलङ्कार है ॥८॥
भावार्थ
रथी जन जैसे रथ का आश्रय लेते हैं, वैसे स्तोताओं की वाणियाँ परमात्मा का आश्रय लें, और उसके सम्मुख हो ऐसे प्रेम से उसकी स्तुति करें जैसे गौएँ बछड़े को सम्मुख पाकर रंभाती हैं ॥८॥
पदार्थ
(गिर्वणः) हे स्तुतिवाणियों से वननीय सेवनीय परमात्मन्! (त्वा) तेरे प्रति—तुुझे पाकर (सुतेषु) सम्पन्न उपासना प्रसङ्गों (गिरः) स्तुतियाँ (आस्थुः) आश्रित हो जाती हैं (रथीः-इव) जैसे रथवान् गन्तव्य—प्राप्तव्य स्थान को पाकर उसे आश्रित होते हैं (त्वा-अभि समनूषत) तुझे लक्ष्य कर झुकती हैं—आकर्षित होती हैं (धेनवः-गावः न वत्सम्) दूध पिलाने वाली गौएँ जैसे दूध पिलाने के स्नेहवश बछड़े के प्रति झुक जाती हैं—आकर्षित होती हैं।
भावार्थ
हमारी स्तुतियाँ परमात्मा के प्रति ऐसी होनी चाहिए जैसे यात्री अपने गन्तव्य स्थान पर जाकर ही विश्राम पाता है ऐसे परमात्मा में विश्राम पायें, मध्य में विश्राम न करें तथा वे परमात्मा के प्रति ऐसी भावभरी हुई स्तुतियाँ हों जैसे दूधभरी गौएँ स्नेह में भर बछड़े की ओर झुकी जाया करती हैं, उसकी ओर आकर्षित होती जाती हैं॥८॥
विशेष
ऋषिः—तिरश्ची (परमात्मा का अन्दर ध्यान करने वाला)॥<br>
विषय
[धर्मंजिज्ञासमानानां ] प्रमाणं परमं श्रुतिः
पदार्थ
अपने अन्दर गति करनेवाला ऋषि तिरश्ची है। यह अन्तः स्थित प्रभु का दर्शन करता है। प्रभु इससे कहते हैं कि हे (गिर्वणः) = वेदवाणियों का सेवन करनेवाले तिरश्ची! (त्वा) = तुझे (गिरः) = ये वेदवाणियाँ (सुतेषु) = उस उस उत्पन्न धर्म-संकट के समय (रथी: इव) = सारथियों की भाँति, मार्गदर्शकों की तरह (आ अस्थुः) = समन्तात् प्राप्त हों। वे तेरी जीवनयात्रा में तेरे चारों ओर तेरी समस्याओं को हल करनेवाली हों | (गाव:) = ये वेदवाणियाँ [गमयन्ति अर्थान्] (त्वा) = तुझे (अभि) = दोनों ओर– अन्दर व बाहर पाठमात्रस्वरूप में और विशदार्थरूप में (सम्) = अच्छी प्रकार (अनूषत) = प्राप्त हों [नु= to praise ] । उसी प्रकार प्रशंसित बना दें (न) = जैसेकि (धेनवः) = नवसूतिका गौवें (वत्सम्) = बछड़े को । नवसूतिका गौवें चाट - चूटकर बछड़े की बाह्य त्वचा को शुद्ध कर डालती हैं और पौष्टिक दूध पिलाकर उसे पुष्ट बनातीं हैं। इसी प्रकार ये वेदवाणियाँ पाठमात्र से उच्चारण की जाकर भी हमें असद् व्यसनों से बचाकर आध्यात्मिक दृष्टि से नीरोग बनाती हैं और अर्थज्ञान हो जाने पर तो हमारे मस्तिष्क व मन पर एक विशेष प्रभाव डालती हुई हमारे जीवनों को ऊँचा बनाती है।
जब कभी हमारे सामने कोई धर्मसंकट उपस्थित होता है तो उस समय ये वेदवाणियाँ हमें उस उलझन से निकलने में सहायता होती हैं। 'धर्म क्या है?' इस प्रश्न का उत्तर यही है कि 'जिसकी वेद प्रेरणा दे रहा है । ' धर्म संकट की स्थिति सबके जीवनों में उपस्थित होती है। यदि हम नियमित रूप से वेदवाणियों का सेवन करते हैं तो ये वाणियाँ हमारी पथप्रदर्शक बनती हैं। उनके अनुसार मार्ग का आक्रमण करके हम भोगमार्ग से बचे रहते हैं-परिणामतः रोगों से भी बचे रहते हैं- हमारी इन्द्रिय शक्तियाँ जीर्ण नहीं होतीं और हम 'आङ्गिरस' बने रहते हैं।
भावार्थ
धर्म-ज्ञान के लिए हम प्रभुवाणी को परम प्रमाण माननेवाले हों।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे गिर्वणः ! वेदवाणियों द्वारा ज्ञान करने योग्य ( सुतेषु ) =योगसाधनों में, यज्ञों में ( गिरः ) = वेदवाणियां ( रथी: इव ) = वेगवान् रथारोहियों के समान ( त्वा अस्थुः ) = तेरे ही प्रति आ जाती हैं । ( गावः ) = ये वेदवाणियां ( धेनवः वत्सं न ) = गौएं जैसे अपने बछड़े के प्रति आती हैं उसी प्रकार ( त्वा अभि सम् अनूषत ) = तेरी ही प्रत्यक्षरूप से स्तुति करती हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - तिरश्ची:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अनुष्टुभ् ।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरस्य स्तुतिविषयमाह।
पदार्थः
हे (गिर्वणः) गीर्भिः वननीय इन्द्र परमात्मन् ! (सुतेषु) ज्ञानकर्मश्रद्धारूपेषु सोमरसेषु अभिषुतेषु सत्सु (गिरः) मदीयाः वाचः (त्वा) त्वाम् (आ अस्थुः) आश्रितवत्यः सन्ति, (रथीः इव) यथा रथवान् रथमाश्रयते तद्वत्। रथ शब्दात् ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। अ० ५।२।१२२’ इति वार्तिकेन मतुबर्थे ई प्रत्ययः। ताश्च मदीया गिरः (त्वा अभि) त्वामभिमुखीभूय (समनूषत) समनुविषुः, सम्यक् शब्दायन्ते, स्तुवन्तीत्यर्थः। संपूर्वात् णू स्तवने धातोर्लडर्थे लुङि ‘संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः’ इति गुणादेशाभावे व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (धेनवः) पयःपायिन्यः प्रीतियुक्ता वा। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वेति निरुक्तम्, ११।४३। (गावः) पयस्विन्यः (वत्सं न) वत्समभिमुखीभूय यथा शब्दायन्ते, हम्भारवं कुर्वन्ति तद्वत् ॥८॥ अत्र द्वयोरुपमयोः संसृष्टिरनुप्रासश्च ॥८॥
भावार्थः
रथिनो रथमिव स्तोतॄणां गिरः परमात्मानमुपस्थाय धेनवो वत्समिव तमभिमुखीभूय तं प्रेम्णा स्तुवन्तु ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९५।१, ‘अभि त्वा समनूषतेन्द्र वत्सं न मातरः’ इत्युत्तरार्धपाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, knowable through Vedic verses, in Yogi practices, the vedic prayers proceed fast unto Thee like a charioteer. Just as mother Kine go unto their calves so do these Vedic prayers go unto Thee as their goal.
Meaning
Indra, adorable lord of glory, when the soma sense of lifes beauty and meaning is realised, let our voices of adoration reach you fast as a charioteer, and as mothers out of love incline to their children, so let our voices too closely abide with you. (Rg. 8-95-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गिर्वणः) હે સ્તુતિ વાણીઓના વનનીય સેવનીય પરમાત્મન્ ! (त्वा) તારા પ્રત્યે-તને પ્રાપ્ત કરીને (सम्पन्न) સંપન્ન ઉપાસના પ્રસંગો (गिरः) સ્તુતિઓ (आस्थुः) આશ્રિત થઈ જાય છે (रथीः इव) જેમ રથવાને ગન્તવ્ય-પ્રાપ્તવ્ય સ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને તેને આશ્રિત બને છે. (त्वा अभि समनूषत) તને લક્ષણ કરીને નમે છે-આકર્ષિત થાય છે (धेनवः गावः न वत्सम्) દૂધ પાનારી ગાયો જેમ દૂધ પાવાને સ્નેહવશ વાછરડાની પ્રતિ નમે છે-આકર્ષિત થાય છે. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અમારી સ્તુતિઓ પરમાત્માને પ્રત્યે એવી હોવી જોઈએ કે, જેમ યાત્રી પોતાના ગન્તવ્ય સ્થાન પર પહોંચીને જ આરામ કરે છે, વચ્ચે આરામ કરતો નથી. તથા તે પરમાત્માના પ્રતિ એવી ભાવનાભરી સ્તુતિઓ હોય કે, જેમ દૂધાળી ગાયો સ્નેહપૂર્ણ બનીને વાછરડા તરફ નમી-ઝૂકી જાય છે, તેના તરફ આકર્ષિત થઈ જાય છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
یہ بانیاں گائیں ہماری
Lafzi Maana
(گِرونہ) وید بانیوں سے بھجن کرنے یوگیہ اِیشور! (سوتیشو گِرہ آتستُھو) ہمارے اندر بھگتی رس آ گیا ہے، ہماری حمد و ثنائیں آپ کے لئے ہیں اور منتظر ہیں آپ کی، (اوِرتھی) جیسے رتھ کا مالک گاڑی تیار کر کے انتظار کرتا ہے کسی کے آنے کی، ہماری (گاوہ ابھی تو اُسم نُوشت) بانیاں آپ کا گُن کیرتن کر رہی ہیں۔ (نادھینوہ وتسم) جیسے کہ دودھ پلانے والی گائیں اپنے بچھڑوں کو دیکھ کر رنبھاتی رہتی ہیں۔
Tashree
دیکھ جیسے اپنے بچھڑوں کو رنبھاتی گئوئیں پیاری۔ یاد کر کے آپ کو یہ بانیاں گائیں ہماری۔
मराठी (2)
भावार्थ
रथी लोक जसा रथाचा आश्रय घेतात, तसे प्रशंसकांच्या वाणीने परमात्म्याचा आश्रय घ्यावा व त्याच्यासमोर अशी प्रेमाने स्तुती करावी, जशा गाई आपल्या वासराला समोर पाहून हंबरतात. ॥८॥
विषय
जगदीश्वराची स्तुती
शब्दार्थ
(गिर्वणः) वाणीद्वारे वंदनीय अशा हे इंद्र परमेश्वरा, (सुतेषु) ज्ञान-कर्म - श्रद्धारूप सोमरस तयार करून (गिरः) माझी वाणी (त्वा) तुझ्यापर्यंत येऊन (आ तस्युः) स्थित झाल्या आहेत. (माझे मन तुझ्या श्रद्धेने व जहृा तुझ्या नावाने परिपूर्ण आहे.) (रथीः इव) नेमके त्याच रूपात ज्या रूपात रथः स्वामी रथावर आरूढ होतो. माझी वाणी (त्वा अभि) तुला उद्देशून (समनूषत) उत्तम प्रकारे स्तुती करीत आहे. जशा (धेनवः गावः) दूध पाजविण्यासाठी गायी आपापल्या (वत्सं न) वासराकडे पाहून हंबरतात. तद्वत माझी वाणी तुझ्याकडे पाहत आहे.।।८।।
भावार्थ
रथीजन ज्याप्रकारे रथाचा आश्रय घेतात, तद्वत स्तोताजनांच्या वाणीने परमेश्वराचा आश्रय घ्यावा व त्याला संबोधून स्तुती कशा प्रकारे प्रेमाने करावी, की जसे गाय आपल्या वासराकडे पाहून हंबरते.।। ८।।
विशेष
या मंत्रात दोन उपमा अलंकार व अनुप्रास अलंकार आहे.।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
கானம் விரும்புபவனே! சோமன் பெருகுங்கால் ரதசாரதியைபோல் துதிகளான மொழிகள் உனக்கு வருகின்றன. பசு கன்றுகளிடம்போல் அவைகள் ஒருமையுடன் உன்னை அழைக்கும். துரிதமாக வரவும்
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal