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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 366
ऋषिः - अत्रिर्भौमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
20
वि꣣भो꣡ष्ट꣢ इन्द्र꣣ रा꣡ध꣢सो वि꣣भ्वी꣢ रा꣣तिः꣡ श꣢तक्रतो । अ꣡था꣢ नो विश्वचर्षणे द्यु꣣म्न꣡ꣳ सु꣢दत्र मꣳहय ॥३६६॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣भोः꣢ । वि꣣ । भोः꣢ । ते꣣ । इन्द्र । रा꣡ध꣢꣯सः । वि꣣भ्वी꣢ । वि । भ्वी꣢ । रा꣣तिः꣢ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे । द्युम्न꣢म् । सु꣣दत्र । सु । दत्र । मँहय ॥३६६॥
स्वर रहित मन्त्र
विभोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो । अथा नो विश्वचर्षणे द्युम्नꣳ सुदत्र मꣳहय ॥३६६॥
स्वर रहित पद पाठ
विभोः । वि । भोः । ते । इन्द्र । राधसः । विभ्वी । वि । भ्वी । रातिः । शतक्रतो । शत । क्रतो । अथ । नः । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे । द्युम्नम् । सुदत्र । सु । दत्र । मँहय ॥३६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 366
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र से याचना की गयी है।
पदार्थ
हे (शतक्रतो) बहुत ज्ञानी तथा बहुत-से कर्मों को करनेवाले (इन्द्र) विश्वम्भर परमात्मन् ! (विभोः ते) व्यापक आपके (राधसः) शम, दम, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक और चाँदी, सोना, हीरा, मोती, मणि, माणिक्य, विद्या, आरोग्य, यश, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन की (रातिः) देन (विभ्वी) बड़ी व्यापक है। (अथ) इस कारण, हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टा ! हे (सुदत्र) शुभ दानी जगदीश्वर ! आप (नः) हमारे लिए (द्युम्नम्) आत्मिक तेज, भौतिक धन और उससे उत्पन्न होनेवाले यश को (मंहय) प्रदान कीजिए ॥ इस मन्त्र की राजा तथा आचार्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। व्यापक धनवाले राजा का धनदान व्यापक होता है, और व्यापक विद्यावाले आचार्य का विद्यादान व्यापक होता है। राजा गुप्तचर रूपी आँखों से सकलद्रष्टा होता है, और आचार्य अपने ज्ञान के बल से सकलद्रष्टा होता है ॥७॥ इस मन्त्र में ‘विभु परमात्मा की देन भी विभु है’ इसमें समालङ्कार व्यङ्ग्य है, क्योंकि समालङ्कार वहाँ होता है, जहाँ अनुरूप वस्तुओं के मिलन की प्रशंसा होती है ॥७॥
भावार्थ
जो जगदीश्वर, राजा और आचार्य धन, विद्या, तेज, यश आदि की प्रचुर वर्षा करते हैं, वे हमारे लिए भी इनकी धारा को प्रवाहित करें ॥७॥
पदार्थ
(शतक्रतो-इन्द्र) हे बहुत कर्मशक्तिमन् ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (ते विभोः-राधसः) तेरे विभुधन—महान् धन का (विभ्वी रातिः) महान् दान है (अथ) और “अथ समुच्चये” [अव्ययार्थनिबन्धम्] (विश्वचर्षणे सुदत्र) हे सर्वद्रष्टा अच्छे दाता कल्याणदानी “सुदत्रः कल्याणदानः” [निरु॰ ६.१४] (नः) हमारे लिये (द्युम्नं मंहय) द्योतमान धन को प्रदान कर “मंहतेर्दानकर्मणः” [निरु॰ १.७]।
भावार्थ
हे बहुत कर्म प्रवृत्ति वाले—अनन्त कर्मशक्तिमन् परमात्मन्! तेरा धन महान् है तेरे धन से संसार भरा पड़ा है और मोक्षधाम भी तेरे अमर धन से भरा पड़ा है, उस महान् धन का दान भी तू करता है। इस संसार में भी तेरे विविध दान जीवों के प्रति हैं एवं मोक्षधाम में मुमुक्षुओं को महान् आनन्द दान देता है और सर्वद्रष्टा भद्रदानी परमात्मन्! तू हमें कल्याणकारी द्योतमान ज्ञान दान दे, जिससे इस संसार के और मोक्ष के दोनों धनों का उपभोग कर सकें॥७॥
विशेष
ऋषिः—अत्रिः (इस जीवन में ही तृतीय ज्योति परमात्मा का साक्षात्कर्ता)॥<br>
विषय
विश्व की नागरिकता [World Citizenship ]
पदार्थ
गत मन्त्र की भावना के अनुसार जो व्यक्ति द्वेष से ऊपर उठ जाता है उसका दृष्टिकोण व्यापक होता जाता है। वह समाज, नगर, प्रान्त व देश की भावनाओं से ऊपर उठकर 'भौम: ' = सारी भूमि का, सारे विश्व का चर्षणि-मनुष्य [विश्व चर्षणि] बनने का प्रयत्न करता है। मन्त्र में इसी उद्देश्य से प्रार्थना है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (विभोः ते) = सर्वव्यापक आपकी (राधसः) = सम्यक् सिद्धि के- उत्तम कार्यों की सिद्धि के साधनभूत धन के (रातिः) = दान भी (विभ्वी) = व्यापक हैं। उस दान के द्वारा आप ही हे प्रभो ! (शतक्रतो) = सैकड़ों यज्ञिय कर्मों के करनेवाले हैं। वस्तुतः धन का प्रथम पति प्रभु ही हैं [इन्द्र] धन हमारा है ही नहीं। उस प्रभु के धन को प्राणियों को देते हुए संकोच ही क्यों हो? यह धन उत्तम कार्यों की सिद्धि के लिए ही दिया गया है [ राध=संसिद्धि]। उसका विनियोग हमें सदा उत्तम कार्यों में करते रहना चाहिए, परन्तु उन कार्यों का कभी कर्व नहीं करना, क्योंकि वस्तुतः शतशः कार्यों को करनेवाले तो प्रभु ही हैं, मैं तो उनका निमित्तमात्र हूँ [शतक्रतो ] हमारा दान देश-जाति के बन्धनों से ऊपर उठकर हो तो अच्छा है [विभ्वी रातिः]।
(अथा) = और (विश्वचर्षणे) = हे विश्व के नागरिक प्रभो! आप किसी देश विशेष व जाति विशेष के हों ऐसी बात तो है ही नहीं। मैं भी आपकी स्तुति करता हुआ ऐसा ही बनूँ। (सुदत्र) = हे उत्तम [सु] दान [द] से रक्षा [त्र] करनेवाले प्रभो! आपका दान कितना सात्त्विक है। उस दान में स्वार्थसाधना का लवलेश भी नहीं । हे प्रभो ! (नः) = हमें भी (द्युम्नम्) = उस धन को जिसने हमें पागल नहीं बना दिया है जिसके कारण हमारे मस्तिष्कों की द्युति नष्ट नहीं हो गई है, (मंहय) = देने की प्रेरणा दीजिए। हम भी आपसे प्रेरणा प्राप्त करके धन के देनेवाले बनें।
राष्ट्र में राजा का भी कर्त्तव्य है कि वह अपने राष्ट्र के लोगों को दान देने के लिए प्रेरित करे [दापयेत्]। यहाँ प्रभु से हम यही प्रार्थना करते हैं कि प्रभु हमसे दान दिलाते ही रहें। यह देना [दा-देना] मेरी बुराईयों को नष्ट करेगा [दा= काटना] और मेरे जीवन को शुद्ध बनाएगा [दा = शोधन] शुद्ध होकर मैं सभी कष्टों से ऊपर उठकर इस मन्त्र का ऋषि ‘अत्रि’ बनूँगा। ('वसुधैव कुटुम्बकम्') = का पाठ पढ़कर मैं 'भौम' बन जाऊँगा।
भावार्थ
द्वेष से ऊपर उठकर मैं व्यापक दान की वृत्ति को अपनानेवाला बनूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( विभोः ) = नाना सामर्थ्यवान् ( ते ) = तेरे ( राधसः ) = धन की ( रातिः विभ्वी ) = दानराशि बढ़ी भारी है । हे ( शतक्रतो ) = सैकड़ों ज्ञानों और कर्मों से सम्पन्न ! हे ( विश्वचर्षणे ) = समस्त संसार के द्रष्टः ! हे ( सुदत्र ) = उत्तम दाता ! ( नः ) = हमें भी ( घुम्नं ) = उत्तम धन ( मंहर्य ) = दान करो ।
यजु० अ० ३० में इस विचित्र धन का विभाग दर्शनीय है
टिप्पणी
३६६- 'द्युम्ना सुक्ष्त्र ' इति ऋ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - अत्रि:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अनुष्टुभ् ।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रः प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ, बहुकर्मन् (इन्द्र) विश्वम्भर परमात्मन् ! (विभोः) व्यापकस्य (ते) तव (राधसः) शमदमन्यायसत्याहिंसादेः आध्यात्मिकस्य, भौतिकस्य रजतस्वर्णहीरकमुक्तामणिमाणिक्यविद्यारोग्ययशश्चक्रवर्ति-राज्यादेश्च (रातिः) दत्तिः (विभ्वी) व्यापिनी वर्तते। (अथ) अतः कारणात् हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टः ! विश्वचर्षणिरिति पश्यतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३।११। हे (सुदत्र) शोभनदान जगदीश्वर ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (द्युम्नम्) आध्यात्मिकं तेजो भौतिकं धनं, तज्जन्यं यशश्च। द्युम्नमिति धननाम। निघं० २।१०। द्युम्नं द्योततेः यशो वाऽन्नं वा। निरु० ५।५। (मंहय) प्रयच्छ। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। तत्रैव मंहयतिरपि पठितव्यः ॥ मन्त्रोऽयं नृपतिपक्षे आचार्यपक्षे चापि योजनीयः। विभुधनस्य नृपस्य धनदानं विभु, विभुविद्यस्याचार्यस्य च विद्यादानं विभु भवति। नृपश्चारचक्षुभिर्विश्वद्रष्टा, आचार्यश्च ज्ञानबलेन विश्वद्रष्टा ॥७॥२ अत्र ‘विभोः राधसः रातिरपि विभ्वी’ इति समालङ्कारो ध्वन्यते, ‘समं स्यादानुरूप्येण श्लाघा योग्यस्य वस्तुनः’ (सा० द० १०।७१) इति तल्लक्षणात् ॥७॥
भावार्थः
यो जगदीश्वरो नृपतिराचार्यश्च धनविद्यातेजःकीर्त्यादेः प्रचुरां वृष्टिं करोति सोऽस्मभ्यमपि तद्धारां प्रवाहयेत् ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ५।३८।१ ‘विभोष्ट’, ‘अथा’, ‘द्युम्नं’, ‘सुदत्र’, इत्यत्र क्रमेण ‘उरोष्ट’, ‘अधा’, ‘द्युम्ना’, ‘सुक्षत्र’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, wide spreads the bounty of Thine, ample grace. So, good and liberal Giver, the Master of innumerable deeds and sciences, the Seer of all, grant us splendid wealth!
Meaning
Indra, hero of a hundred holy actions within sight and counsel, wide and high are your powers and wealth, abundant your gifts. Ultimate watcher and observer of all that is in the world, ruler of the mighty social order, lead us onto wealth, power, honour and excellence and help us rise to the heights. (Rg. 5-38-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (शतक्रतो इन्द्र) હે અનેક કર્મશક્તિમાન, ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (ते विभोः राधसः) તારું વ્યાપક ધન-મહાન ધનનું (विभ्वी रातिः) મહાન દાન છે (अथ) અને (विश्वचर्षणे सुदत्र) હે સર્વદ્રષ્ટા, શ્રેષ્ઠદાતા, કલ્યાણદાની (नः) અમારા માટે (द्युम्नं मंहय) પ્રકાશમાન ધનનું પ્રદાન કર. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અનેક કર્મપ્રવૃત્તિયુક્ત-અનંત કર્મશક્તિમાન પરમાત્મન્ ! તારું ધન મહાન છે, તારા ધનથી સંસાર પરિપૂર્ણ છે અને મોક્ષધામમાં પણ તારું અમર ધન પરિપૂર્ણ છે, તે મહાન ધનનું તું દાન પણ કરે છે. આ સંસારમાં પણ તારા જીવોના પ્રત્યે વિવિધ દાન છે અને મોક્ષધામમાં મુમુક્ષુઓને મહાન આનંદનું દાન પ્રદાન કરે છે. સર્વદ્રષ્ટા, ભદ્રદાની પરમાત્મન ! તું અમને કલ્યાણકારી પ્રકાશમાન જ્ઞાન આપ, જેથી આ સંસાર અને મોક્ષ બન્ને ધનોનો ઉપયોગ કરી શકીએ. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
یَش کیرتی بڑھانے والا دھن دیجئے!
Lafzi Maana
(شت کر تو اِندر) سینکڑوں ہزاروں طاقتوں والے اِندر! (وِبھو رادھسہ) بہت دھن دولت کے (تے راتی وِبھوی) تیرے مہان دان چاروں طرف چھیلے ہوئے ہیں۔ (اتھ) لہٰذا (وِشو چرشنے سُودتر) سب کو دیکھنے والے عظیم دانی اور پالک پرمیشور! (نہ دئیو منم منہیا) ہمیں بھی یش بڑھانے والا دھن عطا کریں۔
Tashree
سینکڑوں ہیں کارنامے آپ کے ہرسُو عیاں، دان بھی جب ہر طرف ہیں ہم کو بھی دورازداں۔
मराठी (2)
भावार्थ
जे जगदीश्वर, राजा, आचार्य, धन, विद्या, तेज, यश इत्यादींची प्रचुर वृष्टी करतात, त्यांनी आमच्यासाठी ही धारा प्रवाहित करावी ॥७॥
विषय
इंद्राची प्रार्थना
शब्दार्थ
(शतक्रतो) अत्यंत ज्ञानवान आणि अनेकानेक कर्म करणारे हे (इंद्र (विश्वंभर परमेश्वर, (विभो- ते) तुम्ही व्यापक असून तुम्ही विस्तारलेली (राधसः) सम, दम, न्याय, सत्य, अहिंसा आदी आध्यात्मिक संपदा आणि चांदी, सोने, हीरक, मोती, मणि, माणिक्य, विद्या, आरोग्य, कीर्ती, चक्रवर्ती राज्य या रूपात दिली. (रातिः) भौतिक संपदा (विभ्वी) अत्यंत व्यापक आहे. (अथ) यामुळे हे (विश्वचर्षणे) विश्वद्रष्टा, हे (सुदत्र) शुभदाता परमेश्वर, तुम्ही (नः) आम्हा (उपासकांना) (द्युम्नम्) आत्मिक तेज, भौतिक धन आणि त्यापासून मिळणारी कीर्ती (मंहय) आम्हाला प्रदान करा.।। या मंत्राचा राजापर व आचार्यपर अर्थदेखील केला पाहिजे. पुष्कळ धनवान राजाचे दानवृत्ती व्यापक वा मोठी असते आणि अत्यंत विद्यावान आचार्यांचे विद्यादानही व्यापक असते. राजा आपल्या गुप्तचर रूप डोळ्यांमुळे सकलद्रष्टा सतो, तर आचार्य त्याच्या ज्ञानदृष्टीमुळे सकलद्रव्य असतो.।। ७।।
भावार्थ
जगदीश्वर, राजा आणि आचार्य, हे सर्व धन, विद्या, तेज, यश आदींची वृष्टी करतात. या सर्वांनी आम्हा (उपास, प्रजाजन व विद्यार्थ्यांकरिता) या पदार्थांची वृष्टी करावी (अशी आम्ही कामना वा याचना करतो.)।। ७।।
विशेष
या मंत्रातील ‘‘विभु परमेश्वराचे दानही विभु आहे.’’ या कथनात समालडर व्यड्ग्य आहे. जिथे दोन अनुरूप पदार्थांच्या मिलनाची प्रशंसा केली असते, तिथे समालंकार असतो.।। ७।।
तमिल (1)
Word Meaning
[1]சதக்கிரதுவே! மகத்தான ஐசுவரியத்தின் என் தானமானது மகத்தானதாகும், அதனால் எதையும் பார்ப்பவனே! புனித தானமளிப்பவனே ! எங்களுக்கு ஐசுவரியத்தை அளிக்கவும்.
FootNotes
[1]சதக்கிரதுவே - கணக்கில்லாத அறிவு செயல்கள் செய்பவனே.
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