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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 374
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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    च꣣र्षणीधृ꣡तं꣢ म꣣घ꣡वा꣢नमु꣣क्थ्या꣢३꣱मि꣢न्द्रं꣣ गि꣡रो꣢ बृह꣣ती꣢र꣣꣬भ्यनू꣢꣯षत । वा꣣वृधानं꣡ पु꣢रुहू꣣त꣡ꣳ सु꣢वृ꣣क्ति꣢भि꣣र꣡म꣢र्त्यं꣣ ज꣡र꣢माणं दि꣣वे꣡दि꣢वे ॥३७४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च꣣र्षणीधृ꣡त꣢म् । च꣣र्षणि । धृ꣡त꣢꣯म् । म꣣घ꣡वा꣢नम् । उ꣣क्थ्य꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गि꣡रः꣢꣯ । बृ꣣हतीः꣢ । अ꣣भि꣢ । अ꣣नूषत । वावृधान꣢म् । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । सु꣣वृक्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । वृक्ति꣡भिः꣢ । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । ज꣡र꣢꣯माणम् । दि꣣वे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे ॥३७४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चर्षणीधृतं मघवानमुक्थ्या३मिन्द्रं गिरो बृहतीरभ्यनूषत । वावृधानं पुरुहूतꣳ सुवृक्तिभिरमर्त्यं जरमाणं दिवेदिवे ॥३७४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चर्षणीधृतम् । चर्षणि । धृतम् । मघवानम् । उक्थ्यम् । इन्द्रम् । गिरः । बृहतीः । अभि । अनूषत । वावृधानम् । पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । सुवृक्तिभिः । सु । वृक्तिभिः । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । जरमाणम् । दिवेदिवे । दिवे । दिवे ॥३७४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 374
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह विषय है कि वह जगदीश्वर और राजा कैसा है, जिसकी हम स्तुति करें।

    पदार्थ

    (चर्षणीधृतम्) मनुष्यों के धारणकर्ता, (मघवानम्) प्रशस्त ऐश्वर्यों के स्वामी, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय, (सुवृक्तिभिः) शुभ क्रियाओं से (वावृधानम्) वृद्ध, (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे गये, (अमर्त्यम्) अमर कीर्तिवाले, (दिवेदिवे) प्रतिदिन (जरमाणम्) सत्कर्मकर्ताओं की प्रंशसा करनेवाले अथवा सत्कर्मों का उपदेश करनेवाले (इन्द्रम्) परमेश्वर वा राजा को (बृहतीः) महान् (गिरः) वेदवाणियाँ अथवा मेरी अपनी वाणियाँ (अभ्यनूषत) स्तुति अथवा प्रशंसा का विषय बनाती हैं ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है, विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर भी है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे सब मनुष्यों का धारणकर्ता, शुभकर्मा, अमरकीर्ति, सत्कर्मों का उपदेष्टा परमेश्वर सबसे स्तुति किया जाता है, वैसे ही उन गुणों से युक्त राजा भी प्रजाओं की प्रशंसा का पात्र बनता है ॥५॥

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    पदार्थ

    (बृहतीः-गिरः) हे हमारी बड़ी बड़ी पुकार वाली वाणियो! तुम (चर्षणीधृतम्) मनुष्यों के धारण करने वाले संरक्षक “चर्षणीधृतः-मनुष्यधृत” [निरु॰ १२.४०] (मघवानम्) प्रशस्त धन वाले—(उक्थ्यम्) प्रशंसनीय—“उक्थ्यं वक्तव्यप्रशंसम्” [निरु॰ ११.२१] (वावृधानम्) हमें बढ़ाने वाले—“वावृधानः-वर्धयमानाः” [निरु॰ १०.२६] (पुरुहूतम्) बहुत प्रकार से—बहुत नामों गुणकर्मों से आमन्त्रित करने योग्य (अमर्त्यम्) मरणधर्मरहित—अजर अमर—(जरमाणम्) स्तुति किए जाते हुए—“जरते अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] ‘कर्तरि कर्मप्रत्ययः’ (इन्द्रम्) परमात्मा को (सुवृक्तिभिः) सम्यक् दोषवर्जित स्तुतियों से “सुवृक्तिभिः-सुप्रवृक्ताभिः शोभनाभिः स्तुतिभिः” [निरु॰ २.२४] (दिवे-दिवे) दिनदिन—प्रतिदिन (अभ्यनूषत) निरन्तर स्तुति करो।

    भावार्थ

    हे मेरी बड़ी-बड़ी पुकार वाणियो उक्तियो! तुम मनुष्यों के धारक प्रशस्त धन वाले प्रशंसनीय बढ़ाने वाले बहुत प्रकार से आमन्त्रण के योग्य अमर हमारे द्वारा स्तुत करने योग्य परमात्मा की प्रतिदिन दोषरहित भावनाओं से बार-बार स्तुति करो॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र सब जिसके मित्र हों ऐसा उपासक)॥<br>

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    विषय

    छोड़ें और पायें

    पदार्थ

    (बृहतीः) = हमारा वर्धन करनेवाली (गिर:) = वेदवाणियाँ (अभ्यनूषत) = उसी प्रभु का लक्ष्य करके स्तवन करती हैं, अर्थात् सभी वेदवाणियों अन्ततोगत्वा उस प्रभु का ही प्रतिपादन कर रही हैं। किस प्रभु का? १. (चर्षणीधृतम्) = जो सब मनुष्यों का धारण करनेवाले हैं। चर्षणी शब्द, उस मनुष्य का द्योतक है जो उत्पादक कार्य में लगा हुआ है, परमेश्वर उसका धारण करते ही हैं। २. (मघवानम्) = जो प्रभु पाप के लेश से भी शून्य ऐश्वर्यवाले हैं, ४. (इन्द्रम्) = शक्ति के सब कार्यों को करनेवाले हैं, असुरों का संहार करनेवाले हैं, ५. (वावृधानम्) = अपने स्वरूप में निरन्तर वृद्धि को प्राप्त और ६. (पुरुहूतम्) = जिनकी पुकार पालक व पूरक है, ७. (अमर्त्यम्) = जो किसी भी वस्तु के पीछे मर नहीं रहे अर्थात जो अनासक्त हैं, ७. और अन्त में (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (सुवृक्तिभिः) = उत्तम वर्जनों के द्वारा - त्याग के द्वारा (जरमाणम्) = स्तुति किये जा रहे हैं।

    स्तुति का अभिप्राय उन गुणों को अपने में धारण करने से होता है, अतः हमें चाहिए कि हम उत्पादक श्रम में सहयोग दें, सुपथ से धनार्जन करें, स्तुतिवचनों को ही मुख से उच्चरित करें, आसुर वृत्तियों का संहार करें, छोटे न बनें अपने दिलों को छोटा न करें, हमारे प्रति किसी की भी पुकार व्यर्थ न जाए और आसक्ति ऊपर उठें।

    उल्लिखित प्रकार से अपने जीवन को बिताते हुए हम इस तत्त्व को न भूलें कि हम उस-उस व्यसन को छोड़कर ही प्रभु का सच्चा स्तवन कर पाते हैं। इस प्रकार इन काम-क्रोधादि की भावनाओं को छोड़नेवाला ही सबके प्रति स्नेहवाला इस मन्त्र का ऋषि ‘विश्वामित्र' बन पाता है और यही प्रभु का सच्चा गायक ‘गाथिन' है।

    भावार्थ

    हम वासनाओं को छोड़कर प्रभु को पाने के लिए प्रयत्नशील हों। 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे विद्वान् लोगो ! ( चर्षणीधृतं ) = समस्त मनुष्यों को धारण करने हारे, ( मघवानं ) = ऐश्वर्य सम्पन्न, ( उक्थ्या ) = वेदमन्त्रों से स्तुति करने योग्य, ( वावृधानं ) = महिमा में बड़े , ( पुरुहूतं ) = प्रजाओं से पूजित, ( अमर्त्यं ) = अमर, नित्य ( दिवेदिवे जरमाणं ) = प्रतिदिन स्तुति किये गये ( इन्द्रं ) = परमेश्वर को ( बृहती: गिरः ) = हमारी बृहती छन्द की वेदवाणियां अथवा अति ज्ञानसम्पन्न, बहुतसी स्तुतियां ( अभि अनूषत ) = सत्य स्वरूप: वर्णन करती है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विश्वामित्र:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - जगती।

    स्वरः - निषादः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशः स जगदीश्वरो राजा वा यं वयं स्तुवीमहीत्याह।

    पदार्थः

    (चर्षणीधृतम्) मनुष्याणां धर्त्तारम्, (मघवानम्) प्रशस्तैश्वर्यम्, (उक्थ्यम्) वक्तव्यप्रशंसम्, (सुवृक्तभिः२) शोभनाभिः क्रियाभिः, (वावृधानम्) वृद्धम्। वृधधातोर्लिटः कानच्। (पुरुहूतम्) बहुभिः आहूतम्, (अमर्त्यम्) अमरकीर्तिम्, (दिवेदिवे) दिने दिने (जरमाणम्) सत्कर्मकारिणो जनान् प्रशंसन्तम्। जरते स्तुतिकर्मा, जरिता इत्यस्य स्तोतृवाचिषु पाठात् निघं० ३।१६। यद्वा सत्कर्माणि उपदिशन्तम्। जरते गृणाति। निरु० ४।२३। (इन्द्रम्) परमेश्वरं राजानं वा (बृहतीः) बृहत्यः (गिरः) वेदवाचः यद्वा मदीया वाचः (अभ्यनूषत) अभि स्तुवन्ति ॥५॥३ अत्र अर्थश्लेषोऽलङ्कारः, विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरालङ्कारोऽपि ॥५॥

    भावार्थः

    यथा सर्वेषां मानवानां धर्ता शोभनकर्माऽमरकीर्तिः सत्कर्मोपदेष्टा परमेश्वरः सर्वैः स्तूयते तथैव तादृशगुणविशिष्टो नृपतिरपि प्रजानां प्रशंसापात्रं जायते ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।५१।१। २. सुष्ठु शोभना वृक्तयो दुःखवर्जनानि यासु क्रियासु ताभिः—इति ऋ० १।५२।१ भाष्ये द०। सुवृक्तिभिः सुप्रवृत्ताभिः शोभनाभिः स्तुतिभिः—इति यास्कः (निरु० २।२४)। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं राजविषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May our high hymns sound forth the praise of God, the Supporter of mankind, the Lord of Wealth, Moet for laud, Who hath waxen mighty, is much invoked with prayers. Immortal, One whose praise each day is sung aloud.

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    Meaning

    Address these comprehensive words of prayer and celebration with offers of yajna to Indra, lord ruler and sustainer of the people, munificent, honourable, growing in power and prosperity, universally acclaimed and celebrated, immortal in fame and glory, close and closer day by day in love and exhortation of the people. Let the songs glorify the lord. (Rg. 3-51-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (बृहतीः गिरः) હે અમારી મહાન પુકારવાળી વાણીઓ ! તમે (चर्षणीधृतम्) મનુષ્યોને ધારણ કરનાર-સંરક્ષક (मघवानम्) પ્રશસ્ત ધનવાળા (उक्थ्यम्) પ્રશંસનીય (वावृधानम्) અમારી ઉન્નતિ કરનાર (पुरुहूतम्) અનેક પ્રકારથી-અનેક નામો ગુણ કર્મોથી આમંત્રિત કરવા યોગ્ય (अमर्त्यम्) મરણ ધર્મ રહિત - અજર, અમર (जरमाणम्) સ્તુતિ કરતા (इन्द्रम्) પરમાત્માને (सुवृक्तिभिः) સમ્યક્ દોષવર્જિત સ્તુતિઓ દ્વારા (दिवे दिवे) પ્રતિદિન (अभ्यनूषत) નિરંતર સ્તુતિ કરો. (૫)

     

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે મારી મહાન પુકાર વાણીઓ ઉક્તિઓ ! તું મનુષ્યોના ધારક, પ્રશસ્ત ધનવાળા, પ્રશંસનીય વૃદ્ધિ કરનાર, અનેક પ્રકારથી આમંત્રણને યોગ્ય, અમર તથા અમારા દ્વારા સ્તુતિ કરવા યોગ્ય પરમાત્માની પ્રતિદિન દોષરહિત ભાવનાઓથી વારંવાર સ્તુતિ કરો. (૫)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    وید بانی سدا آپ کو ہی گا رہی ہے!

    Lafzi Maana

    ہماری حمد و ثنائیں اور وید کی پوتر بانیاں اُس اِندر پرمیشور کو گا رہی ہیں، جو سب کا دھارن کرنے والا ایشور شالی سب کا پالک بے شمار فضیلت کا مالک اور سنسار میں امر ہے، اُسی ایشور کی ہ مہما سب کر رہے ہیں۔

    Tashree

    ہوتے دُعاگو رات دن سب اُس کی بھگتی میں سدا، ویدوں کی گاتی بانیاں ہیں ہو رہیں اُس پر فدا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा सर्व माणसांचा धारणकर्ता, शुभकर्मा, अमरकीर्ती, सत्कर्मांचा उपदेष्टा अशा परमेश्वराची सर्वांकडून स्तुती केली जाते. तसेच अशा गुणांनी युक्त राजाही प्रजेचा प्रशंसापात्र बनतो ॥५॥

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    विषय

    ज्याची स्तुती करणे योग्य आहे, तो जगदीश्वर कसा आहे ? तो राजा कसा असावा -

    शब्दार्थ

    (चर्षणी धृतम्) मनुष्यांचा धारणकर्ता, (मघनानम्) प्रशस्त ऐश्वर्यवान, (उक्थम्) प्रशंसनीय (सुवृक्तिभिः) शुभ कर्मांद्वारे (वावृधानम्) वाढणाऱ्याला यशोवृद्ध (अशा जगदीश्वराची व राजाची मी वाणीद्वारे स्तुती करतो.) तसेच तो परमेश्वर व राजा (पुरुहूतम्) अनेक जण ज्याचे आवाहन करतात अशा असून (अमर्त्यम्) अमर / अमर कीर्तिवान व (दिवेदिवे) प्रतिदिवशी (जरमाणम्) सत्कर्म करणाऱ्यांची प्रशंसा करणारा आहे अथवा सत्कर्म करण्याची प्रेरणा करणारा आहे. अशा त्या (इन्द्रम्) परमेश्वराची राजाची (बृहती) (गिरः) महान वेदवाणी / माझी स्वतःची वाणी (अभ्यनूषत) विशेषत्वाने स्तुती वा प्रशंसा करते.।। ५।।

    भावार्थ

    परमेश्वर सर्वाधार, शुभ कर्मकर्ता, अमर कीर्तिवान व सत्कर्म - प्रेरक आहे, म्हणूनच तो स्तुत्य वा स्तवनीय मानला गेला आहे. त्याच गुणांनी समृद्ध राजादेखील प्रजेच्या प्रशंसेस पात्र ठरतो.।। ५।।

    विशेष

    या मंत्रात अर्थस्लेष अलंकार आहे. मंत्रात र्व विशेषणे साभिप्राय आहेत, त्यामुळे येणे परिकर अलंकारदेखील आहे.।। ५।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மனிதர்களைக் காப்பவனான ஐசுவரிய மிகுந்தவனாய் துதிக்கருகனாய் [1]வளர்ப்பவனாய் பிரசைகளால் பூஜிக்கப்படும் [2]அமரனாய் தினந்தோறும் துதிக்கப்பட்ட இந்திரனை எங்கள் பெரிய மொழிகள் கானஞ் செய்கின்றன.

    FootNotes

    [1]வளர்ப்பவனாய் -அவன் அறிவில் நாங்கள் வளர்பவனாய்
    [2]அமரனாய் -மரணமில்லாதவனாய்

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