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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 376
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
24
अ꣣भि꣢꣫ त्यं मे꣣षं꣡ पु꣢रुहू꣣त꣢मृ꣣ग्मि꣢य꣣मि꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्म꣢दता꣣ व꣡स्वो꣢ अर्ण꣣व꣢म् । य꣢स्य꣣ द्या꣢वो꣣ न꣢ वि꣣च꣡र꣢न्ति꣣ मा꣡नु꣢षं भु꣣जे꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठम꣣भि꣡ विप्र꣢꣯मर्चत ॥३७६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । त्यम् । मे꣣ष꣢म् । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । ऋ꣣ग्मि꣡य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । म꣣दत । व꣡स्वः꣢꣯ । अ꣣र्णव꣢म् । य꣡स्य꣢꣯ । द्या꣡वः꣢꣯ । न । वि꣣चर꣢न्ति । वि꣣ । च꣡र꣢꣯न्ति । मा꣡नु꣢꣯षम् । भु꣣जे꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठम् । अ꣣भि꣢ । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । अर्चत ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम् । यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषं भुजे मꣳहिष्ठमभि विप्रमर्चत ॥३७६॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । त्यम् । मेषम् । पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । ऋग्मियम् । इन्द्रम् । गीर्भिः । मदत । वस्वः । अर्णवम् । यस्य । द्यावः । न । विचरन्ति । वि । चरन्ति । मानुषम् । भुजे । मँहिष्ठम् । अभि । विप्रम् । वि । प्रम् । अर्चत ॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 376
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह विषय है कि वाणियों द्वारा जगदीश्वर और राजा की सबको अर्चना करनी चाहिए।
पदार्थ
(त्यम्) उस प्रसिद्ध, (मेषम्) सुखों से सींचनेवाले, (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे गये, (ऋग्मियम्) अर्चना के योग्य, (वस्वः अर्णवम्) धन के समुद्र (इन्द्रम्) परमेश्वर वा राजा को (गीर्भिः) वाणियों से (मदत) हर्षयुक्त करो। (यस्य) जिस परमेश्वर वा राजा की (द्यावः) दीप्तियाँ, तेजस्विताएँ (मानुषम्) मनुष्य का (न विचरन्ति) अपकार नहीं करतीं, उस (मंहिष्ठम्) अतिशय महान् व दाता (विप्रम्) मेधावी विद्वान् परमेश्वर व राजा को (भुजे) अपने पालन के लिए (अर्चत) पूजित वा सत्कृत करो ॥७॥ ‘वस्वः अर्णवम्’ में समुद्रवाची अर्णव पद का लक्षणावृत्ति से निधि लक्ष्यार्थ होता है, निधि न कह-कर अर्णव कहने में अतिशय धनवत्त्व व्यङ्ग्य है। इन्द्र में अर्णव का आरोप होने से रूपक अलङ्कार है ॥७॥
भावार्थ
जैसे सुखवर्षक, ऐश्वर्य का पारावार, सबसे अधिक महान्, सबसे बड़ा दानी, मेधावी परमेश्वर सबसे पूजा करने योग्य है, वैसे ही इन गुणों से युक्त राजा प्रजाजनों से सत्कृत और प्रोत्साहित किये जाने योग्य है ॥७॥ विवरणकार माधव ने इस मन्त्र पर यह इतिहास लिखा है—अङ्गिरा नामक ऋषि था। उसने इन्द्र को पुत्र रूप में पाने की याचना करते हुए आत्म-ध्यान किया। उसके योगैश्वर्य के बल से उसी ध्यान के फलस्वरूप उसे सव्य नाम से इन्द्र पुत्र रूप में प्राप्त हुआ। उसे इन्द्र मेष का रूप धारण करके हर ले गया। यह कथा देकर वे कहते हैं कि इसी इतिहास को बतानेवाली प्रस्तुत ऋचा है, जिसमें मेषरूपधारी इन्द्र की स्तुति की गयी है। किन्तु यह घटना वास्तविक नहीं है। मन्त्र का ऋषि आङ्गिरस सव्य है, और मन्त्र में इन्द्र को मेष कहा गया है, यही देखकर उक्त कथा रच ली गयी है ॥ सायण ने पहले मेष शब्द को तुदादिगण की स्पर्धार्थक मिष धातु से निष्पन्न मानकर ‘मेष’ का यौगिक अर्थ ‘शत्रुओं से स्पर्धा करनेवाला’ करके भी फिर वैकल्पिक रूप से यह इतिहास भी दे दिया है कि—कण्व का पुत्र मेधातिथि यज्ञ कर रहा था, तब इन्द्र मेष का रूप धरकर आया और उसने उसका सोमरस पी लिया। तब ऋषि ने उसे मेष कहा था, इसलिए अब भी इन्द्र को मेष कहते हैं। यह कथा भी काल्पनिक है, वास्तव में घटित किसी इतिहास का वर्णन इस मन्त्र में नहीं है, यह सुधीजन समझ लें ॥
पदार्थ
(त्यं मेषम्) उस सुख के सिञ्चन करनेवाले—“मिषु सेचने” [भ्वादि॰] (पुरुहूतम्) बहुत प्रकार से आमन्त्रित करने योग्य—(ऋग्मियम्) स्तुतियों से तुलित करने योग्य—ऋचाओं—स्तुतियों से अर्चनीय—(वस्वः-अर्णवम्) भोगधन के सागर—(इन्द्रम्) परमात्मा को (गीर्भिः) स्तुतिवचनों से (अभिमदत) हर्षित करो (यस्य) जिसकी व्याप्तियाँ या कर्मशक्तियाँ (द्यावः-न) द्योतमान किरणों के समान (मानुषं विचरन्ति) मनुष्य हितकारी पृथिवी पर “मानुष.........मनुष्यहितः” [निरु॰ १३ (१४)।३७।(५०)] प्राप्त हो रही हैं (भुजे) अपने पालनार्थ (मंहिष्ठं विप्रम्-अभि-अर्चत) पूजनीय विशेष तृप्ति करने वाले परमात्मा को—अर्चित करो।
भावार्थ
परमात्मा भारी सुख का सीञ्चने वाला है। बहुत प्रकार से आमन्त्रणीय स्तुतियों से तुलित करने योग्य, जानने योग्य धनैश्वर्य का सागर है। उस ऐसे इष्टदेव को स्तुतियों द्वारा अनुकूल बनाना चाहिए, उसकी व्याप्तियाँ या कर्मशक्तियाँ सूर्यकिरणों के समान मनुष्य के हितार्थ पृथिवी पर भी फैल रही हैं, उस ऐसे इष्टदेव की अर्चना करना हमारा कर्त्तव्य है॥७॥
विशेष
ऋषिः—सव्यः (मोक्षैश्वर्य का अधिकारी)॥<br>
विषय
वे धन के समुद्र हैं
पदार्थ
अपने जीवन को यज्ञमय बनानेवाला ('सव्य आङ्गिरस') इस मन्त्र का ऋषि है। (सर्वो में) = यज्ञों में यह उत्तम है और विषयासक्त न होने से 'शक्तिशाली' है-आंगिरस है। यह कहता है कि (त्यम्) = उस प्रभु की अभि-ओर चलो जो कि– १. (मेषम्) = सींचनेवालो हैं, धनों की वर्षा करनेवाले हैं, २. (पुरुहूतम्) = जिनके प्रति पुकार पालन व पूरण करनेवाली है और इसीलिए जो ३. (ऋग्मियम्) = अर्चनीय व पूजनीय हैं, ४. (इन्द्रम्) = जो परमैश्वर्यशाली हैं, ५. (वस्वो अर्णवम्) = निवास के लिए उत्तम धनों के जो समुद्र हैं, ६. (यस्य) = जिनके (मानुषम्) = मानव हित के कार्य (द्यावो न) = सूर्य की किरणों के समान या आकाश के समान सर्वत्र (विचरन्ति) = विचरते हैं अर्थात् विद्यमान् हैं, ७. और जो प्रभु (भुजे) = पालन के लिए (मंहिष्ठम्) = दातृतम हैं। प्रभु भक्त कभी भूखे थोड़े ही मरते हैं? आवश्यक धन उन्हें प्राप्त हो ही जाता है। वे प्रभु तो ८. (विप्रम्) = विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं।
इस प्रभु को (गीर्भिः) = वेदवाणियों से (मदता) = आनन्दित करो। यदि मनुष्य वेद का अध्ययन करता है-ज्ञान प्राप्ति को अपने जीवन का मुख्य अङ्ग बनाता है तो वह सचमुच उस प्रभु को ज्ञान यज्ञ से आराधित करता है। जीवों को चाहिए कि (अभि अर्चत) = सब प्रकार से इस प्रभु की अर्चना को वे अपने जीवन का लक्ष्य बनाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं प्रभु का भक्त बनूँ, वे धन के समुद्र हैं, अतः मुझे क्या चिन्ता ?
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( त्यं ) = उस चिरस्मरणीय, ( मेषं ) = सब सुखों के वर्षानेहारे, ( पुरुहूतं ) = प्रजाओं के स्तुतिपात्र, ( ऋग्मियं ) = ऋचाओं अर्थात् वेदमन्त्रों में प्रतिपाद्य, ( वस्व: अर्णवम् ) = सब जीवनोपयोगी साधनों, प्राणों और वास कराने हारे ब्रह्माण्डों के एकमात्र महासमुद, ( मंहिष्ठं ) = दानशील, ( विप्रं ) = ज्ञानी, ( इन्द्रं ) = उस ईश्वर को ( भुजे ) = अपने पालन पोषण के निमित्त ( अभि अर्चत ) = निरन्तर स्तुति करो, ( यस्य ) = जिसकी ( द्यावः न ) = ज्ञानमय किरणें ही मानो ( मानुषं विचरन्ति ) = मनुष्यलोक को नाना प्रकार से व्यापती हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - सव्य सत्यो वा आङ्गिरसः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - जगती।
स्वरः - निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरो नृपतिश्च गीर्भिरर्चनीय इत्याह।
पदार्थः
(त्यम्) तं प्रसिद्धम्, (मेषम्२) सुखैः सेक्तारम्। मिषु सेचने, भ्वादि, कर्तरि अच् प्रत्ययः। चित्त्वादन्तोदात्तः। (पुरुहूतम्) बहुभिर्जनैः आहूतम्, (ऋग्मियम्) अर्चनीयम्। ऋग्मियम् ऋग्मन्तमिति वा अर्चनीयमिति वा पूजनीयमिति वा। निरु० ७।२६। (वस्वः अर्णवम्) धनस्य समुद्रम् (इन्द्रम्) परमेश्वरं राजानं वा (गीर्भिः) वाग्भिः (मदत) मदयत हर्षयत। मदी हर्षग्लेपनयोः भ्वादिः छन्दसि सकर्मकोऽपि, संहितायाम् ‘ऋचि तुनुघमक्षुतङ्०। ६।३।१३३’ इति दीर्घः। (यस्य) इन्द्रस्य परमेश्वरस्य राज्ञो वा (द्यावः) दीप्तयः (मानुषम्) मनुष्यम् (न विचरन्ति३) न अपचरन्ति, न अपकुर्वन्तीत्यर्थः। अत्र यद्वृत्तयोगान्निघातो न। तम् (मंहिष्ठम्) अतिशयेन महान्तं दातृतमं वा। महि वृद्धौ। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०, अतिशयेन मंहिता मंहिष्ठः। इष्ठनि ‘तुरिष्ठेमेयस्सु। अ० ६।४।१५४’ इति तृचो लोपः। (विप्रम्) विपश्चितम् इन्द्रं परमेश्वरं राजानं वा, (भुजे) पालनाय (अभि अर्चत) पूजयत, सत्कुरुत वा ॥७॥४ ‘वस्वः अर्णवम्’ इत्यत्र समुद्रवाचिनोऽर्णवपदस्य निधौ लक्षणा, अतिशयधनवत्त्वं च व्यज्यते। इन्द्रे अर्णवत्वारोपाच्च रूपकम् ॥७॥
भावार्थः
यथा सुखवर्षक ऐश्वर्यस्य पारावारो महत्तमो दातृतमो मेधावी परमेश्वरः सर्वैः पूजनीयो हर्षणीयश्च तथा तादृशो नृपतिः प्रजाजनैः सत्करणीयो हर्षयितव्यश्च ॥७॥ अत्र विवरणकार इत्थमितिहासं दर्शयति—“अङ्गिरा नाम ऋषिः। स इन्द्रं पुत्रं याचमानः स्वात्मनि अभिध्यानमकरोत्। तस्य योगैश्वर्यबलात् तत एवाभिध्यानात् सव्यनामा इन्द्रः पुत्रोऽजायतेति। तदेतच्छौनकेनोक्तम्—तं मेषः मेधातिथिकाण्वायनम् आजहार इन्द्रो मेषरूपी कस्मिंश्चित् कारणान्तरे। तद् ब्राह्मणेनोक्तम्—मेधातिथिं ह काण्वायनं मेषो भूत्वा जहारेति। तदभिवादिन्येषा भवति—तमिन्द्र मेषं मेषरूपम्।” इत्यादि। परं घटनेयं न वास्तविकी। मन्त्रस्य ऋषिः आङ्गिरसः सव्यः, मन्त्रे च इन्द्रो मेषनाम्ना व्यपदिष्टः इति कृत्वैव कथेयं विरचिता ॥ सायणस्तु ‘मेषं शत्रुभिः स्पर्द्धमानम्’ इति स्पर्धार्थात् मिष धातोस्तुदादेर्निष्पन्नं मेषशब्दं यौगिकत्वेन पूर्वं व्याख्यायापि पश्चाद् वैकल्पिकत्वेनेतिहासं प्रदर्शयति—“यद्वा, कण्वपुत्रं मेधातिथिं यजमानमिन्द्रो मेषरूपेणागत्य तदीयं सोमं पपौ। स ऋषिस्तं मेष इत्यवोचत्, अत इदानीमपि मेष इन्द्रोऽभिधीयते” इति। एषा कथापि काल्पनिकी। नास्मिन् मन्त्रे वस्तुतत्त्वेन घटितः कश्चिदितिहासोऽस्तीति सुधियो विभावयन्तु ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।५१।१ ‘मानुषं’ इत्यत्र ‘मानुषा’ इति पाठः। २. (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेक्तारम् इति ऋ० १।५१।१ भाष्ये द०। ३. यस्य द्यावः द्युलोकाः न विचरन्ति विगच्छन्तीत्यर्थः। किं नातिक्रमन्ति ? उच्यते। मानुषम्, अनन्तं ज्ञानम्—इति वि०। यस्य इन्द्रस्य द्यावः स्तोतारः, दीव्यतेः स्तुतिकर्मणो द्यौः। न विचरन्ति न विचलन्ति स्वस्थानात्। मानुषं मनुष्येभ्यः हितम्—इति भ०। यस्य इन्द्रस्य कर्माणि मानुषं, जातावेकवचनम्, मानुषाणि, मनुष्याणां हितानि विचरन्ति विशेषेण वर्तन्ते। अत्र दृष्टान्तः, द्यावो न यथा सूर्यस्य रश्मयः सर्वेषां हितकराः—इति सा०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजपक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
Praise for your nourishment, that ever memorable God, the Bestower of all pleasures, sung in Vedic verses, the Ocean of wealth. Charitable, Full of knowledge. Whose rays of knowledge spread throughout mankind.
Meaning
With holy words and songs of adoration, worship Indra, lord of power and glory, destroyer of enemies. Celebrate and exhilarate Him who is generous and virile, universally invoked and honoured, master of the Riks, wielder of wealth deep as ocean, greatest of the great, and lord of knowledge and wisdom. His gifts and graces for humanity range around like rays of the lights of heaven for the joy of the people. O people of the world, thank and adore the lord all wise and most gracious. (Rg. 1-51-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्यं मेषम्) તે સુખનું સિંચન કરનાર, (पुरुहूतम्) અનેક રીતે આમંત્રિત કરવા યોગ્ય, (ऋग्मियम्) સ્તુતિઓને ઝીલનાર-ઋચાઓ-સ્તુતિઓથી અર્ચનીય, (वस्वः अर्णवम्) ભોગ ધનના સાગર, (इन्द्रम्) પરમાત્માને (गीर्भिः) સ્તુતિ વચનો દ્વારા (अभिमदत) હર્ષિત-આનંદિત કરો (यस्य) જેની વ્યાપ્તિઓ અથવા કર્મશક્તિઓ (द्यावः न) પ્રકાશમાન કિરણોની સમાન (मानुषं विचरति) મનુષ્ય હિતકારી પૃથિવી પર વિચરે છે (भुजे) પોતાના પાલન માટે (मंहिष्ठं विप्रम् अभि अर्चत) પૂજનીય વિશેષ તૃપ્તિ કરાવનાર પરમાત્માને અર્ચિત કરો. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા અત્યંત સુખનું સિંચન કરનાર છે. અનેક પ્રકારથી આમંત્રણીય સ્તુતિઓને ઝીલનાર અને જાણવા યોગ્ય ધન ઐશ્વર્યનો સાગર છે. તે એવા ઇષ્ટદેવને સ્તુતિઓ દ્વારા અનુકૂળ બનાવવા જોઈએ, તેની વ્યાપ્તિઓ અથવા કર્મશક્તિઓ સૂર્યનાં કિરણોની સમાન મનુષ્યનાં હિત માટે પૃથ્વી પર પ્રસરી રહી છે, તે એવા ઇષ્ટદેવની અર્ચના કરવી એ અમારું કર્તવ્ય છે. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
دولتوں کا سمندر
Lafzi Maana
پرمیشور دیو سکھوں کے برسانے والے، دھن ایشوریہ کا ساگر، آنند کا داتا، وید منتروں کا داتا اور انہی میں رما ہوا ہے۔ سُورج کی کرنوں کیطرح چاروں طرف پھیل کر اپنی دولتوں کو بانٹ رہا ہے، اُس مہادانی، پری پُورن اِشٹ دیو بھگوان کی ارچنا کر کے اُس کو سدا پرسن رکھا کریں۔ جس کی حمد و ثنا سب گاتے رہتی ہیں۔
Tashree
سرچشمہ دولتوں کا آنند کا ہے داتا، ہے اِشت دیو ہمارا جگ اُس کو رہتا گاتا۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा सुखवर्षक, असीम ऐश्वर्यवान, सर्वात पूजा करण्यायोग्य आहे, तसेच या गुणांनी युक्त राजा प्रजाजनाकडून सत्कारित व प्रोत्साहित करण्यायोग्य आहे. ॥७॥
टिप्पणी
विवरणकार माधवने या मंत्रावर असा इतिहास लिहिलेला आहे - अंगिरा नावाचा ऋषी होता. त्याने इंद्राला पुत्ररूपाने प्राप्त करण्याची याचना करत आत्मध्यान केले. त्याच्या योगैश्वर्याच्या बलाने त्याच ध्यानामुळे त्याला सव्य नावाचा इंद्र पुत्ररूपाने प्राप्त झाला. त्याला इंद्राने मेषरूप धारण करून पळवून नेले. ही कथा इतिहास दाखविणारी ऋचा आहे, ज्यात मेषरूपधारी इंद्राची स्तुती केलेली आहे, परंतु ही घटना वास्तविक नाही. मंत्राचा ऋषी अङ्गिरस सव्य आहे व मंत्रात इंद्राला मेष म्हटले आहे. हे पाहून वरील कथा रचलेली आहे. सायणने प्रथम मेष शब्दाला तुदादिगणाच्या स्पर्धार्थक मिष धातुने निष्पन्न मानून ‘मेप’चा यौगिक अर्थ ‘शत्रुंबरोबर स्पर्धा करणारा’ असा करून ही वैकल्पिक रूपाने हा इतिहासही दिलेला आहे कि - कण्वाचा पुत्र मेधातिथी यज्ञ करत होता, तेव्हा इंद्र मेषाचे रूप धारण करून आला व त्याने सोमरसाचे प्राशन केले तेव्हा ऋषीने त्याला मेष म्हटले होते, त्यासाठी आताही इंद्राला मेष म्हटले जाते. ही कथाही काल्पनिक आहे. वास्तविक घडलेल्या इतिहासाचे वर्णन या मंत्रात नाही. हे सुज्ञांनी ओळखावे.
विषय
जगदीश्वर आणि राजा, यांची वाणीने अर्चना केली पाहिजे.
शब्दार्थ
(त्यम्) त्या (मेषम्) सुखाचे सिंचन करणाऱ्या तसेच (पुरुहूतम्) अनेक जण ज्याचे ावाहन करतात आणि (ऋग्मियम्) अर्चनीय व (वस्वः अर्णवम्) धनाचा जो सागर त्या (इन्द्रम्) परमेश्वराला /राजाला, हे लोकहो, तुम्ही आपल्या (बीर्भिः) वाणीद्वारे (मदत) हर्षित करा (परमेश्वर नित्य आनंदमय असल्यामुळे तो प्रसन्न वा हर्षित होत नाही. येथे अर्थ असा की त्याची स्तुती करून तुम्ही आनंदित व्हा. राजा मात्र प्रशंसेने प्रसन्न होतो. हे मनुष्यांनो, (यस्य) ज्या परमेश्वराच्या /राजाच्या (घावः) दीप्ती वा तेज (मानुषम्) मनुष्याचा (न विचरन्ति) कधी अपकार करीत नाही. (उलट उपकारच करतो) त्या (मंहिष्ठम्) अत्यंत महान आणि दाता (विप्रम्) मेधावी विद्वान परमेश्वराला /राजाला (भुजे) तुमचे पालन करण्यासाठी तुम्ही (अर्चत) पूजित वा अत्कृत करा.।। ७।। ‘वस्वः अर्णवम्’ या मंत्रात समुद्रवाचक अर्णव शब्दाचा लक्षणा शब्द शक्तीने ‘अर्णव’ म्हणजे ‘निधी’ हा लक्ष्यार्थ घेतला पाहिजे. प्रत्यक्ष निधी न म्हणता ‘अर्णव’ शब्दाचा प्रयोग केल्यामुळे त्यंत धनवान होणे हा व्यंग्दार्थही सूचित होत आहे. इन्द्रावर अर्णवाचा आरोप केल्यामुळे येथे रूपक अलंकार आहे.।। ७।।
भावार्थ
सुखाची वृष्टी करणारा, ऐश्वर्याचा सागर, सर्वांहून महान, सर्वांहून श्रेष्ठ दानी व मेघावी परमेश्वरच पूजनीय आहे. याच गुणांनी युक्त राजाचा देखील प्रजेने सत्कार केला पाहिजे व त्यास नेहमी प्रोत्साहन दिले पाहिजे.।। ७।। विवरणकार माधव याने या मंत्राच्या आधारावर एक ऐतिहासिक कथा रचली आहे. ‘‘अंगिरा नावाचा एक ऋषी होता. त्याने इंद्राला पुत्र रूपाने प्राप्त करण्यासाठी याचना करीत आत्म ध्यान केले. त्याच्या योग शक्तीमुळे ध्यानाचे सुफल म्हणून त्याला पुत्र झाला. नाव ठेवले सव्य. इंद्राने मेषाचे (एडको) रूप धारण केले व त्याने सव्याला पळवून नेले.’’ ही कथा सांगून माधव म्हणतो की ‘‘या मंत्रात हीच कथा सांगितली आहे. यामध्ये मेष रूपधारी इंद्राची स्तुती केली आहे.’’ पण ही घटना केवळ कल्पना प्रसूत आहे. मंत्राचा ऋषी अंगिरस सव्य आहे आणि मंत्रात इंद्राला मेष म्हटले आहे. हे पाहून वरील कथेची निर्मिती केली आहे.।। सायणाचार्य यांनी ‘मेष’ शब्द तुदादिगणाच्या स्पर्धात्मक ‘मिष्’ धातूपासून निर्मित आहे, असे मानून आधी ‘मेष’ शब्दाचा यौगिक अर्थ म्हमजे ‘शत्रूंशी स्पर्धा करणारा’ असा केला आहे व नंतर वैकल्पिक रूपाने एक इतिहासही दाखविला आहे. तो असा की कण्व ऋषीचा पुत्र मेधातिथी यज्ञ करीत होता. तेव्हा इंद्र मेषाचे (एडक्याचे) रूप धारण करून तिथे आला आणि तिथे ठेवलेला सोमरस त्याने पिऊन टाकला. तेव्हा ऋषीने इंद्राला ‘मेष’ म्हटले होते, म्हणून आताही इंद्राचे नाव मेष आहे. ही कथादेखील काल्पनिक आहे. वास्तवात अशी कोणतीही घटना घडलेली नसून या मंत्रात तसा इतिहास मुळीच नाही, हे सूज्ञांस सांगणे न लगे.।।
तमिल (1)
Word Meaning
நீ வீரமுடனாயும் பலர்களால் அழைக்கப்பட்டும் ஐசுவரிய சமுத்திரனான இந்திரனை துதிகளால் சந்தோஷஞ் செய்யவும். சூரியனுடைய ரசிமிகள் உபகாரமாயிருப்பதுபோல் மனிதர்களை விரும்புபவனின் செயல்கள் எங்கும் சஞ்சரிக்கின்றன. எல்லாவித போகத்திற்கும் அதிசய தாராளனான இந்திரனை உபாசிக்கவும்.
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