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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 378
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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घृ꣣त꣡व꣢ती꣣ भु꣡व꣢नानामभि꣣श्रि꣢यो꣣र्वी꣢ पृ꣣थ्वी꣡ म꣢धु꣣दु꣡घे꣢ सु꣣पे꣡श꣢सा । द्या꣡वा꣢पृथि꣣वी꣡ वरु꣢꣯णस्य꣣ ध꣡र्म꣢णा꣣ वि꣡ष्क꣢भिते अ꣣ज꣢रे꣣ भू꣡रि꣢रेतसा ॥३७८॥
स्वर सहित पद पाठघृ꣣त꣡व꣢ती꣣इ꣡ति꣢ । भु꣡व꣢꣯नानाम् । अ꣣भिश्रि꣡या꣢ । अ꣣भि । श्रि꣡या꣢꣯ । उ꣣र्वी꣡इति꣢ । पृ꣣थ्वी꣡इति꣢ । म꣣धुदु꣡घे꣢ । म꣣धु । दु꣢घे꣣इ꣡ति꣢ । सु꣣पे꣡श꣢सा । सु꣣ । पे꣡श꣢꣯सा । द्या꣡वा꣢꣯ । पृ꣣थिवी꣡इति꣢ । व꣡रु꣢꣯णस्य । ध꣡र्म꣢꣯णा । वि꣡ष्क꣢꣯भिते । वि । स्क꣣भितेइ꣡ति꣢ । अ꣣ज꣡रे꣢ । अ꣣ । ज꣢रे꣢꣯इ꣡ति꣢ । भू꣡रि꣢꣯रेतसा । भू꣡रि꣢꣯ । रेत꣣सा ॥३७८॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतवती भुवनानामभिश्रियोर्वी पृथ्वी मधुदुघे सुपेशसा । द्यावापृथिवी वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा ॥३७८॥
स्वर रहित पद पाठ
घृतवतीइति । भुवनानाम् । अभिश्रिया । अभि । श्रिया । उर्वीइति । पृथ्वीइति । मधुदुघे । मधु । दुघेइति । सुपेशसा । सु । पेशसा । द्यावा । पृथिवीइति । वरुणस्य । धर्मणा । विष्कभिते । वि । स्कभितेइति । अजरे । अ । जरेइति । भूरिरेतसा । भूरि । रेतसा ॥३७८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 378
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र के देवता द्यावापृथिवी हैं। इसमें कैसे द्युलोक और भूलोक किस प्रकार धृत हैं, यह वर्णन है।
पदार्थ
(घृतवती) दीप्तिवाले और जलवाले, (भुवनानाम्) सब लोकों के (अभिश्रिया) शोभा-जनक (उर्वी) बहुत-से पदार्थों से युक्त, (पृथ्वी) विस्तीर्ण, (मधुदुघे) मधुर आदि रसों से भरनेवाले, (सुपेशसा) उत्कृष्ट सुवर्ण वा उत्कृष्ट रूप-रंग से युक्त, (अजरे) अजीर्ण, अच्छिन्न (भूरिरेतसा) बहुत वीर्य व जल को उत्पन्न करनेवाले (द्यावापृथिवी) द्युलोक और भूमिलोक (वरुणस्य) श्रेष्ठ जगदीश्वर, सूर्य वा वायु के (धर्मणा) आकर्षण, धारण आदि गुण से (विष्कभिते) विशेष रूप से धृत हैं ॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिए कि भूलोकविद्या और खगोलविद्या को भली-भाँति जानकर सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदियों से तथा पृथिवी से यथायोग्य लाभ प्राप्त करें। वरुण परमेश्वर ही सूर्य, वायु आदि के द्वारा सब लोकों को आकर्षण, धारण आदि से स्थिर किये हुए है, इसलिए उसे भी कभी नहीं भूलना चाहिए ॥९॥
पदार्थ
(वरुणस्य) वरने योग्य एवं वरने वाले—इन्द्र परमात्मा के “इन्द्रो वै वरुणः स उ वै पयोभाजनः” [गो॰ २.१.२२] (धर्मणा) धारण बल से वर्तमान (द्यावापृथिवी विष्कभिते) विश्व का उपरि भाग प्रकाशात्मक और नीचे का भाग प्रकाश्यरूप दोनों शिल्परूप विरुद्धभाव से दृढ़ किए हैं जो कि (घृतवती) तेजधर्म वाले और रेतधर्म वाले हैं “तेजो वै घृतम्” [मै॰ १.६.८] “रेतो वै घृतम्” [काठ॰ २६.७] (भुवनानाम्-अभिश्रिया) समान भूतों जड़ जङ्गमों का आश्रय है “भुवनं विचष्टे भूतान्यभिविपश्यति” [निरु॰ १०.४६] (उर्वी पृथ्वी) महती फैली हुई हैं (मधुदुघे) जल और अन्न को दोहने वाली “मधु-उदकनाम” [निघं॰ १.१२] “अन्नं वै भद्रं मधु” [तै॰ १.३.३.६] (सुपेशसा) सुन्दररूप वाले सुनहरे और हरियावल आदि युक्त “पेशो हिरण्यनाम” [निघं॰ १.२] “पेशो रूपनाम” [निघं॰ ३.७] (अजरे) जब तक सृष्टि तब तक स्थिर रहने वाले (भूरिरेतसा) बहुत अग्नितत्त्व वाले और सोमधर्म वाले “रेतो वा अग्निः” [मै॰ ३.२.१] “रेतो वै सोमः” [श॰ १.९.२.९]।
भावार्थ
परमात्मा के धारणबल से विश्व का उपरिभाग द्युमण्डल और नीचे का भाग भूमण्डल कार्यरूप शिल्परूप प्रदेश परमात्मा ने जड़ जङ्गम के आश्रयभूत महान् प्रसारयुक्त आकाश में दृढ़ स्थापित किए हैं, जिनमें से ऊपर नीचे के क्रम से एक ऊपर का भाग द्युमण्डल तेजधर्म वाला, नीचे का रेतधर्म वाला क्रमशः जल और अन्न को दोहने वाले, द्युमण्डल जल को नीचे प्रेरित करता है, पृथिवी मण्डल अन्न—अदनीय वस्तु को प्रेरित करता है, सुन्दररूप वाले द्युमण्डल सुनहरी बनाता है भूमण्डल हरे आदि नाना रूपों में सजाता है, दोनों सृष्टि के पूर्ण समय तक रहने वाले तथा क्रमशः अत्यन्त अग्निस्वरूप और सोमस्वरूप हैं। अतः उस परमात्मा की उपासना करनी चाहिए जिसके ये दोनों उपयोगी कार्य या शिल्प हैं॥९॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अमृतान्न का अपने में भरण करने वाला)॥<br>
विषय
द्यावापृथिवी
पदार्थ
वेद में ('मूर्ध्ना द्यौः') = इस संकेत के अनुसार मस्तिष्क के लिए धुलोक और ('पृथिवी शरीरम्') = इस संकेत के अनुसार शरीर के लिए पृथिवी शब्द का प्रयोग उपलभ्य है। एवं (द्यावापृथिवी) = हमारा मस्तिष्क और शरीर कैसा हो? इसका विवेचन प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार है कि -
१. (धृतवती) = मस्तिष्क दीप्तिवाला हो। [घृ-दीप्ति] और शरीर सब प्रकार के मलों के [घृ-क्षरण] क्षरण=पार्थक्यवाला हो । मलों [ foreign matter] के अभाव में शरीर स्वस्थ
होगा और स्वस्थ शरीर में ही वस्तुतः स्वस्थ मस्तिष्क भी होगा।
२. (भुवनानाम्) = लोकों के (अभिश्रिया) = अश्रयणीय ये हों। हमारा ज्ञान व हमारी शक्ति लोकहित में विनियुक्त हो ।
३. (उर्वी) = हमारा दृष्टिकोण विशाल हो । ज्ञान की वृद्धि के अनुपात में ही तो यह दृष्टिकोण विशाल होगा । (पृथ्वी) = हमारा शरीर भी विस्तृत हो [ प्रथ = विस्तारे ] | ४. (मधुदुघे सुपेशसा) = हमारा मस्तिष्क मधु का दोहन व पूरण करनेवाला हो तो शरीर का गठन बड़ा सुन्दर हो । शरीर सु उत्तम पेशस् आकृतिवाला हो ।
इस प्रकार का मस्तिष्क व शरीर (विष्कभिते) = तभी बने रह सकते हैं जबकि हम अपने जीवनों को वरुणस्य धर्मणा-वरुण के धर्म से ले चलें। वरुण पाशी है, बाँधनेवाला है। यदि हम अपने जीवनों को व्रतों के बन्धन से बाँधते हैं तो हमारे ये शरीर व मस्तिष्क विष्कभिते-थमे रहते हैं। (अजरे) = ये जीर्ण नहीं हो जाते और भूरि (रेतसा) = बड़े शक्ति- सम्पन्न बने रहते हैं। शरीर को शक्ति-सम्पन्न बनाकर यह व्यक्ति 'भरद्वाज' कहलाता है और मस्तिष्क को उज्ज्वल करके यह ‘बार्हस्पत्यः' होता है। अव्रती जीवन भोगासक्त हो शरीर व मस्तिष्क दोनों को ही क्षीण कर लेता है।
भावार्थ
मेरा जीवन व्रतमय हो और मैं अन्त तक अक्षीण शक्ति व दीप्त मस्तिष्क बना रहूँ |
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( घृतवती ) = दीप्ति से युक्त, ( भुवनानाम् अभिश्रिया ) = समस्त भुवनों का आश्रयरूप ( उर्वीं ) = बहुत बड़ी, ( पृथ्वी ) = बहुत विस्तृत, ( मधुदुघे ) = समस्त प्राणियों के जीवनरूप रस का दोहन करनेहारी, ( सुपेशसा ) = सुन्दर मनोहारी रूप वाली, ( भूरिरेतसा ) = बहुत प्रकार के स्थावर जंगमों के बीजों को धारण करने हारी, ( द्यावापृथिवी ) = सूर्य और पृथिवी ( वरुणस्य धर्मणा ) = सर्वश्रेष्ठ, सबके वरण करने योग्य परमेश्वर के सामर्थ्य से ( विष्कभिते ) = अधर आकाश में बढ़ी है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
देवता - द्यावापृथिवी।
छन्दः - जगती।
स्वरः - निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ द्यावापृथिवी देवते। कीदृशे द्यावापृथिव्यौ कथं धृते स्त इत्याह।
पदार्थः
(घृतवती) घृतवत्यौ, दीप्तिमत्यौ उदकवत्यौ वा। घृ क्षरणदीप्त्योः। घृतमित्युदकनाम जिघर्तेः सिञ्चतिकर्मणः। निरु० ७।२४। (भुवनानाम्) सर्वेषां लोकानाम् (अभिश्रिया२) अभिश्रियौ अभितः सर्वतः श्रीः शोभा लक्ष्मीः याभ्यां ते, (ऊर्वी३) बहुपदार्थयुक्ते, (पृथ्वी) विस्तीर्णे, (मधुदुघे) मधुरादिरसैः प्रपूरिके, (सुपेशसा) शोभनं पेशः सुवर्णं रूपं वा ययोस्ते। पेशस् इति हिरण्यनाम रूपनाम च। निघं० १।२, ३।७। (अजरे) अजीर्णे, (भूरिरेतसा) भूरि बहु रेतो वीर्यम् उदकं वा याभ्यां ते। रेतः इत्युदकनाम। निघं० १।१२। (द्यावापृथिवी) द्युलोकपृथिवीलोकौ (वरुणस्य४) सर्वेभ्यो वरस्य श्रेष्ठस्य जगदीश्वरस्य, सूर्यस्य, वायोर्वा (धर्मणा) आकर्षणधारणादिगुणेन (विष्कभिते) विशेषेण धृते स्तः। घृतवती, उर्वी, पृथ्वी, द्यावापृथिवी इति सर्वत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। अभिश्रिया सुपेशसा, भूरिरेतसा इति सर्वत्र प्रथमाद्विवचनस्य आकारादेशः। वरुणशब्दो निरुक्ते मध्यमे उत्तमे च स्थाने व्याख्यातः, तेन वायुः सूर्यश्च गृह्यते। ‘वरुणो वृणोतीति सतः’ निरु० १०।४ ॥९॥५
भावार्थः
मनुष्यैर्भूगोलविद्यां खगोलविद्यां च सम्यग् विज्ञाय सूर्यचन्द्रनक्षत्रादिभ्यः पृथिव्याश्च यथायोग्यं लाभाः प्राप्तव्याः। वरुणः परमेश्वर एव सूर्यपवनादिद्वारा तान् सर्वान् लोकानाकर्षणधारणादिभिः स्थिरीकरोतीति सोऽपि कदाचिन्न विस्मर्तव्यः ॥९॥ ६
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।७०।१, य० ३४।४५। २. आश्रयणीये—इति वि०। अभिश्रयणीये—इति भ०। ३. उर्वी। उर्विति बहुनाम। अवयवबहुत्वाच्च बहुव्यपदेशः, बह्ववयवे—इति वि०। उर्वी विस्तीर्णे, पृथ्वी बहुकार्यरूपेण प्रथिते च—इति भ०। ४. (वरुणस्य) ‘सूर्यस्य वायोर्वा इति ऋ० ६।७०।१ भाष्ये, सर्वेभ्यो वरस्य श्रेष्ठस्य जगदीश्वरस्य’ इति च य० ३४।४५ भाष्ये—द०। ५. अत्र उर्वी, पृथ्वी, मधुदुघे, सुपेशसा, अजरे, भूरिरेतसा, धर्मणा, विष्कभिते एतेषां पदानामर्थाः ऋ० ६।७०।१ इत्यस्य, ‘अभिश्रिया’ इत्यस्य चार्थः य० ३४।४५ इत्यस्य दयानन्दभाष्याद् गृहीताः। ६. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये ‘भूमिसूर्यौ कीदृशौ स्तः’ इति विषये यजुर्भाष्ये च ईश्वरोपासनाविषये व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
Full of light and water, encompassing all things that be wide, spacious, pleasant, beautiful in their form, the Heaven and the Earth, by God’s decree, undecaying, rich in germs, stand apart .
Meaning
Radiant and fertile, beauties of the worlds, vast and abundant, extensive, replete with honey sweets, the sun and the earth are sustained by the laws of nature with the immanent will of Varuna, centre-hold of the universe. Undecaying they are, immensely creative and exuberant with the waters of life, beautiful, blissful. (Rg. 6-70-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वरुणस्य) વરણ કરવા યોગ્ય અને વરનાર (इन्द्र) પરમાત્માના (धर्मणा) બળથી રહેલા (द्यावापृथिवी विष्कभिते) વિશ્વની ઉપરનો ભાગ પ્રકાશાત્મક અને નીચેનો ભાગ પ્રકાશ્યરૂપ બન્ને, શિલ્પરૂપ વિરુદ્ધ ભાવથી દૃઢ કરેલ છે જે (घृतवती) તેજ ધર્મયુક્ત તથા રેતધર્મ વાળા છે. (भुवनानाम् अभिश्रिया) સમાન ભૂતો જડ જંગમનો આશ્રય છે. (ऊर्वी) મહાન પૃથિવી વિસ્તારવાળી છે. (मधुदुधे) જળ અને અન્નને દોહનારી (सुपेशसा) સુંદર રૂપવાળી સોનેરી હરિયાળી આદિ યુક્ત (अजरे) જ્યાં સુધી સૃષ્ટિ રહે ત્યાં સુધી સ્થિર રહેનાર તથા (भूरिरेतसा) અત્યંત અગ્નિ સ્વરૂપ અને સોમધર્મવાળા છે. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્માએ ધારણબલથી વિશ્વનો ઉપરનો ભાગ દ્યુમંડળ અને નીચેનો ભાગ ભૂમંડળ કાર્યરૂપ શિલ્પરૂપ પ્રદેશ, જડ અને જંગમના આશ્રયભૂત મહાન વિસ્તારયુક્ત આકાશમાં દૃઢ સ્થાપિત કરેલ છે, જેમાં ઉપર નીચેના ક્રમશઃ ઉપરનો દ્યુમંડળ ભાગ તેજ ધર્મ યુક્ત, નીચેનો રેતધર્મયુક્ત, ક્રમશઃ જળ અને અન્નને દોહનાર, ઘુમંડળ જળને નીચે પ્રેરિત કરે છે, પૃથિવીમંડળ અન્ન-અદનીય પદાર્થને પ્રેરિત કરે છે, સુંદર રૂપવાળું દ્યુમંડળ સોનેરી બનાવે છે. ભૂમંડળ હરિયાળી આદિ અનેક રૂપોથી સજાવે છે, તે બન્ને સૃષ્ટિના પૂર્ણ સમય સુધી રહેનારા તથા ક્રમશઃ અત્યંત અગ્નિસ્વરૂપ અને સોમસ્વરૂપ છે. તેથી તે પરમાત્માની ઉપાસના કરવી જોઈએ, જેના આ બન્ને ઉપયોગી કાર્ય અથવા શિલ્પ છે. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
بندے ماترم سب کی پالک دھرتی ماں
Lafzi Maana
تیج، اُن، دھن، دودھ، گھی کی بھنڈار، سب کی پالک چاروں طرف پھیلی ہوئی سب کے ڈھکنے اور رکھشا کرنے والی دھرتی، جو میٹھے رس دار اشیاء کو دیتی رہتیہ ے، اور ہرے ہرے کھیتوں، پہاڑوں، باغ، باغیچوں سے لہلہاتی ہوئی خوبصورت منوہر اور طاقت ور، جس نے دُنیا کے تمام بھار کو اپنے اُوپر لیا ہواہ ے اور یہ سبھی ارض و سماورون بھگوان کے دھرم رُوپ بل ے خلا میں بندھے ہوئے چل رہے ہیں۔
Tashree
سب کی پالک سب کی رکھشک آشرا سب کا دھرتی ماں، سُورج اور اِس کو بھی جس نے تھاما وہ ماؤں کی ماں۔
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी भूलोकविद्या व खगोलविद्या चांगल्याप्रकारे जाणून सूर्य, चंद्र, नक्षत्र इत्यादींकडून व पृथ्वीकडून यथायोग्य लाभ घ्यावा. वरुण परमेश्वराने सूर्य, वायू इत्यादीद्वारे सर्व लोकांचे (गोलांचे) आकर्षण धारण इत्यादींनी स्थिर केलेले आहे, त्यासाठी त्याला कधीही विसरता कामा नये ॥९॥
विषय
देवता द्यावापृथिवी /द्यूलोक व भूलोक कशा प्रकारे धृत वा आकाशात टिकलेले आहे, याचे वर्णन या मंत्रात केले आहे.
शब्दार्थ
(घृतवती) दीप्तिमान आणि जलपूर्ण व (भुवनानाम्) सर्व लोक - लोकांतराचे (भि क्षिया) शोभाकारी (उर्वी) विविध पदार्थांनी समृद्ध असलेले (द्युलोक व भूमी लोक सूर्याच्या, परमेश्वराच्या वा वायूच्या विशेष सामर्थ्यामुळे त्यांच्या त्यांच्या स्थानावर स्थित आहेत.) तसेच हे द्युलोक (आकाश व आकाशातील ग्रह- उपग्रह) (पृथ्वी) विस्तृत आहेत (मधुदुघे) मधुर आदी रसांनी परिपूर्ण असून (सुपेशसा) उत्कृष्ट स्वर्ण आदी धातूंनी वा उत्कृष्ट रूप-रंगांनी भरलेले आहे. (अजरे) अजीर्ण, अच्छिन्न व (भूरिरेतसा) अत्यंत शक्ती व बलदायक जलाने पूरित आहेत. असे हे (दावा पृथिवी) द्युलोक व पृथ्वी लोक (वरुणस्य) श्रेष्ठ जगदीश्वराच्या, सूर्याच्या वा वायूच्या (धर्मणा) आकर्षण, धारण आदी शक्तीद्वारे (विष्कम्भिते) विशेष रूपाने धृत आहेत. (पमरेश्वराने ग्रह - उपग्रहांना आकर्षण शक्तीद्वारे अवन्यशात कक्षेत स्थिर व परिभ्रमित केले आहे.) ।। ९।।
भावार्थ
मनुष्याच्या हिताचे आहे की त्यानी भूगोल विद्या आणि खगोल विद्येचा नीट अभ्यास करावा व सूर्य, चंद्र, नक्षत्रादीद्वारे तसेच पृथ्वीद्वारेही योग्य ते लाभ प्राप्त करावेत. वरुण परमेश्वरच सूर्य, वायू ादींच्या साह्याने व आकर्षण, धारण शक्तीद्वारे सर्व लोक ग्रहादीना धारण करती आहे. त्यामुळे त्याचा
तमिल (1)
Word Meaning
சுவர்கமும் சகமும், தேஜசுகளோடு புவனங்களின் எல்லாப்பொருள்களோடும் விஸ்தாரமாயும் வெகு காரிய விரிவாயும், இனிமை அளித்துக்கொண்டு இன்பமான வடிவமுடன் நித்தியமான வெகு ரேதசுகளோடு வருணனுடைய தர்மத்தால் தன்னந் தனிமையாய் (பரஸ்பரம் பிரிந்து நிலையாய்) நிற்கின்றன.
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