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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 409
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    31

    स्वा꣣दो꣢रि꣣त्था꣡ वि꣢षू꣣व꣢तो꣣ म꣡धोः꣢ पिबन्ति गौ꣣꣬र्यः꣢꣯ । या꣡ इन्द्रे꣢꣯ण स꣣या꣡व꣢री꣣र्वृ꣢ष्णा꣣ म꣡द꣢न्ति शो꣣भ꣢था꣣ व꣢स्वी꣣र꣡नु꣢ स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् ॥४०९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वा꣣दोः꣢ । इ꣣त्था꣢ । वि꣣षुव꣡तः꣢ । वि꣣ । सुव꣡तः꣢ । म꣡धोः꣢꣯ । पि꣣बन्ति । गौ꣡र्यः꣢꣯ । याः । इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । स꣣या꣡व꣢रीः । स꣣ । या꣡व꣢꣯रीः । वृ꣡ष्णा꣢꣯ । म꣡द꣢꣯न्ति । शो꣣भ꣡था꣢ । व꣡स्वीः꣢꣯ । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् । स्व꣣ । रा꣡ज्य꣢꣯म् ॥४०९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वादोरित्था विषूवतो मधोः पिबन्ति गौर्यः । या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभथा वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥४०९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वादोः । इत्था । विषुवतः । वि । सुवतः । मधोः । पिबन्ति । गौर्यः । याः । इन्द्रेण । सयावरीः । स । यावरीः । वृष्णा । मदन्ति । शोभथा । वस्वीः । अनु । स्वराज्यम् । स्व । राज्यम् ॥४०९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 409
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में आत्मिक और राष्ट्रिय स्वराज्य की आकांक्षा की गयी है।

    पदार्थ

    प्रथम—अध्यात्मपक्ष में। (गौर्यः) सात्त्विक चित्तवृत्तियाँ (इत्था) सचमुच (वि-सुवतः) ब्रह्मानन्द को विशेषरूप से अभिषुत करनेवाले जीवात्मा से (स्वादोः) स्वादु (मधोः) मधुर ब्रह्मानन्द-रस का (पिबन्ति) पान करती हैं, (वृष्णा) आनन्दवर्षक (इन्द्रेण) जीवात्मा के (सयावरीः) साथ गति करनेवाली (वस्वीः) सद्गुणों की निवासक (याः) जो चित्तवृत्तियाँ (स्वराज्यम् अनु) आत्मिक स्वराज्य के अनुकूल होकर (शोभथा) शुभ प्रकार से (मदन्ति) हृष्ट होती हैं ॥ द्वितीय—राष्ट्रपक्ष में। (गौर्यः) उद्यमवाली सेनाएँ (इत्था) सत्य ही (वि-सुवतः) विशेषरूप से वीरता की प्रेरणा देनेवाले सेनापति से (स्वादोः) स्वादु (मधोः) मधुर वीररस का (पिबन्ति) पान करती हैं, (वृष्णा) शस्त्रास्त्रवर्षक (इन्द्रेण) शत्रुविदारक सेनापति के (सयावरीः) साथ युद्ध में प्रयाण करनेवाली (वस्वीः) अपनी शूरता से राष्ट्र की निवासक (याः) जो सेनाएँ (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्य स्थापित करके (शोभथा) शोभा के साथ (मदन्ति) विजयोल्लास मनाती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे जीवात्माओं को परमात्मा के साथ मेल करके ब्रह्मानन्द को अभिषुत कर, मन, प्राण, इन्द्रिय आदियों के साथ स्वराज्य की अर्चना करनी चाहिए, वैसे ही सेनाओं को शूरता प्राप्त कर सेनापति के साथ सहयोग करके विजय प्राप्त कर स्वराज्य को बढ़ाना चाहिए ॥१॥

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    पदार्थ

    (इत्था) यह सत्य है “इत्था सत्यनाम” [निघं॰ ३.१०] (गौर्यः) हमारी वाणियाँ (स्वादोः) स्वाद वाले—(विषूवतः) विशेष सवन निष्पादन वाले—(मधोः) मधुर ओ३म् नाम का (पिबन्ति) जब पान करती हैं मानो (वृष्णा-इद्रेण) सुखवर्षक परमात्मा के साथ (याः सयावरीः) जो समानगति वाली हो (मन्दन्ति) हर्ष को प्राप्त होती हैं (स्वराज्यम्-अनु) स्वराज्य—आत्मा के स्वराज्य के अनुरूप (वस्वीः) वसने वाली हुई (शोभथाः) शोभा को प्राप्त होती हैं।

    भावार्थ

    यह सत्य है वाणियाँ जब निरन्तर स्वाद वाले विशेष निष्पन्न किए मधुर ओ३म जप का पान करती हैं तो उस सुखवर्षक परमात्मा के साथ समानगति वाली हो हर्षित होती हैं और तब आत्मा के स्वराज्य के अनुसार वसने वाली शोभा युक्त होती हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गतिमान्)॥ छन्दः—पंक्तिः॥<br>

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    विषय

    स्वराज्य के बाद

    पदार्थ

    (वेदवाणी का आस्वादन:) = वेद में गौरी शब्द 'वाक्' का पर्यायवाची है। वाणी अन्य इन्द्रियों की भी प्रतिनिधि है। अग्नि ही तो वाणी का रूप धारण करके मुख व द्वार है । यह उन सबका 'अग्रणी: ' है। एवं वाणी अन्य सब इन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है। यहाँ 'गौर्य' इस बहुवचन का प्रयोग भी यह स्पष्ट करता है कि 'गौर्य: ' शब्द से सब इन्द्रियों को ही लेना है। इन इन्द्रियों के लिएए कहते हैं कि (गौर्य:) =  मेरी सब इन्द्रियाँ शुद्ध बनी हुई [गौर - धवल, शुभ्र] (स्वादीः इत्था) = सचमुच आनन्द देनेवाले (विषुवत:) = सर्वव्यापक प्रभु के (मधो:) = मधुरूप अत्यन्त सारभूत वेदज्ञान का (पिबन्ति) = पान करती है। 'वेदज्ञान रसवाला है' यह अनुभव प्रत्येक स्वाध्यायशील व्यक्ति का होता है। प्रारम्भ में अगम, दुर्बोध, नीरस प्रतीत होनेवाले मन्त्र जरा-सा प्रवेश होने पर सरस प्रतीत होने लगते हैं। अन्त में उनका आनन्द शब्द से वर्णनीय ही नहीं रहता। उनका एक - एक शब्द महत्त्वपूर्ण प्रतीत होने लगता है - उनके शब्दों का क्रम चामत्कारिक दिखता है। ये वेदवाणियाँ मधुरूप हैं- अत्यन्त सारभूत हैं। इनका एक-एक शब्द ज्ञान का भण्डार हैं। इनमें सम्पूर्ण ज्ञान बीजरूप से निहित है। इसलिएए हम अपनी इन्द्रियों से सदा इसका पान करें।

    (कैसी इन्द्रियाँ) - परन्तु कौन सी इन्द्रियाँ इसका पान करती हैं ! १. (या:) = जोकि (इन्द्रेण) = आत्मा के साथ (सयावरी:) = मिलकर चलनेवाली हैं। जब इन्द्रियाँ आत्मा से दूर प्राकृतिक भोग्य पदार्थों में विचरती हैं, तब उनके लिए वेदवाणियाँ रुचिकर नहीं होती। २. (वृष्णाः) = जो शक्तिशाली हैं। आत्मा के साथ विचरने के कारण ही ये भोगमार्ग पर न जाने का परिणाम है कि ये शक्तिशाली बनी हुई हैं। ३. (मदन्ति) = जो हर्षित होती हैं। एक - एक इन्द्रिय जब शक्तिशाली होती है तब जीवन में एक उल्लास होता है। ४. (शोभथा) = उस समय ये इन्द्रियाँ शक्ति-उल्लास व शक्तिजन्य उत्तम कर्मों से शोभावाली होती हैं। ये चमकती हैं। इसी दिन इनका 'देव' नाम सार्थक होता है, ५. (वस्वीः) = ये उत्तम निवासवाली होती हैं, अर्थात् इन्द्रियों के आत्मा के साथ विचरण करने, शक्तिशाली, उल्लासमय व शोभायुक्त होने पर ही जीव का शरीर में उत्तम वास होता है।

    (कब) - अब प्रश्न यह है कि 'इन्द्रियाँ ऐसी बनेंगी कब'? मन्त्र में उत्तर देते हैं कि (अनुस्व- राज्यम्) = स्वराज्य के बाद । जब मनुष्य अपना राजशासन कर पाएगा, तभी उसकी इन्द्रियाँ उल्लिखित प्रकार की बन पाएँगी। आत्मनियन्त्रण के बिना इन्द्रियों का उत्तम बनना

    सम्भव नहीं। (‘सर्वमात्मावशं सुखम्') आत्मा के वश होने पर ही सब ‘सु-ख' - इन्द्रियों की उत्तमता होती है। स्वाधीनता में ही आनन्द है। स्वराज्य = आत्मसंयम [Self-control] के बाद इस उल्लास व हर्ष का अनुभव करनेवाला 'सम्मद' [उत्तम हर्षवाला] इस मन्त्र का ऋषि है। सब विषयों को त्यागकर [रह त्यागे] ही यह ऐसा बना है, अतः राहू- त्यागनेवाला है। त्यागनेवालों में भी प्रथम स्थान में गणनीय होने से 'राहूगण' है।

    भावार्थ

    आत्मसंयम से मैं इन्द्रियों को आत्मा के साथ विचरनेवाला बनाकर इससे वेदवाणियों का रस लेनेवाला बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = सूर्य और राजा के दृष्टान्त से आत्मा और ईश्वर का वर्णन करते हैं । ( गौर्यः ) = शुभ्र किरणों या गमनशील सेनाओं के समान इन्द्रियां या चित्तवृत्तियां, और प्रजाएं ( विषूवतः ) = सर्वव्यापक, ( मधो: ) = सब मनोहर गुणों से युक्त, मधुर, ( स्वादोः ) = तृप्तिकारक, परमानन्द रस का ( इत्था ) = इस प्रकार से ( पिबन्ति ) = पान करती हैं कि ( या:) = जो वे ( वृष्णा ) = सब परम आनन्द बरसानेहोरे इस इन्द्र के साथ ( सयावरी: ) = गमन करती हुई ( मदन्ति ) = आनन्द लाभ करती हैं और ( वस्वी: ) = आवास करने हारी वे ( स्वराज्यम् ) = अपने ही राष्ट्र के समान देह या इस संसार रूप ईश्वर के कुटुम्ब की ( अनु शोभथा: ) = शोभा बढ़ाती हैं । ( मधु की व्याख्या देखो बृहदा० २ । ५ )
     

    टिप्पणी

    ४०९-'शोभसे' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - गोतम:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - पङ्क्तिश्छंद:।

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथात्मिकं राष्ट्रियं च स्वराज्यमाकाङ्क्षते।

    पदार्थः

    प्रथमः—अध्यात्मपक्षे। (गौर्यः) सात्त्विकचित्तवृत्तयः (इत्था) सत्यमेव (वि-सुवतः२) विशेषेण ब्रह्मानन्दम् अभिषुवतो जीवात्मनः सकाशात्। अत्र विपूर्वात् सुनोतेः शतरि सस्य षत्वे उकारस्य दीर्घश्छान्दसः। (स्वादोः) उत्कृष्टस्वादवतः (मधोः) मधुरस्य ब्रह्मानन्दरसस्य (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति। स्वादोः मधोः इत्यत्र द्वीतायार्थे षष्ठी। (वृष्णा) आनन्दवर्षकेण (इन्द्रेण) जीवात्मना (सयावरीः३) सयावर्यः, सहगमनाः (वस्वीः) निवासयित्र्यः (याः) सात्त्विकचित्तवृत्तयः (स्वराज्यम् अनु) आत्मिकस्वराज्यानुकूलाः सत्यः (शोभथा४) शोभितप्रकारेण (मदन्ति) हृष्यन्ति। वस्वीः, सयावरीः इत्यत्र जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। ‘शोभथा’ इत्यत्र बाहुलकात् प्रकारार्थे थाल् प्रत्यये लित्स्वरः ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपक्षे। (गौर्यः५) उद्यमवत्यः सेनाः। गुरन्ते उद्यच्छन्तीति गौर्यः। गुरी उद्यमने तुदादिः। (इत्था) सत्यम् (वि-सुवतः) विशेषेण वीरतां प्रेरयतः सेनापतेः सकाशात् (स्वादोः) उत्कृष्टस्वादवतः (मधोः) मधुरस्य वीररसस्य (पिबन्ति) पानं कुर्वन्ति, (वृष्णा) शस्त्रास्त्रवर्षकेण (इन्द्रेण) शत्रुविदारकेण सेनापतिना (सयावरीः) युद्धे सह प्रयाणवत्यः, (वस्वीः) निजशौर्येण राष्ट्रस्य निवासिकाः (याः) सेनाः (स्वराज्यम् अनु) स्वराज्यम् अनुष्ठाप्य (शोभथा) शोभितप्रकारेण (मदन्ति) विजयेन हृष्यन्ति ॥१॥६ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा जीवात्मभिः परमात्मना सह योगं संस्थाप्य ब्रह्मानन्दं सुत्वा मनःप्राणेन्द्रियादिभिः सह स्वराज्यमर्चनीयम्, तथैव सेनाभिः शौर्यमर्जयित्वा शूरवीरेण सेनापतिना सहयोगं विधाय विजयं लब्ध्वा स्वराज्यं वर्धनीयम् ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।८४।१०, अथ० २०।१०९।१ उभयत्र ‘मधोः’, ‘शोभथा’ अनयोः स्थाने क्रमेण ‘मध्वः’, ‘शोभसे’ इति पाठः। साम० १००५। २. विषूवतः। प्रायशो भाष्यकृद्भिः व्याप्तार्थाद् विषु प्रातिपदिकाद् मतुबन्तमिदं व्याख्यातम्। ‘विषुशब्दः विष्लृ व्याप्तौ इत्यस्य व्याप्तिवचनः। व्याप्तिमतः’—इत वि०। व्याप्तिमतः—इति भ०। सर्वेषु यज्ञेषु व्याप्तियुक्तस्य—इति सा०। पदपाठे ‘वि-सुवतः’ इति विभज्य दर्शनाद् अस्माभिः पदपाठमनुसृत्य व्याख्यातम्। ऋग्वेदीयपदपाठे तु ‘विषुऽवतः’ इत्येव पठितम्, अतस्तत्र तद्व्याख्यानमुचितं भवितुमर्हति। ३. सयावरीः सहगन्त्र्यः। आतो मनिन् क्वनिब्वनिपश्च (पा० ३।२।७४) इति वनिप्। ‘वनो र च’ (पा० ४।१।७) इति स्त्रीप्रत्ययो रेफश्च नकारस्य—इति भ०। ४. शोभथा शोभनार्थम्—इति वि०। शोभथाः पुरुषव्यत्ययः, शोभन्ते—इति भ०, तत्तु चिन्त्यं पदकारविरोधात् स्वरविरोधाच्च। ५. शुभ्राः किरणा इव उद्यमयुक्ताः सेनाः—इति ऋ० १।८४।१० भाष्ये द०। ६. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां ‘नहि स्वसेनापतिभिर्वीरसेनाभिश्च विना स्वराज्यस्य शोभारक्षणे भवितुं शक्ये’ इति विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The organs of senses enjoy the all-pervading, efficacious, satisfying, supreme delight. They thus rejoice in the company of the strong soul and add grandeur to the body with their inherent lustre.

    Translator Comment

    .

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    Meaning

    The golden and brilliant people and forces of the land drink of the delicious, exciting and universal honey sweets of national pride and prestige and joyously celebrate their achievements in the company of generous and valorous Indra for the advancement of the honour and glory of the republic in obedience to the demands and discipline of the freedom and self-government of the nation. (Rg. 1-84-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इत्था) એ સત્ય છે (गौर्यः) અમારી વાણીઓ (स्वादोः) સ્વાદવાળા, (विषूवतः) વિશેષ સવન નિષ્પાદન કરનાર, (मधोः) મધુર (ओरृम्) નામનું જ્યારે (पिबन्ति) પાન કરે છે, ત્યારે જાણે કે (वृष्णा इन्द्रेण) સુખની વર્ષા કરનાર પરમાત્માની સાથે (याः सयावरीः) જે સમાન ગતિવાળી બની (मदन्ति) હર્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. (स्वराज्यम् अनु) સ્વરાજ્ય = આત્માનાં સ્વરાજ્યને અનુરૂપ (वस्वीः) વસનારી બનેલી (शोभथाः) શોભાને પ્રાપ્ત થાય છે-શોભે છે. (૧)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : એ સત્ય છે કે, વાણીઓ જ્યારે નિરંતર સ્વાદિષ્ટ વિશેષ નિષ્પન્ન કરેલ મધુર ઓમ્ નો જપ કરે છે, ત્યારે તે સુખવર્ષક પરમાત્માની સાથે સમાનગતિ વાળી બનીને હર્ષિત થાય છે અને ત્યારે આત્માના સ્વરાજ્ય અનુસાર વસનારી શોભાયુક્ત બને છે-શોભે છે. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    انسانی قالب میں آتما کا سُوراجیہ

    Lafzi Maana

    شریر (جسم) اِندریوں (حواسِ خمسہ) اور من پر جب آتما کا سوراجیہ ہو جاتا ہے تو سبھی چِت ورتیاں شانتی نرملتا اور پرکاش کا انوبھو کر آتما کے وِشی بھوت (ماتحت) ہو جاتی ہیں، تب پرمیشور کے اوم نام کے جاپ میں آنند لیتا ہوا آتما رام شوبھا کو پراپت ہوتا ہے۔

    Tashree

    اِیش کی بھگتی سے جمتا آتما کا راجیہ جب، اِندریاں من چِت کی وِرتیاں شانت ہو جاتی ہیں تب۔

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे जीवात्म्यांनी परमात्म्याबरोबर मिळून ब्रह्मानंद सिंचित करून मन, प्राण, इंद्रिये इत्यादींबरोबर स्वराज्याची अर्चना केली पाहिजे, तसेच सेनेने शूरता प्राप्त करून सेनापतीबरोबर सहयोग करून विजय प्राप्त करून स्वराज्य वाढविले पाहिजे ॥१॥

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இப்படிப் பொழியப்பட்ட இனிமையான சோமனுடைய ரசத்தை (வெண்மையான பசுக்கள்) பருகுகின்றன. தங்கள் (சுவராஜ்யத்தில்) திடமுள்ளவர்களாய் வர்ஷிக்கும் இந்திரனுடன் சென்று சந்தோஷமுடனாகின்றன.

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