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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 440
    ऋषिः - त्रसदस्युः देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    23

    अ꣡न꣢वस्ते꣣ र꣢थ꣣म꣡श्वा꣢य तक्षु꣣स्त्व꣢ष्टा꣣ व꣡ज्रं꣢ पुरुहूत द्यु꣣म꣡न्त꣢म् ॥४४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡न꣢꣯वः । ते꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । अ꣡श्वा꣢꣯य । त꣣क्षुः । त्व꣡ष्टा꣢꣯ । व꣡ज्र꣢꣯म् । पु꣣रुहूत । पुरु । हूत । द्युम꣡न्त꣢म् ॥४४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनवस्ते रथमश्वाय तक्षुस्त्वष्टा वज्रं पुरुहूत द्युमन्तम् ॥४४०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनवः । ते । रथम् । अश्वाय । तक्षुः । त्वष्टा । वज्रम् । पुरुहूत । पुरु । हूत । द्युमन्तम् ॥४४०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 440
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र के रथ और वज्र के रचे जाने का विषय है।

    पदार्थ

    प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (पुरुहूत) बहुतों से गुणकीर्तन किये गये जीवात्मन् ! (ते) तेरे लिए (अनवः) प्राण (अश्वाय) शीघ्रगमनार्थ (रथम्) शरीररूप रथ को (तक्षुः) रचते हैं, (त्वष्टा) जगत् का शिल्पी परमेश्वर (द्युमन्तम्) तेजोमय (वज्रम्) वाणी रूप वज्र को रचता है। उस यशोमय शरीर-रथ से जीवनयात्रा करता हुआ तू वाणीरूप वज्र से पाखण्डियों का खण्डन कर ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (पुरुहूत) बहुत-से प्रजाजनों द्वारा सत्कृत अखण्ड ऐश्वर्यवाले राजन् ! (ते) आपके लिए (अनवः) शिल्पी मनुष्य (अश्वाय) शीघ्रगमनार्थ (रथम्) यात्रा के तथा युद्ध के साधनभूत भूमि, जल और अन्तरिक्ष में चलनेवाले यान-समूह को (तक्षुः) रचें, (त्वष्टा) शस्त्रास्त्रों का निर्माता शिल्पी (द्युमन्तम्) चमचमाते हुए (वज्रम्) शस्त्रास्त्र-समूह को रचे। इसप्रकार रथ, शस्त्रास्त्र आदि युद्धसाधनों से युक्त होकर आप शत्रुओं को पराजित कर प्रजा को सुखी करें ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे जीवात्मा शरीर-रथ पर स्थित होकर वाणीरूप वज्र से कुतर्कों को खण्डित करता हुआ सत्यपक्ष की रक्षा करता है, वैसे ही राजा भूयान, जलयान और अन्तरिक्षयान में बैठकर वज्र से शत्रुओं का उच्छेद कर राष्ट्र की रक्षा करे ॥४॥

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    पदार्थ

    (पुरुहूत) हे बहुत आमन्त्रण करने योग्य परमात्मन्! (अनवः) जीवन—दीर्घ जीवन धारण करने वाले उपासक जन “अनवः-मनुष्यनाम” [निघं॰ २.३] (ते-अश्वाय) तुझ व्यापनशील एवं प्रापणशील परमात्मा के लिये (रथं तक्षुः) रमणस्थान हृदय को श्रद्धा से सम्पन्न करते हैं तथा (त्वष्टा) शीघ्र प्राप्त होने वाले जीवन्मुक्त ने “त्वष्टा तूर्णमश्नुत इति नैरुक्ताः” [निरु॰ ८.१४] (द्युमन्तं वज्रम्) ‘ततक्ष’ तुझे अपना प्रकाशमान रथ—रमणस्थान बना लिया “वज्रो वै रथः” [तै॰ सं॰ ५.४.११.२]॥

    भावार्थ

    हे बहुत आमन्त्रणीय परमात्मन्! आश्चर्य है दीर्घ जीवन धारण करने वाले उपासक जन तुझ व्यापनशील एवं प्रापणशील के लिए अपने हृदय को रमण स्थान श्रद्धा से सम्पन्न करते हैं और शीघ्र प्राप्तिशील जीवन्मुक्त तुझे अपना प्रकाशमान रथ—रमण स्थान बनाया करता है॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—त्रसदस्युः (निज उद्वेग—अशान्ति का क्षीण करने वाला उपासक)॥ देवताः—इन्द्र (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    सफल जीवन

    पदार्थ

    (अनव:) = मनुष्य (ते) = वे हैं जो (रथम्) = इस शरीररूपरथ को (अश्वाय) = [अश् व्याप्तौ] उस सर्वव्यापक परमात्मा के लिए (तक्षुः) = बनाते हैं। वस्तुतः मनुष्य वह है जो कि प्रेयमार्ग की चमक से न उलझकर श्रेयमार्ग का अवलम्बन करता है। प्रकृति के भोगों में न फँसकर जिसने प्रभु-प्राप्ति के मार्ग का अवलम्बन किया वही मनुष्य कहलाने के योग्य है। संसार के भोगों में उलझकर जीवन यापन कर देना पाशविक जीवन है। मनुष्य प्रभु की ओर चलता है - पशु प्रकृति की ओर।

    (त्वष्टा) = निर्माता वह है जो (वज्रम्) = अपनी क्रिया को (द्युमन्तम्) = प्रकाशमय [ततक्ष] बनाता है। वस्तुतः जिस क्रिया में प्रकाश है, अर्थात् जो क्रिया विवेकपूर्वक की जाएगी वह सदा निर्माण करनेवाली होगी। हे (पूरुहूत) = पूरण करनेवाले प्रभो! मैं तो आपका निमित्तमात्र हूँ। निर्माण में गौरव है- गौरव का अनुभव करना ही चाहिए परन्तु यही गर्व में परिणत होकर हमारी विजय को पराजय में कर देता है।

    भावार्थ

    हम प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर चलकर मानवजीवन को सफल करें। प्रकाशमय क्रियावाले होकर कुछ-न-कुछ निर्माण करनेवाले हों।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = जिस प्रकार ( अनव:) = प्राणधारण करनेहारे मनुष्य ( अश्वाय ) = समस्त देश में गमन करने के निमित्त ( रथं ) = रमण साधन या गमन साधन या वेगवान् यान=स्थ को ( तक्षुः ) = बनाते हैं। उसी प्रकार ( अनव:) = विद्वान् जन ( अश्वाय ) = भोक्ता जीव के लिये ( रथं तक्षु: ) = रसस्वरूप परमेश्वर की साधना करते हैं । ( त्वष्टा ) = सबको रचने हारा शिल्पी विश्वविधाता ( पुरुहूतं ) = सबसे स्तुति किया गया, ( द्युमन्तं ) = दीप्तिमान् ( वज्रं ) = सर्व विघ्ननिवारक, तमोनिवारक सूर्य रूप वज्र को बनाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः -नोपलभ्यते । 

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - पङ्क्तिः।

    स्वरः - पञ्चमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रस्य रथवज्रतक्षणविषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—जीवात्मपरः। हे (पुरुहूत) बहुभिः कीर्तितगुण जीवात्मन् ! (ते) तुभ्यम् (अनवः) प्राणाः। अन्यते प्राप्यते यैः साधनभूतैः ते अनवः प्राणाः। अन प्राणने, बाहुलकाद् औणादिकः उ प्रत्ययः। (अश्वाय२) आशुगमनाय (रथम्) देहरूपं यानम् (तक्षुः) तक्षन्ति, रचयन्ति। तक्षू तनूकरणे धातोर्लडर्थे लिट्। ततक्षुः इति प्राप्ते द्वित्वाभावश्छान्दसः। (त्वष्टा) जगच्छिल्पी परमेश्वरः (द्युमन्तम्) तेजोमयम् (वज्रम्) वाग्रूपम् आयुधम् तक्षति। वाग् घि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४१। तेन यशोमयेन देहरथेन जीवनयात्रां निर्वहंस्त्वं वाग्वज्रेण पाखण्डिनो विखण्डय ॥४॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (पुरुहूत) बहुभिः प्रजाजनैः सत्कृत इन्द्र अखण्डैश्वर्य राजन् ! (ते) तुभ्यम् (अनवः) शिल्पिजनाः। अनवः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (अश्वाय) सद्योगमनाय (रथम्) यात्रासाधनं, युद्धसाधनं च भूजलान्तरिक्षयानसमूहम् (तक्षुः) रचयन्तु। लोडर्थे लिट्। (त्वष्टा) शस्त्रास्त्रनिर्माता शिल्पी (द्युमन्तम्) दीप्तिमन्तम् (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहं तक्षतु रचयतु ॥ एवं रथशस्त्रास्त्रादिभिर्युद्धसाधनैर्युक्तस्त्वं शत्रून् पराजित्य प्रजां सुखय ॥४॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥४॥

    भावार्थः

    जीवात्मा यथा शरीररथमधिष्ठाय वाग्वज्रेण कुतर्कान् खण्डयन् सत्यपक्षं रक्षति, तथैव राजा भूजलान्तरिक्षयानान्यधिष्ठाय वज्रेण शत्रूनुच्छिद्य राष्ट्रं रक्षतु ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. एतं चतुर्थं मन्त्रं पूर्वार्द्धं विधाय तृतीयं मन्त्रं चोत्तरार्धं कृत्वा ऋग्वेदस्य ५।३१।४ मन्त्रो निष्पद्यते, यत्र ‘तक्षुस्’ इत्यस्य स्थाने ‘तक्षन्’ इति पाठः। अवस्युरात्रेयः ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः। २. अश्वाय वाहनाय—इति सा०। ३. हे पुरुहूत बहुभिः स्तुत राजन् ! (अनवः) मनुष्याः (ते) तव (अश्वाय) सद्योगमनाय (रथम् तक्षन्) रचयन्तु, (त्वष्टा) सर्वतो विद्यया प्रदीप्तः (द्युमन्तम् वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहं निपातयति इति ऋ० ५।३१।४ भाष्ये—द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Men, for speedy attainment of salvation, use Him as a vehicle. 0 God, invoked by many, a man of highly illumined knowledge. Uses Thee as a lustrous armour!

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    Meaning

    Indra, lord of protection, giver of joy invoked and worshipped by all, wise men create modes of divine knowledge and pious action for the attainment of your presence and glory, and Tvashta, maker and destroyer of suffering, makes and provides the blazing thunderbolt to dispel the darkness of evil and suffering. (Rg. 5-31-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (पुरुहूत) અત્યંત આમંત્રણ કરવા યોગ્ય પરમાત્મન્ ! (अनवः) જીવન-દીર્ઘ જીવન ધારણ કરનાર ઉપાસક જન (ते अश्वाय) તું વ્યાપનશીલ અને પ્રાપણશીલ પરમાત્માને માટે (रथं तक्षु) રમણ સ્થાન હૃદયને શ્રદ્ધાથી સંપન્ન કરીએ છીએ તથા (त्वष्टा) શીઘ્ર પ્રાપ્ત થનાર જીવનમુક્ત (द्युमन्तं वज्रम्) તને પોતાનો પ્રકાશમાન રથ-રમણસ્થાન બનાવે છે. (૪)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે અત્યંત આમંત્રણીય પરમાત્મન્ ! આશ્ચર્ય છે કે, દીર્ઘજીવન ધારણ કરનાર ઉપાસક જન તું વ્યાપનશીલ અને પ્રાપણશીલને માટે પોતાના હૃદયને રમણસ્થાન શ્રદ્ધાથી સંપન્ન કરે છે; અને શીઘ્ર પ્રાપ્તિશીલ જીવનમુક્ત તને પોતાનો પ્રકાશમાન રથ - રમણસ્થાન બનાવ્યા કરે છે. (૪)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    مُکتی دھام تک لے چلو!

    Lafzi Maana

    بہتوں سے پکارے جانے والے پرمیشور دیو! لمبی عمر پانے والے عابد لوگ آپکی عظمت کو جان کر اپنے شریروں کی گاڑی کو ویریہ رُوپی بجر سے خُوبصورت اور طاقت ور بنا کر سجا لیتے ہیں، تاکہ آپ اِن شریروں میں بیٹھے ہوئے آتما کو مُکتی کی منزل تک پہنچا سکیں!

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा जीवात्मा शरीर-रथावर स्थित होऊन वाणीरूपी वज्राने कुतर्कांना खंडित करून सत्यपक्षाचे रक्षण करतो, तसेच राजाने भूयान, जलयान, अंतरिक्षयानात बसून वज्राने शत्रूंचा उच्छेद करून राष्ट्राचे रक्षण करावे ॥४॥

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    विषय

    इंद्राच्या रथाचे आणि वज्राचे निर्माण - याविषयी

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (जीवात्मापर) हे (पुरुहूत) अनेकांनाद्वारे ज्याचे गुण संकीर्तन केले जात आहे. अशा हे जीवात्मा, (ते) तुझ्यासाठी (अनवः) प्राण (अश्वाय) शीघ्रमयनाकरिता (रथम्) शरीररूप रथ (तक्षुः) तयार करतात (त्वष्टा) जगाचा निर्माता तो शिल्पी परमेश्वर (घुमन्तम्) तेजोमय (वज्रम्) वाणीरू वज्राची निर्मिती करतो. त्या यशोमय शरीर- रथावर आरूढ होऊन जीवन गायन करीत तू वाणीरूप वज्राने पाखंडीजनांचे खंड कर.।। द्वितीय अर्थ (राजापर) - हे (पुरुहूत) अनेक प्रजाजनांद्वारे सत्कार स्वीकारणाऱ्या असीम ऐश्वर्यवान राजा, (ते) तुमच्यासाठी (अनवः) शिल्पीजनांनी (कारागीर वा वाहन उत्पादकानी) (अश्वाय) लवकर प्रवास करण्यासाठी तसेच (रथम्) यात्रेसाठी व युद्धासठी उपयुक्त अशा भूमी, जल व आकाशात चालणाऱ्या वाहनांची (तक्षुः) निर्मिती करावी. (त्वष्टा) शस्त्रास्त्र - निर्माता शिल्पीजनांनी (द्युमन्तम्) चमचमणाऱ्या (वज्रम्) शस्त्रास्त्र समूहांची रचना करावी. अशा प्रकारे रथ, शस्त्रास्त्र आदी युद्योपयोगी साधनांचे उत्पादन निर्माण करून हे राजा, तुम्ही शत्रूंना पराजित करा व प्रजेला सुख द्या.।। ४।।

    भावार्थ

    जसे जीवात्मा शरीर रथावर स्वार होऊन वाणीरूप वज्राने कुतर्क वाद विवादांचे खंडन करतो व सत्य - पत्राचे रक्षण करतो. तद्वत राजाने भूयाम, जलयान आणि अंतरिक्ष यानात बसून वज्राने शत्रूंचा उच्छेद करावा. अशा प्रकारे राष्ट्राची रक्षा करावी.।। ४।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे.।। ४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அனவர்கள் - மனிதர்கள் -உன்னுடைய குதிரைக்கு ரதத்தைச் செய்வார்கள். அதிகம் அழைக்கப்படுபவனே ! துவஷ்டா விசுவகர்மன்-உன் வச்சிராயுதத்தை ஒளியுடனாக்குகிறான்.

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