Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 447
    ऋषिः - पृषध्रः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    21

    अ꣡चे꣢त्य꣣ग्नि꣡श्चिकि꣢꣯तिर्हव्य꣣वाड्न꣢꣫ सु꣣म꣡द्र꣢थः ॥४४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡चे꣢꣯ति । अ꣣ग्निः꣢ । चि꣡कि꣢꣯तिः । ह꣣व्यवा꣡ट् । ह꣣व्य । वा꣢ट् । न । सु꣣म꣡द्र꣢थः । सु꣣म꣢त् । र꣣थः ॥४४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अचेत्यग्निश्चिकितिर्हव्यवाड्न सुमद्रथः ॥४४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अचेति । अग्निः । चिकितिः । हव्यवाट् । हव्य । वाट् । न । सुमद्रथः । सुमत् । रथः ॥४४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 447
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आदि की तीन ऋचाएँ अग्नि देवता की हैं। प्रथम ऋचा में अग्नि नाम से परमात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अग्निः) अग्रनेता परमेश्वर (अचेति) हमसे जान लिया या अनुभव कर लिया गया है, जो (चिकितिः) सर्वज्ञ, तथा (सुमद्रथः) श्रेष्ठ विमानादि रथों में प्रयुक्त किये जानेवाले (हव्यवाड् न) विद्युत् रूप अग्नि के समान (सुमद्रथः) श्रेष्ठ शरीर-रथों को या वेगवान् सूर्य, चन्द्र, भूगोल आदियों को रचनेवाला है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे परमात्मा का सबको साक्षात्कार करना चाहिए, वैसे ही विद्युत् रूप अग्नि को भी जानना चाहिए और उसे जानकर समाचार भेजने, विमानादि यानों को चलाने आदि के कार्य सिद्ध करने चाहिएँ ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (चिकितिः) ज्ञानवान् (हव्याड्-न) हव्य वहन करने वाली भौतिक अग्नि की भान्ति (समुद्रथः) स्वयं रथरूप—अपने में रममाण करने वाला “सुमत् स्वयमित्यर्थः” [निरु॰ ६.२२] (अग्निः) ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा (अचेति) उपासकों के हृदय में चेतता है—साक्षात् होता है।

    भावार्थ

    ज्ञानवान् सर्वज्ञ स्वयं में रमण करने वाला प्रकाशस्वरूप परमात्मा हव्यवहनकर्ता भौतिक अग्नि की भाँति उपासकों के हृदय में साक्षात् होता है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—सम्पातः (परमात्मा से मेल करने वाला उपासक)॥ देवताः—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्नि का समिन्धन

    पदार्थ

    प्रभु अग्नि हैं। उनके सान्निध्य से जीव भी (अग्निः अचेति) = अग्निरूप में चैतन्य हो उठता है। ‘अग्निनाग्निः समिध्यते' प्रभु का उपासक उस महान् में आकर अग्निरूप में प्रज्वलित हो उठता है। (चिकितिः) = [कित निवासे रोगानयने च] यह उत्तम निवासवाला होता है और इसका शरीर रोगशून्य होता है। प्रभु के उपासक का मस्तिष्क यदि ज्ञानाग्नि के प्रकाशवाला होता है तो उसका शरीर ‘अनामय'=रोगशून्य होकर स्वास्थ्य की दीप्तिवाला होता है। (हव्यवाट् न) = हव्यों - सात्त्विक पदार्थों के वहन सेवन करनेवाले की भाँति यह प्रभुभक्त शरीर, मन व मस्तिष्क सभी में सत्त्वगुण प्रधान बनता है - स्वास्थ्य, नैर्मल्य व दीप्ति के रूप में सत्त्वगुण का परिणाम उसके जीवन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है | (सु-मद-रथः) = यह उत्तम हर्षयुक्त शरीररूप रथवाला होता है। इसका मनः- प्रसाद इसके वक्त्र को स्मितयुक्त बनाए रखता है। इसका प्रसन्न-वदन [smiling face] इसके अन्तः प्रसाद की सूचना देता है। यह अपने इस मनः–प्रसाद व मुस्कुराहट को चारों ओर से बखेरता है। इसीसे इसका नाम ‘पृषध्र' [पर्षते इति पृष:=one who sprinkles, धरति इतिध्रः] हो गया है। प्रभु के उपासक को पृषध्र होना ही चाहिए। यह पृषध्र 'सुमद्रथ' = स्वयं रममाण अर्थात् आत्मरति, आत्मक्रीड व आत्मतृप्त होता है - यह आनन्द के लिए बाह्य वस्तुओं पर निर्भर नहीं करता [ सुमत् - स्वयं ] । 

    भावार्थ

    अग्नि के सम्पर्क में आकर मैं भी अग्नि बन जाऊँ। आत्मानन्द का अनुभव करते हुए सब बाह्य आनन्द इसके लिए तुच्छ हो जाते हैं।
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( सुमद्रथः ) = शोभायुक्त, रमणीय, तृप्तिकारी रस से युक्त या यश कान्ति या गतिसाधन देह से युक्त, ( चिकितिः ) = ज्ञानवान्, ( अग्निः ) = परमात्मा हृदय या ब्रह्माण्ड में और आत्मा देह में ( हव्यवाड् न ) = अन्नादि चरु खाने वाले भौतिक अग्नि के समान ( अचेति ) = चैतन्य है, जागृत है । 

    टिप्पणी

    ४७–‘चिकितुः’ ‘हव्यवाट्स०' इति ऋ० ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - पृषध्रव: काण्वः संपातो वा ।

    देवता - अग्निः।

    छन्दः - द्विपदापंक्ति:।

    स्वरः - पंचम:। 

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्राद्यास्तिस्रोऽग्निदेवताकाः। प्रथमायामग्निनाम्ना परमात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अग्निः) अग्रणीः परमेश्वरः (अचेति) अस्माभिः अज्ञायि, अनुभूतः इत्यर्थः, यः (चिकितिः२) सर्वज्ञः। अत्र किती संज्ञाने धातोः ‘किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्’ अ० ३।२।१७१ वा० इति किन् प्रत्ययः लिड्वच्च। नित्त्वादाद्युदात्तः। किञ्च, यः (सुमद्रथः३) सुमन्तः शोभनाः रथाः विमानादियानानि यस्मात् सः (हव्यवाड् न) विद्युदग्निः इव (सुमद्रथः) सुमन्तः श्रेष्ठाः रथाः शरीररथाः, रंहणशीलाः सूर्यचन्द्रभूगोलादयो वा यस्मात् तादृशः वर्तते ॥१॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा परमात्मा सर्वैः साक्षात्करणीयस्तथैव विद्युदग्निरपि ज्ञेयः, ज्ञात्वा च तं शिल्पोन्नत्या समाचारप्रेषणविमानादियानचालन- प्रभृतीनि कार्याणि करणीयानि ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।५६।५ पूर्वार्द्धः। २. चिकितिः ज्ञाता विश्वस्य—इति भ०। ३. सुमद्रथः प्रशस्तरथः—इति भ०। सुमतां प्रशस्तज्ञानानां रथ इव रथो यस्मात् सः इति ऋ० ३।३।९ भाष्ये—द०।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, fall of resplendent, beautiful lustre, like oblation-bearing fire, is realised by His worshippers.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Agni is self-conscious, enlightens, and, as a self- conducted power moving on its own waves of radiation, carries the fragrance of yajnic havi as well as the light of knowledge from the vedi all round. (Rg. 8-56-5)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

     

    પદાર્થ : (चिकितिः) જ્ઞાનવાન (हव्याड् न) હવ્ય વહન કરનાર ભૌતિક અગ્નિની સમાન (समुद्रथः) સ્વયં રથરૂપ પોતાનામાં રમણ કરનાર (अग्निः) જ્ઞાન-પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા (अचेति) ઉપાસકના હૃદયમાં ચેતન રૂપ અર્થાત્ સાક્ષાત્ બને છે. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ: જ્ઞાનવાન, સર્વજ્ઞ, સ્વયં રમણ કરનાર, પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મા હવ્ય વહન કરનાર ભૌતિક અગ્નિની સમાન ઉપાસકનાં હૃદયમાં સાક્ષાત્ થાય છે. (૧)

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آہُوتی کی طرح پرمیشور ہمیں چلا رہا ہے!

    Lafzi Maana

    جیسے یگ کی آگ میں ڈالی ہوئی آہُوتی وہ مادی آگ لے جا رہی ہے، ویسے ہی گیان سورُوپ سارے جگ کی اگوانی کرنے والا اگنی پرماتما رتھ روپ ہو کر ہمیں چلا رہا ہے۔

    Tashree

    جس طرح آہُوتی لے جاتی ہوَن کی اگنی وہ، اِس طرح ہم کو چلاتا وِشو نیتا اگنی وہ۔

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा सर्वांनी परमात्म्याचा साक्षात्कार केला पाहिजे, तसेच विद्युतरूपी अग्नीलाही जाणून समाचार पाठविणे, विमान इत्यादी यानांना चालविणे इत्यादी कार्य सिद्ध केले पाहिजे ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुढील १, २, व ३ या मंत्राची देवता - अग्नी । प्रथम मंत्रात अग्नी नावाने परमेश्वराचे वर्णन

    शब्दार्थ

    अग्निः) अग्रनेता परमेश्वराला (अचेति) आम्ही उपासकांनी जाणले आहे वा हृदयी त्याचा अनुभव घेतला आहे. तो (चिकितिः) सर्वज्ञ, तसेच (समुद्रथः) श्रेष्ठ विमान आदी रथांमध्ये प्रयुक्त होणाऱ्या (हव्यवाड् न) विद्युत रूप अग्नीप्रमाणे (समुद्रथः) उत्तम शरीर- रथांची निर्मिती करणारा तसेच वेगवान सूर्य, चंद्र, भूगोल आदी ग्रह - उपग्रहांचा निर्माता आहे.।। १।। या मंत्रात श्लिष्टोपमा अलंकार आहे.।। १।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे सर्वांनी परमेश्वराचा साक्षात्कार केला पाहिजे, तसेच विद्युत रूप अग्नीचेही गुण- लाभ आदींवषयी ज्ञान प्राप्त केले पाहिजे. अग्नीविषयी ज्ञान व शोध करून बातम्या पाठविणे, विमानादी यानांचे संचालन आदी कार्ये सिद्ध केली पाहिजेत।। १।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஹவிஷுக்களை எடுத்துச் செல்லும் சிறந்த அறிஞனான ரதமுடனான அக்னி சேதனமாகிறான், விழித்துளான்.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top