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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 459
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣡न्द्र꣢ या꣣ह्यु꣡प꣢ नः परा꣣व꣢तो꣣ ना꣡यमच्छा꣢꣯ वि꣣द꣡था꣢नीव꣣ स꣡त्प꣢ति꣣र꣢स्ता꣣ रा꣡जे꣢व꣣ स꣡त्प꣢तिः । ह꣡वा꣢महे त्वा꣣ प्र꣡य꣢स्वन्तः सु꣣ते꣢꣫ष्वा पु꣣त्रा꣢सो꣣ न꣢ पि꣣त꣢रं꣣ वा꣡ज꣢सातये꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठं꣣ वा꣡ज꣢सातये ॥४५९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इ꣣न्द्र । याहि । उ꣡प꣢꣯ । नः । परा꣣व꣢तः । न । अ꣣य꣢म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । वि꣣द꣡था꣢नि । इ꣣व । स꣡त्प꣢꣯तिः । सत् । प꣣तिः । अ꣡स्ता꣢꣯ । रा꣡जा꣢꣯ । इ꣣व । स꣡त्प꣢꣯तिः । सत् । प꣣तिः । ह꣡वा꣢꣯महे । त्वा꣣ । प्र꣡य꣢स्वन्तः । सु꣣ते꣡षु꣢ । आ । पु꣣त्रा꣡सः꣢ । पु꣣त् । त्रा꣡सः꣢꣯ । न । पि꣣त꣡र꣢म् । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठम् । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये ॥४५९॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र याह्युप नः परावतो नायमच्छा विदथानीव सत्पतिरस्ता राजेव सत्पतिः । हवामहे त्वा प्रयस्वन्तः सुतेष्वा पुत्रासो न पितरं वाजसातये मꣳहिष्ठं वाजसातये ॥४५९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इन्द्र । याहि । उप । नः । परावतः । न । अयम् । अच्छ । विदथानि । इव । सत्पतिः । सत् । पतिः । अस्ता । राजा । इव । सत्पतिः । सत् । पतिः । हवामहे । त्वा । प्रयस्वन्तः । सुतेषु । आ । पुत्रासः । पुत् । त्रासः । न । पितरम् । वाजसातये । वाज । सातये । मꣳहिष्ठम् । वाजसातये । वाज । सातये ॥४५९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 459
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा और आचार्य का आह्वान किया गया है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् एवं विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य ! (अयम्) यह आप (नः अच्छ) हमारे प्रति (उप आ याहि) आइये, (परावतः न) जैसे कोई दूरदेश से आता है, और (सत्पतिः) श्रेष्ठ गृहपति (विदथान् इव) जैसे यज्ञों में आता है, और (सत्पतिः) सज्जनों का पालक (राजा) राजा (अस्ता इव) जैसे राजदरबार में आता है। (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवान् हम (त्वा) आपको (सुतेषु) आनन्द-रसों, वीर-रसों और विद्या-रसों के निमित्त से (आ हवामहे) बुलाते हैं। (पुत्रासः न) जैसे पुत्र (पितरम्) पिता को (वाजसातये) अन्नादि की प्राप्ति के लिए बुलाते हैं, वैसे ही (मंहिष्ठम्) धन, बल, विद्या आदि के अतिशय दानी आपको, हम (वाजसातये) धन, बल, विद्या आदि की प्राप्ति के लिए बुलाते हैं ॥३॥ इस मन्त्र में चार उपमाएँ हैं। ‘सत्पति’ और ‘वाजसातये’ की एक-एक बार आवृत्ति में यमक अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
जगदीश्वर और गुरुजन जिसके अनुकूल होते हैं, वह सब विपत्तियों को पार करके उत्कृष्ट ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेता है ॥३॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (परावतः-न) दूरदेश से जैसे आना होता है ऐसे (नः-उप-आयाहि) हमारे पास आ—प्राप्त हो (अयं सत्पतिः) यह सज्जनों का पालक विद्वान् “सत्पतिः-अग्निः सतां पतिः” [श॰ ८.६.३.२०] (विदथानि-इव-अच्छा) लाभों—उपहारों को प्राप्त करने जैसे आता है “विदथानि वेदनानि” [निरु॰ ६.७] “अच्छाभेराप्तुम्” [निरु॰ ५.२८] या (सत्पतिः-राजा-इव) सज्जनों के पालक राजा की भाँति (अस्ता) घर को—राजप्रासाद को “अस्तं गृहनाम” [निघं॰ ३.४] ‘आकारादेशश्छान्दसः’ (त्वा-आहवामहे) तुझे आमन्त्रित करते हैं (सुतेषु प्रयस्वन्तः) उपासनारस निष्पन्न होने पर उपासनारसरूप अन्न भेंटवाले हम उपासक (पुत्रासः-न पितरः वाजसातये) पुत्र जैसे अन्न भोजन प्राप्ति के लिये पिता को पुकारते हैं ऐसे (महिष्ठं वाजसातये) हम तुझ अत्यन्तदानी को अमृत अन्न मोक्षानन्द भोग की प्राप्ति के लिये बुलाते हैं।
भावार्थ
परमात्मा दूरदेश से जैसे आता हो ऐसे हमारे पास आता है—हमें प्राप्त होता है, हम से उपासनारस भेंट लेने के लिये, जैसे अग्रणेता विद्वान् हमसे उपहार प्राप्त करने आता है या सज्जनपालक राजा अपने राजप्रासाद को प्राप्त होता है, ऐसे वह हमारे हृदय को प्राप्त होता है, जबकि हम निष्पन्न उपासनारस होने पर उन उपासनारसवाले होकर उसे आमन्त्रित करते हैं या जैसे पुत्र अन्न प्राप्ति के लिये पिता को पुकारते हैं वैसे हम भी अमृत अन्नभोग—मोक्षानन्द की प्राप्ति के लिये महान् दानी को पुकारते हैं॥३॥
विशेष
ऋषिः—परुच्छेपः (परु—पर्व—अवसर पर परमात्मा का स्पर्श—अनुभव करने वाला उसकी स्तुतिकथन प्रवचन में भी पर्व बनानेवाला)॥ देवताः—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अत्यष्टिः॥<br>
विषय
ज्ञानयज्ञों में न कि कलबों [ Clubs ] में
पदार्थ
हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमान् प्रभो! (परावतः) = दूर से दूर तक भटके हुए हमें उन सुदूर स्थानों से (अच्छा) = अपनी ओर (नायम्) = प्राप्त कराते हुए [नी-प्रापणे] आप (न:) = हमें (उप आयाहि) = अपने समीप प्राप्त कराइए। प्रभु जीव के समीप आते है या जीव प्रभु के समीप आता है- परिणाम तो एक ही है, परन्तु 'जीव में प्रभु की ओर चलने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाए' यही उत्तम है; और यही भावना ‘अच्छा नायम्' इन शब्दों से व्यक्त हो रहीं है।
हे प्रभो! हमें आप अपने समीप उसी प्रकार प्राप्त कराइए, जैसेकि (सत्पति:) = एक उत्तम पति (विदथानि) = अपने परिवार के व्यक्तियों को ज्ञानयज्ञों में ले जाता है। ज्ञानयज्ञों में कुछ-न-कुछ उत्तम प्रेरणा प्राप्त होती है। कितना दौर्भाग्य है उस परिवार का जो ज्ञानयज्ञों में सम्मिलित न होकर क्लबों में आनन्द की खोज में जा पहुँचते हैं। प्रभु हमें उस प्रकार अपने समीप प्राप्त कराइए (इव) = जैसे कि (सत्पतिः) = राष्ट्रों में सयनों का रक्षक राजा (अस्ता) = लोगों को अपने घरों में प्राप्त कराता है। राजा का यह कर्तव्य होता है कि वह इस ढङ्ग से व्यवस्था करे कि लोग टकें नहीं। उन्हें घर पर ठहर कर सुप्रजा- निर्माण का अवसर भी प्राप्त हो। (त्वा) = तुझ प्रभु को हम (हवामहे) = पुकारते हैं, परन्तु (प्रयस्वन्तः सुतेषु) = प्रयत्नशील होते हुए सोमरस के अभिषिववाले यज्ञों में।
(नः) = जैसे (पुत्रासः) = पुत्र (पितरम्) = पिता को पुकारते हैं उसी प्रकार हम (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिए उस प्रभु को पुकारें । प्रभु की समीपता में मैं उसी प्रकार शक्ति का अनुभव करुँगा जैसे कि पुत्र पिता की समीपता में अनुभव करता है। प्रभु सामीप्य में मेरा अङ्ग-प्रत्यङ्ग–एक-एक पर्व शक्तिवाला हो उठता है - मैं 'परुच्छेप' इस मन्त्र का ऋषि बन जाता हूँ। (दैवोदासिः) = यह होता तब है जब मै उस दिव्य प्रभु का दास बनकर जीवन बिताता हूँ।
भावार्थ
मैं प्रभु का दास बनूँ और शक्ति का पूञ्ज हो जाऊँगा।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! जिस प्रकार ( अयम् ) = यह ( सत्पतिः ) = सज्जनों का या सत्य का प्रतिपालक यजमान ( विदथानि ) = यज्ञों में ( राजा इव ) = राजा के समान ( सत्पतिः ) = सज्जनों का पालक होकर ( अस्ता राजा इव ) = शत्रुओं पर बाण आदि फेंकने वाला, वीर धनुधारी राजा जिस प्रकार शत्रु आदि के संकटों को दूर करने के लिये प्राप्त होता है उसी प्रकार तू ( नः ) = हमारे पास ( परावतः ) = दूर देशों से भी ( उप आयाहि नि ) = आ ही तो जा । ( पुत्रासः पितरं न ) = जिस प्रकार पुत्र लोग पिता की ( वाजसातये ) = दायभाग की प्राप्ति के लिये स्तुति करते हैं उसी प्रकार हम भी ( प्रयस्वन्तः ) = अनादि हवि को आपके अर्पण करने के लिये अपने हाथों में लिये हुए ( वाजसातये ) = अन्न और ज्ञान के लाभ के लिये ( सुतेषु ) = इन यज्ञ स्थानों में ( मंहिष्ठं ) = सबसे बड़े दानशील ( त्वा ) = तुझको ( आ हवामहे ) = आह्वान करते हैं, आदर से याद करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - परुच्छेप:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अत्यष्टिः।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रनाम्ना परमात्मानमाचार्यं चाह्वयति।
पदार्थः
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् विद्यैश्वर्ययुक्त आचार्य वा ! (अयम्) एष त्वम् (नः अच्छ) अस्मान् प्रति (उप आ याहि) उपागच्छ, (परावतः न) यथा कश्चिद् दूरदेशादुपागच्छति तद्वत्, किञ्च, (सत्पतिः) श्रेष्ठो गृहपतिः (विदथानि इव) यथा यज्ञान् उपागच्छति तद्वत्। विदथ इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७। अपिच (सत्पतिः) सतां पालकः (राजा) नृपतिः (अस्ता इव) यथा अस्तम् आस्थानगृहम् उपागच्छति तद्वत्। अस्तमिति गृहनाम। निघं० ३।४। ‘सुपां सुलुक्’ इति विभक्तेराकारादेशः। सत्पतिः इत्यत्र ‘पत्यावैश्वर्ये। अ० ६।२।१८’ इति तत्पुरुषे पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (प्रयस्वन्तः२) प्रयत्नवन्तो वयम् (त्वा) त्वाम् (सुतेषु) आनन्दरसेषु वीररसेषु विद्यारसेषु च निमित्तेषु। अत्र निमित्तार्थे सप्तमी। (आ हवामहे) आह्वयामः। (पुत्रासः न) पुत्राः यथा (पितरम्) जनकम् (वाजसातये) अन्नप्राप्तये आह्वयन्ति तथा (मंहिष्ठम्) धनविद्यादीनां दातृतमम् त्वाम्। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०। अतिशयेन मंहिता मंहिष्ठः। वयम् (वाजसातये) धनबलविद्यादिप्राप्तये आह्वयामः ॥३॥३ अत्र चतस्र उपमाः। ‘सत्पति’, ‘वाजसातये’ इत्यनयोः सकृदावृत्तौ च यमकम् ॥३॥
भावार्थः
जगदीश्वरो गुरवश्च यस्यानुकूला भवन्ति स सर्वं विपत्समूहमुत्तीर्य परमैश्वर्याणि लभते ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।१३०।१, ‘रस्ता’, ‘त्वा प्रयस्वन्तः सुतेष्वा’ इत्यत्र क्रमेण ‘रस्तं’, ‘त्वा वयं प्रयस्वन्तः सुते सचा’ इति पाठः। २. (प्रयस्वन्तः) बहुप्रयत्नशीलाः इति ऋ० १।१३०।१ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, come unto us, who have gone far astray from Thee, just as the sun, the protector of the Earth through attraction, goes to the Yajnas through his pervading rays, and just as a King, the guardian of noble persons goes to his seat of justice. Striving for the means of attaining supreme happiness, we invoke Thee, O most Adorable God, for acquiring the wealth of knowledge, just as sons invoke a sire for riches!
Meaning
Indra, lord of wealth and power, ruler of the world, come graciously from afar to us like this Agni who comes to the yajnic battles of life. Protector and promoter of truth and rectitude, friend and protector of the truthful and righteous, come to our home like the ruler. Joining you faithfully in this yajna of life, dedicated to holy action and endeavour, we invoke and invite you to join us. As children call upon the father to help them to food, sustenance and protection in their course of life and growth, so do we call upon you for safety and protection, great lord of power and prosperity, for victory in our battle of life. (Rg. 1-130-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (परावतः न) જેમ દૂર દેશથી આવવાનું થાય છે તેમ (न उप आयाहि) અમારી પાસે આવ-પ્રાપ્ત થા (अयं सत्पतिः) એ સજ્જનોના પાલક વિદ્વાન (विदथानि इव अच्छा) લાભો - ઉપહારોને પ્રાપ્ત કરવા સમાન આવે છે અથવા (सत्पतिः राजा इव) સજ્જનોના પાલક રાજાની સમાન (अस्ता) ઘરમાં રાજપ્રાસાદમાં (त्वा आहवामहे) તને આમંત્રિત કરે છે (सुतेषु प्रयस्वन्तः) ઉપાસનારસ તૈયાર થતાં ઉપાસનારસરૂપ અન્ન ભેટવાળા અમે ઉપાસકો (पुत्रासः न पितरः वाजसातये) પુત્ર જેમ અન્ન પ્રાપ્તિને માટે પિતાને પુકારે છે તેમ (मंहिष्ठं वाजसातये) અમે તને-અત્યંત દાનીને અમૃત અન્ન મોક્ષાનંદ ભોગની પ્રાપ્તિ માટે બોલાવીએ છીએ-પુકારીએ છીએ. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા દૂર દેશથી જેમ આવે છે, તેમ અમારી પાસે આવે છે-અમને પ્રાપ્ત થાય છે, અમારાથી ઉપાસનારસની ભેટ લેવા માટે; જેમ અગ્રણી વિદ્વાન અમારી પાસેથી ઉપહાર ગ્રહણ કરવા આવે છે અથવા પ્રજાપાલક રાજા પોતાના રાજમહેલને પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ તે અમારા હૃદયને પ્રાપ્ત થાય છે, જ્યારે અમે ઉપાસનારસ તૈયાર થતાં તે ઉપાસનારસવાળા બનીને તેને આમંત્રિત કરીએ છીએ અથવા જેમ પુત્ર અન્ન પ્રાપ્તિને માટે પિતાને પુકારે છે, તેમ અમે પણ અમૃત અન્નભોગ-મોક્ષાનંદની પ્રાપ્તિને માટે મહાન દાનીને પુકારીએ છીએ. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
جیسے بیسا باب کو بُلاتا ہے!
Lafzi Maana
ہے اندر! آئیے اور ہمارے نزدیک تر ہو جائیے، جیسے دُور سے آیا بھگت یگ کرموں میں شامل ہو جاتا ہے۔ آپ ہی تو ہمارے سچّے مالک خالق اور پالک ہیں اور راجہ۔ آپ کے بنا ہمارے پاپوں کو دُور کرنے والا اور کون ہے، جیسے سُپتر اپنے یگیہ کو رچاتا ہے اور پتا کو اُس میں بُلانے پر بے حد خوشی محسوس کرتا ہے، ایسے ہی ہم اپنے بھگتی یگیہ میں آپ کا آواہن کر رہے ہیں۔ آپ کے وصال سے ہمارا گیان، بل اور ایشوریہ بڑھے گا۔ دریں چہ شک!
Tashree
اِندر آؤ پاس ہمارے یگیہ ہم نے ہے رچایا، ہیں پِتا سچّے ہمارے اس لئے ہم نے بُلایا۔
मराठी (2)
भावार्थ
जगदीश्वर व गुरुजन ज्याच्या अनुकूल असतात तो सर्व विपत्तीतून पार पडतो व उत्कृष्ट ऐश्वर्य प्राप्त करून घेतो. ॥३॥
विषय
इन्द्र परमेश्वराचे वचार्यांचे आवाहन
शब्दार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान परमेश्वर आणि हे विद्यारूप ऐश्वर्याने समृद्ध असलेले आचार्य, (अयम्) हे आपण (नः यच्छ) आमच्याकडे (उप आ याहि) या, (परावतः न) जसे कोणी दुरून जवळ येतो, तसे जवळ या अथवा जसे (सत्पतिः) श्रेष्ठ गृहपती (विदथान् इव) यज्ञसाठी येतो तसे तुम्ही लवकर या. जसे (सत्यतिः) सज्जनांचा पालक (राजा) राजा (अस्ता इव) राजदरबारी येतो, तसे तुम्ही या. (प्रयस्वन्तः) प्रयत्न करणारे आम्ही (त्वा) तुम्हाला (सुतेषु) आनंद रस, वीर रस आणि विद्या रस पिण्यासाठी (आ हवामहे) बोलावत आहो. जसे (पुत्रासः न) पुत्र (पितरम्) वडिलाला (वाजसातये) अन्न आदींच्या प्राप्तीसाठी हाक मारतात, त्याचप्रमो (मंहिष्टम्) धन, शक्ती, विद्या आदी वस्तू भरपूर देणाऱ्या तुम्हाला आम्ही (उपासक वा विद्यार्थी) (वाजसातये) धन, बळ, विद्या आदींच्या प्राप्तीसाठी बोलावत आहोत. (मनात प्रार्थना करीत आहोत.)।। ३।।
भावार्थ
जगदीश्वर आणि गुरुजन ज्याला अनुकूल होतात, तो सर्व संकटे दूर सारून उत्कृष्ट ऐश्वर्य प्राप्त करतो.।। ३।।
विशेष
या मंत्रात चार उपमा आहेत. ‘सत्यतिः आणि ‘वाजसातये’ या शब्दांची एक एक वेळ झालेल्या आवृत्तीमुळे यमक अलंकारही आहे.।। ३।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே! தூரமான இடத்தினின்று எங்களிடம் வரவும். யக்ஞத்தின் - ராஜாவைப்போல் வீரர்களின் பதியான நீ வில்லுடனான அரசனுக்குச் சமானமாய் எங்களிடம் வரவும். பிள்ளைகள் பிதாவை பொருளை அடைய நாடுவது போல ஹவிஷுகளுடன் ஐசுவரியமடைய நல்ல செயல்களில் மேன்மையான உன்னை நாடி அழைக்கிறோம்.
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