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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 466
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्रः छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    21

    त꣢व꣣ त्य꣡न्न꣢꣯र्यं नृ꣣तो꣡ऽप꣢ इन्द्र प्रथ꣣मं꣢ पू꣣र्व्यं꣢ दि꣣वि꣢ प्र꣣वा꣡च्यं꣢ कृ꣣त꣢म् । यो꣢ दे꣣व꣢स्य꣣ श꣡व꣢सा꣣ प्रा꣡रि꣢णा꣣ अ꣡सु꣢ रि꣣ण꣢न्न꣣पः꣢ । भु꣢वो꣣ वि꣡श्व꣢म꣣भ्य꣡दे꣢व꣣मो꣡ज꣢सा वि꣣दे꣡दूर्ज꣢꣯ꣳ श꣣त꣡क्र꣢तुर्वि꣣दे꣡दिष꣢꣯म् ॥४६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣡व꣢꣯ । त्यत् । न꣡र्य꣢꣯म् । नृ꣣तो । अ꣡पः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । प्रथम꣢म् । पू꣣र्व्य꣢म् । दि꣣वि꣢ । प्र꣣वाच्य꣢म् । प्र꣣ । वा꣡च्य꣢꣯म् । कृ꣣त꣢म् । यः । दे꣣व꣡स्य꣢ । श꣡व꣢꣯सा । प्रा꣡रि꣢꣯णाः । प्र꣣ । अ꣡रि꣢꣯णाः । अ꣡सु꣢꣯ । रि꣣ण꣢न् । अ꣣पः꣢ । भु꣡वः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । अ꣡देव꣢꣯म् । अ । दे꣣वम् । ओ꣡ज꣢꣯सा । वि꣣दे꣢त् । ऊ꣡र्ज꣢꣯म् । श꣣त꣡क्र꣢तुः । श꣣त꣢ । क्र꣣तुः । विदे꣢त् । इ꣡ष꣢꣯म् ॥४६६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव त्यन्नर्यं नृतोऽप इन्द्र प्रथमं पूर्व्यं दिवि प्रवाच्यं कृतम् । यो देवस्य शवसा प्रारिणा असु रिणन्नपः । भुवो विश्वमभ्यदेवमोजसा विदेदूर्जꣳ शतक्रतुर्विदेदिषम् ॥४६६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तव । त्यत् । नर्यम् । नृतो । अपः । इन्द्र । प्रथमम् । पूर्व्यम् । दिवि । प्रवाच्यम् । प्र । वाच्यम् । कृतम् । यः । देवस्य । शवसा । प्रारिणाः । प्र । अरिणाः । असु । रिणन् । अपः । भुवः । विश्वम् । अभि । अदेवम् । अ । देवम् । ओजसा । विदेत् । ऊर्जम् । शतक्रतुः । शत । क्रतुः । विदेत् । इषम् ॥४६६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 466
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र का देवता इन्द्र है। उसके लोकोपकारक कार्यों का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (नृतो) पृथिवी आदि लोकों को नचानेवाले (इन्द्र) जगदीश्वर ! (तव) तुम्हारा (त्यत्) वह प्रसिद्ध, (नर्यम्) नरों का हितकर, (प्रथमम्) श्रेष्ठ, (पूर्व्यम्) पूर्वकाल से चला आ रहा (अपः) कर्म (प्रवाच्यम्) प्रशंसनीय है, (यः) जो तुम (देवस्य) प्रकाशक सूर्य के (शवसा) बल से (असु) प्राण को (रिणन्) प्रेरित करना चाहते हुए, (अपः) अन्तरिक्ष में स्थित जलों को (प्रारिणाः) वर्षा द्वारा नीचे गिराते हो, और (विश्वम्) सब (अदेवम्) अप्रकाश के कारणभूत भौतिक और मानसिक अन्धकार को (ओजसा) बल से (अभिभुवः) परास्त करते हो। आगे परोक्षकृत वर्णन है—(शतक्रतुः) अनन्त प्रज्ञावाला और अनन्त कर्मोंवाला वह जगदीश्वर (ऊर्जम्) बल तथा प्राण को (विदेत्) प्राप्त कराये, (इषम्) इच्छासिद्धि को (विदेत्) प्राप्त कराये ॥१०॥ इस मन्त्र में ‘रिणा, रिण’, ‘देव, देव’, ‘विदेदू, विदेदि’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ही सूर्य द्वारा पृथिवी आदि लोकों को नचाता हुआ सूर्य के चारों ओर तथा अपनी धुरी पर घुमाता है। वही जैसे अन्तरिक्ष में रुके हुए जलों को बरसाता है, वैसे ही आत्मलोक में रुकी हुई आनन्द-धाराओं को मनोभूमि पर प्रवाहित करता है। वही जैसे विशाल अन्धकार को विदीर्ण कर भौतिक प्रकाश को उत्पन्न करता है, वैसे ही मन की भूमि पर व्याप्त तमोगुण के जाल को विच्छिन्न करके आत्म-प्रकाश को प्रकट करता है ॥१०॥ इस दशति में सूर्य, पवमान, हरि, सविता, अग्नि, विष्णु नामों से जगदीश्वर आदि के गुण-कर्मों का वर्णन होने से तथा ‘विश्वे देवाः’ और मरुतों का आह्वान होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में द्वादश खण्ड समाप्त ॥ यह चतुर्थ अध्याय समाप्त हुआ ॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (तव नृतः) तुझ नेता को “नृ नये” [भ्वादि॰ क्रयादि॰] ‘छान्दसं हृस्वं मत्त्वा क्विपि तुक् षष्ठ्याम्’ (त्यत्-नर्यम्-अपः) वह देवजन के हितकर कर्म (प्रथमं पूर्व्यम्) प्रथित पुरातन है जो दिवि “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९३.३] अमृत मोक्षधाम में देवजनों को अधिकार दिया है (प्रवाच्यं कृतम्) यह प्रशंसनीय किया है (यः) ‘यस्त्वम्’ जो तू (देवस्य) देवजन को (शवसा) अपने बल से (असु) प्राण को (प्रारिणाः) प्रकृष्टरूप में चलाता है (अपः-रिणन्) अध्यात्मकर्म कराता हुआ (विश्वम्-अदेवम्-ओजसा-अभिभुवः) समस्त अदेवभाव को बल से दबा दिया (शतक्रतुः) तुझ असंख्य ज्ञानकर्मवान् परमात्मा ने (ऊर्जं विदेत्) बल प्राप्त करा दिया (इषं विदेत्) कमनीय अभीष्ट अमृत मोक्ष प्राप्त करा दिया।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तुझ नेता का वह देवजनहितकर कर्म प्रसिद्ध पुरातन अमृत मोक्षधाम में देवजनों को अधिकार दिया जाना प्रशंसनीय है, जो तू देवजन के प्राण अपने बल से प्रकृष्टरूप में चलाता है। अध्यात्मकर्म कराता हुआ सारे अदेवभाव को बल से दबा देता है। असंख्य कर्मों वाला परमात्मा अध्यात्मबल प्राप्त करा देता और उपासक में कमनीय अभीष्ट अमृत मोक्ष दिलाता है॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—गृत्समदः (मेधावी हर्षालु उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अति शक्वरी॥<br>

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    विषय

    साक्षात्कार

    पदार्थ

    ज्ञान के प्रकाश से प्रभु का दर्शन करता हुआ व्यक्ति एक अद्भुत अनुभव करता है। वह इस सारे संसार को प्रभु का ही खेल समझता है। प्रभु नर्तक हैं, वे सारे संसार को नृत्य करा रहे हैं। ‘भ्रामयान्’ सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया' = वे प्रभु सबसे महान् मायावी हैं और इस संसार को इधर-उधर घुमा रहे हैं। यह द्रष्टा कहता है कि हे (नृतो) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नृत्य करानेवाले प्रभो! (तव) = आपका (त्यत्) = वह (अपः) = कर्म नर्यम्-मनुष्य के लिए कितना हितकर है! हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो! आपका वह (प्रथमम्) = सर्वमुख्य, सृष्टि के प्रारम्भ में किया गया अथवा अत्यन्त विस्तृत (पूर्व्यम्) = सब प्रकार से हमारा पूरण करनेवाला (दिवि) = प्रकाशविषयक [वैषयिक सप्तमी में 'दिवि' का प्रयोग है] (कृतम्) = कार्य वस्तुतः (प्रबाच्यम्) = अत्यन्त प्रशंसनीय है। वेदज्ञान प्रभु का (प्रथमम्) = सर्वमुख्य कार्य है, यह वेदज्ञान सृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया है तथा अत्यन्त विस्तृत है अर्थात् इसमें कोई भी आवश्यक विषय छोड़ा नहीं गया। प्रभु का यह वेदज्ञान-दान कर्म सर्वोत्तम है- अत्यन्त प्रशंसनीय है। प्रभु ने ज्ञान के साथ जीव को शक्ति भी दी है, यः = जो भी व्यक्ति देवस्य शवसा=उस

    प्रभु से दिये गये ज्ञान व शक्ति से (आसुंरिणन्) = जीवन को चलाता हुआ (अपः प्रारिणा:) = कर्मों को प्रेरित करता है, वह (ओजसा) = ओज के द्वारा (विश्वं अदवेम्) = सब आदिव्य भावनाओं को (अभिभुव:) = दबा लेता है। (विदेद् ऊर्जम्) = वह प्राणशक्ति को प्राप्त करता है, (शतक्रतुः) = जो सैकड़ों प्रज्ञानों, संकल्पों व यज्ञमय कर्मोंवाला होता है (उ) = और (विदेद् इषम्) = अपनी इच्छाओं को प्राप्त करता है अर्थात् एक आत्मतृप्ति का अनुभव करता है, अतृप्त नहीं रहता।

    वेदवाणी के अनुसार कार्य करने के चार परिणाम हैं - आसुरी भावनाओं पर विजय, बल की प्राप्ति, शतशः प्रज्ञानमय जीवन, व आत्मतृप्ति। यह व्यक्ति प्रभु की स्तुति करता है, उल्लासमय जीवनवाला होता है और क्रियाशील होता है अतएव इसका नाम 'गृतसमदः शौनकः' है।

    भावार्थ

    मुझे प्रभु का साक्षात्कार हो ।

    टिप्पणी

    सूचना- यह ऐन्द्रकाण्ड की समाप्ति है । इन्द्र के साक्षात्कार के साथ समाप्ति कितनी सङ्गत है! और वह भी प्रभुकृपा से ही होती है यह प्रतिपादन कितना सुन्दर है ! यही जीव का [इन्द्र का] चरम विकास है। इसी के लिए वह अपने को पवित्र बनाने का निश्चय करता है और 'पवमान काण्ड' प्रारम्भ होता है-

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( नृतः ) = समस्त संसार को नचाने या अपनी इच्छानुकूल चलाने हारे ! ( त्यत् ) = वह ( अप: ) = कर्म ( प्रथमं ) = सबसे उत्कृष्ट ( दिवि ) = द्यौलोक में भी ( पूर्व्यं ) = सबसे पूर्व ( प्रवाच्यं ) = उत्तम रीति से वर्णन करने योग्य ( कृतं ) = किया हुआ सर्ग ( तव ) = तेरा ही है । ( यः ) = जो ( शवसा ) = अपने वेग या बल से ( देवस्य ) = प्रकाशमान, दिजिगीषु, महाप्राणधारी हिरण्यगर्भ के ( असुम् ) = पवनरूप प्राण को ( रिणन् ) = गति देता हुआ ( अपः ) = नाना लोकों को ( प्र अरिणः ) = प्रकृष्ट वेग से चला रहा है। ओर वह देव ( विश्वम् ) = समस्त ( अदेवं ) = न प्रकाशित होने वाले, मृतप्राय, नाना पृथिवी आदि लोकों, पिण्डों को भी ( ओजसा ) = अपने बल से, कान्ति से ( भुवत् ) = व्याप्त होकर उनमें ( ऊर्जम् ) = अन्नादि खाद्य पदार्थ और जीवनमय पदार्थ ( विदेद् ) = प्राप्त कराता है, उत्पन्न करता है वह ( शतक्रतुः ) = सैकड़ों कमों को करने हारा शिल्पी ( इषं विदेत् ) = हमें जीवन, प्राण और अन्न दे ।

    टिप्पणी

    ४६६—‘भुवद्’ ‘विदादिषम्' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - गृत्समदः।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - अतिशक्वरी ।

    स्वरः - पंचम:। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रो देवता। तस्य लोकोपकारकाणि कर्माणि वर्णयति।

    पदार्थः

    हे (नृतो) पृथिव्यादिलोकानां नर्तयितः (इन्द्र) जगदीश्वर ! (तव) त्वदीयम् (त्यत्) तत् प्रसिद्धम् (नर्यम्) नराणां हितकरम्, (प्रथमम्) श्रेष्ठम्, (पूर्व्यम्) पूर्वकालादागतम् (दिवि कृतम्) आकाशे विहितम् (अपः) कर्म। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। (प्रवाच्यम्) प्रशंसनीयम् अस्ति, (यः) यस्त्वम् (देवस्य) प्रकाशकस्य सूर्यस्य (शवसा) बलेन असु असुं प्राणम्। असु शब्दात् ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति विभक्तेर्लुक्। (रिणन्) प्रवर्तयन्, प्रवर्तयितुमिच्छन्नित्यर्थः, (अपः) अन्तरिक्षस्थान्युदकानि, (प्रारिणाः) वर्षणेन अधः प्रगमयसि। रिणातिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। किञ्च (विश्वम्) समस्तम् (अदेवम्) अप्रकाशनिमित्तम् भौतिकं मानसं चान्धकारम् (ओजसा) बलेन (अभिभुवः) अभिभवसि। अथ परोक्षकृतमाह। (शतक्रतुः) अनन्तप्रज्ञः अनन्तकर्मा च स इन्द्रः परमेश्वरः (ऊर्जम्) बलं प्राणं च (विदेत्) लम्भयतु, (इषम्) इच्छासिद्धिम् (विदेत्) लम्भयतु ॥१०॥२ अत्र ‘रिणा, रिण’, ‘देव, देव’, ‘विदेदू, विदेदि’ इत्यत्र छेकानुप्रासोऽलङ्कारः ॥१०॥

    भावार्थः

    परमेश्वर एव सूर्यद्वारा पृथिव्यादीन् लोकान् नर्तयन् सूर्यं परितः स्वधुरि च परिक्रमयति। स एव यथाऽन्तरिक्षेऽवरुद्धा अपो वर्षति तथैवात्मलोकेऽवरुद्धा आनन्दधारा मनोभूमौ प्रवाहयति। स एव महत् तमोऽवदीर्य यथा भौतिकं प्रकाशं जनयति तथैव मनोभूमौ व्याप्तं तमोजालं विच्छिद्यात्मप्रकाशं प्रकटयति ॥१०॥ अत्रेन्द्रसूर्यपवमानहरिसवित्रग्निविष्णुनामभिः परमेश्वरादेर्गुणकर्म- वर्णनाद् विश्वेषां देवानां मरुतां चाह्वानादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके द्वितीयार्द्धे तृतीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये द्वादशः खण्डः ॥ समाप्तश्चायं चतुर्थाध्यायः ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्य श्रीमद् गोपालरामभगवती- देवीतनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेनाचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्द- सरस्वतीस्वामिकृतवेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचितेसंस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेद-भाष्ये ऐन्द्रं काण्डं पर्व वा समाप्तिमगात् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० २।२२।४, ‘यद् देवस्य’, ‘असुं’, ‘भुवद् विश्वमभ्यादेवमोजसा विदादूर्जं शतक्रतुर्विदादिषम्’ इति भेदः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्ऋचमिमां जीवेश्वरविषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Revolver of luminous bodies like the Sun, it is Thy humanitarian, diffused in space, immemorial, well-performed, laudable deed, that a worshipper of Thine, with Thy power, undertakes tasks in his life-time, and being the lord of hundred powers conquers all that is godless with his exertion, procures strength and food!

    Translator Comment

    A worshipper sings in this Verse the glory and grandeur of God.

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    Meaning

    Indra, lord of light, life and generosity, director of the cosmic dance of creation, that original, ancient act of yours admirable in the light and language of heaven performed for the sake of humanity which, by the omnipotence of Divinity, moves the pranic energies and causes the waters of life to flow may, we pray, with the power and splendour of Divinity, inspire the entire world of matter and energy, conquer impiety and bring us, O lord of a hundred yajnic gifts and actions, food and energy for body, mind and soul. (Rg. 2-22-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (तव नृतः) તને-નેતાને (त्यत् नर्यम् अपः) તે દેવજનના હિતકર કર્મ (प्रथमं पूर्व्यम्) પ્રથમ પુરાતન છે જે દિવિ અમૃત મોક્ષધામમાં દેવજનોને અધિકાર આપેલ છે (प्रवाच्यं कृतम्) એ પ્રશંસનીય કરેલ છે (यः) જે તું (देवस्य) દેવજનનાં (शवसा) પોતાનાં બળથી (असु) પ્રાણને (प्रारिणाः) પ્રકૃષ્ટ રૂપમાં ચલાવે છે. (अपः रिणन्) અધ્યાત્મકર્મ કરતાં (विश्वम् अदेवम् ओजसा अभिभुवः) સમસ્ત અદેવભાવને દબાવી દીધો. (शतक्रतुः) તું અસંખ્ય જ્ઞાન કર્મવાન પરમાત્માએ (ऊर्जं विदेत्) બળ પ્રાપ્ત કરાવી દીધું (इषं विदेत्) સુંદર અભીષ્ટ અમૃત મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવી દીધો. (૧૦) 

     

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તારો-નેતાનો તે દેવજનહિતકર કર્મ પ્રસિદ્ધ પુરાતન અમૃત મોક્ષધામમાં દેવજનોને અધિકાર આપવો પ્રશંસનીય છે, જે તું દેવજનોના પ્રાણ પોતાના બળથી પ્રકૃષ્ટ રૂપથી ચલાવે છે. અધ્યાત્મકર્મ કરતાં સમસ્ત અદેવભાવને બળથી દબાવી દે છે. અસંખ્ય કર્મોવાળા પરમાત્મા અધ્યાત્મબળ પ્રાપ્ત કરાવી દે છે અને ઉપાસકમાં સુંદર અભીષ્ટ મોક્ષસુખ અપાવે છે. (૧૦)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    وید گیان کو دے کر منشیوں کو امرت پلا دیا ہے!

    Lafzi Maana

    اِندر پرمیشور! منشیوں کے لئے وید گیان دے کر جو اُپکار کیا ہے۔ جس کے اُپدیشوں سے سارا جگت امرت کا پان کر رہا ہے۔ یہ سب سے مہان اور آپ کا شریشٹھ کرم ہے اور آسمان میں بادلوں کو بنا کر سُورج دیوتا کے ذریعے سمندروں سے جو جل کھینچنے کا کارِعظیم چلا رکھا ہے، بادلوں کو بنا کر سُورج دیوتا کے ذریعے سمندروں سے جو جل کھینچنے کا کارِعظیم چلا رکھا ہے، بادلوں سے پانی برس کر سب جڑ اور چیتن جگت کو زندگی دیتا ہے۔ آپ کے بے شمار کام ہم سب کو بل اور پران بخشیش کرتے ہیں، جس کے لئے ہم آپ کے احسانوں سے دبے ہوئے آپ کی پُوجا میں سدا لگے رہنے کے لئے کوشاں ہیں اور یہی ہماری زندگی کا نصب العین ہے۔

    Tashree

    آپ کی بخشش سے جیتے اور پاتے زندگی، اِس لئے ہم کو ہے واجب کرنا آپ کی بندگی۔

    Khaas

    (سام وید میں اَیندر کانڈ ختم ہوا)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वरच सूर्याद्वारे पृथ्वी इत्यादी लोकांना सूर्याच्या चारही बाजूंनी व तिच्या धुरीवर फिरवितो, जसा तो अंतरिक्षातील अडकलेल्या जलाची वृष्टी करतो, तसाच आत्मलोकात अडकलेल्या आनंदधारांना मनोभूमीवर प्रवाहित करतो. जसा विशाल अंधकार नष्ट करून भौतिक प्रकाश उत्पन्न करतो, तसेच मनाच्या भूमीवर व्याप्त तमोगुणाचे जाळे विच्छिन्न करून आत्मप्रकाश प्रकट करतो ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये सूर्य, पवमान, हरी, सविता, अग्नी, विष्णू नावांनी जगदीश्वर इत्यादीच्या गुणकर्मांचे वर्णन असल्यामुळे व ‘विश्वे देवा:’ व मरुतांचे आह्वान विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    इन्द्र देवता। त्याच्या लोकोपकारी कर्मांचे वर्णन -

    शब्दार्थ

    हे (नृतो) पृथ्वी आदी ग्रह- नक्षत्रांना नाचविणारे (इन्द्र) परमेश्वर, (नर्यम्) मनुष्यांचे हितकर (प्रथमम्) श्रेष्ठ आणि (पूर्व्यम्) पूर्वीपासून चालत आलेले (तव) तुमचे (त्यत्) ते (अपः) (ग्रहादीचे संचालन, सृष्ट्युत्क्यी, कर्म फलप्रदान आदी) कर्म (प्रवाच्यम्) अत्यंत प्रशंसनीय आहे. (यः) तुम्ही हे जे (देवस्य) प्रकाशक सूर्याच्या (शवसा) शक्तीने (असु) प्राणशक्तीला (रिणन्) प्रेरित करीत (अपः) अंतरिक्षस्थित जलाला (प्रारिणाः) वृष्टीच्या रूपाने खाली आणता आणि तुम्ही जे (विश्वम्) सर्व (अदेवम्) अप्रकाशाचा कारणीभूत भौतिक अंधकाराला व मानसिक नैराश्यरूप अंधकाराला (ओजसा) आपल्या शक्तीने (अभिभुवः) पराभूत करता (तुमची ही सर्व कर्मे खरोखर अति प्रशंसनीय आहेत.) पुढे परोक्षकृत वर्णन केले आहे, (म्हणजे कामना केली आहे की) असा तो (शतक्रतुः) अनंत प्रज्ञावान आणि अनंत कर्मवान परमेश्वर आम्हाला (ऊर्जम्) इच्छित कार्याला (विदेत्) पूर्ण करो.।। १०।।

    भावार्थ

    परमेश्वरच सूर्याद्वारे पृथ्वी आदी लोक- लोकांतरांना नाचवीत सूर्याच्या भोवती वा स्वतःच्या धुरीवर फिरवीत असतो. अंतरिक्षात थांबून असलेल्या पाण्याला तोच पृथ्वीवर आणतो. याचप्रमाणे आत्मलोकात थांबून वा सुप्तावस्थेत असलेल्या आनंदधारांना परमेश्वरच मनोभूमीवर आणतो. तोच परमेश्वर जसे विशाळ अंधकाराला विदीर्ण करून भौतिक प्रकाश उत्पन्न करतो, तसेच मनोभूमीवर व्याप्त तमोगुणाच्या प्रभावाला छिन्न- विच्छिन्न करतो व आत्म-प्रकाश प्रकटित करतो.।। १०।। या दशतीमध्ये सूर्य, पवमान, हरि, सविता, अग्नि, विष्णु या विविध नावाने जगदीश्वराच्या गुण- कर्मांचे वर्णन असून ङ्गविश्वेदेवाफ आणि मरुत्-गण यांचे आवाहन आहे. यामुळे या दशतीच्या विषयांशी मागील दशतीच्या विषयांची संगती आहे, असे जाणावे.।। पंचम प्रपाठकातील द्वितीय अर्धची तृतीय दशती समाप्त. चतुर्थ अध्यायाचा द्वादश खंड समाप्त. हा चतुर्थ अध्याय येथे संपला.

    विशेष

    या मंत्रात ‘रिणा, रिण,’ ‘देव देव’ ‘विदेदू, विदेदि’ या सर्व स्थानी छेकानुप्रास आहे.।। १०।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நடிப்பவனான தலைவனான இந்திரன் ஹிதஞ் செய்பவன்,
    முதல்வன். பூர்வகாலத்திலான உன் செயல்கள் தேவர்களால் சந்தோஷமுடன் சொல்லத்தகுந்தது. தேவர்களுடைய பலத்தோடு அசுரர்களின் பிராணனை இம்சித்து சலத்தைப் பிரேரிக்கவும். அவன் [1]வியாப்தன். [2] தமோ வடிவமான அசுரனைக் கொல்லட்டும். இந்திரன் பலத்தையும் பொருளையும் (உணவை) கொடுக்கட்டும்

    FootNotes

    [1]வியாப்தன்- எங்கும் நிறைந்தவன். [2]தமோ வடிவமான-இருள் ரூபமான

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