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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 469
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    13

    वृ꣡षा꣢ पवस्व꣣ धा꣡र꣢या म꣣रु꣡त्व꣢ते च मत्स꣣रः꣡ । वि꣢श्वा꣣ द꣡धा꣢न꣣ ओ꣡ज꣢सा ॥४६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ꣡षा꣢꣯ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । म꣣रु꣡त्व꣢ते । च꣣ । मत्सरः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣡धा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥४६९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः । विश्वा दधान ओजसा ॥४६९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । पवस्व । धारया । मरुत्वते । च । मत्सरः । विश्वा । दधानः । ओजसा ॥४६९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 469
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः सोमरस के धाराप्रवाह का आह्वान है।

    पदार्थ

    हे परमात्म-सोम ! (वृषा) अध्यात्म-संपत्ति की वर्षा करनेवाला तू (धारया) धारा-रूप में (पवस्व) प्रवाहित हो, (मरुत्वते च) और प्राणों के सहचर आत्मा के लिए (मत्सरः) आनन्ददायक हो। (ओजसा) अपने ओज से (विश्वा) सब आत्मा, मन, बुद्धि आदियों को (दधानः) धारण करनेवाला बन ॥३॥

    भावार्थ

    जब प्राणायाम-साधन और ध्यान के द्वारा रसनिधि परमेश्वर से धारारूप में आनन्द-रस का सन्दोह प्रस्रुत होता है, तब शरीर-राज्य के आत्मा, मन, बुद्धि आदि सभी अङ्ग तृप्त हो जाते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (वृषा मत्सरः) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू आनन्दवर्षक और हर्षालु हुआ (मरुत्वते च) प्राण वाले उपासक के लिये “प्राणो वै मरुतः” [ऐ॰ ३.१६] (धारया पवस्व) धारणा से प्राप्त हो (ओजसा विश्वा दधानः) अपने ओज से, प्रताप से सब दिव्यगुणों और सुखों को धारण कराता हुआ आ।

    भावार्थ

    आनन्द और हर्ष की वृष्टि करने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा प्राणवान् उपासक के लिये आनन्दधारा में आता है तथा उपासक के अन्दर अपने प्रताप से आनन्दित कर देता है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—भृगुर्वारुणिः (वरणव्यवहार कुशल तेजस्वी उपासक)॥<br>

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    विषय

    दीर्घ ओजस्वी जीवन

    पदार्थ

    हे सोम! तू (वृषा) = शक्तिशाली होता हुआ (धारया) = अपनी धारणशक्ति से (पवस्व) = हमारे में प्रवाहित हो। सोम का शरीर में प्रवेश हमारे शरीर को शक्तिशाली बनाता है। (च) = यह सोम (मरुत्वते) = मरुत्वान् के लिए प्राणों की साधना करनेवाले के लिए (मत्सरः) = आनन्द प्रवाहित करनेवाला होता है। प्राण - साधना के बिना सोम का पूर्णरूप से पान नहीं होता, प्राणायाम ही मनुष्य को उर्ध्वरेतस् बनाता है, उर्ध्वरेतस् बनने पर उसका शरीर नीरोग व सशक्त होता है और उसका मन निर्मल व आह्लादमय बनता है।

    यह सोम ही (विश्वा) = सबको (ओजसा-दधानः) = ओज से धारण करनेवाला होता है। सोम से केवल दीर्घायुष्य प्राप्त हो ऐसी बात नहीं - यह जीवन अन्त तक शक्तिशाली भी बना रहता है।

    प्राणायामरूप तप से अपना परिपाक करके ही यह सोम का पान कर पाता है अतः यह 'भृगु' [तपस्वी] है। इसका जीवन इस सोमपान से सुन्दर व श्रेष्ठ बनता है, अतः ‘वारुणि' है। इसकी पाचन शक्ति अन्त तक ठीक बनी रहती है, अतः यह 'जमदग्नि' है।

    भावार्थ

    सोमपान से मैं १. 'शक्तिशाली' बनूँ २. उल्लासमय जीवनवाला होऊँ और ३. जीवन के अन्तिम क्षण तक ओजस्वी बना रहूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे परमेश्वर ! तू ( वृषा ) = धर्मस्वरूप, सुखों का वर्षक, सबसे श्रेष्ठ, ( मत्सरः ) = सबको तृप्त करनेहारा और आनन्दस्वरूप होकर सबके हृदयों में व्यापक, ( मरुत्वते ) = प्राणों और समस्त वायुओं और प्रजाओं के स्वामी आत्मा, सूर्य, ईश्वर और राजा के लिये ( धारया ) = अपनी धारक पोषक शक्ति द्वारा ( विश्वा ) = समस्त प्राणियों, लोकों और प्रजाओं को अपने ( ओजसा ) = बल से ( दधानः ) = धारण करता हुआ ( पवस्व ) = प्रकाशित हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा।

    देवता - पवमानः ।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि सोमरसस्य धाराप्रवाहमाकाङ्क्षते।

    पदार्थः

    हे परमात्मसोम ! (वृषा) अध्यात्मसंपद्वर्षकस्त्वम् (धारया) धारारूपेण (पवस्व) प्रवह, (मरुत्वते च) प्राणसहचराय जीवात्मने च (मत्सरः) आनन्दस्रावको भवेति शेषः। मदम् आनन्दं सारयतीति मत्सरः२। “मत्सरः सोमो, मन्दतेस्तृप्तिकर्मणः” इति यास्कः। निरु० २।५। किञ्च (ओजसा) बलेन (विश्वा) विश्वानि आत्ममनोबुद्ध्यादीनि (दधानः) धारयन् भवेति शेषः ॥३॥

    भावार्थः

    यदा प्राणायामसाधनेन, ध्यानेन च रसनिधेः परमेश्वराद् धारारूपेणानन्दरससंदोहः प्रस्रवति तदा शरीरराज्यस्यात्ममनो- बुद्ध्यादीनि सर्वाण्येवाङ्गानि तृप्यन्ति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६५।१० ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। साम० ८०३। २. मदि धातोरौणादिके सरप्रत्यये रूपम् इति सत्यव्रतसामश्रमिणः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Bestower of comforts, the satisfier of all, nourishing all the people with Thy strength and power of protection, shine for the soul!

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    Meaning

    O lord of absolute abundance and creativity, sustainer of all worlds of existence by absolute power and grandeur, you are all bliss for the people of vibrancy, action and gratitude. Pray bring us showers of peace, purity and power for the good life. (Rg. 9-65-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ (वृषा मत्सरः) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું આનંદ વર્ષક અને હર્ષાળુ બનીને (मरुत्वते च) પ્રાણવાળા ઉપાસકને માટે (धारया पवस्व) ધારણાથી પ્રાપ્ત થા (ओजसा विश्वा दधानः) પોતાના ઓજથી, પ્રતાપથી સર્વ દિવ્યગુણો તથા સુખોને ધારણ કરાવતા આવ. (૩) 

     

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : આનંદ અને હર્ષની વૃષ્ટિ કરનાર, શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસકને માટે આનંદધારામાં આવે છે તથા ઉપાસકની અંદર પોતાનો પ્રતાપ આનંદિત કરી દે છે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    خُوشیوں کا منبع

    Lafzi Maana

    خوشیوں کا سرچشمہ، روحانیت کی مستی کو دینے والا، پرانوں کے سوامی پرمیشور کے لئے یہ بھگتی کا امرت رس میرے اندر پیدا ہوا ہے، پیارے سوم تو میرے ایک ایک انگ میں بہتا چل اور مجھ عابد میں اوصافِ حمیدہ کو دیتا جا۔

    Tashree

    خوشیوں کا منبع ہے آتمک شکتی کا ہے امرت دھام، مجھ میں اوصافوں کو دے گا بھگتی رس کا پیارا جام۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जेव्हा प्राणायाम-साधन व ध्यानाद्वारे रसनिधी परमेश्वराकडून धारारूपात आनंदरसाच्या राशी प्रवाहित होतात तेव्हा शरीर-राज्याचे आत्मा, मन, बुद्धी इत्यादी सर्व अंगे तृप्त होतात. ॥३॥

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    विषय

    पुन्हा सोम रस धारेची आकांक्षा

    शब्दार्थ

    हे परमात्म सोम, (वृषा) अध्यात्म संपदेची वृष्टी करणारा तू (धारया) धारा रूपएण प्रवाहित हो (मरुत्वतेच) आणि प्राणांचा सहचर जो आत्मा, त्याकरिता (मत्सरः) आनंददायक हो. (ओजसा) आपल्या ओजशक्तीद्वारे तू (विश्वा) सर्व आत्मा, मन, बुद्धी आदींना (दधामः) धारण करणारा हो.।। ३।।

    भावार्थ

    प्राणायाम - साधना आणि ध्यान याद्वारे रसनिधी परमेश्वरापासून धारारूपाने जेव्हा आनंद रसाचा पूर वाहत येतो, तेव्हा शरीर राज्याचे आत्मा, मन, बुद्धी आदी सर्व अंगे तृप्त होतात.।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சோமனே ! நீ உன் சகல பலத்தால் ஐசுவரியங்களையெல்லாம் ஜயித்துக்கொண்டு மருத்தின் தலைவனான இந்திரனுக்கு (உன் ஆத்மாவிற்கு) மகிழ்ச்சியளித்து வர்ஷிக்கும் தாரையோடு நீ பெருகவும்.

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