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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 495
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
28
अ꣣या꣢ वी꣣ती꣡ परि꣢꣯ स्रव꣣ य꣡स्त꣢ इन्दो꣣ म꣢दे꣣ष्वा꣢ । अ꣣वा꣡ह꣢न्नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥४९५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣या꣢ । वी꣣ती꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । यः꣢ । ते꣣ । इन्दो । म꣡दे꣢꣯षु । आ । अ꣣वा꣡ह꣢न् । अ꣣व । अ꣡ह꣢꣯न् । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥४९५॥
स्वर रहित मन्त्र
अया वीती परि स्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । अवाहन्नवतीर्नव ॥४९५॥
स्वर रहित पद पाठ
अया । वीती । परि । स्रव । यः । ते । इन्दो । मदेषु । आ । अवाहन् । अव । अहन् । नवतीः । नव ॥४९५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 495
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सोमरस से तृप्त हुआ मनुष्य क्या करे, यह कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्दो) आनन्दरस वा वीररस के भण्डार परमात्मन् ! आप (अया वीती) इस रीति से (परिस्रव) उपासकों के अन्तःकरण में प्रवाहित होवो, कि (यः) जो उपासक (ते मदेषु) आपसे उत्पन्न किये गये हर्षों में (आ) मग्न हो, वह (नव नवतीः) निन्यानवे वृत्रों को (अवाहन्) विनष्ट कर सके ॥ मनुष्य की औसत आयु वेद के अनुसार सौ वर्ष है। उसमें से नौ या दस मास क्योंकि माता के गर्भ में बीत जाते हैं, इसलिए शेष लगभग निन्यानवे वर्ष वह जीता है। उन निन्यानवे वर्षों में आनेवाले विघ्न निन्यानवे वृत्र कहाते हैं। सोमजनित आनन्द एवं वीरत्व से तृप्त होकर मनुष्य उन सब वृत्रों का संहार करने में समर्थ हो, यह भाव है ॥९॥
भावार्थ
परमेश्वर से झरा हुआ आनन्दरस वा वीररस स्तोता को ऐसा आह्लादित कर देता है कि वह जीवन में आनेवाले सभी विघ्नों वा शत्रुओं का संहार कर सकता है ॥९॥
पदार्थ
(इन्द्रो) हे आर्द्र आनन्दरसधारा वाले परमात्मन्! तू (अया वीती) इस व्याप्ति से (परिस्रव) सब ओर स्रवित हो कि (मदेषु) हर्षों में (यः-ते) जो तेरा हर्ष समन्तरूप से प्रसिद्ध है वह (नवतीः-नव) गति प्रवृत्तियाँ “नवते गतिकर्मा” [निघं॰ २१.१४] नौ—मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार और पाँच ज्ञानेन्द्रियों में होने वाली हैं, उन्हें (अवाहन्) निरुद्ध कर देता है—उपासक को मुमुक्षु बना देता है। ऐसा तू प्राप्त हो।
भावार्थ
आनन्दरस भरे परमात्मन्! तू इस व्याप्ति से ऐसे सब ओर से प्राप्त हो समस्त हर्षों—आनन्दों में तेरा हर्ष आनन्द प्रसिद्ध है वह उपासक की नेत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियों और मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार चार अन्तःकरणों की नौ गति प्रवृत्तियों को दबा दे—निरुद्ध कर दे—उपासक योगी से अलग कर जीवन्मुक्त बना दे॥९॥
विशेष
ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी का नहीं किन्तु मोक्षधाम का इच्छुक)॥<br>
विषय
नवतीर्नव का हनन या परमगति की प्राप्ति
पदार्थ
हे (इन्दो) = शक्ति देनेवाले सोम! तू (अया) = इस (वीती) = मार्ग से (परिस्त्रव) = मेरे अङ्ग - प्रत्यङ्ग में प्रवाहित हो (यः) = जिससे ते तेरा स्रवण- प्रवाह - (आ) = सब अङ्गों में चारों ओर (मदेषु) = मदों के निमित्त हो। सोम के शरीर में व्याप्त होने पर जीवन उल्लासमय बनता है। यह सोमी पुरुष (नवती:) = [नव गतौ] गतिमय- चञ्चल (नव) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों व अन्तःकरण चतुष्टय [मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार] को (अवाहन्) = दूर कर देता है। चञ्चलता के हनन से चञ्चल इन्द्रियों का हनन हो जाता है। शत्रुता के नाश से शत्रु के मित्र बन जाने पर शत्रु नष्ट हो जाता है। चञ्चलता के नष्ट हो जाने पर ये नवती- अत्यंत अस्थिर इन्द्रियाँ भी नष्ट हो जाती हैं और उनके स्थान में अवस्थित इन्द्रियों व मन का उदय होता है। ('यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह । बुद्धिश्च न विचेष्टते तमाहुः परमाङ्गतिम् ॥') = इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार यही परमगति है। अमहीयु पुरुष ही इस परमगति को जानता है। पार्थिव भोगों की कामनाएँ तो मनुष्य को अत्यन्त चञ्चल बनाए रहती हैं।
यहाँ 'नव' से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व पाँच कर्मेन्द्रियों का भी ग्रहण हो सकता है। इसमें वाक् या जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों में समान होने से वस्तुतः संख्या नौ ही है।
भावार्थ
मेरा जीवन सोम के द्वारा उल्लासमय हो और मैं इन अस्थिर इन्द्रियों को स्थिर करनेवाला बनूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे रसरूप ! ( ते ) = तेरे ( मदेषु ) = आनन्द-रसों में बह कर ( इन्द्रः ) = आत्मा ( नवती: नव ) = १६ वर्ष ( यः ) = जो ( अवाहन् ) = पार कर जाता है ( अया ) = इस ( वीती ) = रीति से ( परिस्रव ) = देह में व्याप्त रह, गति कर । ऐतिहासिक पत्र में इन्द्र का ९९ शम्बर की पुरियों का विनाश करना आदि आलंकारिक है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - अहमीयु:।
देवता - पवमानः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमरसेन तृप्तो जनः किं कुर्यादित्याह।
पदार्थः
हे (इन्दो) आनन्दरसस्य वीररसस्य वा अगारभूत परमात्मन् ! त्वम् (अया वीती) अनया रीत्या। वी गत्यादिषु, भावे क्तिन्। तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (परिस्रव) उपासकानाम् अन्तःकरणे परिस्यन्द, यथा (यः) उपासकः (ते मदेषु) त्वज्जनितेषु हर्षेषु (आ) आ भवेत् सः (नव नवतीः) वृत्राणां नवनवतिम् (अवाहन्) अवहन्यात्। अत्र लिङर्थे लङ्। शतायुर्वै पुरुषः। तस्य नव मासा दश मासा वा गर्भे व्यतीयन्ते। एवं प्रायेण नवनवतिवर्षाणि स जीवति। तेषु नवनवतिवर्षेषु जायमाना ये विघ्नास्ते नवनवतिर्वृत्राण्युच्यन्ते। तानि मनुष्यः सोमस्य मदे हन्यादिति भावः ॥९॥
भावार्थः
परमेश्वरात् प्रस्रुत आनन्दरसो वीररसो वा स्तोतारं तथा मादयति यथा स जीवने समागच्छतः सर्वानेव विघ्नान् शत्रून् वा हन्तुं प्रभवति ॥९॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६१।१, साम० १२१०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Shower Thy blessings on the soul, wherewith revelling in Thy delights, it may sojourn In the body for more than ninety nine years!
Meaning
O Soma, joyous ruler and protector of life, let this creative peace, presence, power and policy of yours prevail and advance, promoting those who join the happy advance, and repelling, dispelling, even destroying ninety-and-nine strongholds of darkness which obstruct the progress. (Rg. 9-61-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्रो) હે આર્દ્ર આનંદરસ ધારાવાળા પરમાત્મન્ ! તું (अया वीती) એ વ્યાપ્તિથી (परिस्रव) સર્વત્ર સ્રવિત થા કે (मदेषु) હર્ષોમાં (यः ते) જે તારો હર્ષ-આનંદ સમગ્ર રૂપમાં પ્રસિદ્ધ છે તે (नवतीः नव) ગતિ પ્રવૃત્તિઓ નવ-મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર અને પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયોમાં થનારી છે, તેને (अवाहन्) નિરુદ્ધ કરી દે છે-ઉપાસકને મુમુક્ષુ બનાવી દે છે. એવો તું પ્રાપ્ત થા. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : આનંદરસ ભરેલ પરમાત્મન્ ! તું એ વ્યાપ્તિથી એમ સર્વત્રથી પ્રાપ્ત થા. સમસ્ત હર્ષોઆનંદોથી તારો હર્ષ-આનંદ પ્રસિદ્ધ છે, તે ઉપાસકની નેત્ર આદિ પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયો અને મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર એ ચાર અન્તઃકરણની નવ ગતિ પ્રવૃત્તિઓને દબાવી દે-નિરુદ્ધ કરી દે-ઉપાસક યોગીથી અલગ કરીને જીવનમુક્ત બનાવી દે. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
آپ کی بھگتی میں سرشار بدیوں سے دُور ہیں
Lafzi Maana
پرمیشور دیو! جس آپ کے بھگتی رس میں مست ہو کر جیو آتما آپ کے دیئے ہوئے جسم کو نو دروازوں، دو آنکھ، دو کان، دو ناک نتھنے، ایک منہ اور پیشاب پاخانے کے دو سوراخ یا پانچ گیان اِندری (دیکھنا، سُننا، سُونگھنا، چکھنا اور چُھونا) اور من بُدھی، چِت، اہنکار، ان سبھی نو کو بس میں کر لیتا ہے، ویسے ہی ہم آپ کے آنند میں بھر کر 810 قسم کی بُرائیوں سے دُور ہو کر سو برس تک جئیں۔
Tashree
بدیوں سے ہوں دُور اور سرشار آپ کی بھگتی میں، خُود کو اپنے بس میں کر سو ورش جئیں شکتی میں۔
मराठी (2)
भावार्थ
परमेश्वराकडून पाझरलेला आनंदरस किंवा वीररस प्रशंसकाला असा आल्हादित करतो की तो जीवनात येणाऱ्या सर्व विघ्नांचा किंवा शत्रूंचा नाश करू शकतो ॥९॥
विषय
सोम रसाने तृप्त मनुष्याने काय करावे, याविषयी
शब्दार्थ
(इन्दो) आनंद रसाचे व वीररसाचे भंडार हे परमेश्वर, आपण (अया वीती) या रीतीने (परि स्रव) उपासकांच्या अंतःकरणात प्रवाहित व्हा की ज्यायोगे (यः) जो कोणी उपासक (मदेषु) तुम्ही दिलेल्या नंदात (आ) मग्न होईल आणि त्याचे विरोधी असणाऱ्या (नवनवतीः नव्याण्णव वृत्रांचा (अवाहन्) संहार करू शकेल.।। वेदांप्रमाणे माणसाचे सरासरी आयुष्य शंभर वर्षाचे आहे. पैकी नऊ वा दहा महिने आईच्या गर्भात व्यतीत होतात, म्हणून माणूस प्रत्यक्षात नव्वाण्णव वर्ष जगतो. त्या नव्याण्णव वर्षात येणारी नव्याण्णव विघ्ने यांना वृत्र म्हणतात. सोमजनित आनंदाने व वीरत्वाने तृप्त होऊन माणसाने त्या सर्व वृत्रांचा संहार करण्यात समर्थ व्हावे, हा आशय आहे.।। ९।।
भावार्थ
परमेश्वरापासून झरत असलेला आनंदरस अथवा वीररस स्तोताजनाला इतके आल्हादित करून टाकतो की तो जीवनात येणाऱ्या सर्व विघ्नांचा आणि शत्रूंचा संहार करू शकतो.।। ९।।
तमिल (1)
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உன் சந்தோஷத்தில் 99 மேகங்களைக் கொன்ற (இந்திரன்) இந்த ரசத்தோடு புசிக்க நீ பெருகவும்.
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