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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 498
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    19

    आ꣢ ते꣣ द꣡क्षं꣢ मयो꣣भु꣢वं꣣ व꣡ह्नि꣢म꣣द्या꣡ वृ꣢णीमहे । पा꣢न्त꣣मा꣡ पु꣢रु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥४९८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । ते꣣ । द꣡क्ष꣢꣯म् । म꣣योभु꣡व꣢म् । म꣣यः । भु꣡व꣢꣯म् । व꣡ह्नि꣢꣯म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । वृ꣣णीमहे । पा꣡न्त꣢꣯म् । आ । पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् ॥४९८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते दक्षं मयोभुवं वह्निमद्या वृणीमहे । पान्तमा पुरुस्पृहम् ॥४९८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ते । दक्षम् । मयोभुवम् । मयः । भुवम् । वह्निम् । अद्य । अ । द्य । वृणीमहे । पान्तम् । आ । पुरुस्पृहम् । पुरु । स्पृहम् ॥४९८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 498
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से बल की प्रार्थना है।

    पदार्थ

    हे पवमान सोम, हे पवित्रतादायक आनन्दरसमय परमात्मन् ! हम (ते) आपके (मयोभुवम्) सुखदायक, (वह्निम्) लक्ष्य की ओर ले जानेवाले, (पान्तम्) रक्षक, (पुरुस्पृहम्) बहुत चाहने योग्य (दक्षम्) बल को (अद्य) आज (आ वृणीमहे) स्वीकार करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा से जो बल और शुभकर्मों में उत्साह प्राप्त होता है, उससे सुख, लक्ष्यपूर्ति और रक्षा की वृद्धि होती है ॥२॥

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    पदार्थ

    (ते) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरे (मयोभुवम्) सुख को भावित करने वाले—(वह्निम्) जीवनवाहक—(पुरुस्पृहम्) बहुत चाहने योग्य—(आ) और “एतस्मिन्नेवार्थे ‘समुच्चयार्थे’ आ—इत्याकारः” [निरु॰ १.५] (पान्तम्) रक्षा करने वाले—(दक्षम्) बल को (अद्य) इस जीवन में (आवृणीमहे) स्वीकार करते हैं—समन्तरूप से वरते हैं—अपनाते हैं।

    भावार्थ

    परमात्मन्! तेरे सुखोद्भावक जीवनवाहक बहुत कमनीय और रक्षक बल को इसी जीवन में समन्तरूप से भरते हैं॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—भृगुः (तेजस्वी उपासक)॥<br>

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    विषय

    दक्षता = कुशलता

    पदार्थ

    गत मन्त्र का मेधातिथि 'भृगु' - तपस्या के द्वारा अपना परिपाक करनेवाला बनता है - तपस्या से परिपक्व होकर ही तो यह मेधा का संचय करनेवाला ज्ञानी बनेगा। यह हृदय को पवित्र करके अथवा अपने को व्रतों के बन्धनों में बाँधकर 'वारुणि' होता है और यही मेधातिथि खाने-पीने में भी ठीक दृष्टिकोण होने के कारण ‘जमदग्नि' बनता है। यह प्रभु से कहता है कि हम (अद्या ते) = आज ही आपके इस सोम का आवृणीमहे सर्वथा वरण- चुनाव करते हैं। इस सोम को ही सुरक्षित करने का ध्यान करते हैं, जोकि १. (दक्षम्) = मुझे दक्ष चतुर कार्यकुशल बनाता है। २. मैं उस सोम का वरण करूँ जोकि (मयोभुवम्) = स्वास्थ्य के सुख को उत्पन्न करनेवाला है। सोम के संयम से मे सब रोगों का अभिभव कर पाता हूँ। रोगों से दूर हो स्वास्थ्य सुख का अनुभव करता हूँ। ३. (वह्निं) = यह सोम मुझे सब विघ्न-बाधाओं से और अन्त में संसार से पार ले जानेवाला है [ वह् = to carry ] | सोम से मनुष्य में शक्ति, उल्लास व ऐसे उत्साह का संचार होता है कि पहाड़ जैसे विघ्नों में भी व्याकुल नहीं होता। ४. (पान्तम्) = यह सोम मेरी रक्षा करता है। सोम मुझे रोगों का शिकार तो होने ही नहीं देता–प्रलोभनों का शिकार होने से भी बचाता है - इससे मेरे मन मे ईर्ष्या-द्वेष आदि भी नहीं उत्पन्न होते। ५. (आपुरुस्पृहम्) = यह सोम मेरे अन्दर महान् स्पृहा को जन्म देता है। मेरे अन्दर महान् कार्य कर जाने की भावना उत्पन्न होती है। वस्तुतः यह 'पुरुस्पृहता' प्रलोभनों से बचने में भी तो सहायक होती है।

    भावार्थ

    सोम मुझे दक्षता प्राप्त कराता है - मैं संसार में उत्कृष्ट स्पृहावाला बनता हूँ। 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे प्रभो ! ( ते ) = तेरे ( मयोभुवं ) = शान्ति और कल्याण के जनक, ( वह्निं ) = सुखों के प्राप्त कराने वाले, ( पान्तं ) = पालक, ( पुरुस्पृहं ) = सबके अभिलाषा योग्य, ( दक्षं ) = बल की ( अद्य ) = इस समय हम ( आ वृणीमहे ) = सब प्रकार से याचना करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भृगु:।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमं परमात्मानं बलं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे पवमान सोम ! पवित्रतादायक आनन्दरसमय परमात्मन् ! वयम् (ते) तव (मयोभुवम्) सुखदायकम्, (वह्निम्) लक्ष्यं प्रति वाहकम्, (पान्तम्) रक्षकम्, (पुरुस्पृहम्) बहु स्पृहणीयम् (दक्षम्) बलम्। दक्ष इति बलनाम। निघं० २।९। (अद्य) अस्मिन् दिने। संहितायां निपातत्वाद् दीर्घश्छान्दसः। (आ वृणीमहे) स्वीकुर्महे ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्मनः सकाशाद् यद् बलं शुभकर्मसूत्साहश्च प्राप्यते, तेन सुखं लक्ष्यपूर्ती रक्षा च वर्धते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६५।२८, ऋषिः भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा। साम० ११३७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, we pray for Thy vigour, the generator of peace, virtue and happiness, the afforder of protection, and desired by all!

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    Meaning

    Today here and now, we choose for ourselves and pray for your power, peace and bliss, light and fire which is universally loved, all protective, promotive and all sanctifying. (Rg. 9-65-28)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ते) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારા (मयोभुवम्) સુખને ભાવિત કરનાર, (वह्निक्) જીવનવાહક, (पुरुस्पृहम्) અત્યંત ચાહવા યોગ્ય, (आ) અને (पान्तम्) રક્ષા કરનાર, (दक्षम्) બળને (अद्य) આ જીવનમાં (आवृणीमहे) સ્વીકાર કરીએ છીએ-સમગ્ર રૂપથી વરીએ છીએ-અપનાવીએ છીએ. (૨)

     

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તાર સુખોદ્ભાવક, જીવનવાહક, અત્યંત કમનીય અને રક્ષકબળને આ જીવનમાં સમગ્ર રૂપથી ભરીએ છીએ. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ہم تُجھے وَرن کرتے ہیں!

    Lafzi Maana

    ہے سوم پربُھو! تیرے سُکھ دینے والے زر و مال کی بخشش کرنے والے، شتروؤں سے حفاظت کرنے والے اور سب لوگ جس کو چاہتے ہیں، اُس تیرے بَل کو ہم آج ہی وَرن کرتے ہیں، اپنے اندر دَھارن کرتے ہیں۔

    Tashree

    سوم پربُھو سُکھ داتا دھن کے دانی سب کا رکھشک تُو، چاہتی ہے ساری دُنیا جس کو ہم بھی چاہتے تُو ہی تُو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमात्म्याकडून जे बल व शुभ कर्मात उत्साह प्राप्त होतो, त्यापासून सुख, लक्ष्यपूर्ती व रक्षण यामध्ये वृद्धी होते ॥२॥

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    विषय

    सोम परमेश्वराकडून बळ मिळण्याची प्रार्थना

    शब्दार्थ

    हे पवमान सोम, हे पावित्र्यदायक परमेश्वर, आम्ही (उपासक) (ते) तुमच्या त्या (मयोभुवम्) सुखकर, (वहिृम्) ध्येयाकडे जाणाऱ्या आणि (पान्तम्) आमची रक्षा करणाऱ्या (पुरुस्पृहम्) अत्यंत वांछनीय अशा (दक्षम्) मनोबल व शारीरिक बळाचे (अघ) आज (आ वृणीमहे) स्वीकार करीत आहोत.।। २।।

    भावार्थ

    परमेश्वराकडून जी शक्ती आणि शुभक याविषयी जो उत्साह मिळतो, त्याने माणसाच्या सुखात, कार्यसिद्धीत आणि रक्षणात वृद्धी होते.।। २।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அவன் சூரியனோடு பிரகாசிக்கிறான். சுகத்தையளிப்பவனாய் ஐசுவரியமளிப்பவனாய் ரட்சகனாய் அனைவராலும் விரும்பப்படும் உன் பலத்தை இன்று அழைக்கிறோம்.

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