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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 5
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    187

    प्रे꣡ष्ठं꣢ वो꣣ अ꣡ति꣢थिꣳ स्तु꣣षे꣢ मि꣣त्र꣡मि꣢व प्रि꣣य꣢म् । अ꣢ग्ने꣣ र꣢थं꣣ न꣡ वेद्य꣢꣯म् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रे꣡ष्ठ꣢꣯म् । वः꣣ । अ꣡ति꣢꣯थिम् । स्तु꣣षे꣢ । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । इ꣣व । प्रिय꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । न । वे꣡द्य꣢꣯म् ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेष्ठं वो अतिथिꣳ स्तुषे मित्रमिव प्रियम् । अग्ने रथं न वेद्यम् ॥५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रेष्ठम् । वः । अतिथिम् । स्तुषे । मित्रम् । मि । त्रम् । इव । प्रियम् । अग्ने । रथम् । न । वेद्यम् ॥५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 5
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उस परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्रणी परमात्मन् ! (प्रेष्ठम्) सबसे अधिक प्रिय (अतिथिम्) अतिथिरूप, (मित्रम् इव) मित्र के समान (प्रियम्) प्रिय, (रथं न) रथ के समान, (वेद्यम्) प्राप्तव्य (वः) आपकी, मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥५॥ यहाँ मित्र के समान प्रिय और रथ के समान प्राप्तव्य में उपमालङ्कार है। अग्नि में अतिथित्व के आरोप में रूपक है ॥५॥

    भावार्थ

    मित्र जैसे सबको प्रिय होता है, वैसे परमात्मा उपासकों को प्रिय है। रथ जैसे गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए प्राप्तव्य होता है, वैसे ही परमात्मा प्रेय-मार्ग और श्रेय-मार्ग के लक्ष्यभूत ऐहिक और पारलौकिक उत्कर्ष को पाने के लिए सबसे प्राप्त करने योग्य तथा स्तुति करने योग्य है। हृदयप्रदेश में विद्यमान परमात्मा साक्षात् घर में आया हुआ सबसे अधिक प्रिय अतिथि ही है, अतः वह अतिथि के समान सत्कार करने योग्य है ॥५॥

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    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (वः) तुझ ‘वः-त्वाम्-व्यत्ययेन बहुवचनम्’ (मित्रम्-इव प्रियम्) मित्र-समान प्रिय को (वेद्यं रथं न) वेदि—पृथिवी “पृथिवी वै वेदिः” [ऐ॰ ५.२८] पर रमण करने योग्य प्रिय रथ की भाँति “न उपमार्थे” (निरु॰ १.४) मेरे अन्तःकरण में रमण करने वाले (प्रेष्ठम्—अतिथिम्) मित्र और रथ से भी प्रिय अतिथिदेव की (स्तुषे) मैं स्तुति करता हूँ।

    भावार्थ

    परमात्मन्! तू मेरा प्रियतम अतिथि है, तू मेरे हृदय गृह में या अन्तःकरण सदन में आता है, परमात्मन्! तुझे रथ प्रिय है और मुझे उससे भी अधिक प्रिय है वह तो प्रियतर है, मेरा रथ है मेरा शरीर “यदनो वा रथं वा शरीरम्” [मै॰ ४.८.३] मेरा मित्र है मेरा प्राण “प्राणो मित्रम्” [जै॰ उ॰ ३.१.३.६] परन्तु परमात्मन्! तू मेरे शरीर और प्राण से भी अत्यन्त प्रिय है मैं तेरी स्नेहपूर्ण स्तुति करता हूँ। लौकिक रथ प्यारा है देह का सहारा है लौकिक मित्र प्यारा है मन का सहारा है परमात्मन्! तू अत्यन्त प्यारा है, आत्मा का सहारा है अतः मेरा अतिथि बनजा मेरे शरीर में नस नस में बसजा मेरे प्राण में रमजा मुझ आत्मा में समा जा, तू लेने वाला अतिथि नहीं तू तो लाने वाला अतिथि है अतएव तू अत्यन्त प्यारा है स्तुति लेजा शान्तिप्रसाद देजा॥५॥

    टिप्पणी

    [*3. “वश कान्तौ” (अदादि०) “वशेः कनसि” (उणा॰ ४.२३४) उशनाः॥]

    विशेष

    ऋषिः—उशनाः (अपने कल्याणार्थ परमात्मसङ्गति को चाहने वाला*3)॥<br>

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    विषय

    यात्रा का रथ

    पदार्थ

    उपदेशक–इस मन्त्र का ऋषि ‘उशना' सबका हित चाहनेवाला, अपने श्रोतृवृन्द [Audience] से कहता है कि वे प्रभु( प्रेष्ठम्)=अत्यन्त कान्तिमान् हैं। ('दिवि सूर्यसहस्त्रस्य')= हज़ारों सूर्य के समान उस प्रभु की दीप्ति है। वे आदित्यवर्ण हैं, परन्तु इतने कान्तिमान् होते हुए भी वे प्रभु (वः) = तुम्हारे तो (अतिथिम्)= मेहमान की भाँति हैं। जिस प्रकार अतिथि के दर्शन घर पर कभी-कभी होते हैं, उसी प्रकार उस प्रभु का दर्शन भी कभी-कभी होता है। इसपर भी वह प्रभु (मित्रम् इव) = स्वाभाविक स्नेह करनेवाले मित्र की भाँति (प्रियम्)= विविध आवश्यक वस्तुओं की सृष्टि करके जीव को तृप्त करनेवाले हैं। जीव प्रभु की ओर अपनी दृष्टि करे या न करे, प्रभु तो उसपर अपनी कृपा-दृष्टि बनाये ही रखते हैं। माता-पिता के स्नेह में भी कुछ स्वार्थ हो सकता है, परन्तु उस स्वाभाविक मित्र का स्नेह स्वार्थ की गन्ध से परे है। 
    वे प्रभु (अग्ने)=[अग्निं] जीव को आगे ले-चलनेवाले हैं। (रथं न)= रथ की भाँति (वेद्यम्)=जानने योग्य है। जिस प्रकार रथ से यात्रा की पूर्ति में सहायता मिलती है, उसी प्रकार मानव-जीवन की यात्रा भी इस प्रभुरूप रथ पर आरूढ़ होने से ही पूर्ण होगी। इस भावना को उपनिषदों में ‘ब्रह्म-निष्ठ' शब्द से स्पष्ट किया गया है। यही 'ईश्वर-प्रणिधान'=अपने को ईश्वर में रख देना है। इस जीवन-यात्रा में होनेवाले विविध विघ्नों को जीतने का एक ही उपाय है- ब्रह्मरूपी रथ में स्थित होना ।
    ऋषि उशना कहते हैं कि इस ब्रह्म का ही (स्तुषे) मैं स्तवन करता हूँ, इसी के गुणों का गायन करता हूँ। यही तो कल्याण का मार्ग है। 

    भावार्थ

    वे प्रभु अत्यन्त कान्तिमान्, जीव के मित्र, उसकी उन्नति के साधक तथा उसके लिए जीवन यात्रा में रथ के समान हैं।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( व : ) = तुम्हारे ( प्रेष्ठम् ) = सबसे अधिक प्रिय, ( मित्रम् इव प्रियम् ) = मित्र के समान प्यारे ,( अतिथिम् १  ) = सर्वव्यापक, अतिथि के समान आदरणीय ईश्वर की ( स्तुपे ) = स्तुति करता हूं ।  हे अग्ने  ! प्रकाशस्वरूप ! तू ( रथं न वेद्यम् २ ) रथ के समान समस्त पदार्थों को प्राप्त करानेहारा, या रस के समान अनुभव वैद्य है ।


     

    टिप्पणी

    १ 'अग्निम् ' इति पाठभेदः, ऋ० । 
    २ .'अतेरिथिन् ' अतिथिः । अभ्यतितो गृहान् इति । नि० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - उशना काव्यः
    छन्दः - गायत्री

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तं परमात्मानमहं स्तौमीत्याह।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) अग्रणीः परमात्मन् ! (प्रेष्ठम्) प्रियतमम्। प्रियशब्दाद् इष्ठनि प्रियस्थिर० अ० ६।४।१५७ इति प्रियस्य प्रादेशः। (अतिथिम्) अभ्यागतरूपम् (मित्रम् इव) सुहृदमिव (प्रियम्) प्रेमास्पदम्, (रथं न) यानमिव। अत्र न इत्युपमार्थीयः। यथाह निरुक्तकारः— उपरिष्टादुपचारस्तस्य येनोपमिमीते इति। निरु० १।४। (वेद्यम्२) प्राप्यम्। विद्लृ लाभे इति धातोर्ण्यत् प्रत्ययः। (वः३) त्वाम्। अहम् (स्तुषे) स्तौमि। ष्टुञ् स्तुतौ इत्यस्माल्लेटि सिब्बहुलं लेटि अ० ३।१।३४ इति सिपि उत्तमैकवचने रूपम् ॥५॥ अत्र मित्रमिव प्रियम्, रथं न वेद्यम् इत्युभयत्रोपमालङ्कारः। अग्नौ अतिथित्वारोपाच्च रूपकम् ॥५॥

    भावार्थः

    सुहृद् यथा सर्वेषां प्रियो भवति, तथोपासकानां परमात्मा प्रियः। किञ्च, रथो यथा गन्तव्यस्थानं गन्तुं लब्धव्यो भवति, तथैव परमात्मा प्रेयोमार्गस्य श्रेयोमार्गस्य च लक्ष्यम् ऐहिकपारलौकिकोत्कर्षम् अधिगन्तुं सर्वैः प्राप्तव्यः स्तोतव्यश्च। अपिच, हृत्प्रदेशे विद्यमानः परमात्मा साक्षाद् गेहं समायातः प्रेष्ठोऽतिथिरेव। अतः सोऽतिथिवत् सत्करणीयः ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।८४।१ अग्ने इत्यस्य स्थाने अग्निं इति पाठः। साम० १२४४। २. कीदृशम् अग्निम्? उच्यते। वेद्यं वेदनार्हम्, ज्ञानार्हमित्यर्थः इति विवरणकारः। रथमिव वेद्यं लम्भनीयम् इति भरतस्वामी। वेद्यम्। वेदो धनं, धनहितं लाभहेतुं, यथा धनेन रथं लभते तद्वत् स्तोतारोऽनेन धनं लभन्ते, तादृशधनलाभकारणम् इति सा०। ३. ‘बहुवचनमिदमेकवचनस्य स्थाने द्रष्टव्यम् इति वि०। वः इति वचनव्यत्ययः, त्वामित्यर्थः इति भ०। वः त्वाम्, पूजार्थे बहुवचनम् इति सा०। यद्यपि बहुवचनस्य वस्नसौ। अ० ८।१।२१ इत्युक्तम्, तथापि छन्दसि एकवचनस्यापि भवतः, बहुत्र तथा प्रयोगदर्शनात्।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    I praise God, Dearest unto you all, lovable like a friend. All pervading and worthy of respect like a guest. O Effulgent Lord, Thou art the grantor of all objects like a war-chariot.

    Translator Comment

    Just as a war-chariot grants us victory, which secures us worldly wealth, so does God grant us all desired objects.

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    Meaning

    I sing and celebrate for you the glories of Agni, lord omniscient, light and leader of the world, dearest and most welcome as an enlightened guest, loving as a friend, who, like a divine harbinger, reveals the light of knowledge to us. (Rg. 8-84-1)

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    Translation

    I adore Thee as the dearest guest
    | love Thee as the friend closest
    Thou are worthy of being known
    Art like a Charioteer of renown
    Thou leadest us to abiding joy
    Where nothing worldly can annoy. 

    Comments

    Like a good charioteer, God leads us to our destined goal i. e. emancipation. 

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    Translation

    I adore fire-divine, dear as a guest and loving as a friend, who brings us riches as if laden on a chariot. (Cf. S. 244; Rv VIII. 84.1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (वः) તું (मित्रम् इव प्रियम्) મિત્ર સમાન પ્રિય, (वेद्यं रथं नः) વેદિ = પૃથિવી પર રમણ-યાત્રા કરવા યોગ્ય પ્રિય રથની સમાન મારા અંતઃકરણમાં રમણ કરનાર, (प्रेष्ठम् अतिथिम्) મિત્ર અને રથથી પણ પ્રિય અતિથિ દેવની (स्तुषे) હું સ્તુતિ કરું છું. (પ)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું મારો પ્રિયતમ અતિથિ છે, તું મારા હૃદયરૂપી ગૃહમાં અર્થાત્ અંતઃકરણ રૂપ ઘરમાં બિરાજે છે. હે પરમાત્મન્ ! તને રથ પ્રિય છે અને મને તેથી પણ અધિક પ્રિય છે, પ્રિયતર છે, મારું શરીર એ મારો રથ છે.

    મારો મિત્ર એ મારો પ્રાણ છે, પરન્તુ હે પરમાત્મન્ ! તું મને મારા શરીર અને પ્રાણ કરતાં પણ અત્યંત પ્રિય છે. હું તારી સ્નેહપૂર્વક ભાવથી સ્તુતિ કરું છું.

    જેમ સાંસારિક-જીવનયાત્રામાં રથ પ્રિય અને શરીરનો સહાયક છે. જેમ સાંસારિક મિત્ર પ્રિય અને મનનો સહાયક છે; તેમ હે પરમાત્મન્ ! તું અત્યંત પ્રિય અને આત્માનો સહાયક છે. તેથી મારો અતિથિ બની જા, મારા શરીરની નસે-નસમાં વાસ કર, મારા પ્રાણમાં રમણ કર, મારા આત્મામાં સમાઈ જાવ્યાપક બની જા. તું લેનાર અતિથિ નહિ, પરન્તુ તું તો આપનાર અતિથિ છો, તેથી તું અત્યંત પ્રિય છો, સ્તુતિ લઈ જા અને શાંતિપ્રસાદ પ્રદાન કરી જા. (૫)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    زندگی کی منزل کا رتھ

    Lafzi Maana

    (اگنے) ہے گیان سوروپ پرماتمن! (وہ) تُجھ (مِترم) اِدپریمّ) متر کے سمان پیار سے (ویدیمّ رتھم نہ) بھومی پر چلنے والے سُندر رتھ کی طرح سب کے سہارے۔ آتما کے اندر رمن کرنے والے (پریشٹھم اتتِھیم) اتی پریہ آدرنیہ اتتھی دیو کی میں (سُتشے) سُتتی (حمد و ثنا) کرتا ہوں۔

    Tashree

    پرمیشور دیو ہماری جیون یاترا کا رتھ ہے۔ ہماری زندگی کی منزلیں کبھی سُکھ پوروک طے نہیں ہو سکتیں بِنا پربھو کو اپنی سواری یا سہارا بنانے کے۔ مایا کی سواری کرتے کرتے خوش قسمتی سے ملا انسانی جامہ گناہوں نے داغ داغ کر دیا۔ کس طرح ہوگا یہ ہمارا مانوی جیون سپھل؟ جب تک ہم "سُپروم بتومایئہ خویش را، تُو دانی حسابِ کم و بیش را"۔ کے مطابق اپنے آپ کو بھگوان کی جھولی میں ڈال نہیں دیتے یعنی ایشور پر ندِھان۔ دوسرا یہ کہ بھگوان سروویاپک ہر جگہ حاضر و ناظر ہیں تو لیکن رہے قسمت اُس کے درشن کبھی کبھی آتما میں ہو جاتے ہیں مانندِ خواب۔ پھر ہم مایا (پرکرتی) کے چکر میں پھنس جاتے ہیں اور خُدا پھر غائب۔ آؤ! اِس صدھا قابلِ عزّت اتتھی (مہمان) کو زندگی کا رتھ مان کر ہر وقت حاضر حضور رہنے کے لئے کوشاں ہوں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा मित्र सर्वांना प्रिय असतो तसा परमात्मा उपासकांना प्रिय असतो. रथ जसा गन्तव्य स्थानी पोचण्यासाठी तत्पर असतो, तसेच परमात्मा प्रेयमार्ग व श्रेयमार्गाला लक्षित करून ऐहिक व पारलौकिक उत्कर्ष होण्यासाठी सर्वांनी प्राप्त करण्यायोग्य व स्तुती करण्यायोग्य असतो. हृदय प्रदेशात विद्यमान परमात्मा घरी आलेला सर्वात अधिक प्रिय अतिथीच आहे, त्यासाठी तो अतिथीप्रमाणे सत्कार करण्यायोग्य आहे. ॥५॥

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    शब्दार्थ

    हे (अग्ने) अग्रणी परमात्मन् (श्रेष्ठम्) सर्वाधिक प्रिय अतिथी (अतिथिम्) अतिथिप्रमाणे असलेल्या तसेच (मित्रम् इव) मित्राप्रमाणे (प्रिय) असलेल्या तसेच (रथं न) रथाप्रमाणे (वेद्यम्) प्राप्तव्य असलेल्या (व:) आपली मी (स्तुषे) स्तुती करतो. ।।५।। या मंत्रात मित्रम् इव आणि रथं च या शब्दात उपमा अलंकार आहे. ।।५।।

    भावार्थ

    जसा मित्र सर्वांना प्रिय असतो, परमात्मादेखील तसाच उपासकांना प्रिय वाटतो, जसे एक रथ गन्तव्य स्थानाकडे जाण्यासाठी प्राप्तव्य असतो, तसेच प्रेयमार्ग व श्रेय मार्गाच्या लक्ष्यापर्यंत म्हणजे ऐहिक आणि पारलौकिक उत्कर्ष प्राप्तीसाठी सर्वांनी परमात्म्याची प्राप्ती व स्तुती केली पाहिजे. आपल्या हृदयप्रदेशात विद्यमान परमात्मा प्रत्यक्ष आपल्या घरात आलेला सर्वाधिक प्रिय अतिथी आहे. म्हणूनच त्याचा अतिथिप्रमाणे सत्कार केला पाहिजे. (हृदयात त्याचे ध्यान केले पाहिजे.) ।।५।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (அக்னியே!) பிரியமாய் (அதிதி)யான உன்னை (ரதத்தைப்போல்) (வேத
    ஐசுவரியத்தை)
    ஐயிக்கும் (பிரிய நண்பனை)ப்போல் துதிக்கிறேன்
    .

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