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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 511
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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    पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ धा꣡र꣢या꣣पो꣡ वसा꣢꣯नो अर्षसि । आ꣡ र꣢त्न꣣धा꣡ योनि꣢꣯मृ꣣त꣡स्य꣢ सीद꣣स्युत्सो꣢ दे꣣वो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥५११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु꣣नानः꣢ । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । अ꣣पः꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । अ꣣र्षसि । आ꣢ । र꣣त्नधाः꣢ । र꣣त्न । धाः꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सी꣣दसि । उ꣡त्सः꣢꣯ । उत् । सः꣣ । देवः꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥५११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि । आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देवो हिरण्ययः ॥५११॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनानः । सोम । धारया । अपः । वसानः । अर्षसि । आ । रत्नधाः । रत्न । धाः । योनिम् । ऋतस्य । सीदसि । उत्सः । उत् । सः । देवः । हिरण्ययः ॥५११॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 511
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (सोम) पवित्र रस के भण्डार परमात्मन् ! आप (धारया) अपनी आनन्द-धारा से (पुनानः) पवित्रता लाते हुए, (अपः) कर्म को (वसानः) आच्छादित अर्थात् प्रभावित करते हुए (अर्षसि) उपासकों के हृदय में व्याप्त होते हो। (रत्नधाः) रमणीय गुणरूप रत्नों के प्रदाता आप (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) गृहरूप जीवात्मा को (आ सीदसि) प्राप्त होते हो। आप (उत्सः) आनन्द के झरने, (देवः) विद्या, सुख आदि के प्रदाता और (हिरण्ययः) ज्योतिर्मय तथा यशोमय हो ॥१॥

    भावार्थ

    पवित्र परमेश्वर अपने उपासकों के हृदयों और कर्मों को पवित्र करता हुआ, उनके आत्मा में निवास करता हुआ, उन्हें आनन्द के झरने में स्नान कराता हुआ, ज्योति से प्रदीप्त करता हुआ यशस्वी बनाता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (पुनानः) मुझको शोधता हुआ—पवित्र करता हुआ, तथा (धारया) ध्यान धारणा से (अपः-वसानः) मेरे प्राणों को “आपो वै प्राणाः” [श॰ ३.८.२.४] आच्छादित—आवृत करता हुआ—रक्षित करता हुआ (अर्षसि) प्राप्त होता है (रत्नधा) रमणीय भोगों का धारण करने वाला (ऋतस्य योनिम्-आसीदसि) अध्यात्मयज्ञ में “यज्ञो वा ऋतस्य योनिः” [श॰ १.३.४.१६] आ विराजता है (हिरण्ययः-उत्सः-देवः) तू ही सुनहरा अमृतकूप, देव अमृतधाम मोक्षधाम है “असौ वै द्युलोक उत्सो देवः” [जै॰ १.१२१] “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३]।

    भावार्थ

    हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू मुझ उपासक को पवित्र करता हुआ तथा मेरे प्राणों को ध्यानधारणा से सुरक्षित करता हुआ प्राप्त होता है। तू रमणीय भोगों को धारण करने वाला मेरे अध्यात्मयज्ञ में विराजमान होता है। तू ही मोक्षधाम या सुनहरी अमृत कूप है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—‘भरद्वाजः कश्यपः, गोतमः, अत्रिः, विश्वामित्रः, जमदग्निः, वसिष्ठः’ इति सप्तर्षयः (सम्पूर्ण खण्ड के ये भरद्वाज आदि सात ऋषि हैं। अर्थ पीछे आ चुके हैं)॥ छन्दः—बृहती॥<br>

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    विषय

    सप्त ऋषि

    पदार्थ

    (सोम) = हे सोम! तू (धारया) = धारण के हेतु से (पुनान:) = मेरे शरीर को पवित्र कर डालता है। तू इस शरीर में मलों का संचय नहीं होने देता, न रोग होते हैं, न शक्ति क्षीण होती है। उत्तरोत्तर शक्ति का संचय होकर मैं 'भरद्वाज' - अपने में शक्ति को भरनेवाला बनता हूँ। शक्ति के साथ मस्तिष्क की पवित्रता से मैं ज्ञान - सम्पन्न 'बार्हस्पत्य' बनता हूँ। मेरे स्वस्थ शरीर में मन भी स्वस्थ होता है। मेरा दृष्टिकोण ठीक होता है, मैं संसार के तत्त्व को देखता ‘कश्यप’ बनता हूँ। आलस्य इत्यादि की भावनाओं को मारनेवाला ‘मारीच' होता हूँ। ऐसा व्यक्ति सारे संसार को क्रियाशील देखता हुआ, क्रिया को ही संसार का मूलतत्त्व समझता हुआ, (अपो वसानः अर्षसि) = कर्मों को धारण करता हुआ गति करता है। ('क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठ:') = ब्रह्मज्ञानियों में क्रियावान् ही श्रेष्ठ है। 

    हे सोम! तू (आ) = सब ओर - सब इन्द्रियों में (रत्नधा) = रमणीयता को धारण करनेवाला है । मेरी एक-एक इन्द्रिय को तू रमणीय बनाता है। रमणीय इन्द्रियोंवाला मैं 'गोतम'=प्रशस्तेन्द्रिय कहलाता हूँ। इन्द्रियों के सब दोषों का त्याग करनेवाला मैं त्यागियों में गिनने योग्य 'राहूगण' [रह त्यागे] बनता हूँ।

    हे सोम! तू (ऋतस्य) = ऋत के (योनिम्) = उत्पत्ति स्थान परमात्मा में (सीदसि) = स्थित होता है। 'ऋत और सत्य प्रभु के दीप्त तप से ही उत्पन्न होते हैं। यह सोम का संयम करनेवाला भौम: = इस भूमि का व्यक्ति होता हुआ भी ‘अत्रि’-काम-क्रोध-लोभ - तीनों से ऊपर उठकर तीनों कष्टों से अतीत प्रभु के अंक का आश्रय करता है।

    (उत्सः) = यह सोमी पुरुष तो एक प्रेम का स्रोत - झरना ही है।

    (देव:) = तू दीप्त है, तू ज्ञान से सभी को द्योतित करनेवाला है [देवो दीपनात् वा द्यौतनाद्वा]। दीप्त ज्ञानाग्निवाला यह 'जमदग्नि' है - इसकी ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है। यह भार्गव - ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाला होता है।

    (हिरण्ययः) = इसका जीवन स्वर्णिम [Golden] हो जाता है। यह किसी भी अति [Extreme] में न पड़कर सदा मध्यमार्ग से चलता है - यही तो वास्तविक संयम है। इस संयम का पुतला यह 'वसिष्ठ' है- सर्वोत्तम वशी। इस प्रकार सोम मेरे सभी ऋषियों को बड़ा ठीक रखनेवाला है। 

    भावार्थ

    सोम के संयम से मैं सप्तर्षियों का आराधन करूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( सोम ) = आत्मन् ! तू ( धारया ) धारा से ( अपः वसान: ) = कर्मों और प्रजाओं  प्राणों या लिङ्ग शरीरों में व्याप्त होकर सबको ( पुनानः ) = पवित्र करता हुआ ( अर्षसि  ) = विराजता है । ( रत्नधा ) = रमणीय पदार्थों का पोषक ( ऋतस्य ) = इस जीवन या ज्ञान के ( योनिम् ) = मूलकारण में ( आ सीदसि ) = स्थित है । और स्वयं ( हिरण्ययः ) = कान्तिस्वरूप या सब इन्द्रियगण के लिये हित और रमणीय होता हुआ ( देवः ) = सबका तर्पक, सबके प्रति ( उत्सः ) = रस का सन्चार कराने हारा है। यहां शुक्र, ज्ञान और योगसाधन से प्राप्त विशेष आनन्दमय अनुभव का वर्णन है ।


     

    टिप्पणी

    ५११ – 'देव' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भरद्वाजः काश्यपो गोतमोऽत्रिर्विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठश्चैते सप्तर्षयः ।

    देवता - पवमानः ।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।

    पदार्थः

    हे (सोम) पवित्ररसागार परमात्मन् ! त्वम् (धारया) स्वकीयया आनन्दधारया (पुनानः) पवित्रतामापादयन्, (अपः) कर्म (वसानः) आच्छादयन्, प्रभावयन्नित्यर्थः (अर्षसि) उपासकानां हृदयं व्याप्नोषि। (रत्नधाः) रमणीयानां गुणानां आधाता त्वम् (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहम्, जीवात्मानमित्यर्थः। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (आ सीदसि) प्राप्नोषि। त्वम् (उत्सः) आनन्दनिर्झरः, (देवः) विद्यासुखादीनां दाता, (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः यशोमयश्च, विद्यसे इति शेषः। ज्योतिर्वै हिरण्यम्। तां० ब्रा० ६।६।१०। यशो वै हिरण्यम्। ऐ० ब्रा० ७।१८ ॥१॥

    भावार्थः

    पवित्रः परमेश्वरः स्वोपासकानां हृदयानि कर्माणि च पावयन् तेषामात्मनि निवसंस्तानानन्दनिर्झरे स्नपयन् ज्योतिषा दीपयन् यशस्विनः करोति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०७।४ ‘देवो’ इत्यत्र ‘देव’ इति पाठः। साम० ६७५।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, through Thy stream of benevolence, purifying our souls and actions, residing therein through pervasion, Thou approachest us. Thou, the Sustainer of all luminous heavenly bodies. Resplendent, Deep like a well. Divine, the Origin of the Vedas, art ever calm and steady !

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    Meaning

    O Soma, pure and purifying our thought, will and actions, abiding in the heart, you move and flow on in our consciousness. Bearing treasures of jewels, pray come and sit on the seat of yajna vedi and our sense of truth and eternal law. Indeed, O lord refulgent, you are the fountain head of lifes golden treasures. (Rg. 9-107-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (पुनानः) મને શુદ્ધ કરતાં-પવિત્ર કરીને, (धारया) ધ્યાન ધારણાથી (अपः वसानः) મારા પ્રાણોને આચ્છાદિત-આવૃત કરીને-રક્ષિત કરીને (अर्षसि) પ્રાપ્ત થાય છે. (रत्नधा) રમણીય ભોગોને ધારણ કરનાર (ऋतस्य योनिम् आसीदसि) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં આવીને બિરાજે છે. (हिरण्ययः उत्सः देवः) તુંજ સોનેરી અમૃતના કૂવારૂપી, દેવ અમૃતધામ મોક્ષધામ છે. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું મને-ઉપાસકને પવિત્ર કરીને, મારા પ્રાણોને ધ્યાન, ધારણા દ્વારા સુરક્ષિત કરીને પ્રાપ્ત થાય છે. તું રમણીય ભોગો-પદાર્થોને ધારણ કરનાર મારા અધ્યાત્મયજ્ઞમાં બિરાજમાન થાય છે. તું જ મોક્ષધામ અને સોનેરી અમૃતકૂપ-કૂવો છે. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    سوم پرمیشور امرت کا کنواں

    Lafzi Maana

    ہے سوم امرت پرمیشور! آپ اپنی شانتی امرت کی دھارا سے ہمیں پوتر کرتے ہوئے جیو آتما کے کرموں پر چھائے ہوئے ہیں اور پرتھوی، سُوریہ، چاند، موتی، جواہر، مونگا وغیرہ رتنوں کو دھارن کر سب طرف منّور ہو رہے ہیں۔ آپ امرت کا کنواں بمثل سرچشمہ ہیں، اور ازلی وید گیان کے منبع ہو کر اپنی ہستی سے ہی ساری دُنیا کو گھیر رہے ہیں۔

    Tashree

    چمکیلے جھرنے امرت کے سوم سدا بھرتے رہتے، سب طرف ہمارے کرموں پر چھائے پِوتّر کرتے رہتے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पवित्र परमेश्वर आपल्या उपासकांच्या हृदयांना व कर्मांना पवित्र करतो. त्यांच्या आत्म्यात निवास करतो. त्यांना आनंदाच्या झऱ्यात स्नान करवितो व ज्योतीने प्रदीप्त करत यशस्वी बनवितो ॥१॥

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    विषय

    प्रथम मंत्रात सोम परमेश्वराच्या गुणकर्मांचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (सोम) पवित्र आनंद रसाचे भंडार हे परमेश्वर, तुम्ही (धारया) आपल्या आनंद धारेने (पुनानः) उपासकाचे हृदय पवित्र करीत आणि त्याच्या (अपः) कर्मांना (वसानः) प्रभावित करीत (तुमच्यामुळे त्याचे आचरण पवित्र राहते) (अर्षसि) त्याच्या हृदयात व्याप्त असता. (रत्नधाः) रमणीय गुणरूप रत्न देणारे आपण (ऋतस्य) (योनौ) स त्याचे गृह असणाऱ्याजीवात्म्याला (सत्यवादी मनुष्याला) (आ सीदसि) प्राप्त होता. तुम्ही (उत्सः) आनंदाचे निर्झर (देवः) विद्या, सुख प्रदाता आणि (हिरण्ययः) ज्योतिर्मय व यशोमय आहात.।। १।।

    भावार्थ

    पवित्र परमेश्वर आपल्या उपासकांच्या हृदय व आचरण पवित्र करतो, त्यांच्या आत्म्यात निवास करून त्यांना आनंदाच्या निर्झर जलाने स्नान घालतो आणि आपल्या ज्योतीने उपासकांना प्रदीप्त (उल्साहित) व य़शस्वी करतो.।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (சோமனே)! சுத்தஞ் செய்பவனாய் சல உடையில் (தாரையால்) பாய்கிறாய். ஐசுவரியமளிக்கும் நீ சத்தியத்தின் நிலயத்திலே உட்கார்கிறாய். தேவரே! நீ (பொன்னால்) (புனிதத்தால்) செய்யப்பட்ட ஊற்றாகும்.

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