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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 513
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    33

    आ꣡ सो꣢म स्वा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिस्ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । ज꣢नो꣣ न꣢ पु꣣रि꣢ च꣣꣬म्वो꣢꣯र्विश꣣द्ध꣢रिः꣣ स꣢दो꣣ व꣡ने꣢षु दध्रिषे ॥५१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सो꣣म । स्वानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । तिरः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । ज꣡नः꣢꣯ । न । पु꣣रि꣢ । च꣣म्वोः꣢꣯ । वि꣣शत् । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡दः꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । द꣣ध्रिषे ॥५१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सोम स्वानो अद्रिभिस्तिरो वाराण्यव्यया । जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः सदो वनेषु दध्रिषे ॥५१३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सोम । स्वानः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । तिरः । वाराणि । अव्यया । जनः । न । पुरि । चम्वोः । विशत् । हरिः । सदः । वनेषु । दध्रिषे ॥५१३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 513
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमात्मा को सम्बोधित किया गया है।

    पदार्थ

    हे (सोम) परमात्मरूप सोम ! (अद्रिभिः) ध्यानरूप यज्ञिय सिलबट्टों से (आ स्वानः) अभिषुत होता हुआ तू (अव्यया वाराणि तिरः) भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्रों के समान शुद्धचित्तवृत्तियों से छनकर क्षरित होता है। शुद्ध चित्तवृत्तिरूप दशापवित्रों से क्षरित (हरिः) दुःख पाप आदि का हर्ता वह रसागार परमेश्वर (चम्वोः) अधिषवणफलकों के तुल्य बुद्धि और मन में (विशत्) प्रवेश करता है, (जनः न) जैसे मनुष्य (पुरि) नगरी में प्रवेश करता है। तदनन्तर हे परमात्म-सोम ! तू (वनेषु) प्राणों में (सदः) स्थिति को (दध्रिषे) धारण करता है ॥३॥ इस मन्त्र में ‘जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः’ में उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे यज्ञिय सिलबट्टों से अभिषुत, भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्रों द्वारा क्षारित सोमलता का रस द्रोणकलशों में प्रविष्ट होकर जल से मिल जाता है, वैसे ही आनन्दरसागार परमेश्वर जब ध्यानों द्वारा अभिषुत, शुद्ध चित्तवृत्तियों से क्षारित और बुद्धि तथा आत्मा में प्रविष्ट होकर प्राणों में अभिव्याप्त हो जाता है, तभी साधक की उपासना सफल होती है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अद्रिभिः) आदरणीय—सत्करणीय—सत्कार सेवित “तपसा, ब्रह्मचर्येण विद्यया श्रद्धया सेवितः सत्कारवान् भवति” [योग॰ १.१४ व्यासः] योगाभ्यासों के द्वारा (अव्यया वाराणि तिरः) अनिवार्य दोषवारण साधनों—यम नियम को मध्य में सेवित कर के (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (स्वानः) निष्पन्न—साक्षात् करणीय है, जो कि (हरिः) दुःखापहर्ता सुखाहर्ता (चम्वोः) द्यावापृथिवीमय द्युलोक से पृथिवीलोक पर्यन्त जगत् में “चम्वौ द्यावापृथिवीनाम्” [निघं॰ ३.३०] (आविशत्) समन्तरूप से प्रविष्ट है (जनः-न पुरि) जैसे जन जायमान प्राणी देहपुरी में आविष्ट होता है। वह तू (वनेषु सदः-दध्रिषे) वननीय मर्म स्थान में विशेषतः हृदयसदन को धारता है।

    भावार्थ

    आदर सत्कार से तप ब्रह्मचर्य विद्या श्रद्धा से किए योगाभ्यासों के द्वारा और अनिवार्य दोषनिवारक अहिंसा आदि व्रतों को मध्य में करके शान्तस्वरूप परमात्मा निष्पन्न—साक्षात् किया हुआ जो कि दुःखापहर्ता सुखाहर्ता द्यावापृथिवीमय—द्युलोक से पृथिवीलोक पर्यन्त समस्त जगत् में ऐसे आविष्ट हो रहा है जैसे जन्यमान जीवात्मा देहपुरी में आविष्ट होता है। वह वननीय मर्म स्थलों हृदय आदि को अपना सदन बना रहा है॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—‘भरद्वाजः कश्यपः, गोतमः, अत्रिः, विश्वामित्रः, जमदग्निः, वसिष्ठः’ इति सप्तर्षयः (सम्पूर्ण खण्ड के ये भरद्वाज आदि सात ऋषि हैं अर्थ पीछे आ चुके हैं)॥ <br>

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    विषय

    अदृश्य सोम

    पदार्थ

    हे सोम! तू (अद्रिभिः) = अविदरणीय - स्थिर शरीर, मन व मस्तिष्क के द्वारा (आ सु आनः) = सारे शरीर को उत्तमता से प्राणित करनेवाला है। जब यह सोम सारे रुधिर में व्याप्त हो जाता है तो (तिर:) = अदृश्य हो जाता है। सारे शरीर में व्याप्त हुआ हुआ सोम चाहे दिखता नहीं, परन्तु यह (वाराणि) = रोग का निवारण करता है। सोम के शरीर में स्थिर होने पर रोग आ ही नहीं पाते, आ भी जाएँ तो शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। (अव्यया) = इस सोम को प्रभु ने हमारे रक्षण के उद्देश्य से शरीर में रखा है। यह हमारे मन को वासनाओं से बचाता है। वार होने से शरीर को नीरोग रखता है, और ('अ वि अय') = होने से मन को निर्व्यसन'।

    (जनः न) = जैसे एक मनुष्य (पुरि) = नगरी में प्रवेश करता है उसी प्रकार यह सोम (चम्वो:विशत्) = द्यावा- पृथिवी में अर्थात् मस्तिष्क व शरीर में प्रवेश करता है। शरीर में प्रवेश कर यह उसे दृढ़ बनाता है, मस्तिष्क में प्रवेश करके उसे तेजस्वी बनाता है। (हरिः) = शरीर व मन के मलों का हरण करके यह उन्हें नीरोग व निर्मल करता है। (सदा उ) = सदा निश्चय से (वनेषु) = वननीय–सेवनीय उत्तम वस्तुओं का (दधिषे) = धारण करता है।

    सोम मलों को दूर करता है - सेवनीय वस्तुओं को प्राप्त कराता है। ‘घृत' का ऋणात्मक कार्य मलों का क्षरण है और धनात्मक कार्य 'दीप्ति को प्राप्त करना' [घृ क्षरणदीप्त्योः] । इसी प्रकार सोम का ऋणात्मक कार्य 'मलों का हरण' और धनात्मक कार्य 'वननीय वस्तुओं का प्रापण है'। बुराई को दूर करके अच्छाई को यह प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    सोम मेरे शरीर व मस्तिष्क को दृढ़ व उज्ज्वल बनाए ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( सोम ) = आत्मन् ! ( अद्रिभिः ) = योगसाधनों या योगियों द्वारा ( सुवानः ) = उत्पन्न या साक्षात् किया जाकर ( अव्यया ) = अवि -भेड़ के बालों के बने, छानने के कपड़े के समान तमोमय ( वाराणि ) आवरणों को ( तिरः ) = पार करता हुआ ( जनः न पुरि ) = जिस प्रकार वीर पुरुष कोट लांघता हुआ नगर में प्रवेश करता है उसी प्रकार ( चम्वोः ) = चमसो या द्यौ और पृथिवी में और आत्मा मस्तक के दोनों भागों में ( विशद् ) = प्रवेश करता हुआ, ( हरिः ) = सब तमोमय बाधाओं को दूर करता हुआ ( वनेषु ) = सेवन करने योग्य स्थान, हृदय में ( सदः ) = स्थिति ( दध्रिषे ) = प्राप्त करता है। ब्रह्मानन्द, आत्मानन्द या योगज सुख का समान रूप से वर्णन है ।

    टिप्पणी

    ५१३ –‘सुवानो' 'दधिषे’ च ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भरद्वाजः काश्यपो गोतमोऽत्रिर्विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठश्चैते सप्तर्षयः ।

    देवता - पवमानः ।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः।
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमः परमात्मा सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (सोम) परमात्म-सोम ! (अद्रिभिः) ध्यानरूपैः अभिषवपाषाणैः (आ स्वानः) आसूयमानः त्वम् (अव्यया वाराणि तिरः) अविबालजनितदशापवित्रमध्यादिव शुद्धचित्तवृत्तिमध्यात् क्षरितो भवसि। अविभ्यो जातानि अव्यानि। ‘सुपां सुलुक्०’ इति द्वितीयाबहुवचनस्य याऽऽदेशे ‘अव्यया’ इति। अथ परोक्षकृतमाह। शुद्धचित्तवृत्तिरूपदशापवित्रमध्यात् क्षरितः (हरिः) दुःखपापादिहर्ता स रसागारः परमेश्वरः (चम्वोः) अधिषवणफलकयोरिव बुद्ध्यात्मनोः (विशत्) निविशति, (जनः न) मनुष्यो यथा (पुरि) नगर्यां विशति तद्वत्। अथ पुनः प्रत्यक्षकृतमाह। ततश्च हे सोम परमात्मन् ! त्वं (वनेषु) उदकेषु, अम्मयेषु प्राणेषु। वनमित्युदकनाम। निघं० १।१२। आपो वै प्राणाः। श० ३।८।२।४। (सदः) स्थितिम् (दध्रिषे) धारयसि। डुधाञ् धारणपोषणयोः। लडर्थे लिटि सिपि दधिषे इति प्राप्ते ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ७।१।८ इति रुडागमः ॥३॥ अत्र ‘जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः’ इत्यत्रोपमा ॥३॥

    भावार्थः

    यथा ग्रावभिरभिषुतोऽविबालमयैर्दशापवित्रैः क्षारितः सोमौषधिरसो द्रोणकलशयोः प्रविष्टो जलेन मिश्रितो जायते तथैवानन्दरसागारः परमेश्वरो यदा ध्यानैरभिषुतः शुद्धचित्तवृत्तिभिः क्षारितः बुद्ध्यात्मनोः प्रविष्टः सन् प्राणानभिव्याप्नोति तदैव साधकस्योपासना सफलीभवति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०७।१० ‘स्वानो, दध्रिषे’ इत्यत्र क्रमेण ‘सुवानो, दधिषे’ इति पाठः। साम० १६८९।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O All-Sustaining God, Thou, eclipsing the undecaying rays of the Sun, art fully pervading the Heaven and Earth; just as men reside in a city. In solitary places of contemplation. Thou art retained in the inmost recesses of the heart!

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    Meaning

    O Soma, spirit of universal bliss and protection, invoked and stirred by acts of meditation, radiating across the covers of darkness, enter the heart core of the soul as citizens enter their home in town, arise in the depth of heart and intelligence and abide there in the love and faith of the soul, your own cherished seat of existence among the wise. (Rg. 9-107-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अद्रिभिः) આદરણીય-સત્કારણીય-સત્કાર સેવિત યોગાભ્યાસો દ્વારા (अव्यया वारणि तिरः) અનિવાર્ય દોષ નિવારણ સાધનો-યમ અને નિયમનું મધ્યમાં સેવન કરીને (सोमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (स्वानः) નિષ્પન્ન-સાક્ષાત્ કરણીય છે, જે (हरिः) દુઃખહર્તા, સુખદાતા, (चम्वोः) દ્યાપૃથિવીમય જગત દ્યુલોકથી પૃથિવી લોક સુધીના જગતમાં (आविशत्) સમગ્ર રૂપથી પ્રવિષ્ટ-વ્યાપક છે (जनः न पुरि) જેમ જેમ જન્મ પામેલ પ્રાણી દેહપુરીમાં આવિષ્ટ થાય છે. તે તું (वनेषु सधः दध्रिषे) વનનીય મર્મસ્થાનમાં વિષેશતઃ હૃદયગૃહને ધારણ કરે છે. (૩)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ: આદર સત્કાર, તપ, બ્રહ્મચર્ય, વિદ્યા, શ્રદ્ધાથી કરેલ યોગાભ્યાસોના દ્વારા [યોગ. ૧: ૪ વ્યાસ] અને અનિવાર્ય દોષનિવારક અહિંસા આદિ વ્રતોનું પાલન કરીને, શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા નિષ્પન્નસાક્ષાત્ કરેલ જે દુઃખહર્તા અને સુખદાતા દ્યાવાપૃથિવીમય-દ્યુલોકથી પૃથિવી લોક સુધી સમસ્ત જગતમાં એવી રીતે આવિષ્ટ થઈ રહેલ છે, જેમ જન્મનાર પ્રાણી-જીવાત્મા શરીરપુરીમાં આવિષ્ટ થાય છે. તે વનનીય મર્મસ્થાનો-હૃદય આદિને પોતાનું ગૃહ બનાવી રહેલ છે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    رَس سے ہی زندگی کی خُوبصورتی

    Lafzi Maana

    یہ سوم بھگتی رس اُپاسک میں انترناو یعنی ضمر کی آواز یا اوم نام کی دُھن کو پیدا کرتا ہے، وِگھن بادھاؤں سے چُھڑانے والی سب کے رکھشک پرمیشور کی امر شکتی کو دے کر شریر، آتما، من، اِندریوں وغیرہ کو ایسے زندگی دیتا ہے، جیسے راجہ نگر میں داخل ہوتا ہے، اور سارا نگر خوبصورت ہر طرف سے منّور دکھائی دیتا ہے۔

    Tashree

    سوم سے ہے زندگی کی خوش نمائی سُوبسُو، حواسِ خمسہ آتما اور جسم میں بسا پربُھو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा यज्ञीय पाटा-वरवंट्याने वाटून व गाळून घेतलेला, मेंढ्याच्या केसांनी निर्मित, दशापवित्रद्वारे क्षारित, सोमलतेचा रस द्रोणकलशात प्रविष्ट होऊन जलात मिसळतो, तसेच आनंदरसागार परमेश्वर जेव्हा ध्यानाद्वारे अभिषुत, शुद्ध चित्तवृत्तींनी क्षारित व बुद्धी आणि आत्म्यामध्ये प्रविष्ट होऊन प्राणांमध्ये अभिव्याप्त होतो, तेव्हाच साधकाची उपासना सफल होते ॥३॥

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    शब्दार्थ

    हे परमात्मरूप सोम, (अद्विभिः) ध्यानरूप पाटा- वरवंट्याद्वारे (अभिषुतः) गळला गेलेला (अन्यत्र वाराणितिरः) मेंढीच्या केसांनी निर्मित दशापवित्र गाळमीप्रमाणे शुद्ध चित्रवृत्ती गाळूला जाऊन तू क्षरित होतोस (हृदयात अवतीर्ण वा अनुभूत होतोस). असा (हरिः) दुःख, पाप आदींचे हरण करणारा तो परमेश्वर (चम्बोः) अधिषवण फलकाप्रमाणे (तांबा, पेलासारख्या पात्रामध्ये जसा सोमरस तसा) बुद्दीत व मनात (विशत्) प्रविष्ट होतो. कशाप्रकारे ? (जनःन) जसा कोण मनुष्य (पुरि) नगरीत प्रविष्ट होतो. त्यानंतर हे परमात्म - सोम, , तू (वनेषु) प्राणांमध्ये (सदः) उत्तम स्थिती (दध्रिषे) प्राप्त करतात. ।। ३।।

    भावार्थ

    जसे यज्ञात प्रयुक्त होणाऱ्या पाटा- वरवंट्याचे रगडले पिसले जाऊन आणि भेटीच्या केसांनी निर्मित दशापवित्रातून गाळलेला सोमरस द्राणक लक्षात जावो आणि तिथे पाण्यात मिसळला जातो, तसेच आनदंसागर परमेश्वर जेव्हा ध्यानरूप पाटा वरवंट्याने रगडला जातो आणि शुद्ध चित्तवृत्तीतून गाळले जाऊन बुद्धी आत्मारूप द्रोणात प्रविष्ट होऊन प्राणीत व्याप्त होतो, तेव्हाच साधकाची उपासना सफल होते. ।। ३ ।।

    विशेष

    या मंत्रातील जनोम पुरि चम्बोर्निशद् हरिः) या कथनात उपमा अलंकार आहे. ।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சோமனே! [1]கற்களால் அமிழ்த்தப்பட்ட நீ [2]ஆட்டு ரோமங்கள் மூலமாய் தூண்டப்பட்டு, மனிதர்கள் கோட்டையைப் போல் பலகைகளை நுழைந்துகொண்டு பொன்நிறமுள்ளவன் கலசங்களில் நிலையாகிறான்.

    FootNotes

    [1]கற்களால் - வச்சிராயுதங்களால். [2]ஆட்டு ரோமங்கள் மூலமாய் - புனிதங்கள் மூலமாய்.

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