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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 524
    ऋषिः - बृषगणो वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    47

    प्र꣡ काव्य꣢꣯मु꣣श꣡ने꣢व ब्रुवा꣣णो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣वा꣢नां꣣ ज꣡नि꣢मा विवक्ति । म꣡हि꣢व्रतः꣣ शु꣡चि꣢बन्धुः पाव꣣कः꣢ प꣣दा꣡ व꣢रा꣣हो꣢ अ꣣꣬भ्ये꣢꣯ति꣣ रे꣡भ꣢न् ॥५२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । का꣡व्य꣢꣯म् । उ꣣श꣡ना꣢ । इ꣣व । ब्रुवाणः꣢ । दे꣣वः꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । ज꣡नि꣢꣯म । वि꣣वक्ति । म꣡हि꣢꣯व्रतः । म꣡हि꣢꣯ । व्र꣣तः । शु꣡चि꣢꣯बन्धुः । शु꣡चि꣢꣯ । ब꣣न्धुः । पावकः꣢ । प꣣दा꣢ । व꣣राहः꣢ । अ꣣भि꣢ । ए꣣ति । रे꣡भ꣢꣯न् ॥५२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो देवो देवानां जनिमा विवक्ति । महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन् ॥५२४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । काव्यम् । उशना । इव । ब्रुवाणः । देवः । देवानाम् । जनिम । विवक्ति । महिव्रतः । महि । व्रतः । शुचिबन्धुः । शुचि । बन्धुः । पावकः । पदा । वराहः । अभि । एति । रेभन् ॥५२४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 524
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि सोम परमात्मा क्या करता है।

    पदार्थ

    (काव्यम्) काव्य का (प्र ब्रुवाणः) प्रवचन करते हुए (उशना इव) धर्मेच्छु विद्वान् के समान (काव्यम्) वेदरूप काव्य का (प्र ब्रुवाणः) उपदेश करता हुआ (देवः) दान आदि गुणों से युक्त सोम परमात्मा (देवानाम्) प्रकाशक अग्नि, सूर्य, विद्युत् आदि पदार्थों के तथा इन्द्रियों के (जनिम) उत्पत्ति-प्रकार को (प्र विवक्ति) वेद द्वारा भली-भाँति बतलाता है। (महिव्रतः) महान् कर्मोंवाला, (शुचिबन्धुः) पवित्रात्मा जनों से बन्धुत्व स्थापित करनेवाला, (पावकः) मनुष्यों को पवित्र करनेवाला वह जगदीश्वर (रेभन्) गर्जते हुए (वराहः) मेघ के समान (रेभन्) उद्बोधन के शब्द बोलता हुआ (पदा) गन्तव्य सत्पात्र जनों के पास (अभ्येति) पहुँचता है ॥२॥ इस मन्त्र में ‘उशनेव’ में वाच्योपमा और ‘वराहः’ में लुप्तोपमा अलङ्कार है। ‘देवो-देवा’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सोमरस धारापात शब्द करता हुआ पात्रों में जाता है और जैसे मेघ गर्जना करता हुआ भूमि पर बरसता है, वैसे ही सौम्य परमेश्वर जीभ के बिना भी सत्कर्मों का उपदेश करता हुआ स्तोता जनों के पास पहुँचता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (उशना-इव देवः) उपासकों की कल्याण-कामना करने वाला सोमरूप शान्त परमात्मदेव “इवोऽपि दृश्यते पदपूरणः” [निरु॰ १.११] (काव्यं प्रब्रुवाणः) वेदरूप काव्य या कलास्वरूप गुण का प्रवचन करता हुआ (देवानां जनिमा विवक्ति) दिव्य पदार्थों की उत्पत्ति आदि को या जीवन्मुक्त बनने के साधनों को खोलकर वर्णन करता है, वह (महिव्रतः) महाकर्मशक्ति वाला (शुचिबन्धुः) पवित्रजन का बन्धु (पावकः) स्वयं पवित्र और अन्य को पवित्र करने वाला (वराहः-रेभन् पदा-अभ्येति) वह अमृत आहार कराने वाला “वराहो.....वराहारः” [निरु॰ ५.४] कल्याण प्रवचन करता हुआ स्वरूप से अभिगत होता है।

    भावार्थ

    उपासकों की कल्याण-कामना करने वाला सोमरूप शान्त परमात्मा अपने ज्ञानगुणमयरूप और कलामयस्वरूप का प्रवचन करता हुआ उपासक के सम्मुख आता है तथा दिव्य पदार्थों की उत्पत्ति आदि को एवं मोक्षाधिकारी या जीवन्मुक्त बनने के साधनों को खोलकर वर्णन करता है, वह ऐसा महती कर्मशक्ति वाला पवित्रजन का बन्धु—अपने साथ बान्धने वाला स्वयं पवित्र उपासक को पवित्र करने वाला अपना अमृत आहारभोग देने वाला कल्याण का उपदेश देता हुआ अपने स्वरूप से अभिगत सम्यक् प्राप्त होता है—उपासक के अन्दर अपना स्वरूप साक्षात् कराता है॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—वृषगणो वासिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाले से सम्बद्ध सुखवर्षक स्तुति वाला१)॥<br>

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    विषय

    धार्मिक जीवन

    पदार्थ

    रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'वृषगणो वासिष्ठ' है- [वृष= धर्म] जिसका जीवन धर्ममय है, इतना धर्ममय कि मानो धर्म ही शरीरब हो गया है - वह धर्म का पुञ्ज है। धर्मात्माओं में विशेषरूप से उसकी गिनती होती है। वह उत्तम वशी है - अथवा शरीर में सर्वोत्तम निवास करनेवाला है। इस व्यक्ति के जीवन में हम निम्न बातें देखते हैं -

    १.( उशना इव काव्यं प्रब्रवाणः) = रुचिपूर्वक प्रभु के अजरामर काव्य - वेद का उच्चारण करता है। मनुष्यकृत काव्य समय पाकर मध्यम दीप्तिवाले हो जाते हैं। यह वेदरूप काव्य अजरामर है – इसकी दीप्ति शाश्वत है। धर्म के ज्ञान का यही स्रोत है। वेद में जिसकी प्रेरणा दी गई है वही तो धर्म है (चोदना लक्षणो धर्मः) । यह धार्मिक जीवनवाला व्यक्ति वेद के पाठन को अपना प्रथम धर्म समझता है ।

    २. (देवः) = वेद का स्वाध्याय उसके जीवन में पवित्रता लाता है। अपने जीवन में दिव्य गुणों को बढ़ाता हुआ यह 'देव' बन जाता है।

    ३. (देवानाम्) = सूर्यादि ३३ देवों के सभी प्राकृतिक पदार्थों के (जनिमा) = प्रादुर्भाव व विकास को (विवक्ति) = यह विशेषरूप से उच्चारित करता है। इन पदार्थों के विकास में यह उस निर्माता प्रभु की महिमा देखता है। यह विज्ञान उसे प्रभु की सत्ता में दृढ़ विश्वासी बनानेवाला होता है।

    ४. (महिव्रतः) =यह अपने जीवन में किसी न किसी महान् व्रत को लेकर चलता है। व्रती जीवन ही वस्तुतः धर्ममय जीवन हुआ करता है। बिना व्रतग्रहण के हम कभी धार्मिक नहीं बन सकते।

    ५. (शुचिबन्धुः) = यह पवित्र धनवाला होता है । [ बन्धु = धनम् नि० २-१०-२१] सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक धर्म 'शुचि बन्धुत्व' ही है। यजुर्वेद में अन्तिम निर्देश 'नय सुपथा राये' ही है - धन को उत्तम मार्ग से कमाना। मनु ने इसी को सुचिता माना है- ('योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिः न मृद्वारि शुचिः शुचिः) |

    ‘शुचिबन्धु' शब्द का अर्थ पवित्र मित्रोंवाला भी है। वस्तुतः जीवन के निर्माण में मित्रों का बड़ा हाथ होता है। अच्छे मित्र जीवन को अच्छा बना देते हैं और बुरे बुरा । 
    ६. (पावकः) = यह जिनके भी सम्पर्क में आता है, उनके जीवन को पवित्र बना डालता है। अग्नि में सोना निखर उठता है, इसके सम्पर्क में आकर लोगों का जीवन पवित्र हो जाता है।

    ७. (पदा वराहः) = गतिशीलता के द्वारा यह सुन्दर दिनवाला [वर+अहन्] होता है। 'सुदिनत्वमह्णाम्' दिन की भद्रता जीवन का कितना श्रेष्ठ द्रविण है। 

    ८. यह (रेभन्) = स्तुति करता हुआ (अभ्येति) = उस प्रभु की ओर चलता है। सदा प्रभु के स्मरण से इसके सामने लक्ष्य दृष्टि बनी रहती है, अतः यह मार्ग से विचलित न होकर प्रभुरूप लक्ष्य की ओर बढ़ता चलता है।
     

    भावार्थ

    वेदाध्ययन को प्राथमिक धर्म बनाकर मैं अपने जीवन को धर्म-प्रधान बनाऊँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( उशना इव ) = विद्वान् मेधावी , सोम्यस्वभाव, ( देव:) = विद्वान्, सुखप्रद होकर ( काव्यं ) = सुन्दर काव्य, वेदज्ञान या संसार के रहस्य को ( प्र ब्रुवाणः ) = उत्तम रीति से वर्णन, उपदेश करता हुआ ( देवानां ) = वसुओं, रुद्रों और आदित्यों, एवं इन्द्रियगण, और प्राण अपानादि नव प्राणों के ( जनिम् ) = प्रादुर्भाव होने के रहस्य को ( आ विवक्ति  ) = स्पष्ट रूप से बतलाता है। और ( महिव्रतः ) = विशाल कर्म और प्रज्ञा का करने वाला, ( शुचिबन्धुः ) = अपने शुद्ध तेज द्वारा सबको अपने साथ बांधने हारा, सब  पवित्र हृदयों का बन्धु, ( पावकः ) = सबको पवित्र करने हारा, अग्निस्वरूप ( वराहः =वर आह ) = श्रेष्ठ उत्तम वाणी का बोलने हारा ( रेभन् ) = उत्तम ज्ञानोपदेश करता हुआ ( पदा ) = प्राप्त करने योग्य ज्ञान रहस्यों को और उत्तम स्थानों, ज्ञानदशा और सुखद दशाओं को ( अभि एति ) = प्राप्त होता है ।

    'उशनाः – वशे कनसिरौणादिः । वश कन्तौ अदादिः । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - बृषगणो वासिष्ठः।

    देवता - पवमानः ।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमः परमात्मा किं करोतीत्याह।

    पदार्थः

    (उशना इव२) धर्मकामो विद्वान् इव। वष्टि कामयते धर्मादिप्रचारं स उशना। वश कान्तौ। उशनस् शब्दात् सौ ‘ऋदुशनस्पुरुदंसोऽनेहसां च’ अ० ७।१।९४ इत्यनङ्। (काव्यम्) वेदकाव्यम् (प्र ब्रुवाणः) उपदिशन् (देवः) दानादिगुणयुक्तः सोमः परमेश्वरः (देवानाम्) प्रकाशकानाम् अग्निसूर्यविद्युदादीनाम् इन्द्रियाणां च (जनिम) जन्म, उत्पत्तिप्रकारम्। संहितायां दीर्घश्छान्दसः। (प्र विवक्ति) वेदद्वारा प्रकर्षेण व्याचष्टे। अत्र वचेर्लटि ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७६ इति शपः श्लुः।३ (महिव्रतः) महाकर्मा, (शुचिबन्धुः४) शुचयः पवित्रात्मानो जनाः बन्धवो यस्य तथाविधः, (पावकः) जनानां पवित्रयिता स जगदीश्वरः (रेभन्) गर्जन् (वराहः५) वराहारो मेघः इव। वराहो मेघो भवति वराहारः। निरु० ५।४। (रेभन्) उद्बोधनशब्दान् ब्रुवन्। रेभृ शब्दे भ्वादिः। (पदा) पदानि गन्तव्यानि सत्पात्राणि, सत्पात्रभूतान् जनानित्यर्थः (अभ्येति) प्राप्नोति ॥२॥ ‘उशनेव’ इत्यत्र वाच्योपमा। ‘वराहः’ इत्यत्र लुप्तोपमा। ‘देवो-देवा’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा सोमरसो धारापातशब्दं कुर्वन् पात्राणि गच्छति, यथा वा मेघो गर्जन् भूमौ वर्षति, तथैव सौम्यः परमेश्वरो रसनां विनापि सत्कर्माण्युपदिशन् स्तोतॄन् जनानुपगच्छति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९७।७, साम० १११६। २. (उशना) धर्मकामुकः इति ऋ० १।१२१।१२ भाष्ये द०। ३. न त्वत्र व्युपसर्गो वचिः ग्राह्यः पदपाठेऽविभज्य दर्शनात्। ४. बध्नन्ति शत्रूनिति बन्धूनि तेजांसि बलानि वा। दीप्ततेजस्कः—इति सा०। ५. वराहः वराणां धनानाम् आगमयिता सोमः—इति भ०। वरञ्च तदहश्च वराहः। ‘राजाहःसखिभ्यष्टच्’ इति टच् समासान्तः। तस्मिन्नहनि अभिषूयमाणत्वेन तद्वान्। अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्।—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Author of Vedic-speech, the Friend of the noble, the Embodiment of purity, God of the gods, desiring for world's welfare, preaching the Vedas, reveals the attributes, action and nature of divine objects. In the beginning of Creation, He reveals the hymns of the Vedas in the hearts of the Rishis.

    Translator Comment

    $ God reveals in the beginning of each cycle of creation the Veyas, in the hearts of the Rishis. The Vedas were revealed in the present cycle to Agni, Vayu, Aditya, Angiras, the great seers. God is free from desire, but He is spoken of here figuratively as if desirous for the good of humanity. Some commentators take the word बराहः to mean the incarnation of God. No where in the Vedas is there any mention of an incarnation of God. Sayana, Yaska, Satyavrat Samashrami do not take the word to mean an incarnation of God in the form of a boar. In fact no ancient commentator of the Vedas has interpreted the word as an incarnation.

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    Meaning

    The brilliant poet, singing like an inspired fiery power divine, reveals the origin of natures divinities and the rise of human brilliancies. Great is his commitment, inviolable his discipline, bonded is he with purity as a brother, having chosen light of the sun and shower of clouds for his element, and he goes forward proclaiming the message of his vision by the paths of piety. (Rg. 9-97-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उशना इव देवः) ઉપાસકોની કલ્યાણ કામના કરનાર સોમરૂપ શાન્ત પરમાત્મદેવ (काव्यं प्रबुवाणः) વેદરૂપ કાવ્ય અથવા કલાસ્વરૂપ ગુણનું પ્રવચન કરતાં (देवानां जनिमा विवक्ति) દિવ્ય પદાર્થોની ઉત્પત્તિ આદિને અથવા જીવનમુક્ત બનવાના સાધનોનું સ્પષ્ટ વર્ણન કરે છે, તે (महिव्रतः) મહાન કર્મશક્તિવાળા (शुचिबन्धुः) પવિત્રજનના બંધુ (पावकः) સ્વયં પવિત્ર અને અન્યને પવિત્ર કરવાવાળો (वराहः रेभन् पदा अभ्येति) તે અમૃત આહાર કરનાર કલ્યાણ પ્રવચન કરતાં સ્વરૂપથી અભિગત થાય છે, (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકોની કલ્યાણ કામના કરનાર સોમરૂપ શાન્ત પરમાત્મા પોતાના જ્ઞાનગુણમયરૂપ અને કલામય સ્વરૂપનું પ્રવચન કરતાં ઉપાસકની સન્મુખ આવે છે; તથા દિવ્ય પદાર્થોની ઉત્પત્તિ આદિને તથા મોક્ષ અધિકારી અથવા જીવન મુક્ત બનવાના સાધનોનું સ્પષ્ટ વર્ણન કરે છે, તે એવી મહાન કર્મશક્તિવાળા, પવિત્રજનના બંધુ-પોતાની સાથે બાંધનાર, સ્વયં પવિત્ર ઉપાસકને પવિત્ર કરનાર, પોતાનો અમૃત આહાર ભોગ આપનાર, કલ્યાણનો ઉપદેશ આપતા પોતાના સ્વરૂપથી અભિગત સમ્યક્ પ્રાપ્ત થાય છે-ઉપાસકની અંદર પોતાનું સ્વરૂપ સાક્ષાત્ કરે છે. (૨)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بھگوان کا اُپاسک اُس کے وید گیان کو پھیلاتا جائے!

    Lafzi Maana

    اپنی پرجا کی سُکھ کی ابھیلاشا کرتا ہوا پربُھو جیسے اپنی کلیانی بانی ویدک ے ویاکھیان سے سب چیزوں کا گیان کراتا ہوا اُپدیش دیتا ہے، ویسے بھگوان کا پیارا بھگت مہان برت کو دھارن کر سب کو پوتّر وید بانی کا گیان کراتا ہوا بادلوں کی طرح چاروں طرف آتا جاتا رہے۔

    Tashree

    اِیش کے تُم پُتر آرج اُس کی بانی کو کہو، اِس کے پھیلانے کی خاطر ہر طرف بڑھتے چلو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा सोमरस धारा पडताना शब्द करत पात्रांमध्ये जातो व जसा मेघगर्जना करत भूमीवर बरसतो, तसेच परमेश्वर जिभेशिवायही सत्कर्मांचा उपदेश करतो व स्तोता (प्रशंसक) जनांच्या जवळ पोचतो ॥२॥

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    विषय

    सोम परमात काय करतो, याविषयी -

    शब्दार्थ

    (काव्यम्) काव्यांचे (प्र ब्रुवाणः) प्रवचन करणाऱ्या (उशना इव) धर्मेच्छु विद्वानाप्रमाणे (काव्यम्) वेदरूप काव्याचा (प्र ब्रुवाणः) उपदेश देत (देनः) दान आणि गुणांनीयुक्त सोम परमात्मा (देवानाम्) प्रकाशक अग्नी, सूर्य, विद्वान आदी पदार्थांच्या तसेच इन्द्रियांच्या (जनिम्) उत्पत्तिची रीती, पद्धती (५ विवविव) वेदाव्दावे यथोचित रूपाने सांगतो (वा प्रत्येक सृष्टीच्या आरंभी सांगत असतो) (बहिव्रतः) महान कर्मशील आणि (शुचिबन्धुः) पावित्रात्मा-जनांशी बंधुत्व स्थापित करणारा व (पावकः) मनुष्यांना पवित्र करणारा तो जगदीश्वर (रेभन्) गरजणाऱ्या (वराहः) मेधाप्रमाणे (रेभन्) उद्बोधनाचे शब्द बोलत (उपासकाच्या मनात प्रेरणा देत देतो) पदा) गन्तव्य सत्पात्र जनांपर्यंत (अभ्येति) जातो (त्यांच्या हृदयात उत्साह भरतो.) ।। २ ।।

    भावार्थ

    जसे सोमरस जल प्रवाहासारखा शब्द करीत पात्रात खाली पडतो आणि जसे मेघ गडगडाट करीत भूमीवर कोसळतो तसेच तो सौम्य परमेश्वर जिहृा नसूनही सत्कर्म करण्याचा उपदेश देत उपासकांपर्यंत जातो. ।। २ ।।

    विशेष

    या मंत्रात ङ्गउशनेव या पदात नाच्योपना आणि वराहः शब्दात लुप्तोपमा अलंकार आहे. ङ्गदेतो देताफ येथे दंडव्यानु प्रास अलंकार आहे. ।। २ ।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1](உசனர்) காவ்யத்தை விளக்குவது போல் தேவர் திவ்யமானவர்களின் சன்ம சரிதைகளைச் சொல்லுகிறார். மகத்தான செயல்களைச் செய்பவன் (சுபமான பந்துவோடு) புனிதஞ் செய்துகொண்டு (வராகன்) (பன்றி - சோமன்) சப்தித்துக் கொண்டு பொருள்களைப் பாதத்தால் முழங்கிக்கொண்டு முன் செல்லுகிறான்.

    FootNotes

    [1].உசனர் - அறிஞன்

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