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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 538
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    18

    सा꣣कमु꣡क्षो꣢ मर्जयन्त꣣ स्व꣡सा꣢रो꣣ द꣢श꣣ धी꣡र꣢स्य धी꣣त꣢यो꣣ ध꣡नु꣢त्रीः । ह꣢रिः꣣ प꣡र्य꣢द्रव꣣ज्जाः꣡ सूर्य꣢꣯स्य꣣ द्रो꣡णं꣢ ननक्षे꣣ अ꣢त्यो꣣ न꣢ वा꣣जी꣢ ॥५३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा꣣कमु꣡क्षः꣢ । सा꣣कम् । उ꣡क्षः꣢꣯ । म꣣र्जयन्त । स्व꣡सा꣢꣯रः । द꣡श꣢꣯ । धी꣡र꣢꣯स्य । धी꣣त꣡यः꣢ । ध꣡नु꣢꣯त्रीः । ह꣡रिः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । अ꣣द्रवत् । जाः꣢ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । सु । ऊ꣣र्यस्य । द्रो꣡णं꣢꣯ । न꣣नक्षे । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । वा꣣जी꣢ ॥५३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः । हरिः पर्यद्रवज्जाः सूर्यस्य द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी ॥५३८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    साकमुक्षः । साकम् । उक्षः । मर्जयन्त । स्वसारः । दश । धीरस्य । धीतयः । धनुत्रीः । हरिः । परि । अद्रवत् । जाः । सूर्यस्य । सु । ऊर्यस्य । द्रोणं । ननक्षे । अत्यः । न । वाजी ॥५३८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 538
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि कब जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त करता है।

    पदार्थ

    प्रथम—सोम ओषधि के पक्ष में। (धीरस्य) बुद्धिमान् यजमान के (साकमुक्षः) साथ मिलकर सोमरस को निचोड़नेवाली, (धनुत्रीः) प्रेरक, (दश) दस (धीतयः) अंगुलियाँ जब सोमरस को (मर्जयन्ति) शुद्ध करती हैं, तब (सूर्यस्य) सूर्य का (जाः) पुत्र (हरिः) हरे रंग का सोमरस (पर्यद्रवत्) चारों ओर फैल जाता है। (न) जैसे (वाजी) वेगवान् (अत्यः) घोड़ा (द्रोणम्) लकड़ी से बने रथ को (ननक्षे) व्याप्त करता है अर्थात् रथ में नियुक्त होता है, वैसे ही सोमरस (द्रोणम्) द्रोणकलश में (ननक्षे) व्याप्त होता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (धीरस्य) ध्यान में स्थित योगी की (साकमुक्षः) साथ मिलकर ज्ञानों और कर्मों से सींचनेवाली, (स्वसारः) बहिनों के समान परस्पर सहायता करनेवाली, (धनुत्रीः) प्रेरक (दश) दस (धीतयः) यम-नियम-भावनाएँ, जब (मर्जयन्त) आत्मा को शुद्ध करती हैं, तब (सूर्यस्य) परमात्मा का (जाः) पुत्र (हरिः) उन्नति के मार्ग पर जानेवाला आत्मा (पर्यद्रवत्) क्रियाशील हो जाता है, और (न) जैसे (वाजी) वेगवान् (अत्यः) घोड़ा (द्रोणम्) लकड़ी से बने रथ को (ननक्षे) प्राप्त करता है, अर्थात् उसमें जुड़ता है, वैसे ही वह आत्मा (द्रोणम्) क्रियाशील परमात्मा-रूप द्रोणकलश को (ननक्षे) प्राप्त कर लेता है ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी’ में श्लिष्टोपमा है। सकार-धकार-नकार तथा रेफ की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥६॥

    भावार्थ

    अंगुलियों से परिशुद्ध सोमरस जैसे द्रोणकलश को प्राप्त करता है, वैसे ही यम-नियम की भावनाओं से परिशुद्ध हुआ जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त करता है ॥६॥

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    पदार्थ

    (धीरस्य) ध्यानवान्—ध्यानी की “धीराःप्रज्ञानवन्तो ध्यानवन्तः” [निरु॰ ४.९] (धनुत्रीः) प्रेरित करने वाली “धन्वति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] “धवि गत्यर्थः” [भ्वादि॰] ‘छान्दसं रूपं तृजन्तम्’ (धीतयः) प्रज्ञाएँ “ऋतस्य धीतिः.....ऋतस्य प्रज्ञा” [निरु॰ १०.४०] अथवा ध्यानयोग क्रियाएँ “धीतिभिः-कर्मभिः” [निरु॰ ११.१६] (साकम्-उक्षः) एक साथ सींचने वाली—ध्यान में तृप्त करने वाली (दश स्वसारः) ध्यानी को परमात्मा में सु—सम्यक् फेंकने वाली दश इन्द्रियों सम्बन्धी संयत प्रज्ञाएँ या क्रियाएँ “स्वसा-सु-असा” [निरु॰ ११.३३] (मर्जयन्त) धीर—ध्यानवान् को परमात्मा में पहुँचाती हैं “मर्जयन्त गमयन्त” [निरु॰ १२.४३] (हरिः सूर्यस्य जाः पर्यद्रवत्) दुःखापहर्ता सुखाहर्ता शान्त परमात्मा अपनी ओर सरणशील योगी की उद्भूत भावनाओं के प्रति “सोऽर्यः सोऽर्य इत्यायन्-सोऽर्य ह वै नामैष तं सूर्य इति परोक्षमाचक्षते” [जै॰ ३.३५७] परिद्रवित हो जाता है, पुनः (अत्यः-न वाजी द्रोणं ननक्षे) निरन्तर गमनशील घोड़े की भाँति हृदयसदन में प्राप्त हो जाता है घोड़ा जैसे अन्त में तबेले में आ जाता है।

    भावार्थ

    ध्यानवान् योगी की प्रेरिका प्रज्ञाएँ एवं ध्यान क्रियाएँ एक साथ उसे तृप्त करती हुईं परमात्मा की ओर प्रेरित करती हुईं तथा दशों इन्द्रियों की संयत प्रज्ञाएँ या क्रियाएँ भी परमात्मा की ओर ले जाती हैं, पुनः दुःखापहर्ता सुखाहर्ता परमात्मा की सरणशील उपासक आत्मा की उद्भूत भावनाओं के प्रति पूर्ण द्रवित हो जाता है। अन्ततः वह निरन्तर गमनशील घोड़े की भाँति हृदयसदन में ऐसे प्राप्त हो जाता है जैसे घोड़ा अपने तबेले में सहज स्वभाव से पहुँच जाता है॥६॥

    विशेष

    ऋषिः—नोधाः (नवन—स्तवन को धारण करने वाला उपासक)॥<br>

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    विषय

    एकाग्रता व आत्मनिष्ठा

    पदार्थ

    दुःखों सुखों से ऊपर उठ जानेवाले इस (धीरस्य) = धीर पुरुष की (धीतयः) = ध्यानवृत्तियाँ अन्तःकरण की वृत्तियाँ १. (साकमुक्षः) = [साकम् उ क्षः] सदा साथ रहनेवाली होती हैं। सामान्यतः मनुष्य का मन विविध विषयों के ध्यान में भागा रहता है - कभी पर्वतों, कभी समुद्रों और कभी दिशाओं में भटकता रहता है [मनो जगाम् दूरकम् ], परन्तु धीर पुरुष इसे इधर-उघर भागने से रोककर एकाग्रवृत्तिवाला बनाता है। उसकी चित्तवृत्ति आत्मा के साथ निवास करनेवाली होती है - वस्तुतः 'स्व-स्थ' तो यही पुरुष है। फिर २. (मर्जयन्त) = धीर की चित्तवृत्तियाँ उसे [मृजू शुद्धौ] शुद्ध बनाती हैं। विषय-पकों में न उलझकर यह शुद्ध बना रहता है। ३. (स्व-सार:) = धीर की चित्तवृत्तियाँ 'स्व' = आत्मा की ओर 'सार:= चलनेवाली होती हैं, अतएव ४. (धनुत्री:) = विशेष प्रेरणा को प्राप्त करानेवाली होती है। इन विशेष प्रेरणाओं को प्राप्त इस विशिष्ट जीवनवाले धीर पुरुष का चरित्र निम्न विशेषताओं से युक्त होता है - ५. (हरि:) = यह औरों के दुःखों का हरण करनेवाला होता है, ६. (पर्यद्रवत्) = यह जहाँ भी कष्ट देखता है उसी स्थान पर पहुँचता है, यह परि= चारों ओर (अद्रवत्) = गति करता है, 'परिव्राजक' बनता है ७. उस उस स्थान पर पहुँचकर (सूर्यस्य जाः) = यह ज्ञान के सूर्य का प्रकाशक होता है। लोगों के अज्ञान अन्धकार को दूर करता है । ८. यह (द्रोणम्) = नानाविधि कष्टों से उप- द्रुत - पीड़ित संसार के प्रति (ननक्षे) = जाता है, अर्थात् अपनी ही समाधि के आनन्द में न फँसकर लोगों के दुःखों व अज्ञानों को दूर करने मंस समय व्यतीत करता है ९. यह (अत्यः न) = सतत् गतिशील घोड़े के समान होता है। आराम को तिलाञ्जलि देकर यह लोकहित में लगा हुआ है-थकता नहीं (वाजी) = शक्तिशाली जो है । वस्तुतः आत्मा के साथ रहनेवाली ध्यानवृत्तियों ने इसके जीवन को बड़ा शक्तिशाली बना दिया है। प्रेयमार्ग में ही क्षीणता है, श्रेयमार्ग में शक्ति। इस शक्ति को प्राप्त करके यह ‘सर्वभूतहिते रतः' है, उसके लिए सतत गतिशील है। उल्लिखित नौं बातों से युक्त जीवनवाला 'नवधा' = नोधा है - इसी प्रभु की दृश्य नव-स्तुति को धारण करनेवाला है [नू - स्तुतौ ] |

    भावार्थ

    मेरा जीवन एकाग्रता व दिव्यशक्ति के द्वारा लोकहित में अर्पित हो ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( धीरस्य ) = ध्यानवान् योगी की ( साकमुक्ष:) = एक साथ ज्ञान या आनन्दरस का सेचन करने हारी ( दश स्वसारः ) = दश बहनों के समान स्वयं सरण करनेहारी दश ( धनुत्री: ) = प्रेरण करने वाली ( धीतयः ) = ध्यानवृत्तियां, इन्द्रियां, या स्तुतियां ( मर्जयन्त ) = आत्मा को निरन्तर अधिकाधिक पवित्र करती हैं । ( हरिः ) = सब दुःखों को हरण करनेहारा आत्मानन्दरस ( सूर्यस्य ) = कान्तिमान् मुख्य, आदित्य के समान उज्ज्वल आत्मा के ( जाः ) = स्त्रियों के समान उसके अधीन प्रकट चित्तवृत्तियों के प्रति ( पर्यद्रवत् ) = बहता है। और वह स्वयं ( अत्य: न वाजी ) = वेगवान् अश्व के समान ( द्रोणं ) = पात्र या कलश में सोम रस के समान होनेवाली आत्मा में ( ननक्षे ) = व्याप्त हो जाता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नोधा: गौतमः।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कदा जीवात्मा परमात्मानं प्राप्नोतीत्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—सोमौषधिपरः। (धीरस्य) धीमतो यागकर्तुः (साकमुक्षः) साकं सह मिलित्वा उक्षन्ति सिञ्चन्ति निश्च्योतयन्ति सोमरसं यास्ताः (स्वसारः) भगिन्यः, भगिनीवत् सह मिलिताः, (धनुत्रीः२) धनुत्र्यः प्रेरयित्र्यः। धिन्वन्ति प्रीणयन्ति यास्ताः। धिवि प्रीणने, जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। (दश) दशसंख्यकाः (धीतयः) अङ्गुलयः। स्वसारः, धीतयः इत्युभयमपि अङ्गुलिनामसु पठितम्। निघं० २।५। यदा सोमम् (मर्जयन्त) शोधयन्ति। मृजू शौचालङ्कारयो चुरादिः। लडर्थे लङ्। अमार्जयन्त इति प्राप्ते अडागमाभावश्छान्दसः, वृद्धिस्थाने गुणश्च। तदा (सूर्यस्य) आदित्यस्य (जाः३) अपत्यम्। जाः इत्यपत्यनाम। निघं० २।२। (हरिः) हतिवर्णः सोमरसः। हरिः सोमो हरितवर्णः इति निरुक्तम् ४।१९। (पर्यद्रवत्) परितो विस्तीर्यते। किञ्च (वाजी) वेगवान् (अत्यः न) अश्वो यथा। अत्यः, वाजी इत्युभयमपि अश्वनामसु पठितम्। निघं० १।१४। अत्र वाजी इति अत्यः इत्यस्य विशेषणत्वेन प्रयुक्तः सन् योगार्थं प्रयच्छति। यः अतति सततं व्याप्नोति अध्वानं सोऽत्यः। अत सातत्यगमने। (द्रोणम्) द्रुमयं रथम्। द्रोणं द्रुममयं भवति इति निरुक्तम् ५।२६। (ननक्षे) व्याप्नोति, तत्र युज्यते, तथैव सोमरसः (द्रोणम्) द्रोणकलशम् (ननक्षे) व्याप्नोति। नक्षतिर्व्याप्तिकर्मा। निघं० २।१८ ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (धीरस्य) ध्यानस्थस्य योगिनः (साकमुक्षः) साकं सह मिलित्वा उक्षन्ति सिञ्चन्ति ज्ञानैः कर्मभिश्च यास्ताः, (स्वसारः) भगिनीवत् परस्परं सहकारिण्यः, (धनुत्रीः) धनुत्र्यः प्रेरयित्र्यः (दश) दशसंख्यकाः (धीतयः) यम-नियम-भावनाः, यदा (मर्जयन्त) जीवात्मानं शोधयन्ति, तदा (सूर्यस्य) परमात्मनः (जाः) पुत्रः (हरिः) उन्नतिपथे यः ह्रियते स जीवात्मा (पर्यद्रवत्) परिद्रवति, समन्ततः क्रियाशीलो भवति। किञ्च (वाजी) वेगवान् (अत्यः न) अश्वो यथा (द्रोणम्) द्रुमयं रथम् (ननक्षे) प्राप्नोति, तत्र युज्यते इत्यर्थः, तथैव स जीवात्मा (द्रोणम्) क्रियाशीलं परमात्मानम्। गत्यर्थाद् द्रवतेः ‘कृवृजृसि’ उ० ३।१० इति नः प्रत्ययः। (ननक्षे) प्राप्नोति ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी’ इत्यत्र श्लिष्टोपमा। सकार-धकार-नकार-रेफाणामसकृदावर्तनाद् वृत्त्यनुप्रासः ॥६॥

    भावार्थः

    दशाङ्गुलिभिः परिशोधितः सोमरसो यथा द्रोणकलशं व्याप्नोति तथैव यमनियमभावनाभिः परिशोधितो जीवात्मा परमात्मानं प्राप्नोति ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९३।१, साम० १४१८। २. धनुत्रीः धनुः त्रायन्त्यः—इति वि०। धिनोतेर्धनुत्र्यः प्रीणयित्र्यः धन्वतेर्वा गतिकर्मणः, प्राप्नुवन्त्यः प्राप्तव्यानि—इति भ०। ३. जाः जनयिता सूर्यस्य। जन जनने इत्यस्माद् धातोर्विटि प्रत्यये ‘विड्वनोरनुनासिकस्यात्’ इति आकारः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य (ऋ० ६।९६।५) इति च भवति—इति भ०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The ten impelling organs of a contemplative Yogi, like ten sisters, unitedly relishing the pleasure of knowledge, purify the soul. Soul's joy, the dispeller of all afflictions, flows towards the mental faculties, its dependents, and itself pervades the soul like a fleet vigorous courser.

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    Meaning

    Ten generous, agile, spontaneous and simultaneous sister faculties of the self-controlled, self-established yogi together concentrate, communicate and glorify Hari, Soma spirit of divine joy that eliminates want and suffering, and the Spirit, pervading the vibrations of divinity, the light born of the sun, radiates like a constant wave, reaches and settles in the heart core of the blessed soul, the seat of divinity. (The faculties are faculties of perception, thought and will which normally wander over the world of outside reality but which are controlled, concentrated and inverted in meditation and focussed on the presence of divinity within, and then the presence reveals itself in all its refulgent glory. ) (Rg. 9-93-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (धीरस्य) ધ્યાનવાન-ધ્યાનીની (धनुत्रीः) પ્રેરિત કરનારી (धीतयः) પ્રજ્ઞાઓ અથવા ધ્યાન યોગ ક્રિયાઓ (साकम् उक्षः) એક સાથે સિંચનારી-ધ્યાનમાં તૃપ્ત કરનારી (दश स्वसारः) ધ્યાનીને પરમાત્મામાં સુ-સમ્યક્ ફેંકનારી દશ ઇન્દ્રિયો સંબંધી સંયત પ્રજ્ઞાઓ અથવા ક્રિયાઓ (मर्जयन्त) ધીર ધ્યાનવાનને પરમાત્મામાં પહોંચાડે છે. (हरिः सूर्यस्य जाः पर्यद्रवत्) દુઃખહર્તા સુખદાતા શાન્ત પરમાત્મા પોતાની તરફ સરણશીલ યોગીની અદ્ભુત ભાવનાઓને પ્રતિ પરિદ્રવિત બની જાય છે, પુનઃ (अत्यः न वाजी द्रोणं ननक्षे) નિરંતર ગમનશીલ ઘોડાની સમાન હૃદયગૃહમાં પ્રાપ્ત થાય છે, જેમ ઘોડો અન્તમાં તબેલામાં આવી જાય છે. (૬)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ધ્યાનવાન યોગી પ્રેરિકા પ્રજ્ઞાઓ તથા ધ્યાન ક્રિયાઓ એક સાથે તેને તૃપ્ત કરતી પરમાત્માની તરફ પ્રેરિત કરતી તથા દશેય ઇન્દ્રિયોની સંયત પ્રજ્ઞાઓ તથા ક્રિયાઓ પણ પરમાત્માની તરફ લઈ આવે છે, પુનઃ દુઃખહર્તા સુખદાતા પરમાત્માની સરણશીલ ઉપાસક આત્માની અદ્ભુત ભાવનાઓ પ્રતિ પૂર્ણ દ્રવિત બની જાય છે. અન્તમાં તે નિરંતર ગમનશીલ ઘોડાની સમાન જેમ ઘોડો પોતાના તબેલામાં સહજ સ્વભાવથી પહોંચી જાય છે, તેમ ઉપાસકનાં હૃદયગૃહ પ્રાપ્ત થાય છે. (૬)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    گیان اور کرم کی شُدھی سے ایشور کی کرپا

    Lafzi Maana

    پرمیشور میں دھیان جمانے والے دھیانی جن کی پانچ گیان اور کرم اِندریوں کی دسوں طاقتیں جب گیان اور تپ سے شُدھ ہو جاتی ہیں اور اوم نام کے جاپ روپ دھنش سے سب پاپوں پر فتح حاصل کرکے سب کی رکھشا کی طرف لگ جاتی ہیں۔ تب یہ دونوں بہنوں کی طرح پرمیشور کے لئے گیان دھیان اور کرموں کو ارپن کر دیتی ہے۔ تب بھگوان اُن پر دیالو ہو کر اپنا کرم برسا کر روحانی سورج کی روشنی کو اُن کے خانئہ دل میں بھر کر جلدی پرگٹ ہو جاتا ہے۔

    Tashree

    گیان اِندریاں اور کرم کی دونوں جب شُدھ ہو جاتی ہیں، اپنے نرمل گیان کرم سے ہردیہ میں درشن پاتی ہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    बोटांद्वारे शुद्ध सोमरस जसा द्रोणकलशात साठविला जातो, तसेच यम-नियमाच्या भावनांनी शुद्ध झालेला जीवात्मा परमात्म्याला प्राप्त करतो ॥६॥

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    विषय

    जीवात्मा परमात्म्याला केव्हा प्राप्त करतो, याविषयी -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (सोम औषधीपर) - (धीरस्य) बुद्धिमंत यजमानाच्या (साकमुक्षः) सोबत सोमरस गाळणारा (धनुत्री) प्रेरक (दश) दहा (धीतयः) बोटे जेव्हा सोमरस (मर्जमन्ति) शुद्ध करतात, तेव्हा (सूर्यस्य) सूर्याचा (जाः) पुत्र (हरिः) हिरव्या रंगाचा सोमरस (पर्यद्रवत्) चारही दिशांकडे पसरतो. (न) ज्याप्रमाणे (वाजी) वेगवान (अत्यः) घोडा (द्रोणम्) काष्ठनिर्मित रथाला (नवक्षे) ओढथो वा जुंपला जातो, तसेच सोमरस (द्रोणम्) द्रोण कलशात (ननक्षे) एकत्रित होतो.।। द्वितीय अर्थ - (परमात्मपर) (धीरस्य) एका ध्यानावस्थित योगी पुरुषासह (साकमुक्षः) मिळून ज्ञान आणि कर्माद्वारे सिंचन करणाऱ्या (स्वसारः) आणि बहिणीप्रमाणए एकमेकाने साह्य करणाऱ्या (धनुत्रीः) प्रेरक (दश) दहा (धीतयः) यम व नियम या दहा धारणा जेव्हा (मर्जयन्त) आत्म्यास शुद्ध करतात, तेव्हा (सूर्यस्य) परमेश्वराचा (जाः) पुत्र म्हणजे (हरिः) उन्नतीच्या मार्गावर जाणारा आत्मा (पर्यद्रवत्) क्रियाशील होतो. (न) जसे (वाजी) वेगवान (अत्यः) घोडा (द्रोणम्) काष्ठनिर्मित रथाला (नवक्षे) प्राप्त करतो म्हणजे जुंपला जातो, तसे तो आत्मा (द्रोणम्) क्रियाशीसल परमात्म रूप द्रोण कलशाला (नवक्षे) प्राप्त करतो (आत्म्याशी संयुक्त करतो.)।। ६।।

    भावार्थ

    अंगुली समूहाद्वारे शुद्ध केलेला सोमरस जसे द्रोण कलशाकडे जातो, तसेच यम- नियमांच्या भावनांनी परिशुद्ध झालेला जीवात्मा परमात्म्यास प्राप्त करतो.।। ६।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ‘द्रोणं नवक्षे अत्यो न वाजी’ या कथनात श्लिष्टोपमा आहे. ‘स’ ‘घ’ ‘न’ आणि ‘र’ या अक्षरांच्या अनेक वेळा आवृत्ती असल्यामुळे वृत्त्यनुप्रास अलंकार आहे.।। ६।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    தீரனின் எண்ணங்கள் (பத்து சகோதரிகள்) (போல்) ஞானத்தைப் பொழிந்துகொண்டு அவனைத் துதி செய்கின்றன. (சூரியனின் பொன் வடிவமான குழந்தை) இங்கு ஓடி வருகிறான்: வீரமுள்ள குதிரை போல் பொன் கலசத்தை வியாப்தமாகிறான்.

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