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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 540
    ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    18

    इ꣡न्दु꣢र्वा꣣जी꣡ प꣢वते꣣ गो꣡न्यो꣢घा꣣ इ꣢न्द्रे꣣ सो꣢मः꣣ स꣢ह꣣ इ꣢न्व꣣न्म꣡दा꣢य । ह꣢न्ति꣣ र꣢क्षो꣣ बा꣡ध꣢ते꣣ प꣡र्यरा꣢꣯तिं꣣ व꣡रि꣢वस्कृ꣣ण्व꣢न्वृ꣣ज꣡न꣢स्य꣣ रा꣡जा꣢ ॥५४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्दुः꣢꣯ । वा꣣जी꣢ । प꣣वते । गो꣡न्यो꣢꣯घाः । गो । न्यो꣣घाः । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । स꣡हः꣢꣯ । इ꣡न्व꣢꣯न् । म꣡दा꣢꣯य । ह꣡न्ति꣢꣯ । र꣡क्षः꣢꣯ । बा꣡ध꣢꣯ते । प꣡रि꣢꣯ । अ꣡रा꣢꣯तिम् । अ । रा꣣तिम् । व꣡रि꣢꣯वः । कृ꣣ण्व꣢न् । वृ꣣ज꣡न꣢स्य । रा꣡जा꣢꣯ ॥५४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्दुर्वाजी पवते गोन्योघा इन्द्रे सोमः सह इन्वन्मदाय । हन्ति रक्षो बाधते पर्यरातिं वरिवस्कृण्वन्वृजनस्य राजा ॥५४०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्दुः । वाजी । पवते । गोन्योघाः । गो । न्योघाः । इन्द्रे । सोमः । सहः । इन्वन् । मदाय । हन्ति । रक्षः । बाधते । परि । अरातिम् । अ । रातिम् । वरिवः । कृण्वन् । वृजनस्य । राजा ॥५४०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 540
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के कर्मों का वर्णन है।

    पदार्थ

    (गोन्योघाः) गो-रसों के समान मधुर आनन्दरसों के समूह का स्वामी, (वाजी) वेगवान् (इन्दुः) तेजस्वी और रस से आर्द्र करनेवाला परमात्मा (पवते) उपासक के अन्तःकरण को पवित्र करता है। (सोमः) शान्तिदायक वह परमात्मा (मदाय) आनन्द देने के लिए (इन्द्रे) जीवात्मा में (सहः) बल को (इन्वन्) प्रेरित करता है। (वृजनस्य) बल का (राजा) राजा वह परमात्मा, अपने उपासकों को (वरिवः) शुभगुणों का अथवा योग-सिद्धियों का ऐश्वर्य (कृण्वन्) प्रदान करता हुआ (रक्षः) पापरूप राक्षस को (हन्ति) विनष्ट करता है, (अरातिम्) अदानभाव को (परि बाधते) सर्वथा दूर कर देता है ॥८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर उपासकों को गाय के दूध के समान मधुर आनन्दरसों को, आत्मबल को, सद्गुणों को एवं अणिमा आदि योगसिद्धियों को प्रदान करता हुआ उनके हृदय से अदानवृत्ति को बाधित करता हुआ और उनके पापरूप शत्रु का संहार करता हुआ उन्हें विजयी बनाता है ॥८॥

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    पदार्थ

    (वृजनस्य राजा) बल—बलवान् का स्वामी या बलवानों में राजमान—प्रसिद्ध “वृजनं बलम्” [निघं॰ २.९] (वाजी) वाजवान्—अमृत अन्नभोग प्रदाता “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] (इन्दुः) रसीला (सोमः) शान्त परमात्मा (इन्द्रे) उपासक आत्मा के निमित्त (मदाय) हर्ष—आनन्द प्राप्ति के लिये (सहः-इन्वन्) आत्मबल को प्रेरित करता हुआ (गोन्योघाः) ‘गाः स्तुतीः-निधाय-ओघः ‘स’ प्रवाहो यस्य सः’ स्तुतियाँ निर्धारित कर प्रवाह बहाव जिसका है वह ऐसा (पवते) आनन्दधारा में प्राप्त होता है (वरिवः-कृण्वन्) वररूप धन—स्वरूप दर्शन मोक्षैश्वर्य प्रसाद को प्रदान करने के हेतु (रक्षः-हन्ति) जिससे रक्षा करनी चाहिए ऐसे क्रोध को नष्ट करता है (अरातिं परिबाधते) न देने वाले अपितु उसके विपरीत लेने वाले—आत्म तेजबल का शोषण करने वाले मोह-शोक को तिरस्कृत करता है अलग करता है।

    भावार्थ

    सब प्रकार के बलों का स्वामी रसीला शान्तस्वरूप परमात्मा अपने ऊपासक के निमित्त आनन्द प्राप्त कराने के लिये उसमें आत्मसात् करने को सहनशक्ति—आत्मबल प्रेरित करता हुआ स्तुतियों को लक्ष्य कर अपने आनन्दप्रवाह को बहाने वाला आनन्दधारा में प्राप्त होता है और वररूप में स्वरूप दर्शन मोक्षैश्वर्य आत्मप्रसाद को प्रदान करता है, काम क्रोध आदि पाप को नष्ट कर जीवन के शोषक दोष को दूर करता है॥८॥

    टिप्पणी

    [*38. “मन्यते-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४]।]

    विशेष

    ऋषिः—वासिष्ठो मन्युः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाले से सम्बद्ध परमात्मा की अर्चना—स्तुति करने वाला*38)॥<br>

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    विषय

    ज्ञान की तरंगे- ज्ञान का प्लावन

    पदार्थ

    कामादि पशुओं के संहार के लिए जब मनुष्य ज्ञानरूप बाड़ा बनाता है तो उसका जीवन निम्न प्रकार से चलता है – १. (इन्दु:) = [ इन्द To be powerful] यह शक्तिशाली बनता है। कामादि वासनाएँ ही तो मनुष्य की शक्ति को जीर्ण करती हैं। २. (वाजी) = यह शक्ति ही इसे रोगों से युद्ध करने में समर्थ बनाती है। इसकी वीर्य शक्ति [vitality ] रोगकृमियों के विरोध में युद्ध करती है [Wages a war] एवं, इसका अन्नमयकोश बज्र - तुल्य दृढ़ होता है तो प्राणमयकोश रोगकृमियों के संहार की शक्तिवाला होता है। ३. (पवते) = इसका मन पवित्र होता है, और ४. (गो नि आधा:) = इसके विज्ञानमयकोश में ज्ञान की वाणियों का प्लावन [flood] सा आ जाता है, अर्थात इसकी बुद्धि सूक्ष्म होकर इसका ज्ञान बहुत ही बढ़ जाता है । ५. इन चारों कोशों में उत्कर्ष के साथ सबसे बड़ी बात यह होती है कि इस (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय व्यक्ति में (सोमः) = वह शान्तरूप प्रभु (सह) = साथ रहते हुए (इन्वन्) = सदा इसे प्रेरणा देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि मदाय इसके जीवन में मद व उल्लास होता है। 

    इस शक्ति के मद में यह ६. (हन्ति रक्षः) = सब राक्षसी वृत्तियों को समाप्त कर देता है। (अरातिं) = न देने की वृत्ति को (परिबाधते) = सर्वतः कुचल देता है। इसका जीवन अशुभ वृत्तियों से शून्य होकर पवित्र हो जाता है और पवित्र हृदय होकर यह ७. (वरिवः) = प्रभु की पूजा (कृण्वन्) = करता है और (वृजनस्य) = सब दोषों का वजन करनेवाली शक्ति का (राजा) = स्वामी होता है। शक्ति से इसका जीवन चमकता है। इस जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि ‘गोन्योधाः'=ज्ञानजल के प्लावनवाला होता है। ज्ञानातिरेक से ही इसका नाम 'मन्युः' [ज्ञानी] हो गया है। यह ‘वासिष्ठ' है-काम-क्रोध को वश में किए हुए है।

    भावार्थ

    मैं ज्ञान-जल में तैरनेवाला बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वाजी ) = ज्ञान और बल से सम्पन्न ( इन्दुः ) = हृदय में द्रवणशील ( सोमः ) = आत्मानन्दरस ( मदाय ) = आनन्द हर्ष की वृद्धि करने के लिये ( सहः ) = सहन करने योग्य बल को ( इन्द्राय ) = आत्मा में ( इन्वन् ) = प्रेरित करता हुआ ( गो-नि-ओघा ) = रश्मियों या ज्ञान वाणियों, स्तुतियों को नीची तरफ बढ़ाने वाला होकर चन्द्र के समान अथवा दुग्धमिश्रित सोमरस के समान ( पवते ) = क्षरित होता है । उस समय वह ( रक्ष:) = आत्मोन्नति के बाधक, विघ्न करने वाले, कारण को भी ( बाधते ) = दूर करता है और ( अरातिं  ) = प्रिय न लगने वाले अप्रिय कारण को ( परि बाधते ) = दूर करता है । ( वृजनस्य ) = समस्त बल का ( राजा ) = स्वामी होकर वही ( वरिवः) = वरणीय आत्मगुप्त धन, अणिमादि सिद्धि और नवतुष्टियों को ( कृण्वन् ) = प्रकट करता है ।

    टिप्पणी

    ५४० – ‘पर्यरातीर्वरिवः' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमस्य परमात्मनः कर्माण्याह।

    पदार्थः

    (गोन्योघाः२) गवां गोपयोवन्मधुराणाम् आनन्दरसानां न्योघाः समूहा यस्य सः। अत्र समासान्तः असच् प्रत्ययः। (वाजी) वेगवान् (इन्दुः) प्रदीप्तः, रसेन आर्द्रीकर्ता च परमात्मा (पवते) उपासकस्य अन्तःकरणं पवित्रीकरोति। (सोमः) शान्तिदायकः स परमेश्वरः (मदाय) आनन्दाय (इन्द्रे) जीवात्मनि (सहः) बलम् (इन्वन्) प्रेरयन्, भवतीति शेषः। इन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। किञ्च (वृजनस्य३) बलस्य। वृजनमिति बलनाम। निघ० २।९। (राजा) अधिपतिः स परमेश्वरः, स्वोपासकानाम् (वरिवः) गुणगणैश्वर्यं योगसिद्ध्यैश्वर्यं वा। वरिवः इति धननाम। निघं० २।१०। (कृण्वन्) प्रयच्छन् सन् (रक्षः) पापरूपं राक्षसम् (हन्ति) हिनस्ति, (अरातिम्) अदानभावं च (परि बाधते) सर्वथा निरस्यति ॥८॥

    भावार्थः

    परमेश्वर उपासकानां गोपयोवन्मधुरानानन्दरसान्, आत्मबलं, सद्गुणान्, अणिमादियोगसिद्धीश्च प्रयच्छन् तेषां हृदयाददानवृत्तिं बाधमानस्तेषां पापरूपं शत्रुं संहरंश्च तान् विजयिनः करोति ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९७।१० ‘पर्यरातीर्वरिवः कृण्वन्’ इति पाठः। २. गोन्योघाः गवां न्योघाः सङ्घाः—इति वि०। गमनशीलः नीचीनोऽवाङ्मुखः ओघः प्रवाहः यस्य स गोन्योघाः—इति भ०। गमनशीलनीचीनाग्ररससङ्घातः—इति सा०। यत्तु ‘गोनीशब्दो गमनशीलार्थेऽपभ्रंश इत्युदाजहार च पस्पशे पतञ्जलिः’ इत्याह सत्यव्रतः सामश्रमी, तत्त्वत्र न समञ्जसम्, पदपाठे ‘गो न्योघाः’ इति पदच्छेदात्, पतञ्जलिना चापि अपभ्रंशशब्दस्यैवोल्लेखाद् न तु वैदिकशब्दस्येत्यवधेयम्। ३. वृजनस्य बलस्य यज्ञस्य वा—इति भ०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Endowed with knowledge, the elixir of spiritual happiness, running in the heart, for the enhancement of joy, infusing strength in the soul, flows letting loose a flood of knowledge. It quells the foes of spiritual advancement and slays its moral enemies, and being the lord of strength, fulfils all desires.

    Translator Comment

    $ Sayana has mistakenly translated अरातिम् of the verse as अरातीः as occurs in Rigveda 9-97-10.

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    Meaning

    Indu, brilliant Soma, energetic and victorious, pure and purifying, vibrant and dynamic, creating strength, patience and endurance for the souls joy, is ever on the move. It destroys evil, prevents all negativities and opposition and casts them far off, and, giving wealth, honour and excellence of the best order of our choice, rules as the brilliant creator, controller and dispenser of strength, courage, power and life saving vitality in existence. (Rg. 9-97-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृजनस्य राजा) બળ-બળવાનોનો સ્વામી અથવા બળવાનોમાં રાજમાન-પ્રસિદ્ધ (वाजी) વાજવાન-અમૃત અન્નભોગ પ્રદાતા (इन्दुः) રસવાન (सोमः) શાન્ત પરમાત્મા (इन्द्रे) ઉપાસક આત્માને માટે (मदाय) હર્ષ-આનંદ પ્રાપ્તિને માટે (सः इन्वन्) આત્મબળ પ્રેરિત કરતાં (गोन्योधाः) સ્તુતિઓ નિર્ધારીત કરી પ્રવાહ વહાવ (વહેણ) જેનો છે તે એવો (पवते) આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થાય છે. (वरिवः कृण्वन्) શ્રેષ્ઠ રૂપધન-સ્વરૂપ દર્શન મોક્ષૈશ્વર્ય પ્રસાદને પ્રદાન કરવા માટે (रक्षः हन्ति) જેથી રક્ષા કરવી જોઈએ એવા ક્રોધનો નાશ કરે છે (अरातिं परिबाधते) ન આપનાર પરન્તુ તેથી વિપરીત લેનાર આત્મ તેજબળનું શોષણ કરનાર મોહ, શોકનો તિરસ્કાર કરીને દૂર કરે છે. (૮)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સર્વ પ્રકારના બળોનાં સ્વામી, રસવાન, શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા પોતાના ઉપાસકને માટે, આનંદ પ્રાપ્ત કરાવવા માટે તેમાં આત્મસાત્ કરવાને સહનશક્તિ-આત્મબળને પ્રેરિત કરતાં સ્તુતિઓને લક્ષ્ય કરીને પોતાના આનંદ પ્રવાહને વહાવનાર આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થાય છે; અને વર-શ્રેષ્ઠ રૂપમાં સ્વરૂપ દર્શન મોક્ષૈશ્વર્ય આત્મપ્રસાદને પ્રદાન કરે છે, કામ, ક્રોધ આદિનો નાશ કરીને જીવનને શોષનારા દોષોને દૂર કરે છે. (૮)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اپنے بھگت کی تمام بُرائیوں کو دُور ہٹا دیتا ہے!

    Lafzi Maana

    چاند کی طرح شیتل روشنی کا بھنڈار، ہم سب کی خوشیوں کے لئے بیشمار سُکھوں کی باڑھ لگا دینے والا سوم پتا پرمیشور جیو آتما کے بل کو بڑھاتا، اُس کی رکاوٹوں اور راکھشسی جذبات، خود غرضی، مطلب براری اور کنوس پن کو بھی پوری طرح ہٹاتا ہوا دُنیا بھر کی طاقتوں کا منبع اپنے پیارے بھگت کو روحانی خزانوں سے بھرپور کر دیتا ہے۔

    Tashree

    اپنے پیارے بھگتوں کی رکھشا میں ون پرماتما، وِگھن بادھا سوارتھی پاپوں کو دیتاہ ے ہٹا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर उपासकांना गाईच्या दुधाप्रमाणे मधुर आनंदरसाला, आत्मबलाला, सद्गुणांना व अणिमा इत्यादी योगसिद्धीना प्रदान करतो. त्यांच्या पापरूपी शत्रूंचा संहार करून त्यांना विजयी करतो ॥८॥

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    विषय

    सोम परमेश्वराच्या कर्मांचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (गोन्योधाः) गो- रसाप्रमाणे (दुधाप्रमाणे) मधुर अशा आनंद रसाचा जो स्वामी, जो (वाजी) वेगवान असून (इन्दुः) तेजस्वी व रसार्द्र करणारा जो परमेश्वर, तो (पवते) उपासकांचे अंतःकरण पवित्र करतो. (सोमः) तो शांतिदायक परमेश्वर (मदाय) आनंद देण्यासाठी (इन्द्रे) आत्म्याला (इन्तन्) प्रेरणा रतो (वृ जवस्य) (राजा) बलांचा तो स्वामी आपल्या उपासकांना (वरिवः) शुभ गुण वा योग सिद्धीरूप ऐश्वर्य (कृण्वन्) प्रदान करीत (रक्षः) पापरूप राक्षसाला (हन्ति) विनष्ट करतो आणि (अरातिम्) दान न देण्याच्या वृत्तीला - कृपण स्वभााला (परि बाधते) अवश्यमेव सर्वथा दूर करतो.।। ८।।

    भावार्थ

    परमेश्वर उपासकांना गौ दुग्धाप्रमाणे मधुर आनंदरस देतो, आत्मिक शक्ती प्रदान करतो, सद्गुण व अणिमा आदी योगसिद्धी देतो, उपासकांच्या हृदयातील अदा वृत्ती घालवितो आणि पापरूप शत्रूचा संहार करीत उपासकांना विजयी करतो.।। ८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    பலமுள்ள சோமன் பாலில் நன்றாய் நனைந்துகொண்டு இந்திரனுக்காகவும் இன்பத்திற்காகவும் பலத்தைத் தூண்டிக்கொண்டு பெருகுகிறான்; சத்துருக்களை அழித்து பகைவர்களைப் பாழாக்குகிறான். விரும்பும் ஐசுவரியத்தை அளிக்கும் பலத்தின் ராஜாவான சோமன் சத்துருக்களை நாசஞ் செய்கிறான்.

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