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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 550
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣भी꣡ न꣢वन्ते अ꣣द्रु꣡हः꣢ प्रि꣣य꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ का꣡म्य꣢म् । व꣣त्सं꣢꣫ न पूर्व꣣ आ꣡यु꣢नि जा꣣त꣡ꣳ रि꣢हन्ति मा꣣त꣡रः꣢ ॥५५०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । न꣣वन्ते । अद्रु꣡हः꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हः꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । का꣡म्य꣢꣯म् । व꣣त्स꣢म् । न । पू꣡र्वे꣢꣯ । आ꣡यु꣢꣯नि । जा꣣त꣢म् । रि꣣हन्ति । मात꣡रः꣢ ॥५५०॥
स्वर रहित मन्त्र
अभी नवन्ते अद्रुहः प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । वत्सं न पूर्व आयुनि जातꣳ रिहन्ति मातरः ॥५५०॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । नवन्ते । अद्रुहः । अ । द्रुहः । प्रियम् । इन्द्रस्य । काम्यम् । वत्सम् । न । पूर्वे । आयुनि । जातम् । रिहन्ति । मातरः ॥५५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 550
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि मनोवृत्तियाँ परमात्मा का कैसे स्वाद लेती हैं।
पदार्थ
(अद्रुहः) द्रोह न करनेवाली, प्रत्युत स्नेह करनेवाली, (मातरः) माताओं के समान पालन करनेवाली मनोवृत्तियाँ (प्रियम्) प्रिय, (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (काम्यम्) चाहने योग्य परमात्मा की (अभि) ओर (नवन्ते) जाती हैं, और (जातम्) हृदय में प्रकट हुए उसे (रिहन्ति) चाटती हैं अर्थात् उससे सम्पर्क करती हैं, (जातम्) उत्पन्न हुए (वत्सम्) अपने बछड़े को (न) जैसे (पूर्वे आयुनि) प्रथम आयु में (मातरः) गौ-माताएँ (रिहन्ति) चाटती हैं ॥६॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। चाटना जिह्वा से होता है, वह मनोवृत्तियों के पक्ष में घटित नहीं होता। इसलिए यहाँ लक्षणा से संसर्ग अर्थ का बोध होता है, सामीप्य का अतिशय व्यङ्ग्य है। गाय के पक्ष में जिह्वा से चाटना सम्भव होने से लक्षणा नहीं है ॥६॥
भावार्थ
जैसे नवजात बछड़े को गौएँ प्रेम से चाटती हैं, वैसे ही हृदय में प्रादुर्भूत परमेश्वर का उसके प्रेम में भरकर मनोवृत्तियाँ रसास्वादन करती हैं ॥६॥
पदार्थ
(मातरः) माताएँ (जातं वत्सं न) उत्पन्न पुत्र को जैसे (पूर्वे-आयुनि) ‘पूर्वे’ पूर्वस्मिन् ‘सर्वनामसंज्ञाभावश्छान्दसः’ प्रथम आयु में—बाल्यकाल में “छन्दसीणः” [उणा॰ १.२] ‘इणप्रत्ययात्—उकारान्तः—आयुशब्दः’ (रिहन्ति) ‘लिहन्ति’ चूमती हैं या स्नेह स्वागत करती हैं “रिहति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] ऐसे (इन्द्रस्य) इन्द्रियों के स्वामी आत्मा के (प्रियं काम्यम्) प्यारे कमनीय सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (अद्रुहः) उससे द्रोह न करने वाले अपितु स्नेह करने वाले उपासकजन (अभिनवन्त) उसकी ओर अभिगमन करते हैं आकर्षित होते हैं “नवते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।
भावार्थ
माताएँ जैसे उत्पन्न पुत्र को बाल्यकाल में चूमती हैं या स्नेह स्वागत करती हैं, वैसे ही आत्मा के प्रिय कमनीय परमात्मा को स्नेह करने वाले उपासकजन उसकी ओर आकर्षित होते हैं, उसे आलिङ्गन करते हैं॥६॥
विशेष
ऋषिः—रेभसूनू काश्यपावृषी (ज्ञानी गुरु से सम्बद्ध स्तुति प्रेरित करने वाले दो परमात्मोपासक)॥<br>
विषय
अ-हिंसा
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि रेभ-स्तोता, सूनु - प्रेरणा को सुननेवाले तथा काश्यप-ज्ञानी हैं। ये (अद्रुहः) = सबब प्रकार के द्रोहों से ऊपर उठते हुए किसी की हिंसा करना न चाहते हुए, सभी के मंगल की भावना से (प्रियम्) = जीवमात्र के साथ प्रेम करनेवाले (इन्द्रस्य काम्यम्) = जितेन्द्रिय जीव से चाहने योग्य उस प्रभु के प्रति (अभीनवन्ते) = जाते हैं, [नव गतौ ] - उसकी स्तुति करते हैं [नु स्तुतौ] या उसके प्रति नतमस्तक होते हैं [नम] । सदा प्रभु का स्तवन करनेवाले कभी भी किसी के प्रति द्वेष की भावना नहीं रख सकता। प्रभु का भक्त तो 'सर्वभूत-हिते रतः ' होता है। प्रभु की कृपा से वह सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त है तो उसे प्रभु के प्राणियों के कल्याण में प्रवृत्त होना ही चाहिए । गत मन्त्र में एक 'पवित्र + धन-सम्पन्न घर का' चित्रण
हुआ था। प्रस्तुत मन्त्र में उस घर में उत्पन्न 'योग-प्रवण' [प्रभु-भक्त] का चित्रण करते हैं कि 'वह किसी से भी कभी द्वेष नहीं करता ।
'क्या पापी से भी हमें घृणा न हो ?' इस प्रश्न का उत्तर वेद इस प्रकार से देता है कि न=जिस प्रकार (जातम्) = उत्पन्न हुए - हुए (पूर्व आयुनि) = प्रथम अवस्था में वर्तमान (वतसम्) = बछड़े को (मातरः) = उसकी माताएँ - गौएँ (रिहन्ति) = चाटती हैं। बछड़े का शरीर मलिन होता है - पर उसकी माता उसे चाट-चूटकर शुद्ध कर देती है। इसी प्रकार हमें भी प्राणियों से घृणा न करके बड़े कोमल उपायों से उसे शुद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए। हम पाप से दूर करने का प्रयत्न करें न कि पापी को समाप्त करने का। पाप को दूर करना ही वस्तुतः पापी को समाप्त करना हैं गौ को जैसे बछड़े से प्रेम है, उसी प्रकार प्रेम की भावना से पूर्ण होने पर मैं पापी को अपनी ओर आकृष्ट करके पाप को समाप्त कर पाऊँगा।
भावार्थ
मैं अहिंसावृत्ति का पोषण करूँ तदर्थ प्रभु का स्तोता बनूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( मातरः ) = गौएं , माताएं ( पूर्व आयुनि ) = पूर्व, बाल अवस्था में ( जातं ) = नये उत्पन्न हुए ( वत्सं ) = बच्चे को ( न ) = जिस प्रकार ( रिहन्ति ) = चाटती हैं, स्नेह से चूमती हैं, उसी प्रकार ( अद्रुहः ) = समस्त संसार के प्राणियों के प्रति द्रोह का त्याग करनेहारे, अहिंसा के पालक, साधक ( इन्द्रस्य ) = भीतरी आत्मा के ( काम्यं ) = अत्यन्त कामना या स्नेह के विषय, जीवनरस के ( अभि नवन्ते ) = निमित्त झुकते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, उसको स्नेह करते हैं । योग के प्रथम अंग अहिंसा का निरूपण किया है ।
'अहिंसा,सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः । इति व्यासभाष्यम् । अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संन्निधौ वैरत्यागः सर्वप्राणिनां भवति । ( यो० सु० । व्या० भा० ) सब कालों में सब प्रकार से प्राणियों का द्रोह न करना अहिंसा है। अहिंसा पालन से समस्त प्राणी वैर त्याग देते है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - रेभसूनू: काश्यपौ।
देवता - पवमानः।
छन्दः - अनुष्टुप्।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनोवृत्तयः परमात्मानं कथमास्वादयन्तीत्याह।
पदार्थः
(अद्रुहः) न द्रुह्यन्ति प्रत्युत स्निह्यन्ति यास्ताः (मातरः) जननीवत् पालयित्र्यः मनोवृत्तयः (प्रियम्) स्निग्धम्, (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (काम्यम्) अभिलषणीयम् सोमं परमात्मानम् (अभि) अभिलक्ष्य (नवन्ते) गच्छन्ति। नवते गतिकर्मा। निघं० २।१४। (जातम्) हृदि आविर्भूतं च तम् (रिहन्ति) लिहन्ति, आस्वादयन्ति, तेन संसृज्यन्ते इत्यर्थः। रिह आस्वादने। (जातम्) उत्पन्नम् (वत्सम्) स्वतर्णकम् (न) यथा (पूर्वे आयुनि) प्रथमे वयसि। अत्र छान्दसस्य उकारान्तस्य आयुशब्दस्य नपुंसि सप्तम्येकवचने रूपं विज्ञेयम्। (मातरः) तज्जनन्यो धेनवः (रिहन्ति) जिह्वया लिहन्ति ॥६॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। लेहनं तावज्जिह्वया भवति, तच्च मनोवृत्तीनां पक्षे न घटते। तेनात्र लक्षणया संसर्गार्थो बोध्यते, सामीप्यातिशयश्च व्यङ्ग्यः। धेनुपक्षे तु जिह्वया लेहनं संभवत्येव, अतस्तत्र न लक्षणा ॥६॥
भावार्थः
यथा नवजातं वत्सं धेनवः प्रेम्णा लिहन्ति, तथैव हृदि प्रादुर्भूतं परमेश्वरं मनोवृत्तयस्तत्प्रेमपरिप्लुताः सत्य आस्वादयन्ति ॥६॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१००।१।
इंग्लिश (2)
Meaning
The guileless ones bow before God's well-beloved friend, as in the morning of its life, the mothers lick the new-born calf.
Translator Comment
Mother means kine.
Meaning
Just as young mothers love and caress the first born baby in early age, so do people free from malice and jealousy take to Soma, meditative realisation of divinity, dear favourite love of Indra, the soul. (Rg. 9-100-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मातरः) માતાઓ (जातं वत्सं न) જેમ ઉત્પન્ન પુત્રને (पूर्वे आयुनि) પ્રથમ આયુમાં-બાળપણમાં (रिहन्ति) ચૂમે છે અથવા સ્નેહ સ્વાગત કરે છે, તેમ (इन्द्रस्य) ઇન્દ્રિયોના સ્વામી આત્માને (प्रियम् काम्यम्) પ્રિય કમનીય સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (अद्रुहः) તેનાથી દ્રોહ ન કરનાર પરન્તુ સ્નેહ કરનારા ઉપાસકજનો (अभिनवन्त) તેની તરફ અભિગમન કરે છે આકર્ષિત થાય છે. (૬)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જેમ માતાઓ ઉત્પન્ન પુત્રને બાળપણમાં ચૂમે છે અથવા સ્નેહ સ્વાગત કરે છે, તેમજ આત્માને પ્રિય કમનીય પરમાત્માને સ્નેહ કરનારા ઉપાસકજનો તેની તરફ આકર્ષિત થાય છે, આલિંગન કરે છે-ભેટે છે. (૬)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگوان کی بھگتی کیسے کریں؟
Lafzi Maana
پرمیشور کی بھگتی دروہ، چھل، کپٹ، دِکھاوے وغیرہ سے رہت ہو کر اتینت پیار بھرے ہردیہ سے اُس کے تعریفی نغمے گاتے ہوئے کرنی چاہیئے، جیسے کہ ماں اپنے نوزائیدہ بچے کی لطف آمیز باتوں اور اُس کی تعریفوں کو گاتے ہوئے کرتی ہے اور چُومتی چاٹتی بھی جاتی ہے۔
Tashree
در وہ اور دکھاوے سے اوپر اُپاسک پربھو بھگتی کا مارگ ایسا اپنائے، کہ ماں جیسے نوجات بچے کو لے اُس کو گاتی رہے اور جھولا جھولائے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जशा नवजात वासराला गाई प्रेमाने चाटतात, तशाच मनोवृत्ती हृदयात प्रादुर्भूत असलेल्या परमेश्वराचे त्याच्या प्रेमात रंगून रसास्वादन करतात ॥६॥
विषय
मनोवृत्ती परमेश्वराच्या आनंदाचा उपभोग कशा प्रकारे घेतात -
शब्दार्थ
(अद्रुहः द्रोहन करणाऱ्या, नव्हे नव्हे (लेकराला) (वासराला) अत्यंत प्रेम करणाऱ्या (मातरः) आईप्रमाणे/गाईप्रमाणे असलेल्या मनुष्याच्या मनोवृत्ती (प्रियम्) आपल्या प्रिय (इन्द्रस्य) आत्म्याच्या (काम्यम्) प्रिय कमनीय परमेश्वरा (अभि)कडे (नवन्ते) जातात (हृदय सहजच ईश्वरीय प्रेमाकडे, भक्तीकडे आकर्षित होते) आणि जसे गाय आपल्या (जातम्) नवजात वासराला (रिहन्ति) प्रेमाने चाटते तसे मनोवृत्ती परमेश्वराशी संपर्क करतात. (जातम्) उत्पन्न (वस्तम्) वासराला (ज) ज्याप्रकारे (मातरः) गायी (पूर्वे आयुनि) प्रथम प्रथम अवस्थेत म्हणजे त्याचा जन्म झाल्याबरोबर वासराला (रिहन्ति) चाटतात, तसेच मनोवृत्ती सहजच ईश्वराकडे धाव घेतात ।।६।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे गायी आपापल्या नवजात वासराला प्रेमाने चाटतात, तसेच मनोवृत्ती हृदयात प्रादुर्भूत परमेश्वराचा अत्यंत आनंदाने आस्वाद घेतात. ।।६।।
विशेष
या मंत्रात श्लिष्टोपमा अलंकार आहे. चाटणे ही क्रिया जिव्हेद्वारे होत असते, ते मनोवृत्ती पक्षी घटित होत नाही, त्यामुळे येथे लक्षणा शब्दशक्तीद्वारे संसर्ग वा संपर्क अर्थ द्यावा लागतो. अथवा येथे सामीप्याचा आत्यंतिक व्यंग्यभाव बोधित होतो. गौ-पक्षीं जिव्हेने चाटणे संभव नसल्यामुळे लक्षणाशक्ती संभवत नाही ।।६।।
तमिल (1)
Word Meaning
பசுக்கள் பூர்வத்தில் கன்றுகளை பிறந்தவுடன் நக்குவது போல் துரோகமன்னியில் உள்ளவர்கள் இந்திரனின் பிரியமான நண்பனுக்கு கானஞ் செய்கிறார்கள்.
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