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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 569
ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
18
तं꣡ वः꣢ सखायो꣣ म꣡दा꣢य पुना꣣न꣢म꣣भि꣡ गा꣢यत । शि꣢शुं꣣ न꣢ ह꣣व्यैः꣡ स्व꣢दयन्त गू꣣र्ति꣡भिः꣢ ॥५६९॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । वः꣣ । सखायः । स । खायः । म꣡दा꣢꣯य । पु꣣नान꣢म् । अ꣣भि꣢ । गा꣣यत । शि꣡शु꣢꣯म् । न । ह꣣व्यैः꣢ । स्व꣣दयन्त । गूर्ति꣡भिः꣢ ॥५६९॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत । शिशुं न हव्यैः स्वदयन्त गूर्तिभिः ॥५६९॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । वः । सखायः । स । खायः । मदाय । पुनानम् । अभि । गायत । शिशुम् । न । हव्यैः । स्वदयन्त । गूर्तिभिः ॥५६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 569
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय को कहा गया है।
पदार्थ
हे (सखायः) मित्रो ! (वः) तुम (पुनानम्) पवित्र करनेवाले (तम्) उस प्रसिद्ध सोम नामक परमात्मा को (अभि) लक्ष्य करके (मदाय) आनन्दप्राप्ति के लिए (गायत) सामगान करो। उपासक जन उस परमात्मा को (हव्यैः) आत्मसमर्पणों द्वारा और (गूर्तिभिः) स्तुतियों तथा उद्यमों द्वारा (स्वदयन्त) प्रसन्न करते हैं, (शिशुं न) जैसे किसी शिशु को (हव्यैः) खिलौने आदि देय पदार्थों द्वारा और (गूर्तिभिः) गोद में उठाने के द्वारा माताएँ प्रसन्न करती हैं ॥४॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ
आराधना और पुरुषार्थ से प्रसन्न किया हुआ परमेश्वर पवित्रता आदि के सम्पादन द्वारा और आनन्द-प्रदान द्वारा आराधक का हित करता है ॥४॥
पदार्थ
(सखायः) हे समानख्यान समानधर्मी उपासको! (वः-मदाय) तुम्हारे—अपने हर्ष—आनन्द के लिये (तं पुनानम्) उस निर्मल करने वाले को (अभिगायत) लक्ष्यकर गाओ (शिशुं न हव्यैः स्वदयन्त) बालक को जैसे अदनीय भोजनों से स्वाद कराते हैं ऐसे “हव्यमदनम्” [निरु॰ ११.३३] “हु दानादनयोः” [जुहो॰] ‘अदनार्थेऽत्र’ (गूर्तिभिः) अर्चनाओं से—स्तुतियों से अर्चित करो—स्वाद दिलाओ “गृणाति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] “गृशब्दे” [क्र्यादि॰] ‘ततः स्त्रियां क्तिन्’ “उदौष्ठ्यपूर्वस्य, बहुलं छन्दसि” [अष्टा॰ ७.१.१०३] ‘उत् छान्दसः’।
भावार्थ
हे समानधर्मी उपासकजनो! अपने आनन्द प्राप्ति के हेतु उस पवित्र करने वाले शान्तस्वरूप परमात्मा के प्रति गुणगान गाओ और उसे स्तुतियों द्वारा अर्चित करो जैसे अनेक भोजन पदार्थों से बालक को स्वाद दिलाते हैं ऐसे उस परमेश्वर को अपनी ओर आकर्षित करो॥४॥
विशेष
ऋषिः—पर्वतनारदावृषी (पर्ववान्—आत्मतृप्तिमान् और नार—नरविषयक ज्ञान देने वाला)॥<br>
विषय
प्रभु-प्राप्ति-रसास्वादन
पदार्थ
पर्वत ऋषि पुनः कहते हैं कि (सखायः) = मित्रो! (तं पुनानम्) = उस निरन्तर पवित्र करते हुए प्रभु का (वः मदाय) = अपने उल्लास के लिए (अभिगायत) = सदा गायन करो । प्रभु को जितना जपूँगा, उतना ही पवित्र बनूँगा। यह पवित्रता मेरे जीवनयापन को उल्लासमय बनाएगी। प्रभु के स्मरण से मेरा जीवन (शिशुं न) = बच्चे की भाँति पवित्र बना रहता है।
इन सभी बातों का ध्यान करते हुए समझदार व्यक्ति (हव्यैः) = [ यज्ञैः] अपने जीवन को हव्य बनाने के द्वारा अपनी सम्पत्तियों को लोकहित के यज्ञ में आहुति देने के द्वारा तथा (गूर्तिभिः) = [स्तुतिभिः] प्रभु के गुणों के गान द्वारा (स्वदयन्त) = प्रभु-प्राप्ति के आनन्द का रस लेते हैं। प्रभु की समीपता में ये अद्भुत आनन्द का अनुभव करते हैं।
भावार्थ
नि:स्वार्थ लोकसेवा व प्रभुस्तवन मेरे जीवन को रसमय बना दें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( सखायः ) = मित्रो ! ( वः ) = आप लोग ( तं ) = उस ( पुनानं ) = तपस्या आदि से मलों को शोधन करने हारे साधक, या मुख्य प्राण की ( मदाय ) = आनन्द की प्राप्ति के लिये ( अभिगायत ) = साक्षात् गुण स्तुति करो । और ( गूर्त्तिभिः ) = स्तुतियों द्वारा और ( हव्यैः ) = उत्तम सात्विक पदार्थों और विचारों द्वारा ( शिशुम् न ) = जिस प्रकार मधुर अन्नों का ( स्वदयन्त ) = रस चखाकर बालक को वश करते हैं उसी प्रकार । ( शिशुम् ) = सबके भीतर विद्यमान आत्मा को ( स्वदयन्तः ) = अमृत का रसा स्वादन कराकर अपने वश कर, उस तक पहुंचा।
टिप्पणी
५६९-- 'यज्ञेः' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - पर्वतनारदौ काश्यप्यावप्सरसौ वा।
देवता - इन्द्र :।
छन्दः - उष्णिक्।
स्वरः - ऋषभः।
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे (सखायः) सुहृदः (वः) यूयम् (पुनानम्) पवित्रीकुर्वाणम् (तम्) प्रसिद्धं सोमाख्यं परमात्मानम् (अभि) अभिलक्ष्य (मदाय) आनन्दलाभाय (गायत) सामगानं कुरुत। उपासकाः तं परमात्मानम् (हव्यैः) आत्मसमर्पणैः (गूर्तिभिः२) स्तुतिभिः उद्यमैश्च। गॄ शब्दे, गूर उद्यमने, ततः क्तिन्। (स्वदयन्त) प्रसादयन्ति। स्वद आस्वादने, णिजन्तः, लडर्थे लङ्, अडागमाभावश्छान्दसः। (शिशुं न) शिशुं यथा (हव्यैः) देवपदार्थैः क्रीडनकादिभिः (गूर्तिभिः) क्रोडोद्यमनैश्च मातरः प्रसादयन्ति तद्वत् ॥४॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥४॥
भावार्थः
आराधनेन पुरुषार्थेन च प्रसादितः परमेश्वरः पावित्र्यादिसम्पादनद्वारेणानन्दप्रदानेन चाराधकस्य हिताय जायते ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०५।१ ‘हव्यैः’ इत्यत्र ‘यज्ञैः’ इति पाठः। साम० १०९८। २. गूर्तिभिः उद्यमनैः—इति वि०। गूर्तिभिः स्तुतिभिः, गृणातेः गूर्तिः—इति भ०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Comrades, sing for your happiness, the praise of the Yogi, who purges his impurities through penance. Just as a child is appeased by offering him sweets and nice play-things, so should the soul be controlled through noble ideas and the nectar of spiritual knowledge !
Meaning
O friends, enjoying together with creative acts of yajna, sing and celebrate Soma, pure and purifying presence of divinity, with songs of praise, and exalt and adorn him as a darling adorable power with best presentations for winning the joy of lifes fulfilment. (Rg. 9-105-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सखायः) હે સમાનનામ સમાનધર્મી ઉપાસકો ! (वः मदाय) તમારા-પોતાના હર્ષ-આનંદને માટે (तं पुनानम्) તે નિર્મળ કરનારને (अभिगायत) લક્ષ્ય કરીને ગાઓ (शिशुं न हव्यैः स्वदयन्त) જેમ બાળકને આહારના ભોજનનો સ્વાદ ચખાડો છો, તેમ (गूर्तिभिः) અર્ચનાઓથી-સ્તુતિઓથી અર્ચિત કરો - સ્વાદ ચખાડો. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે સમાનધર્મી ઉપાસકજનો ! પોતાના આનંદની પ્રાપ્તિને માટે તે પવિત્ર કરનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માના ગુણગાન ગાઓ અને તેને સ્તુતિઓ દ્વારા અર્ચિત કરો. જેમ અનેક ભોજન પદાર્થોથી બાળકને સ્વાદ ચખાડો છો, તેમ તે પરમાત્માને પોતાની તરફ આકર્ષિત કરો. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگوان کو پرسن کرو!
Lafzi Maana
عابد عارف دوسنو! خوشیوں اور آنند کی لہروں میں مستی لینے کے لئے اُس پوتر کرنے والے بھگوان کے گیت گاؤ، جیسے مختلف کھانے کی چیزوں سے بچوں کو خوش کیا جاتا ہے، ویسے یوگ، سادھنا، تپ، ریاضت سے بھگوان کو پرسن کرو۔
Tashree
اپنی خوشیوں کے لئے تُم پاک کردہ ایش گاؤ، یوگ مارگ کے راہی بن تپ سے پربھوور کو رِجھاؤ۔
मराठी (2)
भावार्थ
हे समानधर्मी उपासक जनानो! आपल्या आनंदाच्या प्राप्तीसाठी, पवित्र करणाऱ्या शांतस्वरूप परमात्म्याचे गुणगान करा व त्याला स्तुतीद्वारे अर्चित करा. जसे विविध भोजन पदार्थांनी बालकाला घास भरविला जातो, तसेच त्या परमेश्वराला आपल्याकडे आकर्षित करा ॥४॥
विषय
पुन्हा तोच विषय (उपासनेसाठी मित्रांना निमंत्रण)
शब्दार्थ
हे (सखायः) मित्रांनो, (वः) तुम्ही (पुनानम्) पवित्र करणाऱ्या (तम्) त्या प्रख्यात सोम नाम परमेश्वराला (अभि) उद्देशून (मदाय) आनंद-प्राप्तीसाठी (गायत) सामगान करा. उपासकजन परमेश्वराला (हव्यैः) आत्म-समर्पणाद्वारे आणि (गूर्तिभिः) स्तुतिमाणीद्वारे आणि प्रयत्नांद्वारे (स्वदमन्त) प्रसन्न करतात. (शिशुं न) जसे आई एखाद्या बालकाला (हव्यैः) खेळणी, खाद्य आदी पदार्थ देऊन तसेच त्याला (गूर्तिभिः) कडेसर घेऊन वा त्याचे लाड करून प्रसन्न करते, तसेच हे उपासकांचे, तुम्हीही स्तुतीद्वारे परमेश्वरासा प्रसन्न करा.।।४।।
भावार्थ
आराधनेने आणि पुरुषार्थाने प्रसन्न केलेला परमेश्वर पवित्रता, आनंद आदी देऊन आराधकाचे कल्याण करतो।।४।।
विशेष
या मंत्रात श्लिष्टोपमा अलंकार आहे.।।४।।
तमिल (1)
Word Meaning
நண்பர்களே: உங்கள் மகிழ்ச்சிக்கு புனிதஞ் செய்யும் அவனை கானஞ் செய்யவும், குழந்தையைப்போல் அளிப்புக்களால் துதிகளால் அவனை இன்பமுடனாக்கவும்.
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