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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 576
    ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    22

    प꣡व꣢ते हर्य꣣तो꣢꣫ हरि꣣र꣢ति꣣ ह्व꣡रा꣢ꣳसि꣣ र꣡ꣳह्या꣢ । अ꣣꣬भ्य꣢꣯र्ष स्तो꣣तृ꣡भ्यो꣢ वी꣣र꣢व꣣द्य꣡शः꣢ ॥५७६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣡व꣢꣯ते । ह꣣र्यतः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣡ति꣢꣯ । ह्व꣡राँ꣢꣯सि । रँ꣡ह्या꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्ष । स्तोतृ꣡भ्यः꣢ । वी꣣र꣡व꣢त् । य꣡शः꣢꣯ ॥५७६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवते हर्यतो हरिरति ह्वराꣳसि रꣳह्या । अभ्यर्ष स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः ॥५७६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पवते । हर्यतः । हरिः । अति । ह्वराँसि । रँह्या । अभि । अर्ष । स्तोतृभ्यः । वीरवत् । यशः ॥५७६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 576
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा रूप सोम से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे सोम परमात्मन् ! (हर्यतः) गतिमान्, कर्मण्य, पुरुषार्थी और तुम्हारी चाहवाला तुम्हारा प्रिय (हरिः) मनुष्य (रंह्या) वेग के साथ (ह्वरांसि) कुटिलता के मार्गों को (अति) अतिक्रमण करके (पवते) सन्मार्गों पर दौड़ रहा है। (त्वम्) तुम स्तोतृभ्यः) तुम्हारे गुण-कर्म-स्वभाव की स्तुति करनेवाले अपने उपासकों को (वीरवत्) वीरभावों अथवा वीर पुत्रों से युक्त (यशः) यश (अभ्यर्ष) प्राप्त कराओ ॥११॥ इस मन्त्र में र्, ह्, आदि की पृथक्-पृथक् अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥११॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थी, कर्मण्य परमेश्वरोपासक मनुष्य अपने जीवन में कुटिलता छोड़कर और सरलता को स्वीकार करके वीरभावों और वीर सन्ततियों से युक्त होता हुआ परम उज्ज्वल यश से चमकता है ॥११॥

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    पदार्थ

    (हर्यतः-हरिः) कमनीय! “हर्यति कान्तिकर्मा” [निघं॰ २.६] “हर्य गतिकान्तयोः” [भ्वादि॰] दुःखापहर्ता सुखाहर्ता सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (रंह्या) वेगरूप गति से “रंहिर्नगतिर्न” [निरु॰ १०.२९] (ह्वरांसि) कुटिलवृत्तों—पापभावों को “ह्वृ कौटिल्ये” [भ्वादि॰] (अति-पवते) अतिक्रान्त करता है—बाहिर निकालता है (स्तोतृभ्यः) उपासकों के लिये (वीरवत्-यशः-अभ्यर्ष) स्वात्मवीर्यवान् “स ह वाव वीरो य आत्मन एव वीर्यमनु वीरः” [जै॰ २.२८२] यश को प्रेरित कर।

    भावार्थ

    कमनीय प्रिय दुःखनाशक सुखप्रापक शान्तस्वरूप परमात्मा तीव्रगति से कुटिलवृत्तों पाप सङ्कल्पों को दूर करता है और उपासकों के लिये आत्मिक वीर्य वाले यश को प्रेरित करता है॥११॥

    विशेष

    ऋषिः—अग्निश्चाक्षुषः (ज्ञानदृष्टिमान् तेजस्वी)॥<br>

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    विषय

    सरलता व यशोयुक्त वीरता

    पदार्थ

    (हर्यतः) = जाने योग्य और चाहने योग्य [हर्य गतिकान्त्योः] वह (हरिः) = सब दुःखों का हरण करनेवाले प्रभु (रंह्या) = बड़े वेग से अर्थात् शीघ्र ही ह्वरांसि-कुटिलताओं के अति ले-जाते हैं। वे प्रभु हम सब की अन्तिम शरण हैं। संसार में अन्य सब शरण नश्वर हैं, केवल प्रभु ही अन्त में सहायक होते हैं, इसलिए वे ही जानने योग्य हैं - वे ही चाहने योग्य हैं। इस प्रभु का स्मरण करनेवाला व्यक्ति छलछिद्र से दूर तथा सरल होता है। सरलता ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग है।

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'चाक्षुष' है- सब मार्गों को ठीक प्रकार से देखनेवाला। वह कुटिलता व सरलता के मार्गों का ठीक से निरीक्षण करके सरलता के मार्ग को अपनाता है, इसीलिए यह ‘अग्नि' आगे और आगे बढ़ता जाता है।

    यह प्रभु से आराधना करता है कि (स्तोतृभ्यः) = अपने स्तोताओं के लिए (वीरवत् यशः) = वीरता से पूर्ण यश (अभ्यर्ष) = प्राप्त कराइए ।

    भावार्थ

    मैं अपने अन्दर सच्चे स्तोता के लक्षणों को धारण करने का प्रयत्न करूँ। स्तोता वीर होता है और वीरता के सदुपयोग से यशस्वी होता है।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

     भा०  = ( हर्यतः ) = हरण-गमन करने योग्य, सब का प्राप्य, ( हरिः ) = सोम, आत्मा ( रंह्या ) = वेग से ( ह्वारांसि ) = कुटिल, कष्टकारी विघ्नों को भी ( अति पवते ) = अतिक्रमण करके चमचमाता है । हे सोम ! ( स्तोतृभ्यः ) = स्तुति करनेहारे, यथार्थ गुणवक्ताओं को ( वीरवद् ) = सामर्थ्यसम्पन्न ( यश:) = तेज ( अभि अर्ष ) = प्रदान कर । 

    टिप्पणी

     ५७६ – 'अभ्यर्षत' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः।

    देवता - इन्द्र:।

    छन्दः - उष्णिक्।

    स्वरः - ऋषभः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मसोमः प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे सोम परमात्मन् ! (हर्यतः) गतिमान्, कर्मण्यः पुरुषार्थी, त्वत्कामः, तव प्रियः। हर्य गतिकान्त्योः। ‘भृमृदृशि०। उ० ३।११०’ इत्यतच् प्रत्ययः। चित्त्वादन्तोदात्तत्वम्। (हरिः) मनुष्यः। हरयः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (रंह्या२) वेगेन। रंहिः गतिः। निरु० १०।२९। (ह्वरांसि) कुटिलतायाः मार्गान् (अति) अतिक्रम्य (पवते) सन्मार्गाननुधावति। त्वम् (स्तोतृभ्यः) त्वद्गुणकर्मस्वभाववर्णनपरायणेभ्यः तवोपासकेभ्यः (वीरवत्) वीरभावैर्युक्तं वीरपुत्रैर्वा युक्तम् (यशः) कीर्तिसमूहम् (अभ्यर्ष) अभिप्रापय ॥११॥ अत्र रेफहकारादीनां पृथक् पृथगनेकश आवृत्तौ वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥११॥

    भावार्थः

    पुरुषार्थी कर्मण्यः परमेश्वरोपासको जना स्वजीवने कौटिल्यं परिहृत्य सरलतां स्वीकृत्य वीरभावैर्वीरसन्ततिभिश्च युक्तः सन् परमोज्ज्वलेन यशसा देदीप्यते ॥११॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०५।१३ ‘अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो’ इति पाठः। २. रंहि शब्दस्य स्त्रियां तृतीयैकवचने रूपमिदम्। ‘अत्र तृतीयाया आकारः’ इति सायणीयं वचनं, तत्र ‘सुपां सुलुक्० (७।१।३९) इत्यादिनेति भावः’ इति सत्यव्रतसामश्रमिटिप्पणं च चिन्त्यम्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, Attainable by all, shines forth, after rapidly transgressing all formidable obstacles. O God, grant hero-like glory to Thy eulogisers !

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    Meaning

    The beauteous and beatific divine saviour spirit of Soma vibrates, purifies and flows with tremendous force, casting off all crookedness and contradictions, and overflowing with valour, honour and excellence for the celebrants and their heroic progeny for generations. (Rg. 9-106-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हर्यतः हरिः) કમનીય-સુંદર દુઃખહર્તા સુખદાતા સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (रंह्या) વેગરૂપ ગતિથી (ह्वरांसि) કુટિલવૃત્તો-પાપભાવો (अति पवते) અતિક્રાન્ત કરે છે-બહાર કાઢે છે (स्तोतृभ्यः) ઉપાસકને માટે (वीरवत् यशः अम्यर्ष) સ્વઆત્મ વીર્યવાન યશને પ્રેરિત કર.
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : કમનીય-સુંદર-પ્રિય, દુ:ખનાશક, સુખપ્રદાતા, શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા તીવ્રગતિથી કુટિલ વ્રત્તો-પાપ સંકલ્પોને દૂર કરે છે; અને ઉપાસકોને માટે વીર્યવાન યશને પ્રેરિત કરે છે. (૧૧)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    بُری خصلتوں کو دُور کریش بل کو دیتا ہے!

    Lafzi Maana

    کامنا کرنے یوگیہ اتی سُندر سب کے پیارے دُکھ ناشک شانت روپ پرماتما بڑی تیزی سے اپنے پیارے اُپاسکوں کی پاپ واسناؤں اور بُری خصلتوں کو دُور کرتا ہوا آتمک بل ویریہ اور یش کو دیتا ہے۔

    Tashree

    عابدوں کی خصلتیں اور واسنائیں جو بُری، دُور کرتا پاپ موچن شکتی دیتا ہر گھڑی۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पुरुषार्थी, कर्मण्य, परमेश्वरोपासक माणूस आपल्या जीवनात कुटिलता सोडून व सरळपणाचा स्वीकार करून वीरभाव व वीर संतानांनी युक्त होतो व अत्यंत उज्ज्वल यशाने प्रकाशित होतो ॥११॥

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    विषय

    सोम परमेश्वराला प्रार्थना

    शब्दार्थ

    हे सोम परमेश्वर, (हर्षतः) प्रगतिशील, कर्तव्य आणि पुरुषार्थी तसेच तुम्हाला चाहणारा तुमचा (हरिः) प्रिय माणूस (रंह्या) अति वेगाने (हृरांसि) कुटिलतेच्या अडथळे(अति) पार करून (पवते) सन्मार्गावर वाटचाल करीत आहे (वा करतो) त्वम्) तुम्ही (स्तोतृभ्यः) तुमच्या गुण, कर्म, स्वभावाची स्तुती करणाऱ्या तुमच्या उपासकांना (वीरवत्) वीरत्वाच्या भावनांनी वा वीर पुत्रांनी युक्त करा आणि त्याला सर्व शुभकार्यात (यशः) कीर्ती वा साफल्य (अभ्यर्ष) प्रदान करा.।।११।।

    भावार्थ

    पुरुषार्थी, कर्मण्य व उपासक मनुष्य कुटिलता, कपट यांपासून दूर राहून सरळ मार्ग स्वीकारतो आणि वीरत्व न वीर-संततीचा लाभ प्राप्त करून परम उज्वल कीर्ती प्राप्त करतो.।।११।।

    विशेष

    या मंत्रात र, ह आणि आदी वर्णांची वेगवेगळ्या रूपात अनेकवेळा आवृत्ती आहे. यामुळे येथे वृत्त्यनुप्रास आहे.।।११।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அவன் வேகத்தில் பொன் நிறமுடன் அழகுடன் ரோமத்தின் சிக்கல் வழியாய் அவன் பெருகுகிறான்; தோத்தரிப்பவர்களுக்கு வீரமுடனான கீர்த்தியை வர்ஷிக்கவும்.

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