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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 580
    ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    22

    आ꣡ सो꣢ता꣣ प꣡रि꣢ षिञ्च꣣ता꣢श्वं꣣ न꣡ स्तोम꣢꣯म꣣प्तु꣡र꣢ꣳ रज꣣स्तु꣡र꣢म् । व꣣नप्रक्ष꣡मु꣢द꣣प्रु꣡त꣢म् ॥५८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । सो꣣त । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣ञ्चत । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । स्तो꣡म꣢꣯म् । अ꣣प्तु꣡र꣢म् । र꣣जस्तु꣡र꣢म् । व꣣नप्रक्ष꣢म् । व꣣न । प्रक्ष꣢म् । उ꣣दप्रु꣡त꣢म् । उ꣣द । प्रु꣡त꣢꣯म् ॥५८०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सोता परि षिञ्चताश्वं न स्तोममप्तुरꣳ रजस्तुरम् । वनप्रक्षमुदप्रुतम् ॥५८०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सोत । परि । सिञ्चत । अश्वम् । न । स्तोमम् । अप्तुरम् । रजस्तुरम् । वनप्रक्षम् । वन । प्रक्षम् । उदप्रुतम् । उद । प्रुतम् ॥५८०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 580
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमात्मा की आराधना के लिए प्रेरणा दी गयी है।

    पदार्थ

    हे मित्रो ! तुम (स्तोमम्) समूह रूप में विद्यमान (अप्तुरम्) नदी-नद-समुद्र के जलों में वेग से यान चलाने के साधनभूत, (रजस्तुरम्) अन्तरिक्षलोक में यानों को तेजी से ले जाने में साधनभूत, (वनप्रक्षम्) वनों को जलानेवाले, (उदप्रुतम्) जलों को भाप बनाकर ऊपर ले जानेवाले (अश्वम्) आग, विद्युत् आदि रूप अग्नि को (न) जैसे, शिल्पी लोग (आ सुन्वन्ति) उत्पन्न करते हैं तथा (परि सिञ्चन्ति) जलादि से संयुक्त करते हैं, वैसे ही (स्तोमम्) स्तुति के पात्र, (अप्तुरम्) प्राणों को प्रेरित करनेवाले, (रजस्तुरम्) पृथिवी, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि लोकों को वेग से चलानेवाले, (वनप्रक्षम्) सूर्यकिरणों अथवा मेघ-जलों को भूमण्डल पर सींचनेवाले, (उदप्रुतम्) शरीरस्थ रक्त-जलों को अथवा नदियों के जलों को प्रवाहित करनेवाले सोम परमात्मा को (आ सोत) हृदय में प्रकट करो और (परि सिञ्चत) श्रद्धारसों से सींचो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। आपः, वनम्, उदकम् ये सब निघण्टु (१।१२) में जलवाची पठित होने से तथा निरुक्त (१२।७) में रजस् शब्द के भी जलवाची होने से ‘अप्तुरम्, रजस्तुरम्, वन-प्रक्षम्, उदप्रुतम्’ ये सब समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु प्रदर्शित व्याख्या के अनुसार वस्तुतः भिन्न अर्थवाले हैं, अतः यहाँ पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार है। त्, म् आदि की आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। ‘तुरम्’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे शिल्पी लोग विद्युत् आदि रूप अग्नि को यानों में संयुक्त करते तथा जल, वायु आदि से सिक्त करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को चाहिए कि प्राणों के प्रेरक, द्यावापृथिवी आदि लोकों के धारक, सूर्यकिरणों और मेघजलों के वर्षक परमात्मा को हृदय में संयुक्त कर श्रद्धा-रसों से सीचें ॥३॥

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    पदार्थ

    (स्तोमम्) स्तुतियोग्य—उपासनीय (अप्तुरम्) प्राणों को प्रेरित करने वाले—“आपो वै प्राणाः” [श॰ ३.८.२.४] (रजस्तुरम्) ज्ञानज्योतिप्रेरक “ज्योती रज उच्यते” [निरु॰ ४.१९] (वनप्रक्षम्) वननीय मोक्ष का सम्पर्क कराने वाले—(उदप्रुतम्) आर्द्र आनन्दरस के प्रेरक—“प्रु गतौ” [भ्वादि॰] (अश्वम्) व्यापक—(न) सम्प्रति “न सम्प्रत्यर्थे” [निरु॰ ६.८] परमात्मा को (आसोत) हृदय में आभासित करो (परिषिञ्चत) आत्मा में श्रद्धा से आभरित करो।

    भावार्थ

    उपासकजनो! तुम स्तुति करने योग्य प्राणप्रेरक बलप्रद ज्ञानज्योतिप्रसारक मोक्ष से सम्पर्क कराने वाले आनन्दरसप्रवाहक व्यापक परमात्मा को हृदय में साक्षात् करो और श्रद्धा से धारण करो॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—ऋजिश्वा (सत्य सरल जीवनयात्रा का पथिक उपासक)॥<br>

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    विषय

    प्रभु की भावना से अपने को ओत-प्रोत करो

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘ऋजिश्वा भारद्वाजः' है- सरलमार्ग से चलनेवाला, अतएव कुटिलता से दूर। कुटिलता से दूर होने के कारण ही वस्तुतः यह 'भारद्वाज' है- अपने में शक्ति को भर पाया है। कुटिल व्यक्ति का मन व मस्तिष्क सदा चिन्ताओं से पूर्ण रहता है, अतएव उसमें नैसर्गिकरूप से शक्ति की कमी हो जाती है। कुटिल व्यक्ति प्रकृति की ओर चलता है - ऋजु प्रभु की ओर। यह अपने सब मित्रों को यही प्रेरणा देता है कि आ = सर्वथा सोत=उस प्रभु की भावना को अपने में उत्पन्न करो- उसका चिन्तन करो, परिषिञ्चत=उसके चिन्तन से ही अपने को सींच लो- तुम्हारे रग-रग में प्रभु की भावना समायी हो। उस प्रभु को तुम सदा याद करो जो

    १. (अश्वम्) = [अशू व्याप्तौ] सर्वव्यापक है। सर्वत्र विद्यमान होता हुआ यदि वह हमारे कर्मों का सतत द्रष्टा है तो हमें आच्छादित करके हमारी रक्षा भी कर रहा है।

    २. (नः स्तोमम्) = हमारे द्वारा स्तुति करने योग्य है । प्रभु की स्तुति से हमारे सामने हमारे जीवन का लक्ष्य सदा उपस्थित रहता है और हम अपने जीवन का उत्थान करनेवाले होते हैं।

    ३. (अप्तुरम्) = वे प्रभु हमें उत्तम कर्मों की [अप्] प्रेरणा देनेवाले हैं। वस्तुतः उसे दयालुरूप में स्मरण करना हमें दया की भावना से अपने को भरने के लिए प्रेरित करता है और इसी प्रकार उसका न्यायकारित्व हमें न्यायकारी बनने का ध्यान कराता है।

    ४. (रजस्तुरम्) = वह प्रभु हमें प्रकाश प्राप्त कराते हैं, जिससे उस प्रकाश में हम सदा उत्तम कर्म करनेवाले बनें ।

    ५. (वनप्रक्षम्) = [वन = संविभाग] - वे प्रभु संविभाग की भावना से हमारा सम्पर्क करनेवाले हैं। ‘हम सब एक प्रभु के पुत्र हैं' - ' – यह भावना ही हमें संविभाग का पाठ पढ़ाती है। जब वे प्रभु हम सबके पिता हैं तो हम सब एक हुए - एक घर में रहनेवाले हम क्या मिलकर न खाएँगे।

    ६. (उदप्रुतम्) = वे प्रभु अपनी करुणा से हमारे अन्दर भी करुणा- जल [उद्] को उँडेलनेवाले हैं [प्रु]। प्रभु का स्मरण हमें ‘करुणार्द्र हृदय' बनाता है। 

    भावार्थ

    मैं सदा प्रभु में निवास करूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

     भा० = हे साधकगण ! ( स्तोमं ) = स्तुति योग्य, ( अप्तुरं ) = ज्ञान और कर्मों से प्राप्त करने योग्य ( रजस्तुरम् ) = समस्त लोकों में व्यापक ( वनप्रक्षम् ) = सबके आत्माओ  में कूटस्थरूप से व्यापक, फलों को जैसे वृक्ष देता है उसी प्रकार सेवन करने योग्य आनन्दरसों को देने वाले ( उद-प्रुतम् ) = ज्ञान से परिपूर्ण, शान्ति के दायक, आत्मरस को ( आसोत ) = अपने हृदय में प्रकट करो । ( परि षिञ्चत ) = पुनः उसक आनन्दमय रसों का आ सेचन करो । 

    टिप्पणी

    ५८० – ‘वनऋक्षम्' इति ऋ० । 'वनकृक्षम्' इति केचित ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः।

    देवता - पवमान:।

    छन्दः - ककुप्।

    स्वरः - ऋषभः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जनान् परमात्माराधनाय प्रेरयति।

    पदार्थः

    हे सखायः यूयम् (स्तोमम्) समूहरूपेण विद्यमानम्, (अप्तुरम्) यः अप्सु नदीनदसमुद्रवर्तिषु उदकेषु तोरयति वेगेन गमयति यानानि तम्। अप्पूर्वकात् तुर त्वरणे धातोर्णिजन्तात् क्विप्। (रजस्तुरम्) यः रजसि अन्तरिक्षलोके तोरयति वेगेन गमयति यानानि तम्, (वनप्रक्षम्) यो वनानि अरण्यानि पृणक्ति संस्पृशति दहति वा तम्। वनपूर्वात् पृची सम्पर्के धातोः बाहुलकाद् औणादिकः सः प्रत्ययः। (उदप्रुतम्) यः उदकं प्रवयति वाष्पीकृत्य ऊर्ध्वं गमयति तम्। उदकपूर्वात् प्रुङ् गतौ धातोः क्विप्। उदकस्य उदभावः। (अश्वम्२) वह्निविद्युदादिरूपम् अग्निम् (न) यथा, शिल्पिनः (आ सुन्वन्ति) उत्पादयन्ति (परि सिञ्चन्ति) जलादिभिः परितः संयोजयन्ति, तथा (स्तोमम्) स्तुतिपात्रम्। स्तूयते इति स्तोमः। ष्टुञ् स्तुतौ धातोः ‘अर्तिस्तुसु०। उ० १।१४०’ इति मन् प्रत्ययः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम्। (अप्तुरम्३) यः अपः प्राणान् तोरयति प्रेरयति तम्। आपो वै प्राणाः। श० ३।८।२।४, प्राणा वा आपः। तै० ३।२।५।२। (रजस्तुरम्) यो रजांसि पृथिवीचन्द्रसूर्यनक्षत्रादिलोकान् तोरयति शीघ्रं गमयति तम्, (वनप्रक्षम्) यो वनानि सूर्यरश्मीन् मेघोदकानि च पर्षति सिञ्चति भूमण्डले तम्। वनम् इति रश्मिनाम उदकनाम च। निघं० १।५, १।२२, पृषु सेचने, भ्वादिः। (उदप्रुतम्) यः उदकानि शरीरस्थानि रुधिराणि नदीभवानि जलानि च प्रवयते प्रवाहयति तम् परमात्मसोमम् (आ सोत) आ सुनुत हृदये प्रकटयत। षुञ् अभिषवे, स्वादिः, लोटि ‘तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।१४५’ इति तस्य तबादेशः। पित्त्वान्ङित्वाभावे न गुणनिषेधः। विकरणस्य लुक्। (परि सिञ्चत) श्रद्धारसैः सर्वतः सिञ्चत च ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। आपः, वनम्, उदकम् इति सर्वेषां जलनामसु पठितत्वात् (निघं० १।१२), निरुक्ते रजःशब्दस्यापि च जलवाचित्वात् (निरु० १२।७)। ‘अप्तुरम्-रजस्तुरम्-वनप्रक्षम्- उदप्रुतम्’ इति सर्वे समानार्थकाः प्रतीयन्ते, किन्तु वस्तुतः प्रदर्शितव्याख्यानानुसारं ते भिन्नार्थाः, अतः पुनरुक्तवदाभासोऽलङ्कारः। तकारमकारादीनामावृत्तौ च वृत्त्यनुप्रासः। ‘तुरं-तुरम्’ इत्यत्र लाटानुप्रासः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा शल्पिनो विद्युदाद्यग्निं यानेषु संयोजयन्ति जलवाय्वादिभिश्च सिञ्चन्ति तथा सर्वे मनुष्याः प्राणानां प्रेरकं, द्यावापृथिव्यादिलोकानां धारकं, सूर्यकिरणानां मेघजलानां च वर्षकं परमात्मानं हृदये संयोज्य श्रद्धारसेनाभिषिञ्चेयुः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०८।७ ‘वनप्रक्ष’ इत्यत्र ‘वनक्रक्ष’ इति पाठः। साम० १३९४। २. ‘प्र नूनं जातवेदसम् अश्वं हिनोत वाजिनम्। ऋ० १०।१८८।१’ इत्याग्नेये जातवेदसे सूक्ते अग्निरश्वः उक्तः। अग्निरेव यदश्वः। श० ६।३।३।२२ इति च ब्राह्मणम्। ३. (अप्तुरम्) योऽपः प्राणान् जलानि वा तोरयति प्रेरयति तम् इति ऋ० ३।२७।११ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Yogi, realise in the heart, and pour into it Again and again the delightful elixir of God, who is Adorable, Attainable through knowledge and noble deeds. All-pervading, constantly Present in all souls, and replete with knowledge!

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    Meaning

    O celebrants, come, realise and all-ways serve Soma like sacred adorable energy impelling as particles of water and rays of light, the spirit pervasive in the universe and deep as the bottomless ocean. (Rg. 9-108-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    (स्तोमम्) સ્તુતિયોગ્ય - ઉપાસનીય (अप्तुरम्) પ્રાણને પ્રેરિત કરનાર (रजस्तुरम्) જ્ઞાનજ્યોતિ પ્રેરક (वनप्रक्षम्) વનનીય મોક્ષનો સંપર્ક કરાવનાર, (उदप्रुतम्) આર્દ્ર આનંદરસના પ્રેરક (अश्वम्) વ્યાપક, (न) વર્તમાન પરમાત્માને (आसोत) હૃદયમાં પ્રકાશિત કરો (परिषिञ्चत) આત્મામાં શ્રદ્ધાથી ધારણ કરો. (૩)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકજનો ! તમે સ્તુતિ કરવા યોગ્ય, પ્રાણપ્રેરક, બળપ્રદ, જ્ઞાન જ્યોતિ પ્રસારક, મોક્ષથી સંપર્ક કરાવનાર, આનંદરસ પ્રવાહક, વ્યાપક પરમાત્માનો હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરો અને શ્રદ્ધાથી ધારણ કરો. (૩)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    دِلی عقیدت سے اُسے دھارن کرو!

    Lafzi Maana

    ہے عابد و عارفو! آپ آنند رس کو بہانے والے، حمد و ثنا کے لائق، زندگی دینے والے، بل داتا، کام کرودھ وغیرہ کی طرف ترغیب دینے والے رجوگن کو مٹاکر علم عرفان کی روشنی کو دینے والے، نجات کے رہنما، سب جگہ موجود پرماتما کو دل میں ظاہر ظہور کر کے دلی عقیدت سے اُسے دھارن کرو۔

    Tashree

    بل داتا گیان کی جوت کو دیتا جلا ہر کس میں جو، اُس کو پرگٹ کر عارفو دل میں، اُسے دھارن کرو۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे शिल्पी (कारागीर) लोक विद्युत इत्यादी रूप अग्नीला यानांमध्ये संयुक्त करून व जल, वायू इत्यादीने सिंचित करतात, तसेच माणसांनी प्राणांचा प्रेरक, द्यावा पृथ्वी इत्यादी लोकांचा धारक, सूर्याकिरणे व मेघजलांचा वर्षक अशा परमेश्वराला हृदयात संयुक्त करून श्रद्धारस सिंचित करावा ॥३॥

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    विषय

    मनुष्यांना परमेश्वराच्या आराधनेसाठी प्रेरणा

    शब्दार्थ

    मित्रांनो, (स्तोमम्) जो अग्नी समूह रूपात विद्यमान आहे, त्याला (अप्तुरम्) जो नदी, नद, समुद्र यांच्या पाण्यावर वेगाने याच संचालनासाठी साधनभूत आहे, त्या अग्नीला, तसेच (रजस्तुरम्) जो अंतरिक्षात यानांना वेगाने नेण्याचे साधनभूत आहे, त्या अग्नीला (वनप्रक्षम्) वन जाळून टाकणाऱ्या (उदप्रुतम्) जलार्चे बाष्प रूपात रूपांतर करून आकाशात घेऊन जाणाऱ्या अग्नीला (अश्वम्) अग्नी, विद्युत आदी रूपातील अग्नीला (न) ज्याप्रमाणे शिल्पीगण (आ सुन्नन्ति) उत्पन्न करतात व त्याचा उपर्युक्तप्रमाणे उपयोग करतात, तसेच अग्नीला (परि सिज्जन्ति) स्तुतिपात्र (अप्तुरम्) प्राणांचा जो प्रेरक (रजस्तुरम्) पृथ्वी, चंद्र, सूर्य, नक्षत्र आदी लोकांना जो वेगाने संचालन करीत आहे, त्या परमेश्वराला (वनप्रक्षम्) सूर्यकिरणांना वा मेघजलाला भूमिमंडलावर आणणाऱ्या (उदप्रुतम्) शरीरस्य रक्त-जलोदोना वा नद्यांच्या जलाला प्रवाह देण्याऱ्या सोम परमेश्वराला (आ सोत) आपल्या हृदयात प्रकट करा आणि (परि सिज्जत) श्रद्धारसाने त्याला सिंचित करा.।।३।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे शिल्पी, अभियंता वा यांत्रिकगण विद्युत आदीरूप अग्नीचा यानात उपयोग करतात आणि जलाने वा वायूने सिक्त करतात, तद्वत मनुष्यांनी प्राण-प्रेरक, द्यावा पृथ्वीधारक, सूर्यकिरण व मेघजलवर्षक परमेश्वराला हृदयातील श्रद्धारसाने सिंचित केले पाहिजे.।।३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लिष्टोपमा अलंकार आहे. आपः, वनम्, उदकम् हे सर्व शब्द निघंटु ग्रंथात (१/१२) जलवाची आहेत. तसेच निरूक्त (१२/७) मधे रजम् शब्ददेखील जलवाची सांगितला आहे. त्यामुळे ‘अजुरम्फ रजस्तुरम् वनसक्षम्, उदप्रुतम्’ हे सर्व शब्द समानार्थी म्हणजे जलवाची वाटतात, पण वर दाखविलेल्या व्याख्येप्रमाणे ते शब्द भिन्न-भिन्न अर्थवाची आहेत, म्हणून येथे पुनरुक्तवदाभास अलंकार आहे. त्,म् या अक्षरांच्या आवृत्तीमुळे वृत्त्यनुप्रास आहे. ‘तुरम्’च्या आवृत्तीमुळे लाटानुप्रास आहे.।।३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    குதிரையைப்போல் வேகமாயும் துதிக்கத் தகுந்தவனாயும் ஆகாச சலத்தைத் தூண்டுபவனாயும் ஒளியை ஓங்கச் செய்பவனான வனப்பொருளில் வசித்து சலத்தில் நீந்தும் சோமனை அமிழ்த்தவும்,ஊற்றவும்.

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