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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 588
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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य꣢स्ये꣣द꣢मा꣣ र꣢जो꣣यु꣡ज꣢स्तु꣣जे꣢꣫ जने꣣ व꣢न꣣꣬ꣳ स्वः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢स्य꣣ र꣡न्त्यं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥५८८॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्य꣢꣯ । इ꣣द꣢म् । आ꣣ । र꣡जः꣢ । आ । र꣡जः꣢꣯ । यु꣡जः꣢ । तु꣣जे꣢ । ज꣡ने꣢꣯ । व꣡न꣢꣯म् । स्व३रि꣡ति꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । र꣡न्त्य꣢꣯म् । बृ꣣ह꣢त् ॥५८८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्येदमा रजोयुजस्तुजे जने वनꣳ स्वः । इन्द्रस्य रन्त्यं बृहत् ॥५८८॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्य । इदम् । आ । रजः । आ । रजः । युजः । तुजे । जने । वनम् । स्व३रिति । इन्द्रस्य । रन्त्यम् । बृहत् ॥५८८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 588
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में उस परमेश्वर के धन का वर्णन है।
पदार्थ
(आरजः) लोकलोकान्तर पर्यन्त (युजः) सब पदार्थों से योग करनेवाले (यस्य) जिस परमेश्वर का (तुजे जने) शीघ्र कार्य करनेवाले कर्मयोगी मनुष्य को (वनम्) सेवनीय (स्वः) धन प्राप्त होता है, उस (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (रन्त्यम्) रमणीय ऐश्वर्य (बृहत्) बहुत बड़ा है ॥३॥
भावार्थ
संसार में जहाँ-तहाँ जो अनेक प्रकार का धन बिखरा पड़ा है, वह सब परमात्मा का ही है। पुरुषार्थी जन ही उसे प्राप्त करने के अधिकारी हैं ॥३॥
पदार्थ
(यस्य रजोयुजः-इन्द्रस्य) जिस ज्योतिर्मय “ज्योती रज उच्यते” [निरु॰ ४.१९] ऐश्वर्यवान् परमात्मा का (इदं वनं स्वः) यह सांसारिक सुख (तुजे जने) दाता—आत्मसमर्पणकर्ता के लिये है, उसके लिये (बृहत्-रन्त्यम्) महान् रमणीय मोक्षानन्द भी है।
भावार्थ
जो मनुष्य अपना समर्पण ज्योतिःस्वरूप ऐश्वर्यवान् परमात्मा के प्रति कर देता है उस जैसे समर्पणकर्ता के लिये सांसारिक भोग-सुख भी है और महान् रमणीय मोक्षानन्द भी है॥३॥
विशेष
ऋषिः—वामदेवः (वननीय परमात्मदेव वाला उपासक)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
ज्ञान किसे प्राप्त होता है ?
पदार्थ
‘प्रभु गुणों से लिप्त होते हों' ऐसा तो हैं नहीं, परन्तु सृष्टि के निर्माण, धारण व प्रलय के शब्दों में प्रभु को भी रज, सत्त्व व तम से संयुक्त रूप में स्मरण किया जाता है। सृष्टि के निर्माण मे समय वे रज से युक्त होते हैं - इसी समय निर्माण के कार्य के कारण ये 'ब्रह्मा' कहलाते हैं। सृष्टि के निर्माण के साथ वे सर्वतोन्मुख होते हुए मानो अपने चतुर्दिक् मुखों से अपने मानस पुत्रों को वेदज्ञान भी प्राप्त कराते हैं। उस (रजो-युजः) = रजोगुण से युक्त (यस्य) = जिस ब्रह्म का (आ) = समन्तात् विस्तृत (इदम्) = यह ज्ञान है, वह (तुजे जने) = देनेवाले [तुज्= हपअपदह] मनुष्य को प्राप्त होता है। लोभ ज्ञानप्राप्ति का महान् विघ्न है। लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है। (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का यह ज्ञान १. (वनम्) = सेवनीय है - संभजनीय है, सत्य होने से उपादेय है। २. (स्वः) = यह प्रकाशमय है - अथवा सुख देनेवाला है। ३. (रन्त्यं) = यह अत्यन्त रमणीय है। प्रारम्भ में वह रमणीय प्रतीत नहीं होता, परन्तु अभ्यास से वह अधिकाधिक सुन्दर लगने लगता है। ४. (बृहत्) = यह [बृहि वृद्धौ] हमारी सर्वतोमुखी वृद्धि का हेतु है।
इस ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य दिव्य गुणों का विकास करता हुआ 'वामदेव' बन जाता है और प्रशस्तेन्द्रिय बनकर 'गोतम' कहलाता है।
भावार्थ
सुखी, सुन्दर व समृद्ध बनाएगा। - तुज् - देनेवाले बनकर हम प्रभु के उस ज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें जो हमें
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( यस्य ) = जिस ( रजोयुजः ) = कान्ति, ज्योति से युक्त या प्रकृति के रजोगुण से योग करने हारे आत्मा का ( तुजे जने ) = दानशील पुरुष में ( इदं ) = यह ( स्वः ) = सुखकारी, दिव्य, समस्त ( वनं ) = सेवन करने योग्य नाना सम्पदा है उस ( इन्द्रस्य ) = परमात्मा का ( रन्त्यं ) = रमणीय ऐश्वर्य भी ( बृहत् ) = बहुत अधिक बड़ा है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वामदेव:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ तस्य परमेश्वरस्य धनं वर्णयति।
पदार्थः
(आरजः२) लोकलोकान्तरपर्यन्तम् (युजः) सर्वैः पदार्थैः योगकारिणः (यस्य) परमेश्वरस्य (तुजे जने) क्षिप्रं कार्यकारिणि कर्मयोगिनि मनुष्ये। निघण्टौ (२।१५) तूतुजानः, तुज्यमानः, तूतुजिः इत्येतेषां क्षिप्रवाचिषु पाठात् तुज धातुः क्षिप्रार्थः। (वनम्) वननीयं सेवनीयम्। वन षण सम्भक्तौ। (स्वः) भौतिकमाध्यात्मिकं च धनम्, संसृज्यते इति शेषः, तस्य (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (रन्त्यम्) रमणीयं ऐश्वर्यम् (बृहत्) महत् वर्तते ॥३॥
भावार्थः
जगति यत्रतत्र यद् विविधं धनं विकीर्णमस्ति तत् सर्वं परमात्मन एव विद्यते। पुरुषार्थिन एव जनास्तत् प्राप्तुमर्हन्ति ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।३३।१, ऋषिः जाटिकायनः। २. सायणस्तु ‘रजोयुजः’ इति समस्तं मत्वा व्याचष्टे—‘रजोयुजः ज्योतिर्भिर्युक्तस्य’ इति। तत्तु पदकारविरुद्धम्, पदपाठे ‘आरजः’ इति समस्तपदस्वीकारात् ‘युजः’ इति च पृथक् प्रदर्शनात्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Holiest God, cut asunder our fetters of uppermost, medium and low sins. O Mighty God, in obedience to Thy Law, being free from sin, may we be competent to acquire full light !
Meaning
This abundant, vast and gracious charity of Indra, this divine bliss of the self-refulgent lord, is dear and adorable among the generous people. May this charity and grace of the lord flow to us.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यस्य रजोयुजः इन्द्रस्य) જે જ્યોતિર્મય ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માનું (इदं वनं स्वः) આ સાંસારિક સુખ (तुजे जने) દાતા-આત્મસમર્પણકર્તાને માટે છે, તેના માટે, (बृहत् रन्त्यम्) મહાન રમણીય મોક્ષાનંદ પણ છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જે મનુષ્ય પોતાનું સમર્પણ જ્યોતિઃ સ્વરૂપ, ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માની તરફ કરી દે છેતે જેમ સમર્પણકર્તાને માટે સાંસારિક ભોગ-સુખ પણ છે અને મહાન રમણીય મોક્ષાનંદ પણ છે. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
اِسی دُنیا سے ہی ایشور موکھش آنند دیتا ہے!
Lafzi Maana
تمام لوک لوکانتروں میں آپسی تعلق جوڑنے والے جس پرماتما کا خوبصورتیوں سے بھرایہ دُنیا روپی باغ ہرا بھرا ہو رہا ہے، اِسی کے ذریعے سے ہی وہ محافظ کُل پرماتما عارفوں کو مُکتی یا نجات کا مہان سُکھ بخشش کرتا ہے۔
Tashree
اِس رنگ رنگیلی دُنیا کا نرمان کیا جس ایشور نے، اِسکے ہی ذریعے موکھش آنند بھگتوں کو دیا جگدیشور نے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जगात इकडे तिकडे अनेक प्रकारचे धन विखुरलेले आहे, ते सर्व परमेश्वराचेच आहे. पुरुषार्थी लोकच ते प्राप्त करण्याचे अधिकारी असतात ॥३॥
विषय
त्या परमेश्वराच्या धनाचे वर्णन
शब्दार्थ
(आरजः) लोक-लोकान्तरापर्यंत (पुजः) सर्व पदार्थांशी (यस्य) ज्याचा संयोग आहे, त्या परमेश्वराकडून (तुजे जने) त्वरित कार्य करणाऱ्या कर्मयोगी मनुष्याला (वनम्) सेवनीय (स्वः) धन प्राप्त होतो. त्या (इन्द्रस्थ) परमेश्वराचे (इन्त्यम्) रमणीय ऐश्वर्य (बृहत्) अत्यंत महान वं विस्तृत आहे.।।३।।
भावार्थ
जगात जेथे जेथे जे जे धन सर्वत्र विखरून पडलेले आहे, ते सर्व परमेश्वराचेच आहे. पण पुरुषार्थी श्रमकर मनुष्यचत्या धनासाठी पात्र ठरतात.।।३।।
तमिल (1)
Word Meaning
அதிக தேஜசுள்ள இந்திரனின் சுபமளிக்கும் எதுவும்
சனங்களின் விஷயத்தில் நாடத் தகுந்தது; அவன் அளிப்பு மிகவும் பெரியதாகும்.
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