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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 595
    ऋषिः - श्रुतकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    47

    त्व꣢मे꣣त꣡द꣢धारयः कृ꣣ष्णा꣢सु꣣ रो꣡हि꣢णीषु च । प꣡रु꣢ष्णीषु꣣ रु꣢श꣣त्प꣡यः꣢ ॥५९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्व꣢म् । ए꣣त꣢त् । अ꣣धारयः । कृष्णा꣡सु꣢ । रो꣡हि꣢꣯णीषु । च꣣ । प꣡रु꣢꣯ष्णीषु । रु꣡श꣢꣯त् । प꣡यः꣢꣯ ॥५९५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमेतदधारयः कृष्णासु रोहिणीषु च । परुष्णीषु रुशत्पयः ॥५९५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । एतत् । अधारयः । कृष्णासु । रोहिणीषु । च । परुष्णीषु । रुशत् । पयः ॥५९५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 595
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र का इन्द्र देवता है। इसमें इन्द्र परमात्मा के कौशल का वर्णन है।

    पदार्थ

    प्रथम—गौओं के पक्ष में। हे इन्द्र जगदीश्वर !(त्वम्) सर्वशक्तिमान् आपने (कृष्णासु) काले रंग की, (रोहिणीषु च) और लाल रंग की (परुष्णीषु) बहुत स्नेहशील मातृभूत गौओं में (एतत्) इस, हमसे प्रतिदिन पान किये जानेवाले (रुशत्) उज्ज्वल (पयः) दूध को (अधारयः) निहित किया है ॥ द्वितीय—नदियों के पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! (त्वम्) जगत् की व्यवस्था करनेवाले आपने (कृष्णासु) कृषिकर्म को सिद्ध करनेवाली, (रोहिणीषु च) और वृक्ष-वनस्पति आदियों को उगानेवाली (परुष्णीषु) पर्वोंवाली अर्थात् टेढ़ा चलनेवाली नदियों में (एतत्) इस (रुशत्) उज्ज्वल (पयः) जल को (अधारयः) निहित किया है ॥ तृतीय—नाड़ियों के पक्ष में। हे इन्द्र जगत्पति परमात्मन् ! (त्वम्) प्राणियों के देहों के सञ्चालक आपने (कृष्णासु) नीले रंगवाली शिरारूप (रोहिणीषु च) और लाल रंगवाली धमनिरूप (परुष्णीषु) अङ्ग-अङ्ग में जानेवाली अथवा रक्त को ले जानेवाली रक्तनाड़ियों में (एतत्) इस (रुशत्) चमकीले नीले रंग के और चमकीले लाल रंग के (पयः) रक्तरूप जल को (अधारयः) निहित किया है ॥ चतुर्थ—रात्रियों के पक्ष में। हे इन्द्र राजाधिराज परमेश्वर ! (त्वम्) दिन-रात्रि के चक्र के प्रवर्तक आपने (कृष्णासु) आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से काले रंगवाली (रोहिणीषु च) और प्रकाश से उज्ज्वल (परुष्णीषु) कृष्ण और शुक्ल पक्षों से युक्त रात्रियों में (एतत्) सबको दीखनेवाले इस (रुशत्) चमकीले (पयः) ओस-कण रूप जल को (अधारयः) निहित किया है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा का ही यह कौशल है कि वह विविध रंगोंवाली गौओं में श्वेत दूध को नदियों में उज्ज्वल जल को, शरीरस्थ नाड़ियों में नीले और लाल रुधिर को तथा कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष की रात्रियों में ओसरूप जल को उत्पन्न करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (त्वम्) तू (कृष्णासु) कृष्ण रङ्ग वाली रसवाहिनी नाड़ियों में (रोहिणीषु) रक्तवाहिनी नाड़ियों में (परुष्णीषु) ज्ञानवाहिनी नाड़ियों में (एतत्) यह (रुशत्) ज्वलित—रोचमान “रुशत्....रोचमान” “रुशत् वर्णनाम रोचतेर्ज्वलितिकर्मणः” [निरु॰ ६.१४] (पयः) प्राण को “प्राणः पयः” [श॰ ६.५.४.१५] (अधारयः) धारण करा।

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान् परमात्मा हमारे शरीर की रसवाहिनी नाड़ियों में रक्तवाहिनी नाड़ियों में तथा ज्ञानवाहिनी नाड़ियों में इस अध्यात्म-प्रेरक रोचमान प्राण को धारण करा, अध्यात्म-विरोधी रस, रक्त और ज्ञान का वहन करने वाला न हो, किन्तु रोचमान प्राण उनमें कार्य करता रहे॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    देदीप्यमान दुग्ध

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'श्रुतकक्ष' - ज्ञान को अपनी शरण बनानेवाला अतएव 'आङ्गिरस' शक्तिशाली है। प्रभु के प्रति समर्पण के द्वारा गतमन्त्र में ज्ञान प्राप्ति का उल्लेख था। ज्ञान प्राप्त करनेवाले इस 'श्रुतकक्ष' से प्रभु कहते हैं कि (त्वम्) = तू (एतत्) = इस (रुशत्) = देदीप्यमान (पयः) = आप्यायित करनेवाले ज्ञान को (अधारयः) = सब प्रजाओं के अन्दर धारण कर । किन प्रजाओं में -

    १. (कृष्णासु) = तमोगुण की प्रधानता के कारण अन्धकार में रहनेवालों में। स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान को औरों तक पहुँचाना ही श्रुतकक्ष का उद्देश्य होना चाहिए । स्वयं ज्ञानी बनकर अकेले मुक्त होने के लिए उद्यत होना ठीक नहीं है। अज्ञान में वर्तमान इन प्रजाओं को जब श्रुतकक्ष मधुर शब्दों में समझाने का प्रयत्न करता है तो कृष्ण-प्रजाएँ उसे अपना गुरु बनाकर आदर देती हैं। अज्ञान का रंग काला है, अतः इन प्रजाओं को 'कृष्णा' नाम दिया गया है।

    २. (रोहिणीषु)– उन प्रजाओं में जो सत्त्वगुण प्रधानता के कारण रोहणशील, उन्नतिशील हैं। ये ज्ञान की बातो को रुचिपूर्वक सुनती हैं। ये अपने आचार्यों का ज्ञान - ग्रहण द्वारा सम्मान करती हैं। इनके अतिरिक्त -

    ३. (परुष्णीषु) = [कुटिलगामिनी इति यास्क:] कुटिलगामिनी प्रजाओं में भी ज्ञान का प्रचार करना है। ये रजोगुण प्रधान होती हैं और अर्थ को ही उद्देश्य बनाकर चलती हैं। नानाविध वासनाओं से आक्रान्त होने से इन्हें ज्ञान रुचिकर नहीं होता। ये ज्ञानदाता से प्रेम के स्थान में उसपर क्रोध करती हैं। इनके द्वारा उसे अधिकाधिक कष्ट दिये जाते हैं, परन्तु यह उन्हें ज्ञान देने में अपने प्राणों की भी बाजी लगा देता हैं। उनका अमंगल न चाहता हुआ यह उन्हें ज्ञानदुग्ध पिलाता ही रहता है। पय: - ज्ञान है, क्योंकि यह आप्यायित करनेवाला है। ज्ञान का पुञ्ज होने से आचार्य भी ‘पयः' कहलाया है।

    भावार्थ

    हम श्रुतकक्ष बनकर सब प्रजाओं को ज्ञान देनेवाले बनें।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे आत्मन् ! ( त्वं ) = तू ही ( कृष्णासु ) = प्राणों को कर्षण करने हारी पिङ्गला नाम नाड़ियों और ( रोहिणीषु ) = प्राणों का रोहण, परिवर्धन करने वाली इड़ा नाड़ियों में और ( परुष्णीषु१   ) = पौरु २, या अंग २ में निवास करनेहारी, ज्ञानवाहिनी चित्कुण्डलिनी सुषुम्ना  आदि नाड़ियों में ( रुशत् ) = कान्तिमय ( पयः ) = तेज या रस को सूर्य के समान ( अधारयः ) = धारण करता है२ ।सूर्यपक्ष में-कृष्णा=रात्रियें, रोहिणी=उषाएं, परुष्णी३ = दिन मध्याह्नवला।

    टिप्पणी

     ५९५ - १. इरावती परुष्णीत्याह । पर्ववती भास्वती, कुटिलगामिनी ( निरु० ९  । २६ )
    २. द्रष्टव्यं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायाम् इम मे गङ्गे यमुने इत्यादि व्याख्यानम् ( प्र० ३० ) 
    । ३।  परम उष्णवत्यो घटिकाः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्रुतकक्ष:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमाया इन्द्रो देवता। इन्द्रस्य परमात्मनः कौशलं वर्णयति।

    पदार्थः

    अथ प्रथमः—धेनुपक्षे। हे इन्द्र जगदीश्वर ! (त्वम्) सर्वशक्तिमान् (कृष्णासु) कृष्णवर्णासु (रोहिणीषु च) लोहितवर्णासु च (परुष्णीषु) बहुस्नेहशीलासु मातृभूतासु गोषु। पुरु बहु स्निह्यन्तीति परुष्ण्यः। (एतत्) इदमस्माभिः प्रत्यहमास्वाद्यमानम् (रुशत्) उज्ज्वलम्। रुशदिति वर्णनाम, रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। निरु० ६।१३। (पयः) दुग्धम् (अधारयः) धारितवानसि ॥ अथ द्वितीयः—नदीपक्षे। हे इन्द्र परमात्मन् ! (त्वम्) जगद्व्यवस्थापकः (कृष्णासु) कृषिकर्मसाधिकासु (रोहिणीषु च) वृक्षवनस्पत्यादीनां रोहणकर्त्रीषु च (परुष्णीषु) पर्ववतीषु वक्रगामिनीषु नदीषु। परुष्णी पर्ववती भास्वती कुटिलगामिनी। निरु० ९।२४। (एतत्) इदम् (रुशत्) उज्ज्वलम् (पयः) जलम् (अधारयः) निहितवानसि ॥ अथ तृतीयः—नाडीपक्षे। हे इन्द्र जगत्पते परमात्मन् ! (त्वम्) प्राणिदेहसञ्चालकः (कृष्णासु) नीलवर्णासु शिरानाम्ना प्रसिद्धासु (रोहिणीषु च) लोहितवर्णासु धमनिनाम्ना ख्यातासु च (परुष्णीषु) परुषि परुषि अङ्गे अङ्गे नीयन्ते रक्तं नयन्तीति वा ताः परुष्ण्यः, तासु रक्तनाडीषु (एतत्) इदम् (रुशत्) दीप्तम्—शिरासु नीलवर्णतया दीप्तं, धमनिषु च लोहितवर्णतया दीप्तम् (पयः) रक्तजलम् (अधारयः) धृतवानसि ॥ अथ चतुर्थः—रात्रिपक्षे। हे इन्द्र राजाधिराज परमेश्वर ! (त्वम्) दिनरात्रिचक्रप्रवर्तकः (कृष्णासु) अंशतः पूर्णतो वा कृष्णवर्णासु (रोहिणीषु च) प्रकाशोज्ज्वलासु च (परुष्णीषु) कृष्णशुक्लपर्वयुक्तासु रात्रिषु (एतत्) सर्वैर्दृश्यमानम् (रुशत्) दीप्यत् (पयः) अवश्यायजलम् (अधारयः) धृतवानसि ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    परमात्मन एवेदं कौशलं यत् स विविधवर्णासु गोषु श्वेतं पयः, नदीषु समुज्ज्वलं जलं शरीरस्थासु नाडीषु नीलं लोहितं च रुधिरं, कृष्णशुक्लासु रात्रिषु चावश्यायसलिलं जनयति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९३।१३ ऋषिः सुकक्षः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, thou preservest this beautiful splendour in the Pingala, Ida and Sushumna arteries.

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    Meaning

    Only you as mind and electric energy bear, hold and maintain in circulation this bright vital liquid energy as sap and blood in the dark and red life sustaining veins and arteries of living forms. (Rg. 8-93-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (कृष्णासु) કાળા રંગવાળી રસવાહિની નાડીઓમાં (रोहिणीषु) રક્તવાહિની નાડીઓમાં (परुष्णीषु) જ્ઞાનવાહિની નાડીઓમાં (एतत्)(रूशत्) જ્વલિત-પ્રકાશમાન (पयः) પ્રાણને (अधारयः) ધારણ કરાવ. (૧)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા અમારા શરીરની રસવાહિની નાડીઓમાં, રક્તવાહિની નાડીઓમાં તથા જ્ઞાનવાહિની નાડીઓમાં એ અધ્યાત્મ પ્રેરક પ્રકાશમાન પ્રાણને ધારણ કરાવ, અધ્યાત્મ વિરોધી રસ, રક્ત અને જ્ઞાનનું વહન કરનાર ન બન, પરંતુ પ્રકાશમાન પ્રાણ તેમાં કાર્ય કરતો રહે. (૧)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    تینوں فطرتوں میں روحانی نُور

    Lafzi Maana

    ہے پرمیشور! آپ نے ہمارے اندر تموگن، رجوگن اور ساتوک تنوں (اوصافِ حمیدہ) میں گیان کی روشنی کو دینے والا دودھ بھر رکھا ہے۔

    Tashree

    تینوں فطرتوں تم، رج اور ستو میں ساتوک اوصاف تو ہوتے ہی ہیں، لیکن وہ اُبھرتے ہیں گیان کی کمی بیشی سے، گیان کی روشنی بڑھ جانے پرستو گُن دوسروں سے اُوپر آ جاتے ہیں اور یوگ کی مشق سے تم اور رج یعنی بُرے، ناپاک اور انتہائی غصیل خیالات دب کر ستو گن یعنی اوصافِ حمیدہ چمک اُٹھتے ہیں، جس سے بھگوان کے ملن کا راستہ عارف کے لئے صاف ہو جاتا ہے۔ فطرتیں انسانی تینوں جس میں جکڑا ہے منش، گیان کی شمع کو روشن کر کے تر جاتا منش۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराचे हे कौशल्य आहे की तो विविध रंगांच्या गाईंमध्ये पांढरे दूध, नद्यांमध्ये उज्ज्वल जल, शरीरातील नाड्यांमध्ये निळे व लाल रक्त व कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्षाच्या रात्रीमध्ये दवबिंदूरूपी जल उत्पन्न करतो ॥१॥

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    विषय

    प्रथम मंत्राची देवता-इन्द्र। इन्द्र परमेश्वराच्या कौशल्याचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (गौपरक) हे इन्द्र परमेश्वर, (त्वम्) आपण सर्वशक्तिमान आहात. आपणच (कृष्णासु) काळ्या रंगाच्या (रोहिणीषुच) आणि लाल रंगाच्या तसेच (परुष्णीषु) अत्यंत स्नेहशीला मातृवत गायीमधे (एतत्) या, जे आम्ही रोज पीत आहोत, त्या (सशत्) पांढऱ्या शुभ्र (पयः) दूध (अधारयः) निहित केले आहे.।। द्वितीय अर्थ - (नदीपतक) हे इन्द्र परमेश्वर, (त्वम्) या जगात व्यवस्था वा संचालन करणारे आपण (कृष्णासु) कृषिकर्मात सहाय्यक असणाऱ्या (रोहिणीषुच) आणि वृक्ष- वनस्पतीचा जीवन देणाऱ्या (परुष्णीषु) पर्व असणाऱ्या (पर्व म्हणजे पोरे-गाठी आदी) म्हणजे वाकडी वाकडी वाहणाऱ्या नद्यांमधे (एतत्) या (रूशत्) स्वच्छ व शुद्ध (पयः) जल (अधारयः) निहित केले आहे. (तुमच्या व्यवस्थेमुळेच नद्यात जल वाहत आहे.) तृतीय अर्थ - (नाडीपरक)- हे इन्द्र जनत्पत्ती परमेश्वर, (त्वम्) सर्व प्राण्यांच्या शरीरांचे संचालक (कृष्णासु) निळ्या रंगाच्या (रोहिणीषुच) आणि लाल रंगाच्या नाड्यामधे (पुरुष्णीषु) अंगाअंगात जाणाऱ्या अथवा रक्ताला वाहून नेणाऱ्या रक्तनाड्यांमधे (एतत्) या (रुशत्) चमकणाऱ्या निळ्या व लाल रंगाच्या (पयः) रक्तरुपजल आपणच (अधारयः) घातले आहे.।। चतुर्थ अर्थ - (रात्रिपरक) हे इन्द्र राजाधिराज परमेश्वर, (त्वम्) दिवस-रात्रीचे प्रवर्तक या (कृष्णासु) आंशिक रूपाने काळ्या वा कधी पूर्णतः काळ्या (रोहिणीषु-च) आणि कधी चंद्रप्रकाशाने उज्वल अशा (परुष्णीषु) कृष्ण-पक्ष व शुक्ल पक्षातील रात्रीत (एतत्) हे सर्वांना दिसून येणारे (रुशत्) चमचमणारे (पयः) दवबिंदुरूप जल (अधारयः) आपणच घातले आहे.।।१।।

    भावार्थ

    हे त्या परमेश्वराचेच कौशल्य आहे की त्याने विविध रंगाच्या गायीच्या स्तनात दूध दिले आहे, नद्यात स्वच्छ जल आणि शरीरस्थ नाड्यांमधे निळे व लाल रक्त तसेच कृष्णपक्ष व शुक्त पक्षाच्या रात्रीत दवबिंदूचे जल उत्पन्न केले आहे.।।१।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।१।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே! ஆத்மாவே ! நீ கருப்புக்களிலே
    சிகப்புகளிலே, பல நிறங்களில் ஒளியுடனான ரசத்தை தரிக்கிறாய். .

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