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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 603
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    21

    सं꣢ ते꣣ प꣡या꣢ꣳसि꣣ स꣡मु꣢ यन्तु꣣ वा꣢जाः꣣ सं꣢꣯ वृष्ण्या꣢꣯न्यभिमाति꣣षा꣡हः꣢ । आ꣣प्या꣡य꣢मानो अ꣣मृ꣡ता꣢य सोम दि꣣वि꣡ श्रवा꣢꣯ꣳस्युत्त꣣मा꣡नि꣢ धिष्व ॥६०३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣢म् । ते꣣ । प꣡याँ꣢꣯सि । सम् । उ꣣ । यन्तु । वा꣡जाः꣢꣯ । सम् । वृ꣡ष्ण्या꣢꣯नि । अ꣣भिमातिषा꣡हः꣢ । अ꣣भिमाति । सा꣡हः꣢꣯ । आ꣣प्या꣡य꣢मानः । आ꣣ । प्या꣡यमा꣢꣯नः । अ꣣मृ꣡ता꣢य । अ꣣ । मृ꣡ता꣢꣯य । सो꣣म । दिवि꣢ । श्र꣡वाँ꣢꣯सि । उ꣣त्तमा꣡नि꣢ । धि꣣ष्व ॥६०३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं ते पयाꣳसि समु यन्तु वाजाः सं वृष्ण्यान्यभिमातिषाहः । आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवाꣳस्युत्तमानि धिष्व ॥६०३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । ते । पयाँसि । सम् । उ । यन्तु । वाजाः । सम् । वृष्ण्यानि । अभिमातिषाहः । अभिमाति । साहः । आप्यायमानः । आ । प्यायमानः । अमृताय । अ । मृताय । सोम । दिवि । श्रवाँसि । उत्तमानि । धिष्व ॥६०३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 603
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले दो मन्त्रों का पवमान सोम देवता है। इस मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (सोम) पवित्रतादायक, करुणारसागार परमात्मन् ! (अभिमातिषाहः) कामादि शत्रुओं का पराजय करनेवाले (ते) आपके (पयांसि) प्रेमरस और आनन्दरस (संयन्तु) हमें प्राप्त हों, (उ) और (वाजाः) बल (सम्) हमें प्राप्त हों, (वृष्ण्यानि) पुरुषार्थयुक्त कर्म (सम्) हमें प्राप्त हों। (आप्यायमानः) हृदय में बढ़ते हुए आप (अमृताय) अमरत्व-प्रदान के लिए (दिवि) हमारे आत्मा में (उत्तमानि) उत्कृष्टतम (श्रवांसि) यशों को (धिष्व) निहित कीजिए ॥२॥

    भावार्थ

    यहाँ बढ़ते हुए चन्द्रमा का आकाश में उत्तम चाँदनी को फैलाने का अर्थ ध्वनित हो रहा है, उससे परमात्मा चन्द्रमा के समान है, यह उपमाध्वनि निकलती है ॥२॥ जैसे-जैसे परमात्मा में हमारा ध्यान बढ़ता है, वैसे-वैसे हमारे अन्तः- करण में परमात्मा मानो बढ़ता हुआ हमें आत्मबल, कर्मनिष्ठता और उत्तम यश प्रदान करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (ते-अभिमातिषाहः) तुझ पापभावनाओं काम आदि को सहने दबाने—नष्ट करने वाले के “पाप्मा वा अभिमातिः” [काठ॰ १३.२] (पयांसि-अमृताय संयन्तु) ज्ञानमय तेज—तेजोरूपधाराएँ “एतत् सोमस्य तेजः-यत् पयः” [तै॰ सं॰ २.५.२.७] अमृत—अमर हुए जीवन्मुक्त के लिये सम्प्राप्त हो (वाजाः सम्-उ) अमृत अन्न—अनश्वरभोग अवश्य सम्प्राप्त हों (वृष्ण्यानि सम्) रेतःसामर्थ्य भी सम्प्राप्त हों “सं वृष्ण्यान्यभिमातिषाह इति संरेतांसि पाप्मसह इत्येतत्” [श॰ ७.३.१.४६] तथा (दिवि) मोक्षधाम में (उत्तमानि श्रवांसि धिष्व) उत्कृष्ट श्रवः-प्रशंसनीय यश—यशस्वी प्रवृत्तियों को धारण करा।

    भावार्थ

    हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तुझ काम आदि पापभावनाओं के दबाने नष्ट करने वाले के ज्ञानमय तेजप्रवाह अमरयश को प्राप्त हुए मुक्त जीवन्मुक्त को सम्प्राप्त हों—होते हैं। अमृतभोग तथा मोक्षधाम में ऊँची यशस्वी प्रवृत्तियाँ भी धारण करा—करता है॥२॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमः (परमात्मा के प्रति अत्यन्त गतिशील उपासक)॥ देवता—पवमानः (आनन्दधारा में प्राप्त होता हुआ परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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    विषय

    निरभिमानिता [ अभिमान का अभाव ]

    पदार्थ

    मनुष्य जितना-जितना दिव्यता की ओर बढ़ता चलता है उतना उतना बुराइयों को छोड़ने से वह 'राहूगण' = त्यागियों में गिनने योग्य हो जाता है [रह् त्यागे] । अन्तिम अवगुण ‘अभिमान' है इसे भी छोड़कर यह अत्यन्त प्रशस्त इन्द्रियोंवाला 'गोतम' बन गया है।

    प्रभु इसे प्रेरणा देते हैं कि (अभिमातिषाह:) = अभिमान का भी पराभव करनेवाले (ते) = तेरे (पयांसि) = वृद्धि के कार्य (सम्) = मिलकर हों, अर्थात् तू केवल अपनी वृद्धि से ही सन्तुष्ट न हो, सभी की उन्नति में अपनी उन्नति समझ। (उ) = और (वाजा:) = धनादि की शक्तियाँ भी (संयन्तु) = मिलकर प्राप्त हों। शरीर का एक ही अङ्ग अधिकतावाला हो तो शरीर सुन्दर नहीं दीखता । (वृष्ण्यानि) = तुम्हारे शक्ति- सम्पादन के कार्य भी (सम्) = मिलकर हों। तुम्हारी 'वृद्धि, धन, शक्ति' ये सभी सम्मिलित हों। अहंकार इस कार्य में सबसे अधिक विघातक है, अतः तू अभिमाति को - अहंभाव को पराभूत कर डाल, कुचल डाल । तू अत्यन्त विनीत बन और हे (सोम) = अहंकार को नष्ट करनेवाले ‘गोतम’! तू (अमृताय) = मोक्ष के लिए इस जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठने के लिए (आप्यायमान:) = सब गुणों के दृष्टिकोण से उन्नति करता हुआ (दिवि) = प्रकाश व ज्ञान के क्षेत्र में (उत्तमानि श्रवांसि) = उत्तम यशों को (धिष्व) = धारण कर । तू ज्ञान के दृष्टिकोण से यशस्वी बन। ज्ञान को प्राप्त करके तू ज्ञानधन प्रभु को पाएगा। यह ज्ञानी 'अभिमातिषाट्' होता है। अहं को मार करके ही प्रभु की प्राप्ति सम्भव है। जब तक 'मैं' है तब तक प्रभु नहीं है, प्रभु प्राप्त होते हैं तो 'मैं' का विलय हो चुका होता है। 'मैं' को समाप्त करके यह राहूगण सबमें समा गया है तभी तो यह सबकी वृद्धि में अपनी भी वृद्धि समझता है और सबकी शक्ति में यह शक्ति अनुभव करता है - यह 'अयुत' =अपृथक् हो गया है। एकत्व देखनेवाला होकर यह प्रभु के चरणों में स्थित हो चुका है। खुदी को समाप्त कर खुदा को पा चुका है।

    भावार्थ

    'मैं' को समाप्त कर मैं सबके साथ मिलकर वृद्धि व शक्ति का सम्पादन करूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( सोम ) = परमात्मन् ! ( अभिमातिषाहः ) = अभिमान करने हारे पुरुषों को दण्ड देने वाले ( ते ) = तेरे ( पयांसि ) = पोषक ज्ञानरस, ( वाजा: ) = समस्त ऐश्वर्य और अन्न ( वृष्ण्यानि ) = समस्त बल ( सं यन्तु ) = प्राप्त हों और तू आप ( आप्यायमानः ) = खूब परिपूर्ण होता हुआ ( अमृताय ) = इस अमृत, जीव के लिये ( दिवि ) = मोक्षरूप स्वर्ग में ( उत्तमानि ) = उत्तम ( श्रवांसि ) = ज्ञानों, बलों और सुखों को ( धिष्व ) = धारण करा । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - गोतम:।

    देवता - पवमान:।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ द्वयोः पवमानः सोमो देवता। परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (सोम) पवित्रतासंपादक करुणारसागार परमात्मन् ! (अभिमातिषाहः) कामादिशत्रुपराजयकारिणः ते तव (पयांसि) प्रेमरसाः आनन्दरसाश्च (सं यन्तु) अस्मान् प्राप्नुवन्तु, (उ ) अपि च (वाजाः) बलानि (सम्) अस्मान् प्राप्नुवन्तु। (वृष्ण्यानि) पुरुषार्थयुक्तकर्माणि (सम्) अस्मान् प्राप्नुवन्तु। (आप्यायमानः) हृदि वर्द्धमानः त्वम्। ओप्यायी वृद्धौ। (अमृताय) अमरत्वप्रदानाय (दिवि) अस्माकम् आत्मनि (उत्तमानि) उत्कृष्टतमानि (श्रवांसि) यशांसि (धिष्व) निधेहि। अत्र ‘सुधितवसुधितनेमधितधिष्वधिषीय च। अ० ७।४।४५’ इति लोण्मध्यमैकवचने दधातेरित्वमिडागमो वा प्रत्ययस्य द्विर्वचनाभावश्च निपात्यते ॥२॥२ अत्र यथा सोमश्चन्द्रो वर्धमानः सन् गगने उत्तमां चन्द्रिकां प्रसारयतीति ध्वन्यते। तेन परमात्मा चन्द्र इवेत्युपमाध्वनिः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा यथा परमात्मध्यानमस्माकं वर्द्धते तथा तथास्मदन्तःकरणे परमात्मा वर्धमान इवास्मभ्यमानन्दमात्मबलं कर्मनिष्ठत्वमुत्तमानि यशांसि च प्रयच्छति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।९१।१८, य० १२।११३। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये श्लेषालङ्कारेण विद्वत्पक्षे सोमौषधिपक्षे च, यजुर्भाष्ये च मनुष्यपक्षे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Chastiser of the proud, may Thy invigorating knowledge, all kinds of food, and forces, nicely be achieved by us. Thou art Mightier than the mighty, endow the soul in final beatitude with knowledge, power and joy !

    Translator Comment

    Final beatitude means the state of salvation.

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    Meaning

    Soma, lord of light, health and energy of life, may all the waters, foods and vitalities of existence, antidotes to the negativities of existence come to you in abundance, and may all those abundant and powerful drinks, foods and energies of yours come to us and augment our vitality to fight out the negative and cancerous forces of life. Lord of life, thus strengthened by nature in the regions of light and blessing us for health and immortality, bear for us the best of foods and energies of life for growth and for victory in the battles of life. (Rg. 1-91-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (ते अभिमातिषाहः) તું પાપ ભાવનાઓ-કામ આદિને દબાવનાર-નષ્ટ કરનારના (पयांसि अमृताय सम्यन्तु) જ્ઞાનમય તેજ-તેજધારાઓ અમૃત-અમર થયેલા જીવન્મુક્તોને માટે સારી રીતે પ્રાપ્ત થાય. (वाजाः सम् उ) અમૃત અન્ન-અનશ્વરભોગ અવશ્ય સારી રીતે પ્રાપ્ત થાય (वृष्ण्यानि सम्) રેતઃ સામર્થ્ય પણ સંપ્રાપ્ત થાય તથા (दिवि) મોક્ષધામમાં (उत्तमानि श्रवांसि धिष्व) ઉત્કૃષ્ટ શ્રવઃ-પ્રશંસનીય યશ-યશસ્વી પ્રવૃત્તિઓને ધારણ કરાવ. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું કામ આદિ પાપ ભાવનાઓને દબાવનાર-નષ્ટ કરનારના જ્ઞાનમય તેજ પ્રવાહ અમર યશને પ્રાપ્ત થયેલ જીવન્મુક્તને સારી રીતે પ્રાપ્ત થા-થાય છે. અમૃતભોગ તથા મોક્ષધામમાં શ્રેષ્ઠ યશસ્વી પ્રવૃત્તિઓ પણ ધારણ કરાવ-કરાવે છે. (૨)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    مغرور انسانوں اور خیالات کو دبانیوالے

    Lafzi Maana

    ہے سوم جگت اُتپادک! آپ کا پوتر دان موکھش پھل ہمیں حاصل ہو، جسمانی، ذہنی، روحانی اور ویرج بل کی طاقتیں حاصل ہوں۔ آپ امرت جیو آتما (ازلی روح) کی ترقی کے لئے ہمارے مغرور بُرے خیالات اور مغرور انسانوں کو دباتے رہتے ہیں، از راہِ نوازش روزمرہ ہمیں نیک نامی کی شہرت بخشتے رہیئے!

    Tashree

    سبھی طاقتیں اور موکھش کی بخشش ہم کو دو ابھی رام، مغروری اہنکاری ورتیوں کو شکست دے کرتے ہو رام۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    येथे कलेकलेने वृद्धिंगत होणाऱ्या चंद्राचा आकाशात उत्तम चांदणे पसरविण्याचा अर्थध्वनित होत आहे, त्यामुळे परमात्मा चंद्राप्रमाणे आहे यामुळे उपमाध्वनी आढळून येतो. जसजसे परमेश्वरावर आमचे ध्यान वाढत जाते, तसतसे आमच्या अंत:करणात परमात्मा आम्हाला आत्मबल, कर्मनिष्ठता व उत्तम यश प्रदान करतो. ॥२॥

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    विषय

    पुढील दोन मंत्रांची देवता-पवमान सोम। परमेश्वराला प्रार्थना

    शब्दार्थ

    (सोम) (अभिमातिषाहः) (ते) (पयांसि) (संयन्तु) (उ) (वाजाः) (सम्) (वृष्ण्यानि) (सम्) आप्यायमानः) (अमृताय) (दिवि) (उत्तमानि) (श्रवांसि) (धिष्व) हे पावित्र्यकारी, करुणासागर परमेश्वर,/तुम्ही काम, क्रोध आदी शत्रूंचा पराभव करणारे/ आहात. तुमचे प्रेमरस व आनंदरस आम्हास मिळू द्या आणि आम्हास शक्ती प्राप्त होईल, असे करा. आम्हास पुरुषार्थयुक्त कर्मे प्राप्त होतील, अशी कृपा करा. आमच्या हृदयात वृद्धिंगत होत जाणारे आपण आम्हाला अमरत्व देण्यासाठी आमच्या आत्म्यात उत्कृष्टतम कीर्ती वा विचार स्थापित करा.।।२।।

    भावार्थ

    जसे जसे आमचे ध्यान परमेश्वराकडे वाढत जाते, तसे तसे जणू काय परमेश्वर आमच्या अंतःकरणात वाढत जातो आणि आम्हाला आत्मिक बळ, कर्मनिष्ठत्व आणि उत्तम कीर्ती देत जातो.।।२।।

    विशेष

    येथे शुक्ल पक्षात वाढत जाणाऱ्या चंद्राचा उज्वळ प्रकाश आकाशात प्रस्रत होण्याचा अर्थ ध्वनित होत आहे. यावरून परमेश्वर चंद्राप्रमाणे आहे, अशी उपमाध्वनी व्यक्त होत आहे.।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    சோமனே: சத்துருக்களை தண்டிக்கும் உன் ரசங்கள் சமஸ்த ஐசுவரியங்களையும் சகலமான வன்மைகளையும் அடையட்டும். அமிருதத்திற்கு வளர்ந்துகொண்டு சோதியுலகில் உத்தமமான சிரேயசுகளை தரிக்கவும்

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